कविता
☆ दखनी तडका ☆ सौ. जस्मिन रमजान शेख ☆
(भारत में 15 से 20 किलोमीटर में भाषा बदल जाती है। यहाँ तक कि हिन्दी में भी क्षेत्रीय भाषाओं का पुट मिलने लगता है। जैसे जैसे हम उत्तर से दक्षिण कि ओर चलते हैं हिन्दी का स्वरूप भी बदलने लगता है। जब हम उत्तर से मध्य भारत की बढ़ते हैं तो हम क्षेत्रीय भाषाओं जैसे अवधी, बृज, बुंदेलखंडी आदि से रूबरू होते हैं। इसी प्रकार दखनी हिन्दी का भी अपना अस्तित्व आंध्र और दक्षिण महाराष्ट्र में है। स्थानीय हिन्दी साहित्य का अस्तित्व भी जीवित रहना चाहिए। आज प्रस्तुत है सौ. जस्मिन रमजान शेख जी की एक दखनी कविता दखनी तड़का। – संपादक )
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नानीअम्मा सोकोच हैं
कित्ते दिनांशी
क्याबी खाती नै
घरमें क्या नै बी खाने को
मेरी अम्मा चार घरांमेंशी
मंगको लाती चार निवाले
चार गाल्यांकेसात
हमे खाली पेटांशी देकते बैटतैं
मा बेटी का भुका प्यार
एक दिन नानीअम्मा गई
अल्ला के घरकू
फिर चारघरके लोकांने
लेको आए ढीगभर खाना
मरेसो नानी के वास्ते
हमेच खाय नानीके नामपर
नानीमरी पर हमारा पेट भरी
कलशी भाई बिमार पडे
और हमना भुका लगैं
छोटा मुन्ना पुचतै अम्मा को,
अम्मा,भैया कब मरींगा गे?
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साभार – सौ. उज्ज्वला केळकर, सम्पादिका ई-अभिव्यक्ती (मराठी)
© सौ. जस्मिन रमजान शेख
मिरज जि. सांगली
9881584475
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈