श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “थप्पड़ और पत्थर…“।)
अभी अभी # 403 ⇒ थप्पड़ और पत्थर… श्री प्रदीप शर्मा
थप्पड़ और पत्थर दोनों शब्दों में बहुत समानता है। पत्थर न केवल आकार में ठोस होता है, इस शब्द का उच्चारण भी कोमल नहीं होता। इस शब्द की तो चोट ही बहुत भारी पड़ती है। पत्थर के सनम, तुझे हमने मोहब्बत का खुदा समझा। इतना ही नहीं, किसी पत्थर की मूरत से मोहब्बत का इरादा है। इन दोनों गीतों में लगता है, शायर शायद पत्थर शब्द फेंककर मार रहा है। जरूर किसी पत्थर दिल से वास्ता पड़ा होगा।
अक्षरों का समूह ही तो शब्द है। कुछ शब्द कोमल होते हैं, तो कुछ कठोर। सरिता और कविता तो बहती ही है, जब कि थप्पड़ तो जड़ा जाता है, और पत्थर फेंका जाता है। थप्पड़ से थोबड़ा सूज जाता है और पत्थर कभी किसी का लिहाज नहीं करता।
पत्थर से सेतु भी बनाए जाते हैं, बुलंद इमारतें भी खड़ी की जाती हैं, और पत्थर को पूजा भी जाता है। अगर इरादे बुलंद हों तो एक पत्थर तबीयत से उछलकर आसमान में सूराख भी किया जा सकता है, लेकिन जिनकी अक्ल में ही पत्थर पड़े हों, वे ही हाथों में पत्थर उठाते हैं। फिर कोई कितनी भी अनुनय विनय करे, गिड़गिड़ाए, कोई पत्थर से ना मारे, मेरे दीवाने को।।
जब पत्थर, एक फेंककर चलाए जाने वाले हथियार की शक्ल ले लेता है, तो यह एक अस्त्र हो जाता है। जब कि तलवार, गदा, भाला, शस्त्र की श्रेणी में आते हैं। बेलन अस्त्र भी है और शस्त्र भी। इससे प्रहार भी किया जा सकता है, और इसे फेंककर भी मारा जा सकता है। जो काम एक कलम कर सकती हैं, उसके लिये तलवार चलाना कहां की समझदारी है।
“थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, प्यार से लगता है। “
धन्य है, आज की दबंग पीढ़ी। हमारी पीढ़ी को तो हमेशा डर लगा रहता था, कब किस बात पर पिताजी का थप्पड़ पड़ जाए। हमें याद नहीं, कभी मां ने हमें थप्पड़ मारा हो। हां गुस्सा जरूर होती थी, लेकिन मारूं एक थप्पड़ कहने के साथ ही मुस्कुरा भी देती थी।।
थप्पड़ तो इंसान का बांए हाथ का खेल है। एक पड़ेगी उल्टे हाथ की ! ईंट का जवाब तो पत्थर से दिया जा सकता है, थप्पड़ का जवाब इस पर निर्भर करता है, कि थप्पड़ मारा किसने है। बड़ों का थप्पड़ अकारण ही नहीं होता। अगर हमारी गलती पर तब हमें थप्पड़ नहीं पड़ा होता, तो शायद आज हम गलत रास्ते पर ही होते।।
जिस दबंग कन्या को कभी थप्पड़ से डर नहीं लगा, उसके माता पिता अगर समय रहते ही उसे एक थप्पड़ रसीद कर देते, तो आज वह इस तरह सभ्यता, समाज और संस्कृति का मजाक नहीं उड़ाती।
जिस पीढ़ी को समय पर थप्पड़ नहीं पड़ा, वही आगे चलकर हाथों में पत्थर उठा लेती है। थप्पड़ एक सीख है, सबक है, बच्चों को सुधारने की मनोवैज्ञानिक क्रिया है। जिस तरह समझदार को इशारा काफी होता है, बच्चों को थप्पड़ मारना जरूरी नहीं, केवल थप्पड़ का डर ही काफी है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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