प्रो. नव संगीत सिंह
☆ पुस्तक समीक्षा ☆ लहू के गुलाब – श्री अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ☆ समीक्षक – प्रो. नव संगीत सिंह ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक – लहू के गुलाब (हिन्दी गजल संग्रह)
लेखक – अमृतपाल सिंह ‘शैदा’
प्रकाशक – शब्दांजलि पब्लिकेशन, पटियाला,
पृष्ठ – 96
मूल्य – 200/-
☆ “लहू के गुलाब” ~ सामाजिक विसंगतियों की परिचायक: प्रो. नव संगीत सिंह ☆
अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ग़ज़ल को समर्पित त्रिभाषी कवि हैं। उन्होंने अब तक पंजाबी में 4 संपादित और 2 मौलिक पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें ‘गरम हवावां’ (कहानियां, 1985), ‘जुगनू अतीत दे’ (कविताएं, चरणजीत सिंह चड्ढा, 2003), ‘सांझ अमुल्ली बोली दी’ (ग़ज़लें, 2021), ‘सथ्थ जुगनुआं दी’ (कहानियाँ, 2021) (सभी संपादित); ‘फसल धुप्पां दी’ (गज़ल, 2019), ‘टूणेहारी रुत्त दा जादू’ (ग़ज़लें, 2022) (दोनों मौलिक) शामिल हैं। वह सहजता और ठहराव के कवि हैं। पिछले 40 वर्षों से उन्होंने स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कवि दरबारों/मुशायरों सहित त्रिभाषी कवि दरबारों की शोभा बढ़ाई है। उन्होंने दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो कार्यक्रमों में भी भाग लिया है। वे 1979 से ‘त्रिवेणी साहित्य परिषद’ पटियाला से जुड़े हुए हैं और 1985 से वे भाषा विभाग, पंजाब की साहित्यिक गतिविधियों से संबंधित हैं। ग़ज़ल की बारीकियां उन्हें अपने दिवंगत पिता श्री गुरबख्श सिंह शैदा की संगति से मिली।
समीक्षाधीन पुस्तक (‘लहू के गुलाब’, शब्दांजलि पब्लिकेशन, पटियाला, पृष्ठ 96, मूल्य 200/-) अमृतपाल सिंह शैदा की हिंदी ग़ज़लों की पहली मौलिक पुस्तक है, जिसमें 72 ग़ज़लें शामिल हैं। इस पुस्तक की प्रस्तावना एवं तब्सिरा में क्रमशः डाॅ. सुरेश नाइक (राजपुरा, पंजाब) और प्रो. सग़ीर तबस्सुम (पाकिस्तान) ने पुस्तक की विस्तृत और बारीकी से समीक्षा की है। शिरोमणि हिन्दी साहित्यकार डाॅ. मनमोहन सहगल ने भी पुस्तक पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखी है।
दरअसल, वर्तमान समय में ग़ज़ल भी साहित्य की अन्य विधाओं की तरह आडंबर/फंतासी/शाही दरबारों के चक्र से मुक्त होकर सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मान्यताओं को चुनौती देती दिखाई देती है। पुस्तक का शीर्षक “लहू के गुलाब” संघर्ष और प्रगति को दर्शाता है, अर्थात् गुलाब अब केवल सुगंधि या खुशबू का केन्द्र बिन्दु नहीं रहा, बल्कि उसके लाल रंग से कवि को रक्त/क्रान्ति का झंडा लहराता नजर आता है। और जब कवि को कोमल/नाज़ुक चीजों से भी रक्त का संचार दिखाई दे, तो समझ लेना चाहिए कि ‘ताज़ो-तख्त’ गिरने वाले हैं।
शायर ने सभी ग़ज़लों में शेयरों की संख्या सात तक सीमित कर दी है और लगभग हर ग़ज़ल के अंत में अपना उपनाम ‘शैदा’ इस्तेमाल किया है। उन्होंने अधिकतर ग़ज़लों में दो-दो शब्दों के दोहराव से वक्रोक्ति पैदा करने की कोशिश की है। किताब की दूसरी ग़ज़ल में ही यह जादू प्रमुखता से उभरता नज़र आता है:
गुलशन-गुलशन सहरा-सहरा, जंगल-जंगल आग लगी है
आँगन-आँगन मरघट-मरघट, आंचल-आंचल आग लगी है
मौसम-मौसम मातम-मातम, पल-पल-पल-पल आग लगी है
धरती-धरती झुलसी-झुलसी, बादल-बादल आग लगी है
(पृष्ठ 20)
हर समाज में हर तरह के लोग होते हैं – अच्छे भी और बुरे भी। कुछ मददगार साबित होते हैं, कुछ लूटपाट/हत्या करने में लगे रहते हैं। कवि इस लम्बे चौड़े आख्यान को एक ही शेयर में कैसे समेटता है:
बस्ती पर जब संकट आया, कुछ लोगों ने लंगर खोले
कुछ लोगों ने लूट मचाई, कुछ ने जुगनू बांटे थे
(पृष्ठ 22)
शीर्षक ग़ज़ल में कई मुद्दों/विषयों को छुआ गया है और काफिया-रदीफ़ में ‘लहू के गुलाब’ का दोहराव है। पूरी दुनिया को जीतने की चाहत रखने वाला सिकंदर आखिरकार खाली हाथ चला गया। कवि ने इस तथ्य को जीवन की सच्चाई से कितनी गहराई से जोड़ा है:
जो चाहता था दुनिया को अपनी मुट्ठी में करना,
थे हाथ उसके ख़ाली जनाज़े से बाहर
खिलाता रहा उम्र भर ही अना के,
वो अहमक़ सिकंदर लहू के गुलाब।
(पृष्ठ 24)
क़लम की ताकत को ‘शैदा’ जैसा बुद्धिमान ग़ज़लगो ही समझ सकता है, अन्यथा आम लोग तो लेखक को मूर्ख ही समझते हैं:
तुम नहीं ताक़त क़लम की जानते, सोचो ज़रा
इन्किलाबों का है ये इक कारगर हथियार क्यों
जिस के फ़न को सोने-चांदी से खरीदा जा सके
उसको हम, ‘शैदा’ कहेंगे साहिबे-किरदार क्यों
(पृष्ठ 26)
आज के मनुष्य के तनावपूर्ण और जटिल जीवन को देखकर ऐसा लगता है कि वह एक ही समय में कई हिस्सों में बंटा हुआ है। वह करता कुछ और है, सोचता कुछ और; देखता कुछ और है, लिखता कुछ और.. और ऐसी परेशानी में उससे कोई काम अच्छे से नहीं हो पाता। मेरा मानना है कि इसका प्रमुख कारण प्रौद्योगिकी है, जिसने मनुष्य के विखंडन में प्रमुख भूमिका निभाई है:
दिल कहीं, रुह कहीं, जिस्म कहीं पर होगा
तुम हवाओं में उड़ोगे तो बिखर जाओगे
अक़्लमंदों की जो सोहबत में रहोगे ‘शैदा’
अपने क़द से भी कहीं ऊंचा उभर जाओगे
(पृष्ठ 32)
जिंदगी सिर्फ जाम-ओ-सुराही, लबो-रुख़सार के पेचो-ख़म की उलझनों में ही नहीं उलझी है, बल्कि उसे भूख, अस्तित्व और निजता जैसी कठिनाइयों और चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है। मनुष्य की जवांमर्दी इसी में है कि वह ज़ुल्मो-सितम से लड़ने के लिए किसी और के सहारे को न ढूंढे, किसी से मदद मांगने के लिए हाथ न फ़ैलाए, बल्कि अपनी पूरी ताकत से, जितनी तेजी से संभव हो, कूद पड़े। रात चाहे कितनी भी भयानक और अंधेरी क्यों न हो, आने वाला कल अवश्य खुशनुमा होगा। कवि आशावादी सोच और भविष्य के सुनहरे सपनों को प्रमुखता से रेखांकित करते हुए लिखता है:
जुगनू की दिलेरी से, लीजेगा सबक़ कोई
लड़ता है अकेला ही, ज़ुलमात के लश्कर से
नस्लें ही चलो अपनी, पुरनूर सहर देखें
आओ कि लड़ें जमकर, हम रात के लश्कर से
(पृष्ठ 33)
शैदा’ एक ऐसा संवेदनशील शायर हैं जो लोगों के दुखों, आंसुओं और परेशानियों से हमेशा विचलित रहता है। कवि ने इस पुस्तक को “संसार की सुख शांति, समृद्धि व सलामती को समर्पित” किया है। सांसारिक समस्याओं से डरना और भागना भी कायरता की निशानी है। सच्चा योद्धा वही होता है जो सिर पर कफ़न बांधकर युद्ध के मैदान में जूझता है:
मेरे शे’रों में लोगों के दुःख हैं, आँसू हैं, खुशियाँ हैं
हर पल चिंतन और मनन ने हक़ सच का परचम लहराया
जीना बेशक रास न आया, सारा जीवन, ‘शैदा’ मुझ को
पर संघर्ष की राह अपनाई, मर जाना न मन को भाया
(पृष्ठ 34)
गहरी नींद से जागो, उट्ठो, और संघर्ष में जूझो
वक्त की नाद सुनो बंधु, तुम को ललकार पड़ी है
(पृष्ठ 53)
पृष्ठ 48 पर कवि ने ‘ऐ दोस्त’ अलग-अलग वर्तनी में लिखे हैं, लेकिन हिंदी में ‘ऐ दोस्त’ ही सही है। शायर ने क़िताब की ग़ज़लों को हिंदी ग़ज़लों का नाम दिया है लेकिन इनमें प्रस्तुत शब्द/वाक्यांश अधिकतर फ़ारसी/अरबी हैं। कवि ने इन्हें अरबी-फ़ारसी के अनुसार लिखा है। इस पुस्तक की ख़ूबी यह है कि अंत में कठिन शब्दों के अर्थ दिये गये हैं। लेकिन सभी कठिन शब्द यहां नहीं आ सके। शब्दार्थ-विधि भी सही नहीं है। उन्हें क्रमांकित या पृष्ठांकित किया जाना चाहिए था या फ़ुटनोट में लिखा जाना चाहिए था। जोश, प्रेरणा और संघर्ष की बातें कहतीं ‘शैदा’ की यह ग़ज़लें तहक़ीक़-ओ-तवारीख़ में भूचाल लाने की क्षमता रखती हैं, ऐसा मेरा मानना है!
© प्रो. नव संगीत सिंह
# अकाल यूनिवर्सिटी, तलवंडी साबो-१५१३०२ (बठिंडा, पंजाब) ९४१७६९२०१५.