श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्टैण्डर्ड ट्रांज़िस्टर…“।)
अभी अभी # 407 ⇒ स्टैण्डर्ड ट्रांज़िस्टर… श्री प्रदीप शर्मा
मुझे बचपन से संगीत सुनने का शौक रहा है, क्लासिकल नहीं, सेमी क्लासिकल फिल्मी, जिसमें गैर फिल्मी गीत, गज़ल, और भजन सभी शामिल हैं। जो संगीत से करे प्यार, वो रेडियो से कैसे करे इंकार। वह लैंडलाइन
टेलीफोन और मोबाइल का जमाना भले ही ना रहा हो, लेकिन बिजली के रेडियो और ट्रांजिस्टर तक एक आम आदमी की पहुंच जरूर हो चुकी थी।
घर में रेडियो कभी हमारी संपन्नता की निशानी कहलाता था। ट्रांजिस्टर को आप आज की भाषा में मोबाइल रेडियो कह सकते हैं, जो कहीं आसानी से ले जाया जा सके और जिसे आप बैटरी सेल अथवा बिजली से भी चला सकें।।
नौकरी में जब मेरा ट्रांसफर हुआ तब मैं सिंगल यानी कुंआरा ही था और तब यार दोस्तों की तरह रेडियो भी मेरा चौबीस घंटे का साथी था। जापान मेड, चार बैंड वाला, एक पुराना स्टैण्डर्ड ट्रांजिस्टर मेरा अकेलेपन का साथी सिद्ध हुआ, जिसमें दो दो स्पीकर थे और जो पॉवर से भी चलता था।
वह रेडियो सीलोन का जमाना था और रेडियो में शॉर्ट वेव होना बहुत जरूरी था, तब के रेडियो और ट्रांजिस्टर सेट्स में FM नहीं था। मीडियम वेव पर आकाशवाणी इंदौर और विविध भारती आसानी से सुना जा सकता था। अधिक दूरी के कारण आकाशवाणी इंदौर भले ही नहीं सुन पाएं, विविध भारती आसानी से सुना जा सकता था।।
डुअल स्पीकर याने दो दो स्पीकर होने के कारण मेरा स्टैण्डर्ड ट्रांजिस्टर आवाज में किसी भी बड़े रेडिओ सेट से कम नहीं था। जिस रेडियो पर रेडिओ सीलोन साफ सुनाई दे जाए, उसकी तब बड़ी इज्जत होती थी, क्योंकि सभी रेडिओ सेट्स में शॉर्ट वेव की फ्रीक्वेंसी इतनी साफ नहीं होती थी। एक साथ दो तीन स्टेशन गुड़मुड़ करते रहते थे। बुधवार की 8 बजे रात तो मानो रेडियो के लिए जश्न की रात हो। बिनाका गीत माला और अमीन भाई का दिन होता था वह।
मेरा ट्रांजिस्टर पुराना था, और उसके अस्थि पंजर ढीले हो चुके थे, डॉक्टर की सलाह पर मुझे उसे दुखी मन से अलविदा कहना पड़ा, और कालांतर में मैने एक बुश बैटन ट्रांजिस्टर खरीद लिया, जो आराम से एक कबूतर की तरह हाथों में समा जाता था। तब 300 रुपए बहुत बड़ी बात थी। लेकिन इस काले बुश बैटन को कभी किसी की नजर नहीं लगती थी।।
तब कहां हमारे घरों में फिलिप्स का साउंड सिस्टम था। आवाज में स्टीरियोफोनिक इफेक्ट लाने के लिए घरेलू प्रयोग किया करते थे। हम अक्सर हमारे नन्हें से बुश बैटन को पानी की मटकी पर बैठा दिया करते थे। आवाज मटके के अंदर जाकर गूंजती और सलामे इश्क मेरी जान कुबूल कर लो, और वादा तेरा वादा जैसे गीत में हमें एक विशेष ही आनंद आता।
ऐसा प्रतीत होता गाना अलग चल रहा है और तबला अलग बज रहा है।
एक दिन एक फड़कते गीत को मटका बर्दाश्त नहीं कर पाया और हमारा बुश बैटन खिसककर पानी में ऐसा डूबा, कि हमेशा के लिए उसकी बोलती ही बंद हो गई, स्पीकर में पानी भर गया। कई उपचार किए, लेकिन पानी शायद ट्रांजिस्टर के सर से ऊपर निकल चुका था। मानो उसने जल समाधि ले ली हो।।
उसके बाद टू इन वन का जमाना आया, यानी रेडियो कम टेपरिकॉर्डर, जिसने रेकॉर्ड प्लेयर और रेडियोग्राम को बाहर का रास्ता दिखा दिया। आज भले ही पूरा संगीत जगत आपके मुट्ठी भर मोबाइल में कैद हो, लेकिन उस आनंद की तुलना आज भरे पेट आनंद से नहीं की जा सकती।
संगीत का शौक आज भी जारी है और एक फिलिप्स पॉवर वाला टेबल ट्रांजिटर आज हमारा साथ शिद्दत से निभा रहा है, लेकिन रह रहकर दो दो स्पीकर वाले स्टैण्डर्ड ट्रांजिस्टर और नन्हें से, काले बुश बैटन की सेवाओं को भुलाना इतना आसान भी नहीं।
क्या मांगते थे बेचारे, थोड़ा सा बिजली का करेंट, यानी पॉवर अथवा दो अदद बैटरी सेल, और बदले में हमारे जीवन को संगीतमय बना देते थे। और उनके साथ ही भूली बिसरी यादें रेडिओ सीलोन और अमीन भाई की। आमीन.. !!
© श्री प्रदीप शर्मा
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