☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 292 ☆
कविता – “सेवा निवृत्ति पर“
तीस-पैंतीस साल पहले, एक नौजवान,
मिठाई बांट रहा था नौकरी में चयन पर,
मां खुश थी, बहनें हर्षित,
पिता की चिंता थी खत्म हुई।
आज वही युवक बन चुका है एक परिपक्व पुरुष,
कुछ खिचड़ी बाल अब वह रखता है,
साथ ब्लड प्रेशर और शुगर की दवाएं,
नौकरी की गाथा पूरी हुई,
पत्नी प्रसन्न हुई,
अब आपका समय सिर्फ मेरा होगा।
खूब मेहनत की है आपने,
अब समय है आराम और सुकून का,
घूमना है दुनियां,
अब यादें हैं अनगिनत,
अनुभव हैं अमूल्य,
डायरियां भर भर,
सीखा और जिया है जीवन,
नित नई चुनौतियों की फाइलों के बीच।
अब समय है खुद के लिए समय निकालने का,
अपने सपनों को पूरा करने का,
नई उम्मीदों के साथ,
जीवन के नए मुकाम की ओर बढ़ने का,
जीवन के नए अध्याय रचने हैं,
कुछ खुद के लिए,
कुछ परिवार के लिए,
और कुछ समाज के लिए।
जुड़ना है अब दोबारा गांव की मिट्टी से,
करने हैं पूरे अपने शौक,
बेरोकटोक जीना है अपने आप के लिए।
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार
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