श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सारा आकाश…“।)
अभी अभी # 427 ⇒ सारा आकाश… श्री प्रदीप शर्मा
मुझे रात में तारे गिनने का शौक नहीं, लेकिन रात में आकाश को निहारने का शौक ज़रूर है। दिन का आकाश तो सब का है, क्योंकि हर तरफ़ सूरज का प्रकाश ही प्रकाश होता है, सूरज की पहली किरण से ही प्रकृति सूर्य नमस्कार करती प्रतीत होती है। कली कली खिलती है, फूल मुस्कुराते हैं, पक्षी चहचहाते हैं, अखबार और दूध घर घर हाजरी बजाते हैं, रसोई में उबलती चाय की खुशबू नींद की खुमारी को और बढ़ा देती है।
दिन सबका है, सुबह सबकी है। लेकिन मेरे लिए अभी रात बाकी है। रात का आकाश सिर्फ मेरा है, पूरा का पूरा, सारा का सारा ! मैं जिस कमरे में सोता हूं, वहां एक बड़ी सारी खिड़की है, जहां मच्छरों की जाली भी लगी है और काँच भी। लेकिन फिर भी खिड़की के आर पार का खुला आसमान पूरी रात मेरी आँखों के सामने रहता है। मैं जब चाहे, रात में आसमान से बातें कर सकता हूं।।
जब आसमान खुला होता है, मैं आसमान से खुलकर बात करता हूं। इस धरती की, यहाँ के लोगों की, अपने परायों की, उनके सुख दुख की। वह मेरी सभी बातें बड़े ध्यान से सुनता है। बहुत धैर्य है आसमान में। वह कभी टूटता नहीं, बिखरता नहीं, फटता नहीं। मुझमें इतना धीरज कहाँ। कभी अपनी परेशानियों से, तो कभी किसी और की तकलीफ़ से, फूट पड़ता हूं, फफक कर रो उठता हूं। आसमान पत्थर दिल नहीं, कभी कभी वह भी रोता है मेरे साथ। मेरी दास्तां उसे भी विचलित कर देती है, वह गरजता भी है, और बरसता भी है।
मैं नहीं जानता, इस आकाश में ऐसा क्या है, जो मुझे आकर्षित करता है। मैं जानता हूं, मैं आकाश को छू नहीं सकता। वहाँ तक कभी जा नहीं सकता। लेकिन बच्चों की कहानियों में सुना है, वहां परियां रहती हैं, फरिश्ते रहते हैं। आजकल के बच्चे इतने भोले नहीं। उन्हें परियों के नहीं, एलियंस के सपने आते हैं।।
इंसान जब भी परेशान होता है, उसके हाथ, आसमान की ओर उठ जाते हैं। वह किसी ऊपर वाले की बात करता है। जिस तरह राजा एक ऊंचे सिंहासन पर विराजमान होता है, शायद भगवान भी हमारी पहुंच से दूर, सातवें आसमान में, अपना दरबार सजाये बैठा रहता हो, कान से ऊँचा सुनता हो, या इतनी ऊंचाई तक, उस एक किसी की पुकार ही नहीं पहुंचती हो, और ज़नाब साहिर शिकायत कर उठते हैं ;
आसमां पे है खुदा
और ज़मीं पे हम
आजकल वो इस तरफ
देखता है कम।।
मेरी कभी उस ऊपर वाले से बात नहीं हुई। लेकिन एक बात की मुझे तसल्ली है, मेरी पहुंच आसमान तक है। आखिर यह आसमान भी हमारे ब्रह्मांड का हिस्सा ही तो है। चाँद, सूरज, ग्रह नक्षत्र, उल्का पिंड। हम भी आसमान से ही टूटकर बने हैं और जब भी हम टूटते हैं, हम आसमान की ओर ही उम्मीद भरी नजर से देखते हैं, क्योंकि ये दुनिया, ये महफिल, मेरे काम की नहीं। मेरे पास शब्द नहीं, लेकिन मेरा आकाश बहुत बड़ा है, इसी आकाश में ईश्वर तत्व और आकाश तत्व समाया हुआ है।
यही आकाश मेरे अंदर भी है। हर घट में ब्रह्म व्याप्त है। ॐ भुः, भवः, स्वः, तपः, मनः, जनः और सत्यं ! मतलब ये सातों लोक भी हमारे अंदर ही हैं। तभी कई बार हमारा पारा भी सातवें आसमान पर रहता है। यह शरीर तो मिट्टी से बना है, मिट्टी में मिल जाना है,
और हमें अगले सफर के लिए निकल जाना है। किसी ने सही कहा है ;
अगर ये ज़मीं नहीं वो मेरा वो आसमां तो है।
ये क्या है कम, कि कोई, मेरा मेहरबां तो है।।
जब तक आसमां मेरे सर पर है, मुझ पर बिजली नहीं गिरेगी। उस ऊपर वाले का हाथ जो मुझ पर है। मुझे कोई गम नहीं, क्योंकि सारा आकाश मेरा है …!!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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