श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बा बू…“।)
अभी अभी # 440 ⇒ बा बू… श्री प्रदीप शर्मा
हमारे बचपन के दोस्तों को अगर हम आज याद करें, तो उनके घरेलू नाम अनायास याद आ जाते हैं, आदमी कितना भी बड़ा हो जाए, उसकी बचपन की
पहचान कभी खत्म नहीं होती। आज जिन्हें लोग सम्मान से बाबूजी कहते हैं, वह बचपन में सिर्फ बाबू था। बचपन का गुड्डू आजकल गुड्डू भैया कहलाता है और कल का सरजू आज सरजू भैया हो गया है।
कहीं कहीं तो बचपन के लाड़ प्यार वाले नाम समय के साथ गुम हो जाते हैं, अब डॉक्टर गुप्ता को फूलचंद कहने वाला कोई नहीं बचा। मां बाप द्वारा बचपन में प्यार से दिया गया नाम, कुछ लोग बुढ़ापे तक अपने दिल में सहेजकर रखते हैं तो कहीं कुछ ऐसे भी बदनसीब होते हैं, जिन्हें बचपन का संबोधन अब नहीं सुहाता।
हाई सोसायटी में ऐसे बचकाने नाम शोभा नहीं देते। कॉल मी नाऊ ओनली प्रो. रस्तोगी। यह क्या रमेश रमेश लगा रखा है।।
उसे घर में बाबू कहते थे, बहुत कम लोग जानते थे। कॉलेज की नई नई दोस्ती थी। कुल इने गिने चार पांच तो सरदार दोस्त थे हमारे बचपन के। एक को हम मिनी कहते थे और एक था सलूजा। किसी को हम खनूजा कहते थे तो किसी को मनजीत। हमें बड़ा आश्चर्य होता था, इतनी कम उम्र में इन सबकी दाढ़ी मूंछ देखकर। हमने भी कभी बढ़ाई थी, लेकिन इतनी भद्दी लगी कि रातों रात साफ कर दी। आज यह हाल है, जिसकी दाढ़ी नहीं, वह मर्द नहीं।
भरे हुए बदन और घनी दाढ़ी मूंछ और साफे में एक लंबा चौड़ा सरदार कहीं से कहीं तक हमारा दोस्त नहीं लगता था, लेकिन हमारी बाबू से बहुत घुटती थी। मोहब्बत किसे कहते हैं, हम भले ही कभी ना जान सके हों, लेकिन एक नज़र में बाबू से हमें कब दोस्ती हो गई, कुछ पता नहीं चला।।
वह बड़ा मिलनसार और अच्छे पैसे वाले घर का था। उसके पिताजी का लकड़ी का व्यवसाय था।
कॉलेज की सभी गतिविधियों में वह सक्रिय भाग लेता था और एक सफल कॉलेज नेता के सभी गुण उसमें विद्यमान थे। दिन भर कॉलेज और शाम को एम.जी.रोड पर एवरफ्रेश के पास हम दोस्तों की शाम की सभा प्रारंभ होती थी। कॉलेज की राजनीति और क्लास की लड़कियों के किस्से कभी खत्म ही होने का नाम नहीं लेते थे।
अन्तरंगता शब्द आत्मीयता का करीबी लगता है। बाबू बहुत अच्छा गाता था। कॉलेज के सोशल गैदरिंग में इसी कारण उसके जलवे थे। फुर्सत के समय में, फिल्म आया सावन झूम के, का रफी का गीत, मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे, इतना तल्लीन होकर गाता था, कि समां बंध जाता था। तब हमने जगजीत सिंह का नाम नहीं सुना था। फिर भी हमारा बाबू किसी जगजीत से कम नहीं था।।
कॉलेज की एक लड़की से उसे एकांगी प्यार हो गया।
उससे मिलने के लिए उसने कॉलेज की ही एक अन्य लड़की को दीदी तक बनाया, लेकिन फिर भी बात नहीं बनी। प्यार में पागल कैसे हुआ जाता है, बाबू को देखकर पता चला। फिल्में देखना और फिल्मी गाने गुनगुनाना हमारा आम शौक था। कॉलेज पढ़ने कौन जाता था, और कौन पढ़ाना चाहता था। वह दौर कॉलेज में जी. टी. (जनरल तड़ी) हड़ताल और कर्फ्यू का था। ले देकर तीन चार कॉलेज तो थे शहर में। मेडिकल कॉलेज, आज का जीएसआयटीएस, क्रिश्चियन कॉलेज और गुजराती कॉलेज के छात्रों में लड़कियों की छेड़छाड़ को लेकर अक्सर मुठभेड़ हुआ करती थी। तब, हम किसी से कम नहीं, जैसी फिल्मों का, कहीं से कहीं तक कोई पता नहीं था।
हो सकता है, हम जैसों से ही प्रेरणा पाकर ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ हो।
बाबू के बड़े भाई बड़े अंतर्यामी थे। बाबू ने कल रात को कौन से फिल्म देखी, वह आसानी से जान जाते थे। हमारे बाबू की एक गंदी आदत थी, जो फिल्म रात को देखी, उसी का गाना सुबह सुबह गुनगुनाने लगते। चोरी के बाद अब कैसे करें सीना जोरी। हा पहा चोर सापड़ला ! आखिर चोर पकड़ा गया।।
हमारी दोस्ती खाने पीने से ही बढ़ती थी। बाबू का बढ़ता शरीर था, जो खाता, नजर आ जाता था। इधर आज एक कचोरी समोसा खाया, उधर दूसरे ही दिन मुंह पर दो मुंहासे नज़र आ गए। जितनी कचोरी समोसे, उतने मुंहासे ! आप आसानी से गिन सकते थे, बाबू ने कल कितनी कचोरी खाई थी।
बाबू का कॉलेज का हमारा सिर्फ एक साल का साथ रहा, फिर हम कहां तुम कहां ! वह कहीं नहीं गया, लेकिन जिन्दगी का ढर्रा ही बदल गया। किबे कंपाउंड पर बाबू ने ऑटो पार्ट्स की दुकान डाल ली। शादी और घर गृहस्थी के बाद किसे यार दोस्त नजर आते हैं। मिलना हो तो दुकान पर आ जा। दोस्त दोस्त होता है, लेकिन ग्राहक भगवान होता है।
एक रविवार मिलता था, वह भी उस त्यागी पुरुष ने मैकेनिक समुदाय को समर्पित कर दिया। बाबू एक पक्का व्यवसायी बन गया।।
एक दिन फुर्सत निकालकर, छुट्टी के दिन, अपॉइंटमेंट लेकर, बाबू के घर पहुंच ही गया कलयुग का यह सुदामा।
घंटी बजाने पर किसी बालिका ने द्वार खोला, किससे मिलना है आपको ? बेटा आपके पापाजी से ! उसने मुझे देखा और भांप लिया, अच्छा आपको बड़े पापाजी से मिलना है। आपके बारे में बता रहे थे। आप बैठिए, अभी आते हैं।
और कुछ ही देर में बड़े पापाजी तशरीफ़ ले आए।
बड़ा परिपक्व और गंभीर हो गया था बाबू। ऑटो पार्ट्स की दुकान बच्चों ने संभाल ली थी। घर नाती पोतों से हरा भरा लग रहा था। आजकल ज्यादा समय गुरुद्वारे में ही दे रहा हूं, बाबू बता रहा था।
दोस्ती के दर से गुरु का द्वार इस उम्र में एक अच्छा विकल्प है, मैं सोच रहा था। हरि का द्वार ही हरद्वार है। वही गुरुद्वारा है और वही तो है हरमंदर। चाय की आखरी चुस्की के साथ ही बाबू के गुरुद्वारे जाने का वक्त हो गया था। दोस्त से विदा तो लेनी ही थी। बचपन तो खैर लौटकर नहीं आता, कुछ दोस्त भी वक्त की तरह हाथ से छूटते चले जाते हैं। दोस्ती भी बहते पानी की तरह ही तो है। बहता पानी निर्मला।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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