डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख रिश्ते बनाम उसूल… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 244 ☆

☆ रिश्ते बनाम उसूल… ☆

बात जब रिश्तों की हो, तो सिर झुका के जीओ और जब बात उसूलों की हो, तो सिर उठा कर जियो, क्योंकि अभिमान की बात फरिश्तों को भी शैतान बना देती है और नम्रता भी कम शक्तिशाली नहीं है; वह साधारण इंसान को फरिश्ता बना देती है। इससे सिद्ध होता है कि अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो मानव हृदय में वैमनस्य व ईर्ष्या-द्वेष के भाव जाग्रत करता है तथा स्व-पर को पोषित करता है। दूसरी ओर वह फ़ासलों को इस क़दर बढ़ा देता है कि उनके पाटने का कोई अवसर शेष नहीं रहता। इसीलिए कहा जाता है कि मतभेद भले ही रखो; मनभेद नहीं, क्योंकि विचारधारा की भिन्नता तो समाप्त हो सकती है, परंतु मन में पनपी वैमनस्य की दीवारें सामीप्य भाव को लील जाती हैं। इसलिए कहा जाता है कि ‘दुश्मनी उतनी करो कि दोस्ती व सामीप्यता की संभावना बनी रहे।

‘रिश्ते कंचन व चंदन की तरह होने चाहिए; चाहे टुकड़े हज़ार हो जाएं; चमक व सुगंध अवश्य बनी रहनी चाहिए।’ परंतु यह उस स्थिति में संभव है, जब मानव अपेक्षा व उपेक्षा के भाव से ऊपर उठ जाता है। उस स्थिति में उसे किसी से अपेक्षा, आशा व उम्मीद की आवश्यकता नहीं रहती। वैसे मानव की इच्छा पूर्ति न होने पर उसे निराशा का सामना करना पड़ता है। इसके विपरीत उपेक्षा करने की स्थिति में मन में क्रोध, शंका व संशय की स्थिति उत्पन्न होना स्वाभाविक है, जो उसे अवसाद के भंवर में पहुंचा सकती हैं। यह दोनों स्थितियाँ मानव के पथ में अवरोध उत्पन्न करती हैं तथा उनके अभाव में सहज जीवन की कल्पना करना बेमानी है।

सो! जहां अपेक्षाएं समाप्त होती हैं, सुक़ून वहीं से प्रारंभ होता है। मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं, ख़ुद से रखनी चाहिए, क्योंकि वह आपको ऊर्जस्वित करती है तथा आप में साहस व धैर्य को पोषित करती है। मानव सफलता प्राप्ति के लिए संघर्ष की राह को अपनाता है, भले ही हर कोशिश में उसे सफलता नहीं मिल पाती। लेकिन हर सफलता का कारण कोशिश ही होती है। ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती’ और ‘करत-करत अभ्यास के,जड़मति होत सुजान’ से भी यह सीख मिलती है कि मानव को सदैव प्रयासरत रहना चाहिए। बीच राह से लौटना श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि उससे पूर्व तो आप मंज़िल पर पहुंच सकते हैं।

आइंस्टीन भी परिश्रम को व्यर्थ नहीं मानते थे बल्कि उसे अनुभव की संज्ञा देते थे। नेपोलियन तो आपदा को अवसर स्वीकारते थे और जिसके जीवन में मुसीबत दस्तक देती थी, उसे दिल से बधाई देते हुए कहते थे कि ‘अब तुम्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर प्राप्त हुआ है।’ इसका प्रत्यक्ष  प्रमाण है आइंस्टीन का बल्ब का आविष्कार करना और नैपोलियन का विश्व विजय का स्वप्न साकार होना और अनेक प्रतिभाओं का जीवन में ‘तुम कर सकते हो’ सिद्धांत को मूलमंत्र स्वीकार कर धारण करना और विश्व में अनेक कीर्तिमान स्थापित करना। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियाँ ‘आपदा को अवसर बना लिया कीजिए/ व्यर्थ ही ना दूसरों से ग़िला किया कीजिए।’ जी हाँ! यही संदेश था नेपोलियन का–जो मनुष्य आपदा को वरदान के रूप में स्वीकारता है, वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ आकाश की बुलंदियों को छू लेता है। उसे जीवन में कभी भी पराजय का मुख नहीं देखना पड़ता। यही उक्ति  चरितार्थ होती है रिश्तों के संबंध में–शायद इसीलिए ही मानव को स्नेह, त्याग व समर्पण का संदेश दिया गया है, क्योंकि इससे हृदय में अहम् का लेशमात्र भी स्थान नहीं रहता, जबकि अहंनिष्ठ मानव जीवन-मूल्यों का तिरस्कार कर ग़लत राहों पर चल पड़ता है, जो विनाश रूपी बंद गलियों में जाकर खुलता है।

सो! रिश्तों को स्थायित्व प्रदान करने के निमित्त मानव के लिए पराजय स्वीकारना बेहतर विकल्प है, क्योंकि रिश्तों में भावनाओं, संवेदनाओं, एहसासों व जज़्बातों की अहमियत होती है। दूसरी और उसूलों को बनाए रखने की प्रथम शर्त है– सिर उठाकर जीना अर्थात् अपनी शर्तों पर जीना; ग़लत बात पर झुकना व समझौता न करना, जो विनम्रता का प्रतीक है। विनम्रता में सभी समस्याओं का समाधान निहित है। यह स्थिति हमें शक्तिशाली व मज़बूत ही नहीं बनाती, फ़रिश्ता बना देती है। सो! रिश्ते व उसूल यदि सम दिशा में अग्रसर होते हैं, तो रिश्तों की महक जहाँ जीवन को सुवासित करती है, वहीं उसूल उसे चरम शिखर तक पहुंचा देते हैं। परंतु मानव को अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करना चाहिए, बल्कि ‘सिर कटा सकते हैं, लेकिन सिर झुका सकते नहीं’ उसके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। मानव को एक सैनिक की भांति अपनी राह पर चलते हुए अडिग व अटल रहना चाहिए और युद्धक्षेत्र से पराजय स्वीकार लौटना नहीं चाहिए। उसे गोली पीठ पर नहीं, सीने पर खानी चाहिए। जो व्यक्ति अपने सिद्धांतों चलता है, सीमाओं का अतिक्रमण व मर्यादा का तिरस्कार नहीं करता–एक अंतराल के पश्चात् अनुकरणीय हो जाता है और सब उसका सम्मान करने लगते हैं। वह जीवन के अर्थ समझने लगता है तथा निष्काम कर्म की राहों पर अग्रसर हो जाता है। वह अपनी राह का निर्माण स्वयं करता है, क्योंकि लीक पर चलना उसे पसंद नहीं होता। निजी स्वार्थ के निमित्त झुकना उसकी फ़ितरत नहीं होती। ‘ऐ मन! तू जी ज़माने के लिए’ अर्थात् अपने लिए जीना उसे प्रयोजनहीन व निष्फल भासता है। वास्तव में सिद्धांतों व उसूलों पर चलना रिश्तों को निभाने की प्रथम शर्त है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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