श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 10
उसका सूरज — कवयित्री – भारती संजीव समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
वो अपने घर का सूरज थी ☆ श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक- उसका सूरज
विधा- कविता
कवयित्री- भारती संजीव
प्रकाशक- आर के पब्लिकेशन मुम्बई
मूल्य- 195/-
देहरी का नाम आते ही/उभरती है एक स्त्री/ जिसके पास न जीभ है /न कान, न आँख /न स्वयं के विचार / ना विरोध की दरकार / है तो सिर्फ कुछ मिले हुए संस्कार / थोपे हुए विचार / जो है समिधा की तरह /स्वाहा होने को तैयार..
‘उसका सूरज’ भारती संजीव का पहला कवितासंग्रह है। उपरोक्त पंक्तियाँ उनके पहले कवितासंग्रह की पहली कविता से हैं। पहली कविता से ही कवयित्री की विधागत दृष्टि, दृष्टिगोचर होने लगती है। समिधा की आहुति से अग्नि जन्म लेती है। अग्नि विशुद्ध महाभूत होती है। आग पीकर, आग से होकर, आग होकर जन्मती है कविता। यही कारण है कि कविता अभिव्यक्ति की विशुद्व विधा है। भारती संजीव के ‘उसका सूरज’ में यह शुद्धता अन्यान्य पृष्ठों पर प्रखरता से अवलोकित होती है।
कविता की एक विशेषता कम शब्दों में मर्म तक पहुँचना और पहुँचाना भी है। इसके चलते कविता को गागर में सागर की उपमा दी गई है। भीड़ द्वारा डायन घोषित कर किसी स्त्री के साथ किया जानेवाला अघोरीपन पिघलता लोहा है। इस लोहे का कविता में ‘टर्निंग द टेबल’ का दृश्य देखिये-
भीड़ के मनोविकारों की शिकार/डायनें/ लगाती हैं प्रश्नचिह्न व्यवस्था पर /वे छोड़ देती हैं /पिघलता गर्म लोहा /संविधान पर..
विज्ञान बताता है कि एक्स और वाई गुणसूत्र के मिलन से लड़का अथवा लड़की जन्म लेती है। इसका कारक पुरुष होता है ना कि स्त्री। तब भी स्त्री पर लड़की जनने का दोषारोपण और आधुनिक समाज में भी लड़की को कम आंकने की मनोरुग्णता देखने को मिलती है। गुणसूत्र के विज्ञान से परे व्यवहारिक ज्ञान को साधन बनाकर कवयित्री यही बात समाज को समझाने का प्रयास करती हैं।
न ही ईंट-गारे-पत्थर से /बनाई जाती हैं /वे भी पैदा होती हैं/ उसी तरह/जिस तरह पैदा होता है/घर का चिराग..
स्त्री और पुरुष के लिए लिखने की सुविधा में गहरा अंतर है। पुरुष 8 घंटे के लिए काम पर होता है। स्त्री 24×7 गृहिणी होती है। लेखन जब प्रस्फुटित होता है, उसे उसी समय काग़ज़ पर उतारना होता है। उस क्षण चूक जाना, एक रचना से हाथ धो बैठना है। सुबह के अलार्म से उठने के साथ रात को बिस्तर को जाने तक स्त्री अपनी अनेक रचनाओं के गर्भ में ही दम तोड़ने का साक्षी बनती है।
इन अनकहे शब्दों की मृत्यु का/ कोई गवाह नहीं/ जो पन्नों पर उतर आते/ वही स्त्री रचित कहलाते हैं..
स्त्री अपार संभावनाओं का पर्यायवाची है। स्त्री को आधी दुनिया कहना स्त्रीत्व के प्रति असम्मान है। सत्य तो यह है शेष आधी दुनिया को स्त्री अपनी कोख में धारण किए हुए है। विसंगति यह कि ब्रह्मांड होते हुए भी स्त्री को सृष्टि में अपने इच्छा को, अपने भाव को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है, अपना स्थान बनाने के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। उसे बार-बार, लगातार अपनी क्षमता को सिद्ध करना पड़ता है। तथापि जिजीविषा की धनी स्त्री प्रतिदिन उगनेवाले सूरज की तरह हर सुबह अपना नया सूरज बनाती है। घर, परिवार को आलोकित एवं ऊर्जस्वित कर देती है।
वह आटे की थाली पर/ उकेरती है शब्द/ रंगोली में फुटबॉल, किताबें, नदियाँ /और पहाड़..
……
वह स्त्री है/ सूरज के आने से पहले/ उठती है/ हाथ में रंग कूची लिए/ अपना सूरज/स्वयं बनाती है..
…….
वो अपने घर का सूरज थी/ वो स्त्री थी..
संग्रह में स्त्री संवेदना मुख्य रूप से अभिव्यक्त हुई है। अलबत्ता ऐसा नहीं है कि सारा संग्रह इसी पर केंद्रित हो। संग्रह में श्रमिकों की समस्याओं पर ध्यानाकर्षण है, महामारी की वेदना है, किसानों की चर्चा है, व्यवस्था के विरुद्ध आवाज़ है। ढेर सारी विसंगतियों को कवयित्री बहुत कम शब्दों में पिरो देती हैं-
केंद्र से बहुत दूर/ सारी व्यवस्था के केंद्र में/ आम आदमी..
यह एक स्त्री की रचनाओं का संग्रह है। स्वाभाविक है इनमें करुणा, ममता, वात्सल्य और प्रेम है। घटनाओं, प्रबोधन, प्रवर्तन, युद्ध आदि के मुकाबले प्रेम की सर्वग्राह्यता और अमाप परिधि शब्दों में ढली है।
मैंने क्रांति नहीं की/ मैंने युद्ध भी नहीं किया/ मैंने तो बस प्रेम किया था/ क्रांति तो/ अपने आप हो गई..
स्त्रैण सृष्टि का स्थायी भाव है। वह कायम रहता है। इसी भाँति अक्षर का क्षरण नहीं होता, अक्षर सदा कायम रहता है। कवयित्री भारती संजीव का यह कविता संग्रह उनके चिंतन और सृजन के प्रति आशा जगाता है। विश्वास किया जाना चाहिए कि आने वाले समय में कवयित्री पाठकों की इस आशा को कायम रखेंगी।
कायम होना चाहती हूँ/ जैसे कायम होती है/ नमी, समुद्री किनारों पर/ रंग और खुशबू बहारों पर/ झिलमिलाहट सितारों पर/ स्वच्छंदता हवाओं पर..
© संजय भारद्वाज
नाटककार-निर्देशक
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈