श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बेटी बेटे…“।)
अभी अभी # 442 ⇒ बेटी बेटे… श्री प्रदीप शर्मा
कल रात एक पुराने मित्र को फोन लगाया, बहुत दिनों से बातचीत नहीं हुई थी। फेसबुक और व्हाट्सएप ने जब से फोन का स्थान लिया है, केवल गुड मॉर्निंग और फाॅरवर्डेड मैसेज से ही काम चल जाता है। फोन पर घंटी गई, लेकिन किसी ने उठाया नहीं। हम ज्यादा किसी को फोन पर परेशान नहीं करते। अचानक उधर से घंटी आई, फोन किसी महिला ने किया था। पता चला पापा की बिटिया है।
मित्र की सभी बेटियां हैं, और फिलहाल वह एक बेटी के साथ इसी शहर में रह रहा है।
रात के नौ ही बजे थे, बिटिया ने बताया पापा सो गए हैं। इतनी जल्दी ? नहीं उन्हें सर्दी, खांसी, जुकाम था, अभी दवा देकर सुलाया है। मेरा मित्र मुझसे भी पांच साल बड़ा है। कभी संयुक्त परिवार था, आज बेटी का परिवार ही उसका परिवार है। हाल चाल पूछकर मैने यह कहकर फोन रख दिया, पापा से बाद में बात कर लूंगा।।
बचपन के दोस्त, स्कूल कॉलेज के सहपाठी और बैंक के अधिकांश हम उम्र मित्रों का आज यही हाल है। उम्र के इस पड़ाव पर उनकी सबसे बड़ी पूंजी उनके बेटी बेटे ही हैं। जब खुद बेटे थे, तो मां बाप की सेवा की। जब खुद मां बाप बने तो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दी, लिखाया पढ़ाया। आज भगवान की दया से बेटी बेटे, सभी अपनी गृहस्थी में सुखी हैं। कोई पुणे में है तो कोई हैदराबाद अथवा बेंगलुरु में। कई के बच्चे तो विदेशों में जॉब कर रहे हैं। उनमें से कई तो ग्रीन कार्ड होल्डर भी हो गए हैं।
बेटी बेटे और बहू दामाद में अब ज्यादा फर्क नहीं रहा। कभी वे मां बाप/सास ससुर के पास आ जाते हैं तो कभी ये लोग उनके पास चले जाते हैं। अब परिवार वैसे भी छोटे हो चले हैं, जितने सदस्य मिल जुलकर रहें, उतना ही बेहतर है। कोरोना काल की कुछ कड़वी यादें भी हैं, सबको एक दूसरे की सुरक्षा की सतत चिंता बनी रहती है।।
समय और परिस्थिति सब कुछ बदल देता है। यार दोस्त भी और खानपान और रहन सहन भी। कभी दादाजी हमारी उंगली पकड़कर घुमाने ले जाते थे और आज नाती पोते हमारा हाथ पकड़कर हमें फीनिक्स मॉल घुमाते हैं।
हमें मोबाइल और कंप्यूटर चलाना सिखाते हैं। बड़े होकर बच्चा बनने का भी एक अपना ही सुख है।
हम जो अपने आसपास देखते हैं, वही हमारी दुनिया होती है, और उसे ही हम सच मान लेते हैं। आज की पीढ़ी बदनाम भी है और स्वार्थी खुदगर्ज भी। घर घर में तलाक आम है और वृद्धाश्रम आज भी गुलजार हैं।।
© श्री प्रदीप शर्मा
संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर
मो 8319180002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈