श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दूसरी पारी…“।)
अभी अभी # 446 ⇒ दूसरी पारी… श्री प्रदीप शर्मा
इंसान के लिए वैसे तो बनाने वाले ने जीवन में एक ही पारी निर्धारित की है, वह छोटी बड़ी, अथवा लंबी भी हो सकती है। ९९ वें बरस की लीज बस कहने को ही है, वह जब चाहे एक बॉल में हमें क्लीन बोल्ड कर सकता है।
जब जीना यहां मरना यहां है, तब तो यह जीवन की एक ही पारी हुई, लेकिन क्या आपको नहीं लगता यहां भी स्त्री और पुरुष में भेद है। एक स्त्री जीवन की कम से कम दो पारियां खेलती है, एक शादी के पहले की, और एक शादी के बाद की।।
शादी होते ही उसके मां बाप, घर परिवार सब छूट जाता है, एक नया नाम और नई पहचान से वह एक नई जिंदगी शुरू करती है। पुरुष कहां ऐसा करता है। लेकिन अफ़सोस, एक स्त्री को इस दूसरी पारी में भी और कई पारियां खेलनी पड़ती हैं।
कबीर ने कहा है;
तू कहे कागज की लेखी
मैं कहूं आंखन देखी।
मेरे मित्र का एक छोटा सा संसार था, हम दो लेकिन हमारा सिर्फ एक। यानी उनका दर्शन द्वैत से अद्वैत की ओर अग्रसर हो चला था। संसारी दृष्टि में, छोटा संसार सुखी संसार। और सुख भी दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रहा था कि अचानक जीवन के ५०वें वसंत में ही एक गाड़ी का पहिया पंक्चर हो गया, यानी पतिदेव दुर्भाग्य से, अनायास ही स्वर्ग सिधार गए। आप सोच सकते हैं, पत्नी पर, दुख का पहाड़ नहीं, पूरा आसमान ही टूट पड़ा होगा, कितने सपने चकनाचूर हुए होंगे। जीवन की तीसरी पारी, जिसमें जीवन का द्वैत, सिर्फ मां और बेटा।।
अभी तो यह तीसरी पारी की शुरुआत है। सास ससुर और मां बाप तो पहले ही गुजर गए थे, बंधु सखा के नाम पर सिर्फ ईश्वर का ही सहारा है। कोरोना का कहर भी उसने झेला, फिर भी उसकी पारी अभी समाप्त नहीं हुई।
बियाबान में खिलते फूल की तरह इतने संघर्षों के बीच बालक अब पढ़ लिखकर कमाने लायक हुआ है। सुख के सागर के सूख जाने के बाद यह एक चिथड़ा सुख ही क्या कम है, बची हुई तीसरी पारी को संवारने के लिए।।
पुरुष भी खैर दोहरी जिंदगी जीने के लिए मजबूर है, लेकिन हमारे समाज में ऐसी कितनी नारियां होंगी जो अपने जीवन में दूसरी, तीसरी ही नहीं, अभी तक कई पारियां हंसते हंसते खेल चुकी होंगी। जरा अपने आसपास देखिए, जहां परिवार छोटा है, वह और छोटा होता जा रहा है, और लोग ऐसे भी हैं जो पारियां पर पारियां खेले जा रहे हैं, मानो उन्हें ही वर्ल्ड इलेवन बनाना हो।
आपके आसपास का मंजर भी कुछ ऐसा ही होगा। स्त्री विमर्श से हटकर अगर सोचा जाए तो यही निष्कर्ष निकलता है, इंसान को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है। स्त्री को ही मौका आने पर कभी सीता और गीता और कभी दुर्गावती अथवा लक्ष्मीबाई बनना पड़ता है, फिर चाहे इसके लिए उसे कितनी भी पारियां खेलनी पड़े।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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