श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा “नौकरी फुटबाल नहीं है!“ )
☆ कथा-कहानी # 117 – नौकरी फुटबाल नहीं है! ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
नौकरी और इससे जुड़े परिवार की निर्भरता के प्रति हम सभी संवेदनशील होते हैं तो जब दुर्भावना रहित हुई गलतियों के प्रकरण हमारे सामने आते हैं तो हम स्वाभाविक रूप से ऐसे व्यक्तियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण सोच ही रखते हैं और भरसक अपनी ओर से पूरी मदद करने की कोशिश करते हैं, शायद यही इंसानियत है. ईश्वर ऐसे मौके प्रायः सभी को देता है जिसमें वे भी कुछ अंश तक मदद कर सकते हैं.
एक शाखा में जहां लगभग हर दो महीने में RBI से केश रेमीटेंस ट्रेन द्वारा आता रहता था. रिजर्व बैंक एक साथ रूट की कई शाखाओं के रेमीटेंस भेजा करता था और हरेक के साथ एक रिजर्व बैंक का कर्मचारी रहता था जिसका काम उस शाखा तक रेमीटेंस के साथ जाना, अपने सामने ब्रांच में उसे रखवाना और फाइनली 8-10 दिन अपने सामने काउंटिग करवाकर शाखा प्रबंधक से प्रमाण पत्र प्राप्तकर वापस लौटना होता था. आ रहे खजाने को रिसीव करने के लिये पुलिस सुरक्षा बल के साथ रेल्वे स्टेशन पर वह ब्रांच अपने अधिकारी को भेजती थी. एक पोतदार का ससुराल बीच के किसी स्टेशन पर पड़ता था तो वे अपने साथी को जो कि उनकी यूनियन का लीडर भी था, अपनी जिम्मेदारी सौंपकर एक दिन पहले निकल लिये. दूसरे दिन उनको वही ट्रेन पकड़ लेनी थी जो रेमीटेंस लेकर जा रही थी. पर ससुराल में खातिरदारी करवाने के चक्कर में ट्रेन आगे निकल गई और उस स्टेशन में दोनों शाखाओं का रेमीटेंस, रिजर्व बैंक के उन यूनियन लीडर महाशय ने उतरवा लिया. अगली ट्रेन से दामाद जी दौड़ते भागते पहुंचे. मामला तो पक्का नौकरी लेने वाला बन गया था पर उस शाखा के स्टॉफ के हृदय में दया और मानवीयता ने वरीयता ली और उनके लिये बाकायदा ट्रक और गार्ड की व्यवस्था कर उनके साथ उनका रेमीटेंस उस शाखा में भेजा गया जहाँ के लिये आया था. इस तरह उनकी नौकरी भी बची और शायद जीवन भर के लिये सबक भी मिला कि नौकरी फुटबाल नहीं है.
© अरुण श्रीवास्तव
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