डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम और विचारणीय  व्यंग्य – ‘भाग्यवादी होने के फायदे‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 256 ☆

☆ व्यंग्य ☆ भाग्यवादी होने के फायदे 

हमारे देश के ज़्यादातर लोग भाग्यवादी हैं— भाग्य, किस्मत, नसीब, नियति, मुकद्दर, फ़ेट या डेस्टिनी पर भरोसा करने वाले। सभी धर्म के सन्तों ने भी यही कहा है कि इंसान के जीवन में सब कुछ पूर्व-नियत है, प्री-डेस्टाइन्ड। इंसान के हाथ में कुछ भी नहीं है, सब कुछ पहले से लिख दिया गया है। ‘को करि तरक बढ़ावै साखा, हुइहै वहि जो  राम रचि राखा’, ‘विधि का लिखा को मेटनहारा’, ‘विधना ने जो लिख दिया छठी  रैन के अंक, राई घटै ना  तिल बढ़ै रहु रे जीव निश्शंक’, ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये सब  के दाता राम’, ‘राम भरोसे जो रहें, परबत पै हरियांयं’, ‘जिसने चोंच दी है, वही चुग्गा देगा’, ‘देख  परायी चूपड़ी मत ललचावै जीव, रूखा सूखा खायके ठंडा पानी पीव’, ‘जो आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान।’

दरअसल भाग्यवादी होने के कई फायदे होते हैं। भाग्यवादी दुनिया में चल रहे बखेड़ों से परेशान नहीं होता क्योंकि उसके अनुसार सब कुछ वही हो रहा है जो पहले से लिख दिया गया है। उसे ब्लड-प्रेशर की बीमारी नहीं होती, दुनिया की हलचलों के बीच वह चैन की नींद सोता है। बड़ी से बड़ी घटना के बीच वह शान्त, स्थितप्रज्ञ बना रहता है। उसे न यूक्रेन की चिन्ता सताती है, न गज़ा की। जो मरे वे इतनी ही उम्र लेकर आये थे, जो बच गये उन्हें अभी और जीने का वरदान मिला है। रेल दुर्घटना में मरने वालों के हिस्से में भी इतनी ही उम्र आयी थी।

हमारे समाज में भाग्यवादिता बहुत उपयोगी रही है। जीवन में असफल होने पर असफलता को भाग्य के खाते में डालकर चैन से बैठा जा सकता है। कुछ समय पहले तक लड़कियों का भाग्य माता-पिता के हाथ में रहता था। पढ़ाया तो पढ़ाया, अन्यथा पराये धन पर कौन पैसा बरबाद करे? बड़े होने पर लड़की को, बिना उसकी सहमति लिये, किसी भी एंगे-भेंगे, जुआड़ी, शराबी लड़के से ब्याह दिया जाता था और लड़की इसे अपना भाग्य मानकर गऊ की तरह पतिगृह चली जाती थी। मतलब  यह कि भाग्य के हस्तक्षेप से गृहक्लेश की संभावना कम हो जाती थी।

हमारे देश में जाति-प्रथा है जिसमें आदमी जन्म लेते ही ‘ऑटोमेटिकली’ ऊंचा या नीचा हो जाता है। जो नीचे जन्म लेते हैं उनका सारा जीवन संघर्ष करते और अपमान झेलते ही बीतता है।

समाज में उनका कोई सम्मानजनक स्थान नहीं बनता। परसाई जी  ने अपनी रचना ‘जिसकी छोड़ भागी’ में लिखा, ‘सदियों से यह समाज लिखी पर चल रहा है। लिखा कर लाये हैं तो पीढ़ियां मैला ढो रही हैं और लिखा कर लाये हैं तो पीढ़ियां ऐशो आराम भोग रही हैं। लिखी को मिटाने की कभी कोशिश ही नहीं हुई।’ ऐसे में अपने जीवन को अपना भाग्य मानकर ही ढाढ़स मिल सकता है।

रियासतों के ज़माने में रियाया की स्थिति दयनीय होती थी। राजा साहब के तो दर्शन ही दुर्लभ होते थे, रियाया के लिए उनके दर्शन की इच्छा करना गुस्ताखी से काम नहीं होती थी। उनके मुसाहिब ही मनमाना शासन चलाते थे। रियाया पर हर तरह  के ज़ुल्म होते थे, सुनवाई कहीं नहीं। ऐसे में रियाया के लिए सब कुछ भाग्य के खाते में डाल देना ही एकमात्र उपाय बचता था। भाग्यवादिता ही दुर्दशा के बीच कुछ संबल देती थी।

राजाओं को निष्कंटक शासन करने योग्य बनाने के लिए पुनर्जन्म का सिद्धान्त आया जिसमें पुरोहितों और चर्च का सहयोग मिला। रियाया को बताया गया कि उनकी दुर्दशा उनके पूर्व जन्म के कर्मों के कारण है और उनका अगला जन्म तभी सुधरेगा जब वे अच्छे, आज्ञाकारी नागरिक बने रहें। इस स्थिति  ने रियाया को और भाग्यवादी बनाया।

मज़े की बात यह है कि भाग्य पर भरोसे के बाद भी आदमी अनिष्ट और ‘होनी’ को टालने के लिए दौड़ता रहता है। बाबाओं, ओझाओं, गुनियों, तांत्रिकों, ज्योतिषियों, वास्तु-शास्त्रियों के यहां भीड़ लगती है। भविष्य को जानने के लिए ताश के पत्तों, अंकों, मुखाकृति अध्ययन, कप या गिलास में छोड़ी हुई कॉफी-चाय या शराब की जांच-पड़ताल जैसे अनेक टोटकों को अपनाया जाता है। बहुत से लोग उंगलियों में नाना रत्नों से जड़ी अंगूठियां पहनते हैं। कुछ लोग बायें हाथ की उंगलियों में भी अंगूठियां पहनते हैं जिसे देखकर मुझे सिहरन होती है। शायद वे उन्हें टॉयलेट जाते समय उतार देते होंगे। कहने का मतलब यह है कि आदमी को भाग्य पर यकीन तो है, लेकिन वह दुर्भाग्य को टालने में दिन-रात लगा रहता है।

सत्य यह है कि दुनिया भाग्य के नहीं, श्रम और प्रयास के भरोसे चलती है। दुनिया के सारे अविष्कार प्रयास और मेहनत से हुए हैं। भाग्यवादिता शान्ति तो दे सकती है, लेकिन जीवन के कांटे दूर नहीं कर सकती। दशरथ  मांझी भाग्य के भरोसे बैठे रहते तो पत्नी के लिए पहाड़ काटकर रास्ता न बनाते। बकौल परसाई जी, ‘भाग्य कुछ नहीं है। यह झूठा विश्वास है। सार्थक श्रम पर विश्वास किया जा सकता है।’

अमेरिका के 16 वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने मार्के की बात लिखी है— ‘भविष्य को इंगित करने का सबसे अच्छा तरीका उसका निर्माण करना है।’ अर्थात, हमारा प्रयास भविष्य को खोजने के बजाय उसे निर्मित करने में होना चाहिए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
4 2 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments