श्रीमती समीक्षा तैलंग
☆ मेघ-मल्हार से गूँजता जलतरंग ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग ☆
कभी मस्तिष्क भी सोच में पड़ जाता है कि आज के समय में जहाँ मनुष्य धीरज खो चुका है वहीं ईश्वर ने प्रकृति को कितनी शांति और धैर्य से रचा है! मस्तिष्क के बारीक से बारीक तन्तुओं को सही जगह जोड़ने वाला और ऐसी कलाकृति को रचनेवाला रचित एकमेव है। कितना कठिन है समझना कि वो एक ही है जो शल्यकार, शिल्पकार, चित्रकार, संगीतकार आदि आदि सब कुछ है। भ्रमित मनुष्य नाहक ही अपनी पीठ थपथपाने में समय गँवाता है। वो हर उस कलाकृति का श्रेय स्वयं लेना चाहता है। मगर क्या ऐसा संभव है? क्यों नहीं समझता कि गर्भ को बनाने में मनुष्य का अंशमात्र भी योगदान नहीं है। आख़िर मनुष्य भी तो उसी प्रकृति प्रदत्त रचना का अंश भर है। ये अलग बात है कि मनुष्य की अधीरता प्रकृति की शांति खंडित कर उसे विखंडित कर रही है।
क्या मनुष्य, क्या ही बारीक से बारीक कीट से लेकर बड़े से बड़े प्राणी, पर्वत, झीलें, नदी, बर्फ, जल-थल, आकाश-पाताल, ज्वालामुखी आदि आदि का प्रणेता वही ईश्वर है। इतनी सारी ऋतुएँ। न जाने कितना गणित करके ऋतुओं में सामंजस्य बैठाया होगा। दिन-रात की व्यवस्था की होगी। सूर्य-चंद्र-नक्षत्रों का उदय-अस्त-दिशा सब कुछ तय किया होगा। क्या ही कमाल की व्यवस्था कर रखी है जिसके इशारे पर दुनिया चलती है। ये ब्रह्मांड भी गुंजायमान है। उसके स्वर धरती पर बसने वाले कुछ बेसुरों से मेल नहीं खाते। इस तरह का प्रबंधन किसी अन्य के लिए असंभव है। यह पुस्तकीय नहीं बल्कि शास्त्रीय ज्ञान है जिसे बदला नहीं जा सकता। इस असीमित ज्ञान की गंगा में जब भी गोता लगाओ तब एक नया संसार सामने आता है। यही सब विस्मित भी करता है।
वर्षा ऋतु अपने साथ केवल पानी की कुछ बूँदें ही नहीं लाती बल्कि झुलसकर उजड़ी हुई प्रकृति को पुनर्जीवित भी करती है। पुनर्जीवन की समझ विकसित करनी हो तो शव के रूप से होकर शिव का रूप समझने की शक्ति यही ऋतु देती है। अन्य किसी ऋतु में पुनर्जीवन देने की ताकत नहीं है। तभी तो यह चातुर्मास शिवकाल भी है। कण-कण में बसा शिव, प्रकृति के माध्यम से अंतर्नाद करता हुआ गुंजायमान रहता है। शिव को जल, जंगली पत्ते, जंगली फूल, धतुरा यही सब तो पसंद है। तभी तो वे सिंचाई में इतने मगन रहते हैं कि उनकी मेहनत से पूरी कायनात पर जल अभिषेक सतत होता रहता है। जाने कितनी ही औषधियाँ यही ऋतु लेकर आती है। हर पीड़ा की नाशक,,,। हर कोना हर-हर के नाद से ध्वनित हो रहा है। वो हर ही है जो शिव है और जो शिव है वही हरता है दुखों को। प्रकृति के सारे कष्टों का निवारण यही महादेव करते हैं।
ऋग्वेद के सातवें मण्डल के एक सौ सातवें सूक्त में वर्षा ऋतु का वर्णन इस प्रकार है-
गोमायुरदादजमायुरदात्पृश्निरदाद्धरितो नो वसूनि ।
गवां मण्डूका ददतः शतानि सहस्रसावे प्र तिरन्त आयुः ॥१०॥
इस सूक्त में वर्षाकाल को ‘सहस्रसाव’ कहा गया है।
जेठ की तपन से सिकुड़ती नदियाँ इस ऋतु में अपनी ओट में जल धारणकर बस बहती चलती है। नदियों की कांवर यात्रा का यह स्वरूप ही अलग है। रास्ते में पड़ने वाली शिव पिंडियों पर जलाभिषेक करते हुए आगे बढ़ती चलती हैं। पाप-पुण्य से परे दूसरों का हित ही इसका ध्येय है। ये नवयौवना अपने साथ-साथ जाने कितने लोगों को जीवनदान देने के लिए अविरत चलती जाती है। हर किसी की आत्मा तृप्त करने का भार इसे शिव ने सौंपा है। आज तक उसका पालन कर रही है। राग, लोभ, मोह, ऊँच, नीच, थकन जैसे शब्द उसकी शब्दावली में ही नहीं हैं। निश्छल होकर बहना उसका प्रारब्ध है। वो किसी में अंतर नहीं करती। भेदभाव रहित यह नदी चंचल होकर भी कितनी गहराई है उसके स्वभाव में। कोई मात्र चंचला कह भी दे तो क्या वह उससे रुष्ट होकर उस प्यासे की प्यास बुझाना बंद कर दे! उसके सौंदर्य की गाथा जितनी कहो कम है। तथापि उसकी सुंदरता उसके कर्तव्यबोध में है, उसकी उदारता में है इसलिए वह पापमोचनी भी है। उसके जैसा सहनशील होना सबके बूते की बात नहीं है। वो अपने साथ केवल पानी और मिट्टी नहीं बहाती। उसके साथ-साथ कष्ट-दुख-सुख सब बहता है।
उधर पर्वत भी क्या ही सुंदरतम होकर हृष्ट-पुष्ट हो जाते हैं। वे भी अपने पुनर्जन्म की गाथा सुनाते हैं। कितने ही सूख चुके पेड़ वापिस अपने वक्ष पर नई कोपलों के साथ जीवंत हो उठते हैं। ठूँठ दिखने वाली टहनियों पर भी जब कोपलें दिखायी देने लगती हैं तो उसका यशगान भी वही प्रकृति कर रही होती है। मेघ झुरमुट में उन पर्वत शृंखलाओं को अपनी ओट में ऐसे छुपा लेते हैं जैसे माँ अपने बच्चे को काले टीके का नज़रबट्टू लगाकर दुनियावी नकारात्मक ताक़तों से उसकी रक्षा करती है। माँ हो या बाप। जैसे हो काले विट्ठल या हो काले राम। कोई उसे बाप कहता है तो कोई माँ। उसके दोनों रूपों में जैसे कोई अंतर ही नहीं।
उसी तरह ये मेघ हैं। कितना कुछ छुपा देते हैं कि स्वर्ग की हलचल को भू और भुव पर कोई भाँप भी न सके। पर्वतों और दर्रों के बीच बसी दुनिया को ऊपर से ऐसे ढाँप लेते हैं और बहते चलते हैं जैसे ऊपर भी कोई भागीरथी बह रही हो। उसी की सहस्त्र जलधाराएँ पर्वतों के बीच ऊपर से नीचे गिरती हुई उन मेघों से ऐसे उतरती हैं मानो दूध की नदियाँ बह रही हों। कितना कारुणिक, ममत्वपूर्ण और प्रसन्न करने वाला होता है वह क्षण।
मेघों के आँचल की आड़ में पल्लवित होते पर्वत और उसके परजीव। सभी के लिए यह ऋतु एक गान है। बिजली की गर्जना और वृष्टि की समष्टि में विलीन होने की यह कोई साधारण घटना नहीं है। यह विलीन होने को प्रेरित करने वाली घटना है। अंत सबका विलीन होना ही है, यही संपूर्ण सत्य है। तभी जाकर मिट्टी की उर्वरता का लाभ अनेकानेक पीढ़ियों को होता है। यह ऋतु उनमें से एक है जो चार आश्रमों में गृहस्थ से होते हुए वानप्रस्थ को प्रस्थान करती है।
इस ऋतु के गीत को मेघों से गिरते पानी के स्वर और ताल से समझा जा सकता है। लगता है जैसे उसे ही सुनकर मेघ-मल्हार राग का जन्म हुआ होगा। स्वर भी तो प्रकृति ने ही दिये हैं। षड्ज का ‘सा’, ऋषभ का ‘रे’, गंधार का ‘ग’, मध्यम का ‘म’, पंचम का ‘प’, धैवत का ‘ध’, निषाद का ‘नी’। पानी जब मेघों से बरसता है तब धरती पर इसकी थाप इन्हीं सात सुरों में पडती है। जलतरंग का आविष्कार यहीं से हुआ होगा।
वहीं शिव का तांडवरूप नटराज भी है। नृत्य और अभिनय में नटराज का कोई सानी नहीं। धरती उनके इस नृत्य से काँपती है इसलिए उनके शांतस्वरूप के प्रति आस्था बनाये रखती है। उनसे एक नदी के रूप में गंगा के साथ सरस्वती भी है। नटराज और सरस्वती गायन, वादन, नृत्य, विद्या, अभिनय सभी के अधिष्ठाता हैं। जब कण-कण में शिव विद्यमान हैं तो यह दीक्षाएँ स्वयं ईश्वर प्रदत्त ही रहेंगी। वे स्वयं प्रकृति के रक्षक होकर इन विद्याओं के भी संरक्षक हैं। हरी-हरी धरती पर ‘हरी’ का वास है। यही श्रावण है। यही मेघों का मल्हार है।
(अहा ज़िंदगी पत्रिका में प्रकाशित…)
© श्रीमती समीक्षा तैलंग
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈