डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख चर्चा और आरोप… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 248 ☆
☆ चर्चा और आरोप… ☆
चर्चा और आरोप यह दोनों ही सफल व्यक्ति के भाग्य में होते हैं। लोगों के दृष्टिकोण को लेकर ज़्यादा मत सोचिए, क्योंकि सबसे ज़्यादा वे लोग ही आपका मूल्याँकन करते हैं, जिनका ख़ुद कोई मूल्य व अस्तित्व नहीं होता। आज के प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में मानव एक-दूसरे को पछाड़ कर आगे निकल जाना चाहता है, क्योंकि वह कम समय में अधिकाधिक धन व शौहरत पाना चाहता है और भीड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहता। वैसे भी मानव अक्सर दूसरों को सुखी देखकर अधिक दु:खी रहता है। उसे अपने सुखों का अभाव इतना नहीं खलता; जितना दूसरों के प्रति ईर्ष्या भाव आहत करता है। यह एक ऐसी लाइलाज समस्या है, जिसका निदान नहीं है। आप अपनी सुरसा के मुख की भाति बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश लगा कर संतोष व सुख से जी सकते हैं और दूसरों के बढ़ते कदमों को देख उनका अनुकरण तो कर सकते हैं। स्पर्द्धा भाव को अपने अंतर्मन में संजोकर रखना श्रेयस्कर है ,क्योंकि मन में ईर्ष्या भाव जाग्रत कर हम आगे नहीं बढ़ सकते। ईर्ष्या भाव मन में अक्सर तनाव व अवसाद को जन्म देता है, जो आपको अलगाव की स्थिति प्रदान करता है।
चर्चा सदा महान् लोगों की होती है, क्योंकि वे आत्मविश्वासी, दृढ़-प्रतिज्ञ व परिश्रमी होते हैं। भीड़ प्रतिगामी नहीं होते हैं। उसके बल पर वे जीवन में जो चाहते हैं, उस मुक़ाम को हासिल करने में समर्थ होते हैं। उनका सानी कोई नहीं होता। दूसरी ओर आरोप भी संसार में उन्हीं लोगों पर लगाए जाते हैं, जो लीक से हटकर कुछ करते हैं। वे एकाग्रचित्त होकर निरंतर अपने पथ पर अग्रसर होते हैं, कभी विचलित नहीं होते।
अक्सर आरोप लगाने व आलोचना करने वाले वे लोग ही होते हैं, जिनका अपना दृष्टिकोण व अस्तित्व नहीं होता। वे बेपैंदे लोट होते हैं और उन्हें थाली का बैगन भी कहा जा सकता है। वे मात्र दूसरों पर आरोप लगा कर प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। ऐसे लोग दूसरों की आलोचना करने में अपना अमूल्य समय नष्ट करते हैं। ‘बिन साबुन पानी बिना, निर्मल किए सुभाय’ वैसे तो कबीर ने भी निंदक के लिए अपने आँगन में कुटिया बनाने का सुझाव दिया है, क्योंकि यही वे प्राणी होते हैं, जो निष्काम भाव से आपको अपने दोषों, कमियों व अवगुणों से अवगत कराते हैं।
‘तुम कर सकते हो’ जी हाँ! सो! असंभव शब्द को अपने शब्दकोश से बाहर निकाल दीजिए। आप में असीमित शक्तियाँ संचित हैं, परंतु आप उनसे अवगत नहीं होते हैं। आइंस्टीन ने जब बल्ब का आविष्कार किया तो उसे अनेक बार असफलताओं का सामना करना पड़ा। उसके मित्रों ने उससे उस खोज पर अपना समय नष्ट न करने का अनेक बार सुझाव दिया। परंतु उसका उत्तर सुन आप चौंक जाएंगे। अब उसे इस दिशा में पुन: अपना समय नष्ट नहीं करना पड़ेगा कह कर उनके तथ्य की पुष्टि की। अब मैं नए प्रयोग कर शीघ्रता से अपनी मंज़िल को अवश्य प्राप्त कर सकूंगा और उसे सफलता प्राप्त हुयी।।
मुझे स्मरण हो रही है अस्मिता की स्वरचित पंक्तियाँ– ‘तूने स्वयं को पहचाना नहीं।’ नारी अबला नहीं है। उसमें असीम शक्तियाँ हैं, परंतु उसने उन्हें पहचाना नहीं।’ वैसे भी इंसान यदि अपना लक्ष्य निर्धारित कर निरंतर परिश्रम करता रहता है तो वह एकदिन अपनी मंज़िल को अवश्य प्राप्त कर सकता है। अवरोध तो राह में आते रहते हैं। परंतु उसे अपनी मंज़िल पाने के लिए अनवरत बढ़ना होगा। ‘कुछ तो लोग कहेंगे/ लोगों का काम है कहना’ पंक्तियाँ मानव को संदेश देती हैं कि लोग तो दूसरों को उन्नति करते देख प्रसन्न नहीं होते बल्कि टाँग खींचकर आलोचना अवश्य करते हैं। उसे व्यर्थ के आरोपों-प्रत्यारोपों में उलझा कर सुक़ून पाते हैं। परंतु बुद्धिमान व्यक्ति उनसे प्रेरित होकर पूर्ण जोशो-ख़रोश से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। अब्दुल कलाम के मतानुसार ‘ सपनें वे देखें, जो आपको सोने न दें।’ आप रात को सोते हुए सपने न देखें, बल्कि उन सपनों को साकार करने में जुट जाएं और मंज़िल पाने तक चैन से न सोएं। यह सफलता-प्राप्ति का अमोघ मंत्र है।
आप प्रशंसा से पिघलें नहीं, निंदा से पथ-विचलित न हों तथा दोनों स्थितियों में सम रहते हुए अपने निर्धारित पथ पर अग्रसर हों, जब तक आप मंज़िल को प्राप्त नहीं करते। आप इन दोनों स्थितियों को सीढ़ी बना लें तथा लोगों के मूल्यांकन से विचलित न हों। आप अपने भाग्य-विधाता हैं और कठिन परिश्रम व आत्मविश्वास द्वारा वह सब प्राप्त कर सकते हैं, जिसकी आपने कल्पना भी नहीं की थी।
अंत में मैं यह कहना चाहूँगी कि इसके लिए सकारात्मक सोच की दरक़ार है। सो! जीवन में नकारात्मकता को प्रवेश न करने दें। जीवन में प्रेम, सौहार्द, त्याग, विनम्रता, करुणा आदि सद्भावों को विकसित करें, क्योंकि यह दैवीय गुण मानव को उसकी मंज़िल तक पहुंचाने में मील का पत्थर साबित होते हैं तथा उस व्यक्ति में पंच विचार दस्तक नहीं दे सकते। आप स्वयं में, अपने अंतर्मन में इन गुणों को विकसित कीजिए और बढ़ जाइए अपनी राहों की ओर– जहाँ सफलता आपका स्वागत अवश्य करेगी।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी
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