डाॅ. मीना श्रीवास्तव
☆ पुरस्कृत आलेख ☆ मुंशी प्रेमचंद जी : कथा संवेदना के पितामह… ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆
‘प्रेमचन्द जी की भाव अनुरागी साहित्य तरंगिणी’
साहित्य का किसलिए निर्माण किया जाता है ? इसके जवाब के लिए मुंशी प्रेमचंद जी के शब्दों का आधार लें तो, “साहित्य केवल मनोरंजन की वस्तु नहीं और नायक एवं नायिका के विरह और मिलन का राग नहीं अलापता। उसका उद्देश्य है बहुत दूरगामी है। जीवन की समस्याओं का चित्रण, उन पर अपने विचारों के आधार पर समीक्षा करना और समस्या के निवारण का प्रयत्न करना। साहित्य का सम्बन्ध उतना बुद्धि से नहीं, जितना भावों से है। बुद्धि का प्रदर्शन करना है तो दर्शन शास्त्र है, विज्ञान है, नीतिपाठ है।भावाभिव्यक्ति के लिए उपन्यास, कहानियाँ और नाटक हैं।”
उपन्यास, कहानी, नाटक, संस्मरण, सम्पादकीय जैसे बहुविध प्रांतों में साहित्य सृजन करने वाले मुंशी प्रेमचंद (धनपत राय श्रीवास्तव-जन्म:३१ जुलाई १८८०, मृत्यु:८ अक्टूबर १९३६) के साहित्य में ३०० से अधिक कहानी, ३ नाटक, १५ उपन्यास, ७ बाल-पुस्तकें आदि शामिल हैं। वे न केवल बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे, अपितु उनके यथार्थवादी लेखन में हर प्रकार की मानवी संवेदनाओं का मार्मिक चित्रण है। उस समय का हिंदी साहित्य काल्पनिक, धार्मिक और पौराणिक चरित्रों पर आधारित था। इसके विपरीत मुंशी जी के साहित्य में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का चित्रण किया गया। इसी कारण प्रेमचंद जी का साहित्य तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक दस्तावेज प्रतीत होता है, जिसमें समाज-सुधार आंदोलन, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आंदोलनों के सामाजिक प्रभावों का वास्तववादी चित्रण है। मुंशी जी के साहित्य में दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, लिंग भेद, विधवा विवाह, शहरों की आधुनिकता से जूझता गाँवों का पिछड़ापन, स्त्री-पुरुष विषमता और समानता का द्वंद्व आदि उस दौर की समस्याएं प्रमुखता से दिखाई देती हैं। उनके साहित्य की प्रमुख देन है यथार्थवाद के चौखटे में समाने को उत्सुक भारतीय संस्कृति का आदर्शवाद! उनके द्वारा निर्मित व्यक्तिचित्र भावानुभूति एवं भावाभिव्यक्ति की चरम सीमा लांघकर हमारे दिलो-दिमाग में स्थाई रूप से बसे हैं। उन गरीबों का एक एक चीथड़ा हमारे ह्रदय को तार-तार कर देता है। जब जमींदार उन पर लाठी बरसाता है, तो उनकी चीखें हमारे कानों के पर्दों को मानों चीर देती हैं। उनकी भूख-प्यास हमें त्रासदी पहुँचाती है। १ गाय खरीदने को तरसने वाले ‘गोदान’ के होरी के जीवनान्त को कैसे भूलें हम ? मुझे आभास होता है कि, ‘पूस की रात’ कहानी के हल्कू और मुन्नी नायक नायिका न होकर महज़ ३ रुपए का कम्बल ही असली नायक है, जिसके अभाव में हल्कू पूस की रात की भीषण सर्दी का सामना करते-करते अधमरा हो जाता है। ‘कफ़न’ कहानी के बाप-बेटे घीसू और माधव की जिन्दा लाशें एवं माधव की घरवाली की वास्तविक लाश, दोनों में कुछ अधिक फर्क नहीं महसूस होता। ‘निर्मला’ मात्र उपन्यास की नायिका नहीं है, वह भारत के स्त्री वर्ग की त्रासदी को उजागर करती है। दहेज़ के अभाव में विवाह टूटना, अधेड़ उम्र के व्यक्ति से विवाह होना, एक बेटी के मातृत्व का बोझ और समाज से घोर उपेक्षा, इन सबसे ‘यमराज’ ही उसे मुक्ति दिलाता है। मृत्युदाता की प्रतीक्षा करने वाली ऐसी ‘निर्मला’ आज के समाज में भी जीवित है। मुंशी जी की भावाभिव्यक्ति से पशुधन भी अछूता नहीं था। ‘दो बैलों की कथा’ कहानी के ‘हीरा एवं मोती’ एक संवेदनशील पात्र बन पड़े हैं। इस मुई गरीबी के दाग की ऐसी क्या मज़बूरी है कि, कोई भी साबुन उसे मिटा नहीं पाया, चाहे वह किसी भी छाप का हो। यह ‘गरीबी की रेखा’ जिस किसी ने खींची है, वह तो लक्ष्मण रेखा की भांति अमर, अमिट और अजेय बन गई है। लोग कहते हैं कि, मुंशी प्रेमचंद हो या सत्यजीत रे हो, उन्होंने भारत की गरीबी के ग्लैमर के पत्ते को भुनाया है, लेकिन साहित्य हो या फिल्म हो, वे तो समाज का दर्पण होते हैं न! अगर यह न होता तो, हमें ‘गोदान’ की धनिया और झुनिया यूँ हमारे समक्ष मानों जीते-जागते इंसान के रूप में नजर नहीं आते। क्या समाज में ‘गबन’ उपन्यास के नायक-नायिका रमानाथ और जलपा मौजूद नहीं है ? लालच और नैतिकता का पतन तो आज कई गुना वृद्धिगत हुआ है।
‘नमक का दरोगा’ प्रेमचंद द्वारा रचित लघु कथा है, जो आज के दिन भी सामायिक लगती है। एक सम्मानित ईमानदार सरकारी नौकर अर्थात नामक नमक का दरोगा वंशीधर और भ्रष्टाचारी प्रतिष्ठित जमींदार पंडित अलोपीदीन के बीच का यह ‘धर्मयुद्ध’ है। मुन्शी जी की कहानी ऐसे बुनी गई है कि, किसी भी हिंदी फिल्म के ईमानदार नायक और बेईमान खलनायक की कहानी लगे। सत्यनिष्ठा, धर्मनिष्ठा और कर्मपरायणता जैसे मानव मूल्यों का आदर्श रूप यहाँ बहुत असरदार तरीके से प्रस्तुत किया गया है। इस सिलसिले में मुझे मुंशी जी की ‘परीक्षा’ नामक कहानी का स्मरण हुआ। अपने राजा के लिए अपना उत्तराधिकारी योग्य दीवान चुनने वाले सुजानसिंह परीक्षार्थियों की सत्यनिष्ठा और परोपकार की परीक्षा लेते हैं एवं माटी से सने साधारण युवक में ‘दीवान’ खोज लेते हैं।
कुल मिलाकर देखें तो प्रेमचंद जी के पात्र भारतीय संस्कृति का सच्चा रूप दर्शाते हैं। उनके ‘सौंधी देसी मटमैली भावनाओं से परिपूर्ण’ साहित्य में पिता का वात्सल्य, पुत्र का समर्पण, पत्नी का पवित्र प्रेम और ऐसे ही कई नातों के मनमोहक ‘माया जाल’ फैले हैं।
अगर मुंशी प्रेमचंद द्वारा निर्मित पात्र अमर हैं, तो उनकी असीम लेखन प्रतिभा व गहन अवलोकन शक्ति के कारण। क्या हम इस आपा-धापी के युग में अभी भी अपनी संवेदनशीलता को संजोए हुए हैं ? अगर इसकी जाँच पड़ताल करनी है तो, एक ‘परीक्षा’ देनी होगी। प्रेमचंद के किसी उपन्यास या कहानी की पुस्तक को पढ़ना होगा। पढ़ते-पढ़ते क्या आपकी ऑंखें नम हुईं ? क्या ‘गोदान’ के होरी के ‘अंतिम समय’ आपके मन में उथल-पुथल मची ? क्या ‘निर्मला’ का एक अधेड़ के साथ विवाह का प्रसंग पढ़ने पर आपको उसकी विवशता जान अपनी किसी विवशता का आभास हुआ ? अगर ऐसा है तो, आपकी रगों में लाल-नीला खून ही नहीं, अपितु जीवंत संवेदना की लहरें भी दौड़ रही हैं। आप एक भावनाशील इंसान हैं। समाज परिवर्तन हेतु हमें ऐसे ही ‘जिन्दादिल’ इंसानों की जरुरत है।
© डॉक्टर मीना श्रीवास्तव
ठाणे
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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈