डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम और विचारणीय कथा – ‘बाइसिकिल । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 257 ☆

☆ कथा कहानी ☆ बाइसिकिल 

कुसुम को लगा जैसे एक सैलाब आया और हर चीज़ को नेस्तनाबूद करता हुआ गुज़र गया। उस एक घटना ने दुनिया की हर चीज़ की शक्ल बदल दी। रोज़ के पहचाने लोगों के चेहरे भी जैसे दूसरे हो गये।

दोनों जेठानियों और देवरानी ने उसे गले से लगाकर काफी आंसू बहाये। ससुर ने कई बार उसके सिर पर हाथ फेरा,कहा, ‘बेटी, कलेजे को पत्थर करो और इन लड़कियों के मुंह की तरफ देखो। ओंकार तो चला गया। अब तुम्हीं इनकी मां भी हो और बाप भी। विपत्ति में धीरज से काम लेना चाहिए। फिर तुम्हारे दोनों जेठ हैं, देवर है, हम हैं। हमारे रहते तुम्हें क्या चिन्ता है?’
परिचितों, पड़ोसियों ने सुना तो ‘च च’ किया। कच्ची गृहस्थी है, कैसे नैया पार होगी? सब एक-एक कर कुसुम के घर आये, सिर लटकाये, अपनी सहानुभूति ज़ाहिर की और फिर उठकर अपने-अपने काम में लग गये।

पांच छ: दिन तक कुसुम को न अपना होश रहा, न लड़कियों का। उसे लगता रहा जैसे बहुत सी छायाएं उसके आसपास गुज़रती रहती हैं, बहुत से शब्द बोले जाते हैं, लेकिन उसका उनसे कोई ताल्लुक नहीं है।

तेरहीं के दिन ससुर ने तीनों लड़कों की बैठक जोड़ी, कहा, ‘भैया, जो कुछ हुआ सो तुम्हारे सामने है। मृत्यु पर किसी का वश नहीं है। अब तुम्हारा जो कर्तव्य बनता है सो करो। ओंकार का फंड का कुछ रुपया जरूर मिलेगा, लेकिन बहू उसे खा-पी डालेगी तो फिर कल के दिन लड़की की शादी कैसे होगी? इसलिए तुम लोग दो दो हजार रुपये हर महीने कुसुम को दो तो उसका काम चले।’

दोनों बड़े भाइयों शीतल प्रसाद और रामनरेश ने धीरे से ‘ठीक है’ कहा।

छोटा भाई सुनील गंभीर होकर बोला, ‘बाबूजी, सबका हिस्सा बराबर मत रखो। मैं बारह हजार रुपये तनख्वाह पाता हूं। दो हजार रुपये इधर दे दूंगा तो अपने बाल-बच्चों को क्या खिलाऊंगा?’

पिता जवाहरलाल सिर खुजाने लगे, बोले, ‘ठीक है, तो तुम एक हजार दे देना।’

जवाहरलाल बड़े लड़के के घर में रहते थे। अब अपने सामान के साथ कुसुम के घर में आ गये। कुसुम को कुछ सहारा हुआ। दिन  अब चींटी की चाल से रेंगने लगे। कुसुम  का दिन तो जैसे तैसे कट जाता, लेकिन रात पहाड़ हो जाती। एक तरफ सुख के दिनों की यादों का हुजूम, दूसरी तरफ भविष्य  की खौफनाक डायनों के नाच।

बूढ़े ससुर सो जाते तो उनके गाल गुब्बारे जैसे फूलने-पिचकने लगते और खुले मुंह से फू-फू  की आवाज़ निकलने लगती। कुसुम उनकी तरफ दया के भाव से देखती। आराम की उम्र में किस्मत ने उनके ऊपर एक नई ज़िम्मेदारी डाल दी थी। सो जाने पर वे एकदम निरीह, बेचारे हो जाते और अनेक काले साये बेखौफ सब तरफ से कुसुम को पकड़ने लगते। दरवाज़े पर हवा की दस्तक होते ही वह शंकित होकर उठकर बैठ जाती। बैठकर दोनों लड़कियों के शरीर पर अपने हाथ रख लेती। रात के सन्नाटे में घर के आसपास किसी आदमी की बातचीत सुनकर उसके रोंगटे खड़े हो जाते। वह रात रात भर कमरे में घूमती। ज़रा सी आहट होते ही बड़ी देर तक दरवाज़े पर कान लगाये सुनती रहती।

भाइयों से पांच  हज़ार रुपये महीने आने लगे थे, लेकिन मंझले रामनरेश का दिमाग रुपए देते वक्त दूसरे महीने में ही खराब होने लगा। कुसुम को जिस तरह गुस्से से मसलते हुए दो हज़ार के नोट उन्होंने दिये उससे कुसुम को उनकी मन:स्थिति कुछ कुछ ज्ञात हो गयी।

इसके बाद वे चौथे पांचवें दिन आते और कुसुम की लड़कियों पर अपना गुस्सा उतार कर चले जाते। उन्हें उनके चलने फिरने, पहनने ओढ़ने में खोट ही खोट दिखायी पड़ता। लड़कियां उन्हें देखकर इधर-उधर छिप जातीं।

बाज़ार में कहीं मंझले चाचा लड़कियों को देख लेते तो उनकी मुसीबत कर देते, ‘क्यों आयी हो? कहां जा रही हो? आवारा जैसी घूमती हो।’ लड़कियों को रोना आ जाता।

एक दिन रामनरेश पिता से बोले, ‘बाबूजी! सुमन और सुनीता को रिक्शे से स्कूल भेजना कोई जरूरी है? मुश्किल से आधा किलोमीटर की दूरी होगी। बात यह है कि जब हम अपने बच्चों का पेट काट कर पैसा देते हैं तो कुसुम को भी सोच समझ कर खर्च करना चाहिए।’

जवाहरलाल धीरे से बोले, ‘देखेंगे।’

तीसरे महीने रामनरेश कुसुम को सिर्फ एक  हज़ार रुपये पकड़ा गये। बोले, ‘अभी ज़्यादा पैसे नहीं हैं। बाकी बाद में दे दूंगा।’ उस महीने फिर उन्होंने कुछ नहीं दिया।

फिर उनका यही रवैया हो गया। हर बार हज़ार रुपये पकड़ा जाते और बाकी देने का आश्वासन दे जाते।

छह सात माह गुज़र गये। एक दिन कुसुम ने ससुर से कहा, ‘सुमन सुनीता की फ्राकें  फट रही हैं। कुछ और पैसों का इन्तजाम हो जाता  तो उनके लिए कपड़े खरीद लेती।’

ससुर बोले, ‘मैं आज रामनरेश से कहूंगा।’

वे शाम को घूम घामकर लौटे तो हाथ में छोटी सी पोटली थी। बोले, ‘बेटी, उसके पास पैसे तो नहीं थे। ये प्रीति और दीपा की फ्राकें दी हैं।  थोड़ा कॉलर फट गया है, वैसे अच्छी हैं। थोड़ा सुधार कर काम आ जाएंगीं।’

उन फ्राकों को उलट पलट कर देखते कुसुम की आंखों में पानी भरने लगा।

कुछ दिनों बाद फिर समस्या पैदा हुई। सुमन की परीक्षा फीस के लिए कुसुम के पास पैसे नहीं थे। फिर ससुर से कहा। वे बोले, ‘ठीक है। इन्तजाम करता हूं ।’

घूम कर वापस लौटे तो कुछ परेशान थे। बोले, ‘बेटा, शीतल घर पर नहीं था। रामनरेश का हाथ खाली है। लेकिन फिक्र मत करना। इन्तजाम हो जाएगा।’

थोड़ी देर बाद ही रामनरेश गुस्से से फनफनाते घर में आ गये। खड़े-खड़े ही बोले, ‘देखो भाई, थोड़ा हमारे ऊपर दया करो। यहां कोई पैसे का पेड़ नहीं लगा है कि हिलाओ और बटोर लो। लड़की जात है, ज्यादा पढ़ाना जरूरी नहीं है। लेकिन यहां तो यह हाल है कि कहा था रिक्शा छुड़ा दो तो वह भी नहीं हुआ। अब हम आगे के लिए कह देते हैं कि हमें जो पूजेगा सो देंगे। आगे मांगने की जरूरत नहीं है।’

कुसुम ने ससुर की तरफ देखा और ससुर ने गंजे सिर पर हाथ फेरते हुए आंखें झुका लीं। लड़कियां किवाड़ों से चिपकी सिकुड़ी जा रही थीं।

कुसुम अपने मोहल्ले की एक महिला को बाइसिकिल पर अपने घर के सामने से रोज़ आते जाते देखती थी। वह महिला वेशभूषा से विधवा दिखती थी। लगता था वह कहीं काम करती थी। एक दिन कुसुम पता लगाकर उस महिला के घर पहुंच गयी। महिला ने उसका स्वागत किया। उनके घर में चार बच्चे थे— दो लड़के और दो लड़कियां।

वे श्रीमती जोशी थीं। कुसुम ने उनके परिवार के बारे में पूछताछ की। उन्होंने दुखी भाव से बताया कि उनके पति का तीन साल पहले एक मोटर दुर्घटना में निधन हो गया था। ससुराल और मायके वाले मदद करने की स्थिति में नहीं थे। वे बोलीं, ‘महीने दो-महीने तो मरी सी पड़ी रही, फिर सोचा बच्चों का भाग्य अब मेरे ही भरोसे है। एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर ली। शुरू में बाहर आने जाने में बहुत घबराहट होती थी। अब नहीं होती। अब मुझे संतोष है कि मैं बच्चों की मदद करने लायक हूं। किसी तरह गाड़ी चल रही है। आप भाग्यवान हैं कि आपको रिश्तेदारों की मदद मिल रही है।’

कुसुम ने सोच कर कहा, ‘आपके स्कूल में मुझे नौकरी मिल सकती है?’

श्रीमती जोशी आश्चर्य से बोलीं, ‘आपको नौकरी की क्या ज़रूरत है?’

कुसुम बोली, ‘आप पता लगाइएगा। मैं नौकरी करना चाहती हूं।’

श्रीमती जोशी बोलीं, ‘ठीक है। मैं पता लगा कर बताऊंगी।’

चार-पांच दिन बाद कुसुम एक दिन ससुर से बोली, ‘बाबूजी, सदर बाजार के नर्सरी स्कूल में आठ हजार  रुपये की मास्टरी मिल रही है। कर लूं?’

ससुर परेशान होकर बोले, ‘अरे बेटा, तू हमारे घर की बहू होकर आठ हजार रुपल्ली की नौकरी करेगी? उतनी दूर रोज कैसे जाएगी बेटी? हमारे खानदान में औरतों ने कभी नौकरी नहीं की। ऐसा मत कर।’

कुसुम चुप हो गयी।

अगले महीने रामनरेश रुपये देने नहीं आये। पिता उनके घर गये, फिर लौटकर बहू से बोले, ‘बेटी, अभी उसके पास पैसे नहीं हैं। दो एक दिन में दे देगा।’

पीछे आंगन में ओंकार की साइकिल पड़ी थी। उस पर धूल बैठ गयी थी। दोनों टायर चिपके हुए थे। ससुर कई बार कह चुके थे कि उसे बेच दिया जाए। हजार दो-हजार रुपये  तो मिल ही जाएंगे। लेकिन कुसुम ओंकार की चीज़ों को बेचना बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी।

एक दिन वह ससुर से बोली, ‘बाबूजी, मैं सोचती हूं कि अपनी साइकिल को कटवा कर लेडीज़ साइकिल बनवा लें।’

ससुर बोले, ‘लेडीज़ साइकिल का क्या करेगी बेटी?’

कुसुम बोली, ‘सुमन के काम आ जाएगी। अभी हर चीज के लिए आपको दौड़ना पड़ता है। फिर छोटे-मोटे काम वह कर लाएगी।’

ससुर बोले, ‘जैसी तुम्हारी मर्जी।’

फिर एक रात मोहल्ले वालों ने एक अजब नज़ारा देखा। सड़क पर एक लेडीज़ साइकिल पर कुसुम सवार थी और उसे दोनों तरफ से संभाले हुए दोनों बेटियां। कुसुम साइकिल चलाना सीख रही थी। बिजली की रोशनी में साइकिल की सीट पर उसके कूल्हे बड़े बेहूदे ढंग से हरकत करते थे। लड़कियां उसे ढकेलतीं और साइकिल डगमग होती, सड़क के एक किनारे से दूसरे किनारे को चली जाती। कई बार साइकिल  गिरती और उसके साथ कुसुम भी ज़मीन पर फैल जाती। मोहल्ले के स्त्री पुरुषों ने यह दृश्य सहानुभूति, प्रशंसा, उपहास और मज़ाक के भाव से देखा।

साइकिल की करीब एक सप्ताह प्रैक्टिस के बाद एक दिन कुसुम ससुर से बोली, ‘बाबूजी, मैने स्कूल की नौकरी कर ली है। कल से मैं काम पर जाऊंगी।’

ससुर ने खामोशी से एक बार उसकी तरफ देखकर आंखें झुका लीं।

धीरे-धीरे बात फैली। सब भाइयों तक बात पहुंची कि कुसुम अब साइकिल पर बैठकर नौकरी करने जाती है। तीनों घरों ने एक राहत की सांस ली।

शीतल प्रसाद दुखी भाव से कुसुम के पास पहुंचे। बोले, ‘नौकरी की क्या जरूरत थी? आखिर हमसे जो बन रहा था कर ही रहे थे।’

कुसुम ने हाथ जोड़कर कहा, ‘भाई साहब, आपने बहुत किया। आखिर कब तक आपके ऊपर बोझ डालते?’

रामनरेश भी कुसुम के पास पहुंचे। उनके मुंह पर राहत का भाव था। झूठी सहानुभूति के स्वर में बोले, ‘भई, नौकरी की क्या जरूरत थी? आखिर हम आगे पीछे पैसे तो देते ही।’

कुसुम ने कहा, ‘नहीं भाई साहब, आखिर आपके भी बाल बच्चे हैं। सबकी अपनी अपनी जिम्मेदारियां हैं।’

फिर तीनों परिवारों के लोग बारी-बारी से कुसुम  के घर गये। सब ने कुसुम से बड़े प्यार और बड़ी इज़्ज़त से बातें कीं। सब ने बारी-बारी से सुमन और सुनीता के सिर पर हाथ फेरा। फिर सब ने उस लेडीज़ साइकिल को गौर से देखा जो उनके लिए एक अजूबा बनी हुई थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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