श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुफ्त हुए बदनाम…“।)
अभी अभी # 491 ⇒ मुफ्त हुए बदनाम… श्री प्रदीप शर्मा
सस्ता रोये बार बार, महंगा रोये एक बार, और अगर मुफ़्त हुआ तो मुफ़्त में हुए बदनाम ! लो जी, यह क्या बात हुई। मुफ़्त में सांस ले छोड़ रहे हैं, 24 x 7 मुफ़्त की हवा खा रहे हैं, तब किसी का पेट नहीं दुखता, नेता लोग मुफ़्त में भाषण टिका जाते हैं, लोग घर आकर चाय भी पी जाते हैं और ऊपर से नॉन स्टॉप कविताएं भी मुफ़्त में सुना जाते हैं, लेकिन हमने कभी उफ नहीं की, किसी को बदनाम नहीं किया और सड़ी सी ₹ 21.43 पैसे की गैस सब्सिडी के पीछे मुफ्तखोरी का इल्ज़ाम ? हमने क्या राइटिंग में लिखके दिया था कि हमको सब्सिडी दो।
हां, हमने यह गलती जरूर की कि एक जागरूक मतदाता की तरह आपको मुफ्त में हमारा कीमती वोट जरूर दे दिया।
हम जानते हैं, माले मुफ्त बेरहम क्या होता है। हम इतने रहमदिल हैं कि किसी को मुफ्त में सलाह भी नहीं देते। लेकिन लोग हैं कि यह तो कह जाते हैं कि हमने लाख रुपए की बात कह दी, लेकिन उनकी जेब से बदले में फूटी कौड़ी तक नहीं निकलती। भलाई का जमाना नहीं होते हुए भी, हम भलाई करने से नहीं चूकते। ।
मुफ़्त को अंग्रेजों की भाषा में फ्री कहते हैं। और शायद इसीलिए कुछ लोग यह मान बैठे हैं कि हमें आजादी भी फ्री में ही मिली है। Freedom at midnight को जब मैने लोगों को, मध्यरात्रि को मुफ्त में मिली आजादी कहते सुना, तो मुझे बड़ा बुरा लगा। ऐसे में मुझे अपना खुद्दार शायर साहिर याद आ गया, जो कह गया, जिंदगी भीख में नहीं मिलती, जिंदगी बढ़के छीनी जाती है। हमने आजादी के लिए भी कुर्बानियां दी हैं। हम आजादी लड़ के लेते हैं लेकिन दुआ सदा मुफ्त में ही देते हैं ;
कर चले हम फिदा जानो तन साथियों
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों …
वैसे मुफ्त का भी मनोविज्ञान होता है। कवि शैलेंद्र तो कह गए हैं, ज्यादा की नहीं लालच हमको, थोड़े में गुजारा होता है, लेकिन हकीकत में, थोड़े में ज्यादा का लालच, तो सबको होता ही है। एक हमारा समय था, जब २५-५० रुपए की सब्जी की खरीदी में सब्जी वाला खुशी से हरा धनिया अपनी ओर से डाल देता था। उसने एक ओर तो हमारी आदत बिगाड़ी और आज अगर हम दो तीन सौ की सब्जी लें, और मुफ्त में थोड़ा सा हरा धनिया मांगें तो वह हमें घूरने लगता है। बाबू साब, दो सौ रुपए किलो है धनिया। दस रूपए का पचास ग्राम। ।
एक तो एक के साथ एक फ्री के लालच में हम वैसे ही कई अनावश्यक वस्तुएं घर उठा लाते हैं और फिर किसी ऐसे आयोजन की राह देखते रहते हैं जिस अवसर पर उसे उपहार के रूप में एडजस्ट कर लिया जाए। बिना लिफाफे अथवा गिफ्ट के क्या कहीं कोई जाता है। बड़ी बड़ी गिफ्ट के आगे आजकल लिफाफा बहुत छोटा नजर आने लगता है। फिर शुरू होता है लिफाफा वसूली का दौर। लोग भोजन पर ऐसे टूट पड़ते हैं, मानो दो साल से कोविड के कारण बाहर का कुछ खाया ही न हो। अपनी छोटी सी प्लेट में छप्पन दुकान सजाने का शौक सबको होता है। कुछ खाया, कुछ कूड़ेदान के हवाले किया। जब जूठा छोड़ने पर उतने भोजन की कीमत पेनल्टी स्वरूप वसूल की जाने लगेगी तब ही हमें अन्न का महत्व पता चलेगा। मुफ्तखोरी से बड़ा अपराध चीजों का अपव्यय है, जूठा छोड़ना क्या अन्न का अपमान नहीं।
आजकल किसी का नाम यूं ही नहीं होता। लोग नाम के लिए दान पुण्य करते हैं, धर्मशाला, गौशाला बनवाते हैं, समाज सेवा करते हैं। बिना कीमत के नाम भले ही न हो, बदनामी तो आज भी मुफ्त में ही मिल जाती है। मुफ्त हुए बदनाम, हाय किसी से दिल को लगा के। ।
© श्री प्रदीप शर्मा
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