डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘जीवन और भोजन‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 260 ☆
☆ व्यंग्य ☆ जीवन और भोजन ☆
भोजन सभी जीवो के लिए ज़रूरी है। वन्य पशुओं में भोजन के लिए दिन रात मारकाट चलती है। चौबीस घंटे जीवन संकट में रहता है। मनुष्य भी भोजन से पोषक तत्व और ऊर्जा प्राप्त करता है। समझदार कहते हैं कि बिना भोजन के आदमी का जीवन 35-40 दिन से आगे चलना मुश्किल है।
शुरू में आदमी गुफावासी था और भोजन के लिए उसे बाहर निकल कर पशुओं का शिकार करना पड़ता था। लेकिन वह अक्सर खुद भेड़ियों का शिकार हो जाता था, जो उस पर हमला करके तुरन्त उसका पेट फाड़ देते थे। यानी भोजन की तलाश में प्राण ही दांव पर लग जाते थे। महापंडित राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक ‘वोल्गा से गंगा’ में इन स्थितियों का विशद वर्णन मिलता है।
आग का अविष्कार हुआ तो आदमी की ज़िन्दगी कुछ आसान हुई। हिंस्र पशुओं को आग से डरा कर दूर रखा जा सका और भोजन को पका कर कोमल और सुरक्षित बनाया जा सका। दांतों को कसरत और नुकसान से राहत मिली। इसके बाद धातुओं के अविष्कार से भोजन को काटना- छांटना सरल हुआ। कृषि और पशुपालन के साथ आदमी के जीवन में स्थिरता आयी और ख़ानाबदोशी में विराम लगा।
सामन्तों और राजाओं के उदय के साथ प्राकृतिक शक्तियों और देवताओं को प्रसन्न करने के इरादे से यज्ञ शुरू हुए और इसके साथ पुरोहितों की भूमिका महत्वपूर्ण हुई। पुण्य कमाने के लिए ब्राह्मणों और अन्य नगरवासियों के भोज की व्यवस्था शुरू हुई। आनन्द और शोक के अवसर पर भोज देने के लिए नियम बने। हाल तक बड़े लोगों के शादी-ब्याह में पूरे गांव की पंगत होती थी। सड़क के किनारे ही आसन और पत्तल बिछ जाते थे। पानी के लिए लोग अपना-अपना लोटा या गिलास लेकर आते। रसूखदार लोगों के साथ उनके सेवक लोटा-गिलास लेकर चलते थे। जिन बिगड़े रईसों के पास सेवक नहीं होते थे वे किसी साधारण आदमी को उनका लोटा-गिलास लेकर चलने के लिए राज़ी करके अपनी इज़्ज़त बचाते थे।
धर्म के अनुसार तेरहीं पर भोज देना भी अनिवार्य था, अत: कई बार मृतक की तेरहीं के साथ जीवितों की भी तेरहीं हो जाती थी। आदमी अब इन कर्मकांडों से मुक्ति के लिए छटपटाता है, लेकिन समाज का दबाव और अदृश्य का भय उसे मुक्ति से दूर रखता है।
धर्म और जाति आये तो ‘रोटी-बेटी’ का परहेज़ भी आया। जिन्हें नीची जाति कहा जाता है उनकी उप-जातियों में भी रोटी-बेटी के संबंध में अड़चन आती है। विडंबना यह है कि मुफ्त में मिली श्रेष्ठता पर लोग गर्व करते हैं। अंतर्जातीय और अंतरधार्मिक विवाहों के कारण ये परहेज़ टूट रहे हैं, लेकिन उन्हें पोसने और पुष्ट करने वाली शक्तियां भी पूरी तरह सक्रिय हैं।
जल्दी ही आदमी की समझ में आ गया कि भोजन महज़ पेट भरने की चीज़ नहीं है। उससे पुण्य प्राप्ति के अतिरिक्त बहुत से काम साधे जा सकते हैं। अब संबंध बनाने और बढ़ाने के लिए भोजन का उपयोग किया जाने लगा। लोगों को भरोसा है कि जो नमक खाएगा वह नमक का ऋण ज़रूर चुकाएगा। राणा प्रताप के राजा मानसिंह से संबंध इसलिए दरक गये थे क्योंकि उन्होंने मानसिंह के साथ भोजन पर बैठने से इनकार कर दिया था।
भोजन का उपयोग रोब-दाब के लिए भी होता है। पैसे वाले ब्याह-शादी में भोजन में इतनी विविधता रखते हैं कि आमंत्रितों की आंखें चौंधया जाती हैं । व्यंजनों के दर्शन करते ही मन अघा जाता है।
राजनीतिक पार्टियों ने भी राजनीति के लिए भोजन का महत्व समझ लिया है। इसीलिए 80 करोड़ लोगों को प्रति माह 5 किलो अनाज मुफ्त प्राप्त हो रहा है। कई राज्यों में सस्ते भोजनालय खोले जा रहे हैं।
एक नयी प्रवृत्ति यह पैदा हुई है कि बड़े-बड़े नेता गरीबों के घर में बैठकर भोजन करने लगे हैं। इस बहाने गरीब के घर की सफाई और रंगाई- पुताई हो जाती है। कई बार भोजन होटलों से मंगवा लिया जाता है, गरीब के घर में सिर्फ बैठकर फोटो खिंचाने का काम होता है। जनता अपने नेताओं के इस ढोंग को देखकर अपना भाग्य सराहती है।
कवि ‘धूमिल’ की प्रसिद्ध कविता के अनुसार रोटी बेलने वालों और रोटी खाने वालों के बरक्स एक और वर्ग है जो रोटी से खेलता है। यह तीसरा वर्ग कौन है, इस प्रश्न का जवाब संसद से भी नहीं मिलता।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈