सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – कच्छ उत्सव )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 31 – कच्छ उत्सव – भाग – 2 ?

(दिसंबर  2017)

अभी हम कच्छ के टेंटों में ही रह रहे थे। तीसरे दिन प्रातः 5.30 बजे हमें अपने टेंट के बाहर

तैयार होकर उपस्थित रहने के लिए कहा गया।

सही समय पर बैटरी गाड़ी आई और हमें थोड़ी दूरी पर जहाँ कई ऊँट की गाड़ियाँ खड़ी थीं वहाँ ले जाया गया।हम सखियाँ ऊँट गाड़ी में बैठ गईं। यह  बैल गाड़ी जैसी ही होती है और इसमें मोटा गद्दा बिछाया हुआ होता है।यह गाड़ी बैल गाड़ी से थोड़ी ऊँची होती है कारण ऊँट की ऊँचाई के अनुसार गाड़ी रखी जाती है।गाड़ी में लकड़ी का एक चौपाया मेज़ भी हीती है ताकि ऊँट गाड़ी में चढ़ने में सुविधा हो।

अभी हवा सर्द थी।साथ ही आकाश स्वच्छ काला -सा दिख रहा था।असंख्य तारे जगमगा रहे थे। इतना स्वच्छ आसमान और चमकते सितारे देखकर हम मुग्ध हो उठा।बड़े शहरों में प्रदूषण इतना होता है कि न तो आकाश नीला दिखता है न सितारे ही दिखाई देते हैं। अभी अंधकार था।ऊँट भी बहुत धीरे -धीरे चल रहे थे मानो वे अभी भी सुस्ताए हुए से थे।हम उबड़- खाबड़ मार्ग पर से हिचकोले खाते रहे। पंद्रह बीस मिनिट बाद हम फिर नमक से भरी सतहवाली जगह पर पहुँच गए। खुले मैदान पर हवा और भी सूखी और सर्द थी।हमें जहाँ ठहराया गया था वह एक टीले के समान जगह थी।

हम इस स्थान पर सूर्योदय देखने के लिए उपस्थित हुए थे।आँखों के सामने श्वेत बरफ़ जैसी सतह थी तो अभी अँधकार के कारण  राख रंग सी दिख रही थी।पौ फटते ही वह सतह चाँदी की दरी जैसी दिखने लगी।समय तीव्र गति से चल रहा था और आँखों के सामने कलायडोस्कोप में जैसे चंद काँच की चूड़ियों के टुकड़े  अपना आकार बदल लेती है ठीक उसी  तरह इस खारे सतह पर रंगों की छटाएँ बदल रही थीं। आसमान में लाल सा विशाल गेंद उभर आया और नमक पर लाल छटाएँ चमक उठीं।अभी नयन भरकर उस सौंदर्य का आनंद ले ही रहे थे कि आकाश के सारे तारे गायब हो गए। आसमान नीला -सा दिखाई देने लगा ।आकाश सूरज की किरणों से सुनहरा सा हो गया और नमक वाली सतह सुनहरी हो गई। क्या ही जादुई दृश्य था! हम सब निःशब्द , अपलक इस अपूर्व सौंदर्य को बस निहारते ही जा रहे थे।आकाश चमकने लगा। हवा में जो सर्दपन था वह खत्म हुआ ।सुबह के सात बज चुके थे और हम सब सखियाँ सूर्यदेव को प्रणाम कर अपनी ऊँटगाड़ी में जाकर बैठ गईं।

हम लोग जब सूर्यदेव के आगमन की प्रतीक्षा में थे तब बड़े फ्लास्क में चाय लेकर कच्छी महिलाएँ घूम रही थीं। यहाँ की चाय थोड़ी नमकीन -सी होती है क्योंकि ऊँट के दूध का उपयोग भी यहाँ होता है। ये कच्छी महिलाएँ सुँदर काँच लगाए घाघरा पहनी हुई थीं।पैरों में मोजड़ियाँ थी।शरीर भर में अनेक प्रकार के चाँदी के मोटे -मोटे आभूषण भी थे।लंबा सा दुपट्टा इस तरह शरीर को लपेटे हुए था कि शरीर का कोई भी हिस्सा खुला नज़र न आया। इस तरह वे स्वयं को ठंड से बचाती हैं।उनके कपड़े थोड़े मोटे से होते हैं।अधिकतर महिलाएँ चॉकलेटी घाघरा और काले दुपट्टे में थीं।यहाँ महिलाएँ बेखौफ़ घूमती हैं।वे चाय और कुछ नाश्ता बेच रही थीं।

प्रकृति का सुंदर दृश्यों का आनंद लेकर हम सब लौट आए।ऊँट गाड़ी से उतरे  तो वहीं पर बैटरी गाड़ियाँ खड़ी थीं।डायनिंग रूम के पास बैटरीकार से हम पहुँचाए गए। कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन नाश्ते में खाकर हम अपने टेंट पर लौट आए।

अब सभी ने थोड़ा आराम किया और उसके बाद स्नान करके तैयार होकर दस बजे हम लोग पुनः भ्रमण के लिए निकले।

यहाँ बता दें कि हम जब कच्छ उत्सव के लिए पैसे भरते हैं तो जिन जगहों के भ्रमण की बातें इस संस्मरण में लिख रहे हैं उसकी व्यवस्था बस द्वारा की जाती है। यह पाँच या छह दिनों के लिए ही होता है।इसके लिए अलग से धनराशि देने की आवश्यकता नहीं होती।

हम लोग मांडवी के लिए निकले।सभी से कह दिया गया था कि अगर बस के पास दस बजे उपस्थित न हुए तो बस प्रतीक्षा नहीं करेगी।

हम मांडवी पहुँचे। यहाँ का सफर तय करने के लिए हमें डेढ़ घंटे लगे।सड़क संकरी थी पर बहुत ही साफ़ और अच्छी।

सबसे पहले विजय विलास पैलेस देखने के लिए निकले।

युवराज विजय राजी के लिए यह महल बनावाया गथा था।यह उनके ग्रीष्मकालीन अवधि में आराम से रहने के लिए बनवाया गया महल था। इसका निर्माण 1920 में प्रारंभ हुआ और 1929 में पूर्ण हुआ।

यह महल लाल रंग के पत्थर से बनाया गया था जिसे बलुआ पत्थर कहते हैं। इसकी वास्तुकला विशिष्ट राजपूत वास्तुकला से मिलती -जुलती कला है। यहाँ इमारत के सबसे ऊपर खंभों पर एक  ऊँचा छतरीनुमा  गुंबद बनाया हुआ है।, किनारों पर कुछ ऐसे झरोखे हैं जो झूलते से लगते हैं। रंगीन काँच की खिड़कियाँ बनी हुई है, नक्काशीदार पत्थर की जालियाँ भी बनी हुई है।

हर कोने में गुंबददार बुर्ज फैला सा दिखता है। हभ सभी सहेलियाँ महल के ऊपर तक पहुँचीं तो वहाँ से चारों ओर का दृश्य बहुत आकर्षक दिख रहा था।

यहाँ इस  महल को ठंडा रखने के लिए बगीचों में  संगमरमर के फव्वारे बने हुए हैं। विविध पानी के चैनलों द्वारा पानी बहता है और महल को ठंडा रखता है।ऐसी व्यवस्था जयपुर के महलों में भी देखने को मिला है।कितनी अद्भुत टेक्नोलॉजी है कि कई सौ वर्ष पूर्व भी हमारे देश में ऐसी व्यवस्थाएँ हुआ करती थीं। जालियों, झरखों , छत्रियों , छज्जों पर तथा दीवारों पर पत्थर की नक्काशी है जो आकर्षक हैं।यहाँ कई  हिंदी फिल्मों की शूटिंग की जाती है।

यहाँ से निकल कर हम लोगों को श्यामजी कृष्ण वर्मा समाधि स्थल इंडिया हाउस ले जाया गया।यह भी मांडवी में ही स्थित  है।

श्मयामजी कृष्ण वकील थे। उनकी पढ़ाई भी लंदन में ही हुई थी।वे आज़ादी से पूर्व लंदन में रहते थे। जिस घर में वे रहते थे उसे उन्होंने इंडिया हाउस नाम दिया था। भारत से लंदन जानेवाले सभी विद्यार्थी ख़ासकर जो स्वाधीनता संग्रामी थे इसी घर में रहा करते थे।उन सबकी मीटिंग भी यहीं हुआ करती थी। सन 1905 में

यह घर लिया गया था।यह एक दृष्टि से भारतीय छात्रों का छात्रावास था।यहाँ से भारतीय छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति भी दी जाती थी। यहीं पर वीर सावरकर,भीखाजी कामा तथा लाला हरदयाल और मदनलाल ढींगरा भी रह चुके थे।

ब्रिटेन पुलिस को जब इस बात की खबर हुई तो घर पर छापा मारा गया और वहाँ रहनेवाले छात्र अन्य देशों में चले गए। 1910 में यह संस्था बंद हो गई।

श्यामजी कृष्ण वर्मा अपनी धर्मपत्नी के साथ स्विटज़रलैंड चले गए। उन्होंने वहाँ की सरकार से निवेदन किया था कि अगर उन दोनों की मृत्यु हो जाए तो उनके अंतिम संस्कार के बाद उनकी अस्थियाँ कलश में रखी जाएँ और जब भारत से कोई लेने आए तो दे दिया जाए।इन सबके लिए बड़ी धन राशि भी सरकार के पास जमा रखी गई  थी।

सन 2010 में नरेंद्र मोदी जी जब गुजरात के मुख्य मंत्री रहे तो अत्यंत सम्मान के साथ दोनों कलश भारत ले आए। यहीं मांडवी में इंडिया हाऊस की प्रतिकृति बनाई गई। वही लाल,  दो मंज़िली इमारत। बड़े से बगीचे में श्यामजीकृष्ण वर्मा और उनकी पत्नी की बड़ी -सी मूर्ति भी बनाई गई। एक संग्रहालय है।दोनों की समाधि है तथा काँच की अलमारी में पीतल के कलश में फूल रखे गए  हैं।अत्यंत सुंदर आकर्षक इमारत है।सीढ़ियों से ऊपर जाते समय उस काल के विविध सावाधीनता संग्रामियों की तस्वीरें लगी हैं।तथा अन्य चित्रों के साथ इतिहास भी लिखा गया है।यह मेरा सौभागय रहा कि लंदन के उत्तरी भाग में क्रॉमवेल एवेन्यू हाईगेट में स्थित इस इमारत को बाहर से देखने का मौका मिला था।आज कोई और वहाँ अवश्य ही रहता है पर दीवार पर गोलाकार में एक संदेश है – विनायक दामोदर सावरकर – 1883-1966

भारतीय देशभक्त तथा फिलोसॉफर यहाँ रहते थे। लंदन में सजल नेत्र से बाहर से ही राष्ट्र के महान सपूत को नमन कर आए थे। पर मांडवी में फिर एक बार इंडिया हाउस के दर्शन से मैं पुनः भालविभोर हो उठी। लंदन, अंदामान और मांडवी सब जगह के इतिहास ने कुछ ऐसे तथ्यों को सामने लाकर खड़ा कर दिया था कि अपने भावों पर नियंत्रण रखना कठिन था।

मांडवी के इस इंडिया हाउस का दर्शन कर हम सब पुनः कच्छ उत्सव के टेंटों में लौट आए। सभी थके हुए थे। शीघ्र रात्रिभोजन कर टेंट में लौट आए।उस रात  हमलोग मनोरंजन के कार्यक्रम देखने नहीं गए बल्कि यायावर दल रात को देर तक देश की स्वाधीनता की लड़ाई की चर्चा करता रहा।

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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