श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “संकोच…“।)
अभी अभी # 499 ⇒ संकोच श्री प्रदीप शर्मा
संतोषी सदा सुखी तो हमने सुना है, लेकिन कभी किसी संकोची व्यक्ति को हमने सुखी नहीं देखा। संकोच व्यक्ति को अंतर्मुखी बना देता है, वह कम बोलता है, अपनी समस्या किसी को बताता नहीं, कभी किसी से दिल खोल कर बात नहीं करता।
कुछ लोगों का मामला बड़ा अलग होता है। उनका मानना होता है जिसने की शरम उसके फूटे करम। जो लोग, लोग क्या कहेंगे जैसी ग्रंथि से ग्रसित होते हैं, वे जीवन का हर काम फूंक फूंककर करते हैं।
ऐसे लोगों को नमस्ते भी करो तो वे शरमा कर अभिवादन स्वीकार करते हैं। उन्हें अपनी पत्नी तक को आई लव यू कहने में संकोच होता है। ।
संकोची व्यक्ति ना तो दिलदार होते हैं और ना ही दिलफैंक। एक कछुए की तरह वे गंभीरता ओढ़े रहते हैं, उनकी कभी हंसी नहीं छूटती। ऐसे संकोची प्राणियों के व्यक्तित्व का पूरा विकास ही नहीं हो पाता। शायर तो कह गया;
ये कली जब तलक
फूल बनकर खिले
इंतजार इंतजार
इंतजार करो ;
लेकिन यह संकोच रूपी कली, बड़ी मुश्किल से खिली है, कितना भी इंतजार करो, यह कली ना तो मुस्कुराएगी और ना ही कभी फूल बनकर खिलेगी, खिलखिलाएगी, बस कुछ ही देर में वापस अपने खोल में समा जाएगी।
ऐसे लोग भीड़, शोर और तड़क भड़क से भी बहुत घबराते हैं, ना तो कभी इनकी पत्नियां इन्हें अपनी उंगलियों पर नचा पाती और ना ही इन्हें पारिवारिक उत्सव के अवसर पर कहीं नाचने गाने का मन करता है। भोजन भी ऐसे करेंगे, मानो किसी पर अहसान कर रहे हैं। आप कुछ लेंगे, जी नहीं, बस हो गया। धन्यवाद। ।
ऐसे ही लोगों के लिए शायद इस तरह के गीतों की रचना की जाती है। फिल्म कन्हैया(1959) गायक मुकेश ;
मुझे तुमसे कुछ ना चाहिए।
मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। ।
संकोची सदा दुखी..!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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