डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘जीवन और भोजन‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 261 ☆
☆ कथा-कहानी ☆ कवच ☆
बस-स्टैंड रात भर सोता नहीं। सब तरफ लगी तेज़ ट्यूबलाइट के बीच बसों के हॉर्न और यात्रियों की भाग-दौड़ गूंजती रहती है। पान की दुकानों पर लोगों के गुच्छे इकट्ठे होते और बिखरते रहते हैं। बीच-बीच में किसी बददिमाग़ आदमी से पुलिस वाले का संवाद सुनाई पड़ता है। कभी दो आदमियों या दो गुटों के बीच उठा-पटक हो जाती है, और कुछ देर के लिए वहां सोते या ऊंघते लोगों की नींद भाग जाती है।
बस-स्टैंड पर भैयालाल की चाय की दुकान रात बारह एक बजे तक चलती है। फिर मुंह-अंधेरे ही वह हरकत में आ जाती है। भैयालाल दुकान के दोनों छोकरों को जगा कर सरंजाम देखता घूमने लगता है। ज़्यादातर वक्त गुल्लक के बाजू में जमे रहने की वजह से उसकी तोंद खासी बढ़कर झूलती रहती है। दुकान के खुलते ही बसों के कर्मचारी, मुसाफिर-खाने में इन्तज़ार करते यात्री और बस-स्टैंड को ही अपना घर मानने के लिए मजबूर लोग सवेरे की नींद भगाने वाले कप के लिए इकट्ठे होने लगते हैं।
और थोड़ा दिन फूटते ही दूर सड़क के किनारे लोकनाथ आता दिखायी पड़ता है, हमेशा की तरह झटका खाकर चलता हुआ और दाहिने पांव को थोड़ा घसीटता हुआ। सवेरे बस-स्टैंड पहुंचने के बाद शाम की रोशनियां जलने पर ही उसका लौटना होता है। दोपहर के खाने के लिए वह रोटियों का थैला अपने साथ लाता है, जिसे वह पुरस्वानी बस सर्विस के केबिन में रख देता है।
लोकनाथ का काम यहां घूम-घूम कर विभिन्न प्राइवेट बसों के यात्रियों के लिए पुकार लगाते रहना है। वह चिल्ला-चिल्ला कर यात्रियों को विभिन्न मार्गो की तैयार बसों की सूचना और उन्हें अपनी अपनी बसों में बैठने की हिदायत देता रहता है। इस काम के लिए उसे मालिकों से रोज़ शाम को कुछ पैसे मिल जाते हैं।
इससे ज़्यादा कठिन काम के काबिल लोकनाथ नहीं है। कभी वह प्राइवेट बसों पर कुली का काम करता था। तब उसका काम सामान को रिक्शा-स्टैंड से लाकर बसों में चढ़ाने और बसों से उतार कर रिक्शा-स्टैंड तक ले जाने का था। तब वह अच्छी कमाई कर लेता था। एक दिन एक बस की छत से एक यात्री की छोड़ी हुई भारी भरकम पेटी उसके हाथों से चलती हुई उसकी टांग पर गिरी, और उसके घुटने के नीचे फ्रैक्चर हो गया। डॉक्टर ने डेढ़ महीने का प्लास्टर चढ़ाया और उसके बाद जांच कराने और एक्स-रे कराने को कहा। इतने में ही लोकनाथ की सब जमा-पूंजी खर्च हो गयी। पचीस दिन घर में पड़े रहने के बाद उसने हंसिया उठाकर प्लास्टर फाड़ डाला और वापस बस-स्टैंड पर आ गया। उसके बाद वह कोई भारी वज़न उठाने के काबिल नहीं रहा।
बस-स्टैंड तक पहुंचने के लिए लोकनाथ को करीब तीन किलोमीटर चलना पड़ता है। ट्रस्ट की ज़मीन में उगी झोपड़पट्टी में एक खोली उसकी भी है। पूरी झोपड़पट्टी पांच छः बार उजड़ चुकी है, लेकिन वह हर बार रक्तबीज की तरह वापस पैदा हो जाती है। जब नगर निगम के कर्मचारी और पुलिस वाले उसके घोंसले के तिनकों को खींच- खींच कर इधर-उधर फेंकते हैं तब वह बैठा तटस्थ भाव से देखता रहता है। जब यह फौज अपने ताम- झाम के साथ लौट जाती है तब वह अपनी पत्नी की तरफ मुड़ता है, जो ऐसे वक्त हमेशा बाहों में मुंह देकर आंसू बहाने के लिए बैठ जाती है। वह उसकी बांह पकड़कर उसे उठाता है और फिर से तिनके जमाने में लग जाता है।
लोकनाथ के तीन बेटों में से दो शादी करके उससे अलग हो चुके हैं। बहुएं बेहतर ज़िन्दगी की आकांक्षी हैं और इसीलिए वे बूढ़े सास- ससुर का बोझ ढोना नहीं चाहतीं। पंद्रह साल का छोटा बेटा स्कूल में पढ़ता है, लेकिन वह कितना पढ़ता है इसकी जानकारी हासिल करने की फुरसत लोकनाथ को नहीं है। बेटे की ज़्यादा दिलचस्पी फैशन के कपड़ों और सिनेमा में है। अपनी तरफ से वह अपने को फिल्मी हीरो बनाए रखने में कसर नहीं छोड़ता। अपनी नयी-नयी ज़रूरतों को लेकर उसकी रोज़ ही मां-बाप से किचकिच होती रहती है। लोकनाथ के मन में कहीं है कि यह लड़का भी बुढ़ापे में उसका साथ नहीं देगा, लेकिन वह इस आशंका को दिमाग में बैठने नहीं देता, न ही उसे पत्नी के सामने प्रकट करता है।
पास ही रघुबर की खोली है। रघुबर भीतर से कमज़ोर, जल्दी परेशान हो जाने वाला आदमी है। पुलिस और निगम के अमले को देखकर उसकी तबीयत बिगड़ने लगती है। शाम को अक्सर वह अपने भय और अपनी आशंकाओं को लेकर लोकनाथ के पास आकर बैठ जाता है। कहीं यह हो गया तो? कहीं वह हो गया तो? कई बार उसे भय होता है कि ट्रस्ट इस ज़मीन को किसी को बेच देगा और फिर उन्हें सिर छिपाने के लिए कोई नई जगह तलाशनी होगी।
लोकनाथ उससे कहता है, ‘ए भाई, तू अपने साथ-साथ मुझे कमजोर मत बना। अभी की सोच और अभी का इंतजाम कर। कल जो होगा उसका भी कुछ इंतजाम करेंगे। तू तो फालतू बातें सोच-सोच कर सूख ही रहा है, मुझे भी सुखाएगा। शरीर में बल तो रहा नहीं, मन का बल बचा रहने दे। यह भी टूट गया तो कुछ भी करने लायक नहीं रहेंगे।’
रघुबर सहमति में सिर तो हिलाता है, लेकिन उसकी आंखों में कोई चमक नहीं आती।
लोकनाथ कहता है, ‘देख भाई, सब चीजें मेरे तेरे खिलाफ हैं। न सरकार हमारी तरफ है, न पुलिस, न अफसर बाबू। सब रास्ते बन्द हैं। पैसे वालों की तरफ सब हैं। हवा ऐसी है कि हमारी सन्तान भी हमारी नहीं रह पाती। बड़े लोगों की दुनिया की चमक-दमक उन्हें भी हमसे खींच लेती है। वे भी इस नरक से छुटकारा चाहते हैं। इसलिए मन को मजबूत रखो और हालात का मुकाबला करो। चिन्ता करने से कोई फायदा नहीं।’
आज सवेरे जब लोकनाथ बस-स्टैंड पहुंचा तो वह हमेशा की तरह सीधे भैयालाल की दुकान पर रुका। बाहर पड़ी बेंच पर बैठकर बोला, ‘गुड मॉर्निंग, सेठ।’
भैयालाल का थोबड़ा उसे देखकर लटक गया। वह कुछ भुनभुना कर चुप हो गया।
लोकनाथ ने आवाज़ दी, ‘फटाफट चाय ला, छोकरे। एकदम गरम। फस्ट क्लास।’
भीतर से भैयालाल गुर्राया, ‘पैसे लाया है या मुफ्त में चाय पीने आया है?’
लोकनाथ गर्दन अकड़ा कर बोला, ‘ओ! एकदम कैश। हमको फटीचर समझता है? कह तो दस बीस हजार रुपया दे दूं।’
सेठ फिर भुन्नाया बोला, ‘रहने दे, रईस की औलाद।’
छोकरा चाय ले आया। लोकनाथ गुनगुनाता हुआ चाय पीता रहा। फिर उठकर उसने भैयालाल के सामने पांच रुपये फेंके, बोला, ‘ले पैसे। तू भी क्या याद करेगा।’
भैयालाल बोला, ‘और पिछले तीस रुपये?’
लोकनाथ बोला, ‘वे भी मिल जाएंगे। मुझे एक जायदाद मिलने वाली है। मिलते ही तुझे तीस की जगह तीन सौ दे दूंगा। फिकर मत कर। तू मर जाएगा तो तेरे चीटके पर रुपये रख दूंगा और तुझे डाक से खबर कर दूंगा। नहीं दूंगा तो तू भूत बनकर रोज मेरे पास तीस रुपये वसूलने आएगा।’
भैयालाल फिर भुनभुनाने लगा और लोकनाथ उठकर इधर-उधर घूमता हुआ आवाज़ें लगाने लगा।
शाम को जब वह पैसे मांगने बसों के मैनेजरों के पास पहुंचता है तो वे भी झिकझिक करने से बाज़ नहीं आते। अक्सर कहते, ‘आज तूने हमारी बस के लिए कम आवाज लगायी। हमें तो तेरी आवाज सुनायी ही नहीं पड़ी। आज तू आया कब था, हमें तो कुछ पता ही नहीं चला।’
जवाब में लोकनाथ कहता है, ‘आप यहां एक रिकार्डर लगवा दो। शाम को रिकार्डर चला कर सबूत ले लिया करो। मैं रोज-रोज कहां तक सबूत दूं ?’
पैसे वसूल कर वह लंगड़ाता हुआ घर की तरफ चल दिया। करीब एक घंटे में वह उस इलाके में पहुंच गया जहां रोशनी के नाम पर असंख्य ढिबरियां टिमटिमाती थीं। ढिबरियों की रोशनी पर हावी अंधेरे के बीच लोगों के खांसने, रोने, हंसने, चीखने और लड़ने की आवाज़ें गूंजती थीं। कई तरफ से टीन के डिब्बों पर ताल देकर गाने के स्वर उठ रहे थे। दूर से वह किसी प्रेत-नगरी का भ्रम देती थी, सिर्फ आवाज़ों की नगरी।
लोकनाथ अपनी खोली के सामने पहुंचा तो उसने पत्नी को बाहर बैठे पाया। उसे देखकर बोली, ‘छुटका सवेरे का निकला अभी तक नहीं आया। दोपहर को रोटी भी नहीं खायी। जाने कहां चला गया मरा।’
लोकनाथ भीतर घुसता हुआ बोला, ‘तू मुझे रोटी दे। बहुत थक गया हूं ।’
रोटी खाकर वह ज़मीन पर बिछे बिस्तर पर कुहनी के बल उठंगकर बीड़ी पीने लगा। पत्नी खाना ढककर उसके पास आकर बैठ गयी, बोली, ‘तुम कैसे बाप हो? लड़का दिन भर जाने कहां घूमता रहता है और तुम कुछ फिकर नहीं करते?’
लोकनाथ बोला, ‘मैं सब सोचता हूं और सब फिकर करता हूं। मैं वह भी सोचता हूं जो तू नहीं सोचती। बहुत फिकर करके मुझे जल्दी मरना नहीं है। लोग यही तो चाहते हैं कि तेरे-मेरे जैसे लोग फिकर में घुलें और जल्दी खतम हों। तू जाकर रोटी खा ले और सो जा। उसके लिए ढककर रख दें। जब आएगा तब खा लेगा।’
इसके बाद वह करवट बदलकर सो गया।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈