सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा
(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से अधिक समय से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित। पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा जीने की राह।
लघुकथा – जीने की राह सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा
9:25 की लोकल में आशा के विपरीत अमन को सीट मिल गई. वह बैठा ही था कि ताली पीटते हुए किन्नर रेशमा उसके सम्मुख आन खड़ी हुई- “क्या बात है अमन बाबू.. तीन-चार दिनों से दिखाई नहीं दिए… ”
“ हां, सर्दी बुखार हो गया था. वर्क फ्रॉम होम ही करता रहा. आप कैसे हो ?” अमन ने हमेशा की तरह अपनत्व जताते हुए कहा.
“ अच्छे हैं. आपको अच्छी खबर देनी थी इसलिए रोजाना आपका इंतजार करती रही…. ” रेशमा के चेहरे पर मुस्कुराहट भरी चमक उभर आई.
“हां बोलो ना… ” अमन के कहते ही वह उत्साहित हो बताने लगी- “आप हमेशा कहते थे ना कोई काम करो तो हमें काम मिल गया है. मैंने और कुसुम ने मिलकर चाय का ठेला लगा लिया है हम दोनों मिलकर चाय बनाते हैं मसाले वाली. शुरू में कुछ दिक्कतें आईं. लोग कन्नी काट निकल जाते थे. फिर धीरे-धीरे सब ठीक हो गया. अब तो हमारी चाय को लोग बहुत पसंद कर रहे हैं. अच्छी बिक्री हो रही है. अब फुटपाथ, लोकल, रिक्शे की सवारियों को रोक कर पैसे मांगने का धंधा छोड़ दिया. बहुत जी ली लोगों की फटकार. ताने, मजाक, अश्लील इशारों से भरी जिल्लत भरी जिंदगी. अब किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे….. ” कहते रहते उसके चेहरे पर स्वाभिमान के भाव आ गए थे.
“ यह तो सचमुच बहुत खुशी की बात है… ” अमन ने 50 का नोट पर्स से निकाला तो रेशमा फ़ौरन बोली – “ बस अमन बाबू, आपने मेरी जो मदद की, मुझे जीने की राह दिखाई, सहयोग दिया वह कभी नहीं भूल सकती. इसी लोकल में हर व्यक्ति हमारी तरफ हिकारत से देखता था मानो हम इंसान ही नहीं. प्रकृति ने हमारे साथ अन्याय किया यह हमारा दोष तो नहीं ना ! पर आप सबसे अलग हो. हमारे दर्द को जाना, हमारी भावनाओं को समझा, हमें हमेशा कुछ मिनट का ही सही वक्त दिया, बातचीत की. एक दोस्त की तरह हमें समझाया, आर्थिक सहयोग दिया. मैंने तो यहां तक सुना मुझसे जब आप बातें करते थे लोग कहते थे – “ किसको मुंह लगा रहे हो ? तुम्हें नहीं पता ये लोग तुम्हारे पीछे ही पड़ जाएंगे.. ” कितनी हिकारत से हमें देखते थे. आप केवल मुस्कुरा देते थे.
फिर एक दिन आपने कह दिया था – “ वे भी तो इंसान हैं. क्या उन्हें इतना भी अधिकार नहीं कि हम लोगों से बातचीत कर सकें… अपने कुछ दर्द, परेशानियां हमें सुना कर अगर वे हल्कापन महसूस करते हैं तो उसमें क्या आपत्ति है… ? दस, बीस, पच्चीस, पचास रुपए उन्हें देने से हम गरीब तो नहीं हो जाएंगे. उनके पास आय का जरिया ही कहां है.. ? समाज को उनके बारे में भी तो सोचना चाहिए… ” आपकी बातों का असर यह हुआ कि अब लोगों ने हिकारत से देखना छोड़ दिया था और हमारी आय भी बढ़ गई. फिर कुसुम के साथ सलाह की और चाय का ठेला लगाने की योजना बना ली. वह भी इस जिल्लत भरी जिंदगी से बहुत दुखी थी. हम दोनों बहुत खुश हैं… ”
अमन ने 50 का नोट उसके हाथ में थमाया – “ इसे रखो, तुम्हारी दुकान के लिए शगुन है. और हां, जब भी समय मिला मैं चाय पीने जरूर आऊंगा…. ” रेशमा ने अमन के सिर पर हाथ रख आशीर्वादों की झड़ी लगा दी. वह नखशिख तक उन दुआओं में भीगता रहा तृप्त होता रहा.
© नरेन्द्र कौर छाबड़ा
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈