श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जगमग ज्योति जले…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 218 ☆ जगमग ज्योति जले… 🪔 ☆
संस्कार भारतीयता में समाहित हैं, जितने भी त्योहार हम मनाते हैं सभी में दान की परम्परा को ही महत्व दिया जाता है। हर व्यक्ति यही चाहता है कि उसके हाथ माँगने के लिए नहीं, देने के लिए उठें, शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि जब दायाँ हाथ किसी को कुछ दे तो बाएँ हाथ को भी पता नहीं चलना चाहिए।
हमारी जरूरतें तो कभी कम नहीं होंगी पर हमें अपने खर्चों में कमीं करते हुए स्वविवेक से कुछ न कुछ जरूरतमंदों को अवश्य देना चाहिए जिससे आपमें उत्साह व सकारात्मकता का भाव विकसित होगा और यही संस्कार आप अगली पीढ़ी को देंगे जो उनकी उन्नति का मार्ग निर्धारित करेगा।
कोशिश कीजिए कि जन्म सार्थक हो, किसी का भला कर सकें इससे बड़ी बात कुछ हो ही नहीं सकती।
दीपोत्सव 🪔 की शुभकामनाओं के साथ-
भावों के दीपक जलाते चलो।
ज्योतित जहाँ को बनाते चलो।।
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फूलों की खुशबू से महकेगा मन।
बगिया जतन से सजाते चलो।।
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गंगा सी पावन नदियाँ जहाँ।
प्यासों की प्यास मिटाते चलो।।
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गायत्री मंत्रों से गूँजे गगन।
बच्चों ये सब सिखाते चलो।।
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साहित्य पढ़ना जो सच्चा रहे।
हिंदी की बिंदी लगाते चलो।।
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संगम विचारों का अनमोल जो।
छाया घनी नित बढ़ाते चलो।।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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