श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आनंद मार्ग …“।)
अभी अभी # 512 ⇒ आनंद मार्ग श्री प्रदीप शर्मा
मैं तो चला, जिधर चले रस्ता ! लो जी, ये भी कोई बात हुई। हम रास्ते पर चलते हैं, रास्ता भी कहीं चलता है। जिसे देखो, वह किसी रास्ते पर चल रहा है, कोई सच्चाई के रास्ते पर, तो कोई धर्म और ईमानदारी के रास्ते पर। किसी को शांति की तलाश है तो किसी को सुख की। और रास्तों के नाम तो हमने ऐसे दे दिए हैं कि बस पूछो ही मत। हम रास्ते बदलें, उसके पहले उन रास्तों के ही नाम बदल जाते हैं। जो कभी जेलरोड था, उसे देवी अहिल्या मार्ग बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। यह गली आगे मुड़ती है। हमारे आदर्श भी आजकल बच्चों के खिलौने के समान हो गए हैं, आज कुछ, तो कल कुछ और।
घर से चले थे हम तो,
खुशी की तलाश में।
गम राह में खड़े थे,
वो भी साथ हो लिए।।
एक मार्ग आनंद का भी होता है, जिस पर मुसाफिर चलता हुआ यह गीत आसानी से गा सकता है ; मस्ती में छेड़ के तराना कोई दिल का, आज लुटाएगा खजाना कोई दिल का। आज की पीढ़ी जिस मस्ती और आनंद के मार्ग पर चल रही है, यहां आज हम उसका जिक्र नहीं कर रहे हैं, हम बात कर रहे हैं एक ऐसी संस्था की, जिसका नाम ही आनंद मार्ग था। आनंद मठ का आपने नाम सुना होगा और बंकिम बाबू का भी, लेकिन कितने लोग प्रभात रंजन सरकार को जानते हैं, जिन्होंने सन् 1955 में आनंद मार्ग की स्थापना की थी।।
हर मार्ग की स्थापना किसी आदर्श अथवा उद्देश्य को लेकर ही होती है। जल्द ही लोग उस मार्ग पर चलना भी शुरू कर देते हैं। अगर यह रास्ता ठीक है तो ठीक, वर्ना भटकना तो है ही।
बंगाल का जादू हमेशा सर चढ़कर बोलता है। फिर चाहे वह संगीत हो अथवा साहित्य। बंगाल में आजादी के बाद अधिकतर मार्क्सवादी सरकार रही। आनंद मार्ग एक ऐसा ही सामाजिक और आध्यात्मिक संगठन था जिसका गठन ही कांग्रेसी और मार्क्सवादी विचारधारा से लोहा लेने के लिए किया गया था। लोग नक्सलवाद को आज भी नहीं भूले, लेकिन आनंद मार्ग का आज कोई नाम लेने वाला नहीं बचा।
हम भी अजीब हैं। अहिंसा के रास्ते पर चलते हैं और क्रांति की बात करते हैं। जब सत्ता किसी और के हाथों में होती है, तो तख्ता पलटने की बात करते हैं और जब खुद सरकार बन जाते हैं, तो वही मार्ग आनंद मार्ग हो जाता है। आपातकाल में अन्य राजनीतिक संगठनों के साथ आनंद मार्ग पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था और इनके गुरु आनंदमूर्ति उर्फ प्रभात रंजन सरकार सहित सभी अनुयायी जेल में बंद थे। कथित रूप से इन्हें हिंसक गतिविधियों में शामिल होने के कारण जेल में रखा गया और इन्हें जहर देकर मारने की भी साजिश की गई।।
सन् 1982 में आनंद मार्ग के 17 सन्यासी, जिन्हें अवधूत कहा जाता है, की हत्या कर दी गई जिसके बाद से इनकी गतिविधियां सीमित हो गई और सन् 1990 में इनके तारक ब्रह्म आनंद मूर्ति, जिन्हें इनके भक्त बाबा कहकर भी संबोधित करते थे, के निधन के बाद आनंद मार्ग में कोई आनंद नहीं रहा।
मार्ग आनंद का हो, अथवा राजनीति का, चुनौतियों का सामना तो करना ही पड़ता है। कभी विरोध तो कभी समर्थन, कभी जीत तो कभी हार। सत्ता के गलियारे में जो सुख और आनंद की तलाश करना चाहता है, उसका मार्ग बड़ा कांटों भरा होता है। एक समय था, जब राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं आमने सामने थी। खालिस्तानी आंदोलन, मार्क्सवाद, नक्सलवाद, आनंद मार्ग और अपना ही रक्तबीज भिंडरावाला इंदिरा गांधी की मौत का कारण बना।।
हिंसा का मार्ग कभी आनंद मार्ग नहीं हो सकता। हिटलर और सुभाष के मार्ग में अंतर है। अशोक पहले सम्राट बना उसके बाद बुद्ध की शरण में गया। हमें भी आज किसी शुक्राचार्य अथवा द्रोणाचार्य की नहीं, आचार्य चाणक्य और भीष्म पितामह की तलाश है। हिंसा और आतंक का मुकाबला कभी अहिंसा से नहीं होता।
एक मार्ग, एक विचारधारा, एक नेता पैदा करती है, और फिर उसके कई अनुयायी पैदा हो जाते हैं। एक जलप्रपात कई धाराओं के मिलने से बनता है। विचारों का प्रवाह अगर जारी रहे, तो झरना कभी सूखता नहीं। विचारों का नवनीत ही आनद मार्ग है। सत चित आनंद ही सच्चा आनंद मार्ग है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर
मो 8319180002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈