श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भूले बिसरे मित्र…“।)
अभी अभी # 513 ⇒ भूले बिसरे मित्र श्री प्रदीप शर्मा
मित्र को मीत भी कहते हैं और सखा भी। एक पुराना दोस्त एक भूले बिसरे गीत की तरह होता है। यह शिकायत नहीं, हकीकत है, नए रिश्तों ने तोड़ा नाता पुराना, मैं खुश हूं मेरी आंसुओं पे ना जाना। जीवन भी तो एक संगीत ही है, लेकिन क्या केवल पुकारने से ही हमारा पुराना मीत, बचपन का सखा, यार और दोस्त वापस आ जाता है।
होता है, कभी कभी ऐसा भी होता है, जब हमारी पुकार सुन ली जाती है, और कोई भूला बिसरा बचपन के मित्र का, अचानक हमारे जीवन में फिर से प्रवेश हो जाता है।।
जरा इस गीत में पुराने मित्र का दर्द तो देखिए, मानो कोई बुला बिसरा गीत अचानक याद आ गया हो। डीजे और पॉप म्यूजिक की दुनिया में अगर कहीं से लता और शमशाद का गीत बज उठे, दूर कोई गाये, धुन ये सुनाए, तो मन भी यही कह उठता है ;
आ लौट के आजा मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं।
मेरा सुना पड़ा रे संगीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं।।
लेकिन ना तो कभी बचपन वापस आता है और ना ही बचपन के मित्र, यार दोस्त। बचपन के स्कूल और कॉलेज के दोस्त सूखे पत्तों की तरह होते हैं ;
पत्ता टूटा डाल से
ले गई पवन उड़ाय।
अब के बिछड़े कब मिलेंगे
दूर पड़ेंगे जाय।।
लेकिन हवा का क्या है, अगर समय का रुख हमारी ओर हुआ तो किसी भूले बिसरे गीत की तरह, किसी भूले बिसरे मित्र का भी फिर से जीवन में प्रवेश हो जाता है। समय का असर और समय की मार किस इंसान पर नहीं पड़ती। मिलने की खुशी के साथ वो भूली दास्तान भी याद आ ही जाती है। पूछो न कैसे मैने रैन बिताई।
कोई भूला बिसरा गीत भले ही अमर हो जाए, हर भूला बिसरा मित्र वापस जीवन में लौटकर नहीं आता। कुछ तो वक्त के साथ बहकर बहुत दूर निकल जाते हैं, तो कुछ इस दुनिया से ही किनारा कर लेते हैं। कुछ हो सकता है, हमारे आसपास ही हों लेकिन प्यार की बीन कभी अकेली नहीं बजती, क्या करें, कोई मित्र साथ ही नहीं देता ;
मजबूर हम, मजबूर तुम।
दिल मिलने को तरसे।।
हाय रे इंसान की मजबूरियां।
पास रहते भी हैं कितनी दूरियां ;
याद आते हैं वे दिन, उठाई साइकिल और निकल पड़े अपने दोस्त के घर की ओर। जब तक कार, स्कूटर ने साथ दिया, शादी ब्याह और कॉफ़ी हाउस तक भी आना जाना हुआ करता था। फिर उम्र का वह पड़ाव भी आ ही गया, जब इंसान गणेश जी की तरह बस अपने बाल बच्चों और सगे संबंधियों की ही परिक्रमा करने पर मजबूर हो जाता है। सभी मित्रों की दौड़ भी विदेशों और बड़े बड़े शहरों में नौकरी कर रहे अपने बच्चों तक ही सीमित हो जाती है।
कितना अच्छा है, भले ही कोई भूला बिसरा मित्र हमसे नहीं मिल पाता, लेकिन वह अपने परिवार के साथ तो खुश है। वह इतना बदनसीब तो नहीं कि उसे वृद्धाश्रम में अपना बुढ़ापा गुजारना पड़े। कभी भूले भटके फोन पर बात हो जाए, अथवा किसी शादी ब्याह/शोक प्रसंग में कुछ पल बातें हो जाएं, वही बहुत है आज की इस अस्त व्यस्त जिंदगी में।।
ज्यादा की नहीं आदत हमें, थोड़े दोस्तों में गुजारा होता है। आज के दोस्त नए फिल्मी गीतों जैसे हैं, इधर सुना, उधर भूले। हां वैसे कुछ आभासी रिश्तों में पुराने गीतों जैसी खनक आज भी मौजूद है।
जगजीत की तरह मन को जीतने वाले मनमीतों की आज भी इस दुनिया में कमी नहीं।
कभी किताबों से यारी की, फिर घबराकर हमने भी मुखपोथी को माथे लगा ही लिया। साहित्य, संगीत, अध्यात्म और मित्रों का ढेर सारा प्यार यहां मिल ही रहा है। अपनों की कमी नहीं जहान में, बस दिल का दरवाजा खुला रहे। मित्रता की प्यार की बीन यूं ही कानों में गूंजती रहे। सलामत रहे दोस्ताना हमारा।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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