श्री राकेश कुमार
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 110 ☆ देश-परदेश – धूम्रपान ☆ श्री राकेश कुमार ☆
उपरोक्त चित्र को देखकर कई मित्र तो माचिस ढूंढने लग गए होंगे। साठ से नब्बे के दशक तक सिगरेट के भी खूब ठाठ हुआ करते थे। खैनी से बीड़ी पर पहुंचे लोग, सिगरेट की तरफ बढ़ चुके थे।
फिल्मी हीरो, फिल्मों और पत्र पत्रिकाओं के विज्ञापन में सिगरेट का सेवन करते हुए अतिरिक्त राशि भी अर्जित करते थे। सस्ते ब्रांड में पनामा और चारमीनार प्रचलित हुआ करते थे।
सिगार का चलन बड़े वाले अमीर परिवार या अंग्रेजी फिल्मों में होता था। हमने भी फिल्मों में ही इसके दर्शन किए थे, क्योंकि अमीर लोग हमारे परिचय में नहीं थे।
सिगरेट के असली शौकीन तो पाउच वाली सिगरेट बना कर पीते थे। इसका लाभ ये होता था, कि सिगरेट कम पी जाती थी। स्वयं पाउच से कागज में तंबाकू भरने के बाद चिपका कर सिगरेट का सेवन, समय और पेशेंस मांगता है, जो बहुत कम लोगों के पास होता था। साधारण पान की दुकानों में पाउच मिलता भी नहीं था।
इंडियन टोबैको और गोल्डन टोबैको बहुत बड़े विख्यात नाम हुआ करते थे, सिगरेट उद्योग के लिए। केंद्रीय बजट में हर वर्ष सिगरेट महंगी होती थी। सिगरेट की लंबाई भी इसकी कीमत तय करने का पैमाना हुआ करता था।
कॉलेज के दिनों में हम भी जेब में माचिस रखा करते थे, ताकि किसी शौकीन को आवश्यकता पड़े, तो काम आ सकें। हमारी माचिस के एवज में कुछ सुट्टे या एक आध सिगरेट का सेजा हो ही जाता था। ऐसे मौके यात्रा के समय बस और ट्रेन में अधिक मिलते थे।
सिगरेट के धुएं से छल्ले बनाकर हवा में उड़ाने से लड़कियां भी आकर्षित हो जाया करती थी, ऐसा हमने बॉलीवुड की फिल्मों में खूब देखा था। हमने भी प्रयास किया था, लेकिन असफल रहे थे।
टाइम पास के लिए भी सिगरेट एक अच्छा साधन हुआ करता था, जैसे आजकल मोबाइल भी हैं। सिगरेट आपके फेफड़ों को छलनी कर देता है, तो मोबाइल आपके दिमाग को छलनी कर रहा है।
© श्री राकेश कुमार
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