सुश्री ऋता सिंह
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – मुखौटे में छिपे चेहरे ।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 37 – संस्मरण – मुखौटे में छिपे चेहरे
एक अत्यंत अनुभवी तथा वयस्क महिला से मिलने का सुअवसर मिला। उनसे मेरा परिचय संप्रति एक यात्रा के दौरान हुआ था। संभवतः उन्हें मेरा स्वभाव अच्छा लगा जिस कारण वे कभी -कभी फोन भी कर लिया करती थीं। उन दिनों लैंड लाइन का प्रचलन था।
महिला जीवन के कई क्षेत्रों का अनुभव रखती थीं। साथ ही लेखन कला में भी उनकी रुचि थी।
आखिर एक दिन अपने घर पर चाय पीने के लिए लेखिका महोदया ने मुझे आमंत्रित किया। मैं अपनी स्कूली ज़िंदगी और गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों को लेकर खूब व्यस्त रहती हूँ। उनके कई बार निमंत्रण आने पर भी मैं समय निकालकर उनसे मिलने न जा सकी। पर आज तो उन्होंने क़सम दे दी कि शाम को चाय पर मुझे जाना ही होगा उनके घर।
एक पॉश कॉलोनी में वे रहती हैं।
मैं उनके घर शाम के समय पहुँची। हँसमुख मधुरभाषी लेखिका ने मेरा दिल खोलकर स्वागत किया। किसी लेखिका से मिलने का यह मेरा पहला ही अनुभव था। अभी मेरी उम्र भी कम है तो निश्चित ही अनुभव भी सीमित ही है। मन में एक अलग उत्साह था कि मैं किसी रचनाकार से मिल रही हूँ।
सुंदर सुसज्जित उनका घर उनकी ललित कला की ओर झुकाव का दर्शन भी करा रहा था। हर कोना पौधों से सजाया हुआ था।
वार्तालाप प्रारंभ हुआ । बातों ही बातों में कई ऐतिहासाक तथ्यों पर हमारी चर्चा भी हुई।
उनकी रचनाएँ प्रकृति की सुंदरता, स्त्री की स्वाधीनता, पशु- पक्षियों के प्रति संवेदना आदि मूल विषय रहे।
थोड़ी देर में उनके घर की सेविका चाय नाश्ता लेकर आई। वह टिश्यू पेपर साथ लाना भूल गई तो उन्होंने उसे मेरे सामने ही डाँटा। (वह चाहती तो अपनी मधुर वाणी में भी निर्देश दे सकती थीं) हमने चाय नाश्ता का आनंद लिया। हम खूब हँसे और विविध विषयों पर चर्चा भी करते रहे।
उनकी कुछ रचनाएँ उन्होंने पढ़कर सुनाई। उन्होंने मेरी भी कुछ रचनाएँ सुनी और उसकी स्तुति भी की। कुल मिलाकर उनका घर जाना और समय बिताना उस समय मुझे सार्थक ही लगा था।
मैं जब वहाँ से निकलने लगी तो किसी ने कहा नमस्ते, फिर आना मैं आवाज़ सुनकर चौंकी क्योंकि उस कमरे में हम दोनों के अलावा और कोई न था।
लेखिका मुस्कराई बोलीं- यह मेरा पालतू तोता पीहू है। बोल लेता है।
मैंने उसे देखने की इच्छा व्यक्त की तो वे मुझे अपनी बेलकॉनी में ले गईं। वहाँ एक कुत्ता चेन से बँधा था। मुझ अपरिचित व्यक्ति को देखकर वह भौंकने लगा। चेन खींचकर आगे की ओर बढ़ने लगा। लेखिका ने काठी दिखाई तो अपने कान पीछे करके वह चुप हो गया। वहीं पर एक पिंजरे में वह बोलनेवाला तोता बंद पड़ा था। उन्होंने कहा “पीहू नमस्ते करो” और तोते ने नमस्ते कहा।
दृश्य अद्भुत था! पशु चेन से बँधा और पक्षी पिंजरे में कैद! रचनाओं में पशु -पक्षी की आज़ादी की बातें! स्त्री की स्वाधीनता की बातें करनेवाली ने किस तरह सेविका को फटकारा कि मेरा ही मन काँप उठा। मेरा मन विचलित हो उठा। मैं घर लौट आई।
काफ़ी समय तक मुखौटे में छिपा वह चेहरा मुझे स्मरण रहा पर कथनी और करनी में जो अंतर दिखाई दिया उसके बाद मैं उनके साथ संपर्क क़ायम न रख सकी।
लेखक अगर पारदर्शी न हो तो सब कुछ दिखावा और दोगलापन ही लगता है। जो कुछ हम अपनी रचना में लिखते हैं वह हमारे जीवन का अगर अंश न हो तो हम भी मुखौटे ही पहने हुए से हैं।
© सुश्री ऋता सिंह
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