सुश्री ऋता सिंह
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – लघुकथा – संस्कार।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 39 – लघुकथा – संस्कार
“भाभी आपके कॉलेज की सहेलियाँ आपसे मिलने आईं हैं।” शुभ्रा ने अपनी भाभी तृषा से कहा।
तृषा अपनी सास के साथ बैठी थी।आजकल दिन भर कोई न कोई मिलने आया करता था।अभी कुछ दिन ही तो हुए थे उसके ससुर जी का देहांत हुआ था। वह आजकल सप्ताह भर छुट्टी पर थी।वह तुरंत ड्राइंग रूम की तरफ़ चलने को उद्यत हुई।
सास ने कहा ” बेटा पानी तो पूछ लेना।अब समय बदल गया है।” “जी माँ।” कहकर तृषा सहेलियों के बीच आ गई।
पहले सभी एक एक कर उसके गले लगीं और शोक व्यक्त किया। नेहा तृषा की करीबी सखी थी।उसने अचानक यह सब कैसे हो गया पूछा तो तृषा रोने लगी और आँसू पोंछती हुई ससुर जी के अचानक गुज़र जाने का वृतांत सुनाने लगी।
नेहा ने उसके कंधे पर हाथ रखकर ढाढ़स बँधाया और कहा,” अब कुछ समय वर्क फ्रॉम होम कर ले।सासू माँ को सहारा हो जाएगा।”
“हाँ , ऐसा ही कुछ सोच रहे हैं। हम तीनों मिलकर ही वर्क फ्रॉम होम करेंगे तो माँ के पास हमेशा ही कोई न कोई होगा।”
“दो-तीन महीने में संभल जाएँगी वे। खाना बना रही हो तुम लोग?” सुमन ने पूछा।
“नहीं रे, मम्मी के घर से तीनों टाइम का भोजन आता है। मम्मी पापा शाम का खाना लेकर स्वयं माँ से मिलने आते हैं। कभी बुआ जी आती हैं तो वे भोजन लेकर आती हैं।कभी छोटे चाचू और चाची आते हैं। दिन भर लोगों का आना जाना लगा रहता है।” तृषा बोली।
“तेरा सारा परिवार इसी शहर में है तो सब मिलकर संभाल लेते हैं। यही तो फायदा होता है साथ रहने से ।” एक सहेली बोली
तृषा ने चाय के लिए पूछा तो सबने मना किया। अब वे आपस में बातें करने लगीं। इतने में नेहा ने कहा- तृषा इस महीने में तेरी किट्टी है। अब तो गेट टूगेदर न हो पाएगा घर पर। क्या करना है बता।”
एक सखी बोली- अपने पापा के घर जा रही है कहकर कुछ घंटों के लिए निकल जाना, फिर किसी होटल में पार्टी कर लेंगे।”
तृषा अवाक सी उसकी ओर देखकर बोली- मैं ऐसा नहीं कर सकती। मेरे ससुर जी मेरे भी पिता थे। उनके निधन पर मुझे भी उतना ही दुख है जितना शेखर और शुभ्रा को है। मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगी। इस बार की किट्टी कोई और उठा ले यह ग्रुप में बता दो।
नेहा ने कहा -“ठीक है यही सही है। अपना ध्यान रख। याद रख तेरे भीतर भी एक प्राण पल रहा है।ह र समय उदास रहना उसके लिए भी ठीक नहीं।”
सखियाँ चली गईं। शुभ्रा कमरे के भीतर से सभी सहेलियों की बात सुन रही थी। उसने माँ से जाकर सहेलियों की आपसी चर्चा का ज़िक्र किया।
माँ बोली, ” सुसंस्कृत घर की बेटियाँ दोनों घरों को जोड़े रखतीहैं। केवल पढ़ लिख लेना पर्याप्त नहीं होता। यही तो संस्कार है।
© सुश्री ऋता सिंह
23/11/24
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