डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख नसीहत बनाम तारीफ़। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 263 ☆

☆ नसीहत बनाम तारीफ़… ☆

‘नसीहत वह सच्चाई है, जिसे हम कभी ग़ौर से नहीं सुनते और तारीफ़ वह धोखा है, जिसे हम पूरे ध्यान से सुनते हैं’–जी हाँ! यही है हमारे जीवन का कटु सत्य। हम वही सुनना चाहते हैं, जिसमें हमें श्रेष्ठ समझा गया हो; जिसमें हमारे गुणों का बखान और हमारा गुणगान हो। परंतु वह एक धोखा है, जो हमारे विकास में बाधक होता है। इसके विपरीत जो नसीहत हमें दी जाती है, उसे हम ग़ौर व ध्यान से कभी नहीं सुनते और न ही जीवन में धारण करते हैं। नसीहत हमारे भीतर के सत्य को उजागर करती है और हमें सही राह पर चलने को प्रेरित करती है; पथ-विचलित होने से हमारी रक्षा करती है। परंतु जीवन में चमक-दमक वाली वस्तुएं अधिक आकृष्ट करती हैं, क्योंकि उनमें बाह्य सौंदर्य होता है। यही आज के जीवन की त्रासदी है कि लोग आवरण को देखते हैं, आचरण को नहीं।

‘आवरण नहीं, आचरण बदलिए/ चेहरे से अपने मुखौटा उतारिए/ हसरतें रह जाएंगी मुंह बिचकाती/ तनिक अपने अंतर्मन में तो झांकिए।’ ये स्वरचित पंक्तियां जीवन के सत्य को उजागर करती हैं कि हमें चेहरे से मुखौटा उतार कर सत्य से साक्षात्कार करना चाहिए। हमारे हृदय की वे हसरतें, आशाएं, आकांक्षाएं व तमन्नाएं पीछे रह जाएंगी; उनका हमारे जीवन में कोई अस्तित्व नहीं रह जाएगा, क्योंकि झूठ हमेशा पर्दे में छिप कर रहना चाहता है और सत्य अनेक परतों को उघाड़ कर प्रकट हो जाता है। भले ही सत्य देरी से सामने आता है और वह केवल उपयोगी व लाभकारी ही नहीं होता; हमारे जीवन को सही दिशा की ओर ले जाता है तथा उसकी सार्थकता को नकारने का सामर्थ्य किसी में नहीं होता। सत्य सदैव कटु होता है और उसे स्वीकारने के लिए साहस की आवश्यकता होती है। इसलिए सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की अवधारणा साहित्य में वर्णित है, जो सबके लिए मंगलकारी है। सत्य सदैव शिव व सुंदर होता है, जो शुभ तथा सर्वजन- हिताय होता है।

सौंदर्य के दो रूप हैं–बाह्य व आंतरिक सौंदर्य। बाह्य सौंदर्य रूपाकार से संबंध रखता है और उसमें छल की संभावना बनी रहती है। इस संदर्भ में यह कथन सार्थक है– ‘Beautiful faces are always deceptive.’ क्योंकि जो चमकता है, सदैव खरा व सोना नहीं होता। उस पर भरोसा करना आत्म-प्रवंचना है। यदि सोने को कीचड़ में फेंक दिया जाए, तो भी उसकी चमक-दमक कम नहीं होती और हीरे के जितने भी टुकड़े कर दिए जाएं; उसकी कौंध भी यथावत् बनी रहती है। इसलिए आंतरिक सौंदर्य अनमोल होता है और मानव को अपने अंतर्मन में दैवीय गुणों का संचय करना चाहिए। प्रसाद जी भी जीवन में दया, माया, ममता, स्नेह, करूणा, सहानुभूति, सहनशीलता, त्याग आदि की आवश्यकता पर बल देते हैं। वे जीवन को केवल सुंदर ही नहीं बनाते; आलोकित व ऊर्जस्वित भी करते हैं। वास्तव में वे अनुकरणीय जीवन-मूल्य हैं।

जीवन में दु:ख व करुणा का विशेष स्थान है। महादेवी जी दु:ख को जीवन का अभिन्न अंग स्वीकारती हैं। क्रोंच वध को देखकर बाल्मीकि जी के मुख से जो शब्द नि:सृत हुए, वे ही प्रथम श्लोक के रूप में स्वीकारे गये। ‘आह से उपजा होगा गान’ भी यही दर्शाता है कि दु:ख, दर्द व करुणा ही काव्य का मूल है और संवेदनाएं स्पंदन हैं, प्राण हैं। वे जीवन को संचालित करती हैं और संवेदनहीन प्राणी घर-परिवार व समाज के लिए हानिकारक होता है। वह अपने साथ-साथ दूसरों को भी हानि पहुंचाता है। जैसे सिगरेट का धुआं केवल सिगरेट पीने वाले को ही नहीं; आसपास के वातावरण को प्रदूषित करता है। उसी प्रकार सत्साहित्य व धर्म-ग्रंथों को उत्कृष्ट स्वीकारा गया है, क्योंकि वे आत्म-परिष्कार करते हैं और जीवन को उन्नति के शिखर पर ले जाते हैं। इसलिए निकृष्ट साहित्य व ग़लत लोगों की संगति न करने की सलाह दी गई है और बुरी संगति की अपेक्षा अकेले रहने को श्रेष्ठ स्वीकारा गया है। श्रेष्ठ साहित्य मानव को शीर्ष ऊंचाइयों पर पहुंचाते हैं तथा जीवन में समन्वय व सामंजस्य की सीख देते हैं, क्योंकि समन्वय  के अभाव में जीवन में संतुलन नहीं होगा और दु:ख अनवरत आते रहेंगे। सो! मानव को सुख में कभी फूलना नहीं चाहिए और दु:ख में विचलित होने से परहेज़ रखना चाहिए। यहां मेरा संबंध अपनी तारीफ़ सुनकर फूलने से है। वास्तव में वे लोग हमारे शत्रु होते हैं, जो हमारी तारीफ़ों के पुल बांधते हैं तथा उन शक्तियों व गुणों को दर्शाते हैं;जो हमारे भीतर होती ही नहीं। यह प्रशंसा का भाव हमें केवल पथ-विचलित ही नहीं करता, बल्कि इससे हमारी साधना व विकास के पहिये भी थम जाते हैं। हमारे अंतर्मन में अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव जाग्रत हो जाता है, जिसके परिणाम-स्वरूप हृदय में संचित स्नेह, प्रेम, सौहार्द, करुणा, त्याग, सहानुभूति आदि दैवीय भाव इस प्रकार नदारद हो जाते हैं, जैसे वह उनका आशियाँ ही न हो।

वास्तव में निंदक व प्रशंसा के पुल बांधने वाले हमारे शत्रु की भूमिका अदा करते हैं। वे नीचे से हमारी सीढ़ी खींच लेते हैं और हम धड़ाम से फर्श पर आन पड़ते हैं। इसलिए कबीरदास जी ने निंदक को सदैव अपने अंग-संग रखने की सीख दी है, क्योंकि ऐसे लोग अपना अमूल्य समय लगाकर हमें अपने दोषों से परिचित कराते हैं; जिनका अवलोकन कर हम श्रेष्ठ मार्ग पर चल सकते हैं और समाज में अपना रुतबा क़ायम कर सकते हैं। सो! प्रशंसक निंदक से अधिक घातक व पथ का अवरोधक होते हैं, जो हमें अर्श से सीधा फर्श पर धकेल देते हैं।

हम अपने स्वाभावानुसार नसीहत को ध्यान से नहीं सुनते, क्योंकि वह हमें हमारी ग़लतियों से अवगत कराती है। वैसे ग़लत लोग सभी के जीवन में आते हैं, परंतु अक्सर वे अच्छी सीख देकर जाते हैं। शायद इसलिए ही कहा जाता है कि ‘ग़लती बेशक भूल जाओ, लेकिन सबक अथवा नसीहत हमेशा याद रखो, क्योंकि दूसरों के अनुभव से सीखना सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम कला है।’ इसलिए जीवन में जो आपको सम्मान दे; उसी को सम्मान दीजिए, क्योंकि हैसियत देखकर सिर झुकाना कायरता का लक्षण है। आत्मसम्मान की रक्षा करना मानव का दायित्व है और जो मनुष्य अपने आत्म- सम्मान की रक्षा नहीं कर सकता, वह किसी अन्य के क्या काम आएगा? सो! विनम्र बनिए, परंतु सत्ता व दूसरों की हैसियत देखकर स्वयं को हेय समझ, दूसरों के सम्मुख नतमस्तक होना निंदनीय है, कायरता का लक्षण है।

इच्छाओं की सड़क बहुत दूर तक जाती है। बेहतर यही है कि ज़रूरतों की गली में मुड़ जाएं। जब हम अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगा लेते हैं तो तनाव व अवसाद की स्थिति नहीं प्रकट होती। सो! जब हमारे मन में आत्म-संतोष का भाव व्याप्त होता है; हम किसी को अपने से कम नहीं आंकते। सो! झुकने का प्रश्न ही कहां उत्पन्न होता है?

अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि संवाद में विश्वास रखें, विवाद में नहीं, क्योंकि विवाद से मनमुटाव व अंतर्कलह उत्पन्न होता है। हम बात की गहराई व सच्चाई से अवगत नहीं हो पाते और हमारा अमूल्य समय नष्ट होता रहता है। संवाद की राह पर चलने से रिश्तों में मज़बूती आती है तथा समर्पण भाव पोषित होता है। इसलिए हमें दूसरों की नसीहत पर ग़ौर करना चाहिए और उन्हें नीचा दिखाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। मानव को जीवन में जो अच्छा लगे; अपना लेना चाहिए तथा जो मनोनुकूल न हो; मौन रहकर त्याग देना चाहिए। सो! प्रोत्साहन व प्रशंसा के भेद को समझना आवश्यक है। प्रोत्साहन हमें ऊर्जस्वित कर बहुत ऊंचाइयों पर ले जाता है, वहीं प्रशंसा का भाव हमें फ़र्श पर ला पटकता है। यदि प्रशंसा गुणों की जाती है तो सार्थक है और हमें अच्छा करने को प्रेरित करती है। दूसरी ओर यदि प्रशंसा दुनियादारी के कारण की जा रही है, उसके परिणाम विध्वंसक होते हैं। जब हमारे भीतर अहम् रूपी शत्रु प्रवेश पा जाता है तो हम अपनी ही जड़ें काटने में मशग़ूल हो जाते हैं। हम अपने सम्मुख दूसरों के अस्तित्व को नकारने लगते हैं तथा अपने सब निर्णय दूसरों पर थोप डालना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में अपने आदेशों के अनुपालना न होने पर हम प्रतिपक्षी के प्राण तक लेने में भी संकोच नहीं करते। हर चीज की अधिकता बुरी होती है, चाहे अधिक मीठा हो या अधिक नमक। अधिक नमक रक्तचाप का कारण बनता है, तो अधिक चीनी मधुमेह का कारण बनती है। सो! जीवन में संतुलन रखना आवश्यक है। जो भी निर्णय लें–उचित- अनुचित व लाभ-हानि को देख कर लें अन्यथा वे बहुत हानि पहुंचाते हैं। ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ यूं ही न ज़िंदगी को रुसवा कीजिए/ हसरतें न रह जाएंगी दिल में अधूरी/ कभी ख़ुदा से भी राब्ता किया कीजिए। ‘जी हां! आत्मावलोकन कीजिए। विवाद व प्रशंसा रूपी रोग से बचिए तथा दूसरों की नसीहत को स्वीकारिए, क्योंकि जो व्यक्ति दूसरों के अनुभव से सीखते हैं; सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् का अनुसरण करते हैं और जीवन में खुशी व सुक़ून से जीवन जीते हैं। कोई सराहना करे या निंदा–लाभ हमारा ही है, क्योंकि प्रशंसा हमें प्रेरणा देती है तो निंदा सावधान होने का अवसर प्रदान करती है। इसलिए मानव को अच्छी नसीहतों को विनम्र भाव से जीवन में धारण करना चाहिए।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments