श्री जगत सिंह बिष्ट
(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “जबलपुर का उपनगर रांझी: 1960 का दशक “।)
☆ दस्तावेज़ # 7 – जबलपुर का उपनगर रांझी: 1960 का दशक ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆
जबलपुर का उपनगर रांझी। उन्नीस सौ साठ का दशक। तब लगता था, शहर से बहुत दूर, लगभग बाहर है रांझी। देर रात को स्टेशन से घर आने के लिए दो बार सोचना पड़ता था। सतपुला पार करने के बाद, पूरा रास्ता सूना था।
इंजीनियरिंग कॉलेज से आगे चलकर, रांझी बाज़ार पहुंचते थे। उन दिनों बाज़ार में इतनी रौनक कहां थी! दुकानों को उंगलियों पर गिना जा सकता था – दर्शनसिंह आटा चक्की, ईश्वरसिंह किराना, खन्ना जनरल स्टोर, दोआबा साइकिल स्टोर, नानाभाई मैगज़ीन सेंटर, जनता टेलर, साहनी शूज़, नीलम स्वीट्स, चड्ढा क्लॉथ स्टोर, शायद कुछ और। डॉक्टर तारा सिंह एकमात्र एम.बी.बी.एस डॉक्टर थे। डॉक्टर ओझा बाद में आए।
बाज़ार से अन्दर की ओर जाकर, रांझी बस्ती में हमारा अपना छोटा-सा घर था। अंदर वाले कमरे में ऊपर रेडियो रखा हुआ था। स्टूल पर चढ़कर, चालू करना पड़ता था। सुबह रेडियो सीलोन (अब रेडियो श्रीलंका) से प्रसारित पुरानी फिल्मों के गीत सुनते थे। आखिरी गाना कुंदनलाल सहगल का होता था। गाने के ख़त्म होते ही, ठीक आठ बजे, हम स्कूल के लिए पैदल निकल पड़ते थे। रात में, रेडियो पर बीबीसी से प्रसारित समाचार, पिताजी नियमित रूप से सुनते थे। वो मकान अब मेरे स्कूल के एक सहपाठी चंद्रा बाबू का घर है। बहुत मन है, कभी वहां जाने का! उसके अंदर समूचे बचपन, माता-पिता और भाई-बहनों की यादें समाई हुई हैं। पुरानी स्मृतियां कई बार मन को आनंद विभोर कर जाती हैं।
हमारा घर सड़क की पिछली ओर था, सामने की ओर खोखोन (संतोष मुखर्जी) का घर था। दोनों की छत जुड़ी हुई थी, बीच में एक छोटी-सी दीवार थी। जब भी कोई इंटरनेशनल क्रिकेट मैच चल रहा होता तो हम मैच में लंच या चायकाल के दौरान छत पर पहुंच जाते। बीच की दीवार पर बैठकर चर्चा शुरू हो जाती। तब कमेंट्री रेडियो पर आती थी, टीवी पर नहीं। हम खेल की आपस में समीक्षा करते और एक-एक कर अपने प्रिय खिलाड़ियों पर चर्चा करते – सोबर्स, हॉल, ग्रिफिथ, कॉलिन काऊड्री, लिल्ली, थाम्पसन, पटौदी, इंजीनियर, सरदेसाई, वीनू मांकड… इत्यादि। मैच पुनः शुरू होते ही नीचे जाकर रेडियो पर कमेंट्री सुनने लगते।
बाजू में सरदार निरंजन सिंह का घर था। उन्हें हम भी पापाजी कहते थे। उस घर में दो बेबे (मां) थीं, बड़ी बेबे और छोटी बेबे। उनके अनेक पुत्र-पुत्रियां – मिंदी, सिंदर, हरमेल, सारदुल, पूछी, नीमा, केशी और बब्बी। उन्होंने दो भैंसें पाली थीं। सुबह से ही बड़ी बेबे उनके लिए खली-चूनी तैयार कर, दूध दोहती थीं। उसके बाद ही हमारे घर चाय बनती थी। छोटी बेबे दिनभर बुनाई का काम करती रहती। सर्दियों में, जब उनके घर मक्की की रोटी और सरसों का साग बन रहा होता, तो वो मुझे आवाज़ लगाकर बोलतीं, “ओए, चार अँक्खां वाले, साग बन रया है, शामी आ जाइं।” मेरे चश्मे की वजह से वो मुझे “चार अँक्खां वाले” कहती थीं। दोनों घर के बीच हमारा सांझा कुआं था।
घर से कुछ दूर, देशी शराब की एक कलारी थी। अगर कोई शराबी ज़्यादा पीकर उत्पात करता, तो पापाजी उसे रस्सी से, बिजली के खंभे के साथ बांध देते थे। उनके पास एक कड़क हंटर (कोड़ा) हुआ करता था। उस हंटर से वे शराबी की पिटाई करते थे। हर महीने, ऑर्डनेंस फैक्टरी के लेबर पेमेंट वाले दिन, यह दृश्य देखने को मिलता था। पापाजी का बहुत दबदबा था। लंबे-चौड़े, भरे-पूरे सरदार थे। उनके नाप के जूते और चौड़ी कलाई के लिए नाप का घड़ी का पट्टा नहीं मिलता था। पापाजी एक कुशल एवं उत्कृष्ट राजमिस्त्री थे। भवन निर्माण का काम उत्तम ढंग से करते थे।
हमारे सामने वाला विशालकाय मकान नैनजी का था। उसमें अनेकों किरायेदार रहते थे। हफ्ते में, एक-दो बार वो खुले मे तंदूर लगाती थीं। आस-पड़ोस के सभी घर के लोग अपना आटा लेकर पहुंच जाते थे। नैनजी सबको धैर्यपूर्वक, बारी-बारी से, तंदूरी रोटी सेंककर देती थीं, चाहे सर्दी का मौसम हो या गर्मी की तेज धूप।
हम तब नन्हे-मुन्ने बच्चे थे। गुल्ली-डंडा, चीटीधप्प, पिट्टुक, मार-गेंद और लंगड़ी हमारे प्रिय खेल थे। बरसातों में, हम पतंग उड़ाते और गपन्नी से खेलते थे। गपन्नी लोहे की लगभग डेढ़ फीट की छड़ होती थी, जिसके आगे नोक होती थी। उसे पटक कर, ज़मीन में मारकर, गड़ाते हुए, आगे बढ़ना होता था। अगर गपन्नी की नोक नहीं गपी और गपन्नी गिर गई, तो आपकी पारी खतम। पतंग उड़ाने का मांझा भी हम खुद तैयार करते थे। थोड़े बड़े हुए तो फुटबॉल, वॉलीबॉल और क्रिकेट खेलने लगे। दौड़, लॉन्ग जंप, हाई जंप और शॉटपुट थ्रो में भी भाग लेते थे। गर्मी की छुट्टियों में शतरंज, सांप-सीढ़ी, लूडो, गुट्टे और कैरम भी हम खूब खेलते थे।
कभी मम्मी ने आना-दो आना दे दिया तो बेर, खट्टा-मीठा चूरण, चना, मूंगफली या चूसने वाली संतरा गोली ले लेते। दिवाली पर हमें पटाखे मिलते और होली पर रंग। दिवाली की अगली सुबह पड़ोसियों को थाली में, रुमाल से ढंक कर, मिठाई और खिल-बताशे देने जाते। आजकल अब वो रिवाज कम हो गया है।
घर के नज़दीक राधाकृष्ण मंदिर था। अंदर राधा और कृष्ण की मनोरम मूर्तियां थीं। शाम के समय हम वहां दर्शन के लिए जाते थे। मंदिर के पुजारी, नित्यानंद जी, अत्यंत मधुर कंठ से, आकर्षक अंदाज़ में आरती करते थे। तत्पश्चात, तांबे के पात्र से चरणामृत और प्रसाद स्वरूप चिरौंजी दाना देते थे। उनके सभी पुत्र हमारे मित्र हो गए। आगे चलकर, उनका छोटा बेटा गोपाल हमारी क्रिकेट टीम का स्टार स्पिनर बना।
हमारे बहुत सारे दोस्त सिक्ख थे। उनके साथ हम यदाकदा गुरुद्वारे जाते थे। शबद-कीर्तन सुनते और कडाह परसाद ग्रहण करते। गुरुपरब पर लंगर के लिए भी जाते थे। स्कूल के पास सेंट थॉमस चर्च था। वहां के पादरी, हॉलैंड से आए फादर बॉक्स थे। बच्चे आते-जाते उन्हें “गुड मॉर्निंग फादर”, “गुड इवनिंग फादर” बोलते। उनके चोंगे की जेब में टॉफी होती थी। जब वो खुश होते थे तो बच्चों को टॉफी बांटते थे।
दशहरे के कुछ दिन पहले, रामलीला शुरू हो जाती थी। हम शाम को ही जाकर अपनी बोरी बिछा आते थे। इस तरह, आगे, मंच के पास हमारी सीट रिज़र्व हो जाती थी। रात को, खाना खाने के बाद, हम रामलीला देखने पहुंचते थे। रामलीला देर रात तक चलती थी। फिर, दशहरे पर रावण दहन का कार्यक्रम देखने जाते थे।
उन दिनों, पूरे जबलपुर में, दुर्गा पूजा बहुत धूमधाम से होती थी। बड़े-बड़े पंडाल लगते और दुर्गा मां की भव्य मूर्तियां स्थापित होतीं। शाम को विविध सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते, जिनमें हमारी विशेष रुचि नायिकर की कॉमेडी और मिमिक्री में होती। हम लोग, पूरे शहर में घूमकर, दुर्गापूजा देखने जाते। इसी तरह, गणेश चतुर्थी का पर्व भी मनाया जाता।
हम शहर से काफी दूर थे। फिर भी, फिल्में देखने, साइकिल चलाकर, जाते थे। दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद हमारे प्रिय कलाकार थे। उन्हीं दिनों, कुछ मित्रों की साहित्यिक रुचि भी विकसित हो रही थी और वे उपलब्ध, उत्कृष्ट लेखकों को पढ़ रहे थे, जिनमें प्रमुख थे इब्ने सफी, वेद प्रकाश कंबोज, ओम प्रकाश शर्मा, गुलशन नंदा, प्रेम वाजपेई और मस्तराम कपूर।
हम कुएं के मेंढक थे। लगता था, पढ़ाई के उपरांत ऑर्डनेंस फैक्टरी या शहर के किसी रक्षा संस्थान में सुपरवाइजर की नौकरी मिल जाए, तो जीवन सफल हो जाए। साइकिल और रेडियो ही स्टेटस सिंबल थे। एक साइकिल परिवार में दादा से लेकर पोते तक काम आती थी। कभी-कभी अनेकों पीढ़ी तक वही साइकिल चलती थी। घरों में सोफा सेट और डाइनिंग टेबल नहीं होते थे। जब भी मन किया, किसी मित्र या रिश्तेदार के घर पहुंच जाते थे। पूर्व सूचना की कोई जरूरत नहीं होती थी।
उस दौरान जो मित्र बने, अब तक उनसे दोस्ती बरकरार है। पढ़ाई में की गई तपस्या, स्कूल और कॉलेज में प्राप्त मार्गदर्शन, और ईश्वर की असीम अनुकम्पा से ज़्यादातर सहपाठी, प्रतिष्ठित संस्थानों से उच्च पद पर सेवानिवृत हुए हैं और एक सुकून भरा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। फिर भी, जब कभी उन दिनों को याद करते हैं तो वो सुनहरा समय बहुत याद आता है। तब हमारे पास कुछ नहीं था लेकिन हमारे भीतर असीम संभावनाएं छिपी हुई थीं। हम भविष्य के प्रति आशावान थे, किसी तरह की शंका या भय हमारे मन में नहीं था, और हम आस्थावान थे।
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© जगत सिंह बिष्ट
Laughter Yoga Master Trainer
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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈