श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रंग में भंग…“।)
अभी अभी # 627 ⇒ रंग में भंग
श्री प्रदीप शर्मा
मैं रंगों की होली नहीं खेलता, और भांग नहीं पीता। मुझे रंग से परहेज है, होली से नहीं। मुझे होली से नहीं, रंग और गुलाल से एलर्जी है, एलर्जी का मतलब वही सर्दी जुकाम और सांस की शिकायत।
मैं यह भी जानता हूं कि रंग में भंग नहीं मिलाई जाती और भंग में कोई रंग नहीं मिलाया जाता, फिर भी रंग और भंग जितनी जल्दी चढ़ते हैं, उतनी जल्दी उतरते नहीं। रंग लगाते हैं और भंग को चढ़ाते हैं। ।
भंग, भांग का ही शॉर्ट फॉर्म है और इसे शिवजी की बूटी भी कहते हैं। इसे ठंडाई के साथ छाना जाता है। ठंडाई भांग नहीं होती, इसमें भाग की तरह नशा नहीं होता, लेकिन माल पड़ा होता है, जो स्वास्थ्यवर्धक होते हुए दिमाग में तरावट लाती है।
रंगों की मस्ती में अगर भंग की तरंग शामिल हो जाए, तो रंग बरसने लगता है। वैसे तो रंगों का अपना नशा होता है, जिसमें कुछ हद तक प्रेम भी शामिल होता है। किसी को रंगना आत्मिक प्रेम का प्रदर्शन भी होता है और कहीं कहीं यह केवल शारीरिक होकर ही रह जाता है। ।
जब रंग और भंग अपने शबाब पर होते हैं, तब देह अपना अस्तित्व खो देती है। अजब मस्ती का आलम होता है। चेहरे अपनी पहचान खो बैठते हैं, जिसके साथ अस्मिता और अहंकार भी कहीं दुबककर बैठ जाते हैं। छोटों बड़ों और स्त्री पुरुष का भेद भी गायब हो जाता है। इसे ही तो शायद एक रंग में रंगना कहते हैं।
वैस रंग, रंग होता है, और नशा, नशा। इन्हें एक दूसरे से दूर ही रखा जाए तो अच्छा, क्या पता, कब रंग में भंग हो जाए। भंग का रंग, और रंग में भंग हमने देखा है, और वह भी कॉलेज के दिनों में। बात बहुत पुरानी है, लेकिन यादगार है। ।
परीक्षा और होली का त्योहार सदा से साथ साथ चले आ रहे हैं। छात्र मन मसोसकर परीक्षा की तैयारी किया करते हैं, जब कि उनका मन होली खेलना चाहता है। हम भी मन मसोसकर परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, जब कि आसपास होली का माहौल था।
हमारा जमाना कंबाइंड स्टडी का था। मिल जुलकर पढ़ने से मन भी लग जाता था और परीक्षा के इम्पोर्टेंट भी हाथ लग जाते थे। मेरा कमरा तीन चार सहपाठियों और नमकीन, सेंव परमल से सुसज्जित रहता था। चाय पानी और नाश्ते के साथ हम परीक्षा की तैयारी किया करते थे। ।
एक दिन भरी दोपहर में, हमारे बड़े भाई साहब हम पढ़ाकू छात्रों पर मेहरबान हुए और हम सबके लिए मैंगो ज्यूस भिजवा दिया। वे नहीं जानते थे, ज्यूस में हल्की सी भांग मिली है। हम तो खैर अनजान थे ही, सूत गए।
इसी बीच भरी दोपहर में हमारे एक मित्र साइकिल पर तशरीफ लाए। वे हमें गलती से बुद्धिमान छात्र मानते थे, और इम्पोर्टेंट के चक्कर में बड़ी दूर से, उम्मीद लेकर आए थे। हम सब उनके इस प्रयोजन से भी अनभिज्ञ थे। ।
गर्मी के कारण उनका चेहरा लाल और तमतमाया लग रहा था। किसी मित्र ने भंग की तरंग में पूछ लिया, क्या बात है, सतीश भाई, कैसे आना हुआ। आप भी क्या चढ़ाकर आए हो। उनका गर्मी से तमतमाया चेहरा अब और लाल हो गया और वे बिना कुछ कहे, चुपचाप बिना कुछ कहे रवाना हो गए।
बात आई गई हो गई। लेकिन बाद में पता चला, वे हमारे अशिष्ट व्यवहार और हल्के मजाक से आहत होकर वापस चले गए थे। वे बड़े संजीदा और सुसंस्कृत परिवार से थे और उनको खास कर मुझसे इस तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं थी। परीक्षा के दिनों में कौन किसको भाग पिलाता है, और वह भी मेरे जैसा तथाकथित जिम्मेदार मित्र। ।
उनको समझाने में और सामूहिक खेद प्रकट करने में बहुत समय लगा। लेकिन बिना रंग के भी रंग में भंग हो सकता है, यह सबक हमने उन परीक्षा के दिनों में सीख ही लिया..!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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