श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक अप्रतिम एवं विचारणीय लघुकथा “स्नेह का साहित्य”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 224 ☆
🌻लघु कथा🌻 स्नेह का साहित्य
आजकल पूरी जिंदगी पढ़ते-पढ़ाते, सीखते-सीखाते निकलती है। जिसे देखो पाने की चाहत, सम्मान की भूख, और मीडिया में बने रहने की ख्वाहिश।
पारिवारिक गाँव परिवेश से पढ़ाई करके अपने आप को कुछ बन कर दिखाने की चाहत लिए, गाँव से शहर की ओर वेदिका और नंदिनी दो पक्की सहेली चल पड़ी अपनी मंजिल की ओर।
हॉस्टल की जिंदगी जहाँ सभी प्रकार की छात्राओं से मुलाकात हुई। परन्तु दोनों बाहरी वातावरण, चकाचौंध से दूर, सादा रहन-सहन, पहनावे में भी सादगी, बेवजह खर्चो से अपने आप को बचाती दोनों अपने में मस्त।
साहित्यकार बनने की इच्छा। इस कड़ी में जगह-जगह से साहित्यकारों का साक्षात्कार एकत्रित करती फिरती थी। चिलचिलाती धूप, न टोपी, न काला चश्मा और न ही छाता।
आटो में बैठते वेदिका बोल उठी — “नंदिनी हम जहाँ जा रहे हैं। बहुत दूर है। रास्ता भी ठीक से नहीं मालूम। सुना है साहित्यकार समय के बड़े पाबंद होते हैं। शब्दों में ही सुना देते हैं। पानी भी नहीं मिलता। क्या हम लोगों को संतुष्टी मिल पायेगी?”
आटो वाले ने अनजान लोगों का फायदा उठा अचानक एक जगह पर उतार कहने लगा — “बस यहाँ से आप पैदल निकल जाए वो रहा उनका घर।”
सभी से पूछने पर पता चला– ये तो वो जगह है ही नहीं। दोनों को समझ में आ गया हम रास्ता भटक चुके हैं।
समय से विलंब होता देख साहित्यकार का मोबाइल पर कॉल आया — “कहाँ हैं आप लोग?” घबराहट से बस इतना ही बोल पाई वेदिका – -“हमें नहीं मालूम मेडम हम कहाँ हैं। सभी – अलग-अलग बता रहे हैं।”
“जहाँ खड़े हो वही खड़े रहिए। किसी होटल या चौक का नाम बताओ। मै आ रही हूँ।” दोनों मन में न जाने क्या- क्या सोच रही थी।
अचानक टूव्हीलर रुकी – – “आप दोनों ही हो। चलो गाड़ी में बैठो। घर में बात होगी।”
चुपचाप गाड़ी में बैठी – – ममता, अपनापन, दुलार और नेह की बरसात होते देख दोनों का ह्रदय साहित्य के प्रति और गहरा होता चला गया। शब्दों से साहित्य को सजते सँवरते देखा था।
आज तो वेदिका, नंदिनी की आँखे भर उठी, नेह, ममत्व, ममता से भरा साहित्य निसंदेह समाज को सुरक्षित और सम्मानित करता है।
कड़कती धूप भी आज उन्हें माँ के आँचल की तरह सुखद एहसास करा रही थी।
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© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈