श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “विस्तार है गगन में…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 241 ☆ कर्म करते रहें… ☆
कहते हुए नित जा रहे सब, एकता के साथ में।
पूरे सपने होंगे उनके, हाथ थामे हाथ में।।
कोशिश करेंगे वक्त बदले, भावना हो नेक की।
सबसे आगे चलते जाना, ढाल बन हर एक की।।
कर्म से कुछ भी असंभव नहीं है भाग्य के भरोसे जो व्यक्ति बैठता है उसे वही मिलता है जो कर्मशील व्यक्ति छोड़ देते हैं।
एक बहुत पुरानी कहानी है एक गुरु के दो शिष्य थे एक तो बहुत मेहनत करता व दूसरा हमेशा ही इस आसरे रहता कि जैसे ही पहले वाला काम कर देगा तो वह तुरंत उसके साथ आगे आकर शामिल हो जायेगा। हमेशा वो मुस्कुराता हुआ गुरू जी के पास पहुँच कर कहता देखिए गुरुदेव ये कार्य सही हुआ है या नहीं। गुरु आखिर गुरु होते हैं उनसे कोई बात छुपी तो रह नहीं सकती।
एक दिन गुरू जी दोनों शिष्यों को बुलाया और कहा कि तुम दोनों में से कौन जाकर पहाड़ी से आवश्यक जड़ी बूटी ला सकता है।
पहले शिष्य ने कहा गुरू जी मैं लेकर आता हूँ दूसरे ने भी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा कि यही ठीक होगा तुमको जड़ी- बूटी की जानकारी भी है। पहला शिष्य तुरंत ही चलने लगा तो गुरू जी ने उसे रोकते हुए कहा कि पहाड़ी के पास एक आश्रम है हो सकता है वहाँ पर तुम्हें जड़ी बूटी महात्मा जी के पास ही मिल जाय तुम उनसे मेरा संदेश कह देना।
यहाँ दूसरा शिष्य मन ही मन मुस्कुराता हुआ जाने लगा तो गुरू जी ने उसे पुकारा बेटा तुम यहाँ आओ आज तुम गुरु माँ के साथ काम करो जो भी कार्य वो कहें कर देना मैं आज वेद पाठ करूँगा बीच में मुझे मत टोकना।
दूसरे शिष्य ने कहा जी गुरुदेव अब वो गुरु माँ के साथ उनकी मदद करने लगा उसे कोई काम करना अच्छा नहीं लग रहा था वो जो भी करता उससे गुरु माँ का काम बढ़ जाता इसलिए उन्होंने उससे कहा बेटा लकड़ी समाप्त होने वाली है तुम जंगल से काट कर ले आओ।
उसने कहा जी , मन ही मन बड़बड़ाता हुआ वो चल दिया उसे लकड़ी काट कर लाने में पूरा दिन लग गया जबकि पहला शिष्य जैसे ही पहाड़ी के पास पहुँचा तो वहीं पर उसे एक सुंदर ताल दिखाई दिया व पास ही एक कुटिया जिसमें लोगों का आना – जाना लगा हुआ था वो अंदर गया उसने उनको प्रणाम कर अपने गुरुजी का संदेश दिया। महात्मा जी ने कहा बेटा उसके लिए तुमको परेशान होने की आवश्यता नहीं है मैं तुम्हें जड़ी बूटी देता हूँ तुम ले जाओ पर इससे पहले तुम हाथ -मुँह धोकर भोजन करो तत्पश्चात ही जाना।
महात्मा जी ने अपने बाग के फल- फूल भी उसको दिए और कहा इसे अपने गुरू जी को मेरी ओर से भेंट कर देना।
संध्या के समय पहला शिष्य मुस्कुराता हुआ आश्रम पहुँचा वहीं दूसरे थका -हारा पहुँचा। गुरु जी ने दोनों शिष्यों को पास बुलाकर कहा बेटा कोई भी काम छोटा बड़ा नहीं होता कर्म को पूजा मान कर जो कार्य किया जायेगा वो मन को खुशी देगा वहीं जो उदास मन से किया जायेगा वो थकान।
भाग्य का निर्माता वही होता है जो कर्म करता है सतत् कर्म करने वाले का भाग्य भगवान स्वयं लिखते हैं जबकि भाग्य से उतना ही मिलता है जो पूर्वजन्मों का संचय होता है जैसे ही उसका फल समाप्त हो जाता है व्यक्ति भाग्यहीन होकर आसरा तलाश करने लगता है जबकि कर्मशील व्यक्ति किसी भी परिवर्तन में नहीं विचलित होता।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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