श्री धर्मपाल महेंद्र जैन
संक्षिप्त परिचय
(सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री धर्मपाल जी का जन्म रानापुर, झाबुआ में हुआ। वे अब कैनेडियन नागरिक हैं। प्रकाशन : “गणतंत्र के तोते”, “चयनित व्यंग्य रचनाएँ”, “डॉलर का नोट”, “भीड़ और भेड़िए”, “इमोजी की मौज में” “दिमाग वालो सावधान” एवं “सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” (7 व्यंग्य संकलन) एवं Friday Evening, “अधलिखे पन्ने”, “कुछ सम कुछ विषम”, “इस समय तक” (4 कविता संकलन) प्रकाशित। तीस से अधिक साझा संकलनों में सहभागिता। स्तंभ लेखन : चाणक्य वार्ता (पाक्षिक), सेतु (मासिक), विश्वगाथा व विश्वा में स्तंभ लेखन। नवनीत, वागर्थ, दोआबा, पाखी, पक्षधर, पहल, व्यंग्य यात्रा, लहक, समकालीन भारतीय साहित्य, मधुमती आदि में रचनाएँ प्रकाशित। श्री धर्मपाल जी के ही शब्दों में “अराजकता, अत्याचार, अनाचार, असमानताएँ, असत्य, अवसरवादिता का विरोध प्रकट करने का प्रभावी माध्यम है- व्यंग्य लेखन।” आज प्रस्तुत है आपका एक हास्य-व्यंग्य – अस्सी किलो कविता के आलोचना सिद्धांत।)
☆ हास्य-व्यंग्य – अस्सी किलो कविता के आलोचना सिद्धांत ☆ श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆
कवि असंतोषजी मेरे पास आए। सधे कदम, मुस्कुराते अधर, उन्नत मस्तक और मेरे नाक पर केंद्रित उनकी आँखें। कविताएँ अधकचरी हों, छरहरी हों, तो कवि में गजब का बाँकपन आ जाता है। वे बोले -आचार्यजी, इन कविताओं में से श्रेष्ठ छाँट दीजिए और अश्रेष्ठ फाड़ दीजिए। अप्रकाशित कविताओं का गठ्ठर चार किलो का था। भारतेंदु काल में कविताएँ सेर में तोली जाती थीं तो छँटाक भर ठीक निकल आती थीं। आधुनिक काल की किलोग्राम भर कविताओं में कवित्त मिलीग्राम में बैठता है। मैं ठहरा आचार्य कुल का। कवि असंतोषीजी को मना कर दूँ तो हिंदी साहित्य का निरादर हो जाए और कविताएँ छाँटने लगूँ तो मैं ही छँट जाऊँ। न केवल मेरी आँखें पढ़ने के तनाव से फट जाएँ पर दिमाग भी समझने के चक्कर में बठ्ठर हो जाए। इसलिए मैंने उनसे एक प्रसिद्ध आलोचक की तरह पूछा -आपका वजन कितना है? वे बोले, लगभग अस्सी किलो। तब मैंने गंभीर मुद्रा में कहा -कविवर कविताओं में वजन हो या न हो, कविताओं के समग्र पुलिदों का वजन भी लगभग अस्सी किलो होना चाहिए। कवि को अपने भार के बराबर कविताओं का भार ढोना आना चाहिए। इस सिद्धांत को हम कहते हैं समभार का सिद्धांत।
वे मुदित हो कर बोले -आप सही के आचार्य हैं। मैं पहली बार किसी विद्वान आलोचक से मिला हूँ, जो मुझे कविताएँ लिखने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है और आलोचना के सिद्धांत समझा रहा है। आप मुझे एक महीना दीजिए, मैं अस्सी किलो कविताएँ लिखकर आपके श्रीचरणों में डाल दूँगा। इन दिनों अधिकांश साहित्यकार यही करते हैं, श्रीचरण खोजते हैं और उन पर अपनी रचनाएँ चढ़ा आते हैं। कविता ने तुलसी को राममय कर दिया था, अब कविता आधुनिक तुलसी को आराममय कर रही है। असंतोषजी अपना गठ्ठर उठा कर निकल लिए। कविवर गए तो मैं सोचता रहा कि आज बला टली। वे एक जीवंत प्रश्न छोड़ गए थे कि बला कौन। मैंने सारा भाषाविज्ञान ठिकाने लगा दिया और निष्कर्ष में पाया कि कविवर बला थे, कविता तो केवल अबला थी।
वे अब एक महीने बाद आएँगे। जब आएँगे तब तक आलोचना शास्त्र में मेरे नए सिद्धांत आ जाएँगे। आपसे क्या छुपाना, मैं खुद ही “आलोचना शास्त्र के आधुनिक सिद्धांत” विषय पर ग्रंथ लिख रहा हूँ। मेरी औकात ग्रंथावली लिखने की थी पर प्रकाशक एक ही ग्रंथ की सेंटिंग कर पाए थे, इसलिए मुझे इतने पर ही संतुष्ट होना पड़ा। आलोचना के सिद्धांत विषय पर लिखना बहुत आवश्यक लग रहा था। मैंने अपने कई कविता संकलन आलोचकों को भारी अनुनय-विनय कर के भेजे थे, पर उन्हें समुचित लिखना नहीं आया। नब्बे प्रतिशत आलोचक बधाई के आगे नहीं लिख पाए, उन्हें शुभकामना तक लिखना नहीं आया। शेष आलोचकों ने इस तरह समीक्षा की जैसे किसी राजनीतिक दल के प्रवक्ता राष्ट्रीय टीवी पर दबाव के मारे घिसे-पिटे जुमले बोलते हैं। मैंने तभी तय कर लिया था कि मुझे आलोचना के क्षेत्र में कुछ नया करना पड़ेगा। मेरे बाद की पीढ़ी को उचित मूल्यांकन के अभाव का दर्द नहीं सहना पड़े इसलिए साहित्य समीक्षा के नए सिद्धांत मुझे घड़ने होंगे।
बिना सिद्धांत के आलोचना व्यर्थ है। इसलिए अपना पहला सिद्धांत, “समभार का सिद्धांत” बना कर मुझे संतुष्टि मिली। साहित्यकार अपने भार के बराबर साहित्य रच डाले तो उसका मूल्यांकन अवश्य हो। उस क्षण मुझे समझ आया कि सिद्धांत बनाए नहीं जाते, प्रतिपादित किए जाते हैं। तो मैंने दूसरा सिद्धांत प्रतिपादित किया, समलंब का सिद्धांत। अर्थात् यदि किसी रचनाकार के प्रकाशित संकलनों के ढेर की ऊँचाई, उसकी जूते रहित ऊँचाई से अधिक हो जाए तो साहित्य अकादमियों का कर्तव्य बनता है कि वे उसकी ओर भी देखें, और उसके अवसादग्रस्त चेहरे पर किसी पुरस्कार का क्रीम लगा दें।
अब मुझे सिद्धांत प्रतिपादित करने में आनंद आने लगा था। न्यूटन तीन सिद्धांत प्रतिपादित कर के अमर हुए थे, मैं उनसे एक कदम आगे निकलना चाहता था। मैंने तीसरा सिद्धांत प्रतिपादित किया सम-धन का सिद्धांत। जो भी प्रख्यात साहित्यकार सम-धन निवेश कर पाए उसे अवश्य पुरस्कृत किया जाए। प्रवासी साहित्यकारों के द्वारा डॉलर और पौंड के निवेश की तुलना में रुपया भी कम नहीं पड़ता है। भौतिक अर्थ जुड़ जाए तो आलोचना के आभासी प्रतिमान फटाफट बदल जाते हैं। आलोचना में अर्थशास्त्र का तड़का लग जाए तो निष्कर्ष चमक उठते हैं। आलोचना में सौंदर्यशास्त्र का अनुपम योगदान है। इससे मुझे चौथे सिद्धांत का विचार आया -समतन का सिद्धांत। मैं इसकी विवेचना करने लगा तो मुझे इसमें अभद्र और अश्लील रंग दिखाई दिए। साहित्यकार का जो रूप परोक्ष हो, वह आलोचना का विषय नहीं बनना चाहिए। इसलिए इस सिद्धांत को मैं शास्त्रसम्मत नहीं मानूँगा, और हर साहित्यकार को संदेह का लाभ दूँगा। अब मैं हर प्रकार की आलोचना करने के लिए तैयार हूँ। इन तीनों सिद्धांतों पर खरे उतरने वाले विभूति साहित्यकारों की मुझे प्रतीक्षा है। आप मेरा अता-पता उन तक जरूर पहुँचा दें। हिंदी के प्रति आपकी यह निस्वार्थ सेवा आलोच्य साहित्यकार याद रखेंगे।
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