सौ. सुजाता काळे
((सौ. सुजाता काळे जी मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं । वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं। उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता “तब पता चला”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 21 ☆
बड़ी सम्हाल से रखे हैं
अजीब से रिश्तें,
रेत से जब छूटने लगे,
तब पता चला।
जख्म किसी ने न देखा
कितना गहरा था ।
मरहम लगाने चले,
तब पता चला ।
दास्ताँ किसी ने न सुनी,
कितनी दर्दभरी थी।
कहते रात बीती,
तब पता चला ।
वजूद ही खो गया,
तनहा रहते रहते।
खत उसका आया,
तब पता चला ।
मंज़र जो मैंने देखा,
वह किसी ने न देखा।
दिल में छेद पाया,
तब पता चला ।
हसरतें तब न सुनी,
गुजर गए राह से ।
लोगों में चर्चा हुई,
तब पता चला ।
आहों में रात काटी,
नमी कम न हुई ।
हस्ती डूब गई,
तब पता चला ।
हसीन ख़्वाब टूटे,
रुख़सत जब हुए।
फारकत जब मिली
तब पता चला ।
© सुजाता काळे
पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684