डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक  विचारोत्तेजक कविता   “कुर्सी जब भी नई बनाई है। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 24 ☆

 

☆ कुर्सी जब भी नई बनाई है ☆  

 

कुर्सी जब भी नई बनाई है

पेड़ की  ही, हुई  कटाई है।

 

बांस सीधा खड़ा जो जंगल में

मौत  पहले, उसी की आई है।

 

उछलने कूदने वालों के हैं दिन

पढ़े लिखों को, समझ आई है।

 

जान सकता वो दर्द को कैसे

पांव में  तो,  मेरे  बिवाई  है।

 

रोटी दिखलाते हुए, भूखों को

फोटो  गमगीन हो, खिंचाई है।

 

बाढ़ नीचे, वो आसमानों पर

देख लो  कितनी, बेहयाई है।

 

दस्तखत, पहले दवा देने के

ट्रायलों पर, टिकी कमाई है।

 

एकमत से बढ़ा लिए वेतन

खुद प्रसूता,वे खुद ही दाई है।

 

पेड़ आंगन में जो बचा अब तक

उम्मीदें कुछ, वहीं से पाई है।

 

खाद-पानी, बने रहे तन्मय

फसल जो खेत में उगाई है।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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