हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 94 – जब भी विश्वास पास आते हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – जब भी विश्वास पास आते हैं।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 94 – जब भी विश्वास पास आते हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

आप जब मेरे पास आते हैं 

जैसे मय के गिलास आते हैं

*

कितनी बाधाएँ पार की हमने 

याद, सारे प्रयास आते हैं

*

सहने पड़ते हैं, पतझरों के दिन 

तब, बहारों के मास आते हैं

*

नींद के साथ, रात में मुझको 

स्वप्न तेरे ही खास आते हैं

*

छोड़ मन, आप सिर्फ तन लेकर 

कितने चिंतित-उदास आते हैं

*

गुफ्तगू उनसे हो भला कैसे 

छोड़ बाहर, मिठास आते हैं

*

सार्थक तो मिलन तभी होता 

जब भी, विश्वास पास आते हैं

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 21 – महीयसी महादेवी वर्मा की अद्भुत होली ☆ श्री आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

श्री आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन।)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ महीयसी महादेवी की अद्भुत होली।) 

☆  दस्तावेज़ # 21 – महीयसी महादेवी वर्मा की अद्भुत होली ☆ श्री आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆ 

हिंदी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखनेवाली बुआ श्री (महीयसी महादेवी वर्मा) से जुड़े संस्मरण की शृंखला में इस बार होली चर्चा। बुआ श्री ने बताया कि रंग पर्व पर भंग की तरंग में मस्ती करने में साहित्यकार भी पीछे नहीं रहते थे किंतु मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया जाता था। हिन्दू पंचांग के अनुसार होली बुआ श्री का जन्म दिवस भी है। प्रयाग राज (तब इलाहाबाद) में अशोक नगर स्थित बंगले में साहित्यकारों का जमघट दो उद्देश्यों की पूर्ति हेतु होता था। पहला महादेवी जी को जन्म दिवस की बधाई देना और दूसरा उनके स्नेह पूर्ण आतिथ्य के साथ साहित्यकारों की फागुनी रचनाओं का रसास्वादन कर धन्य होना। बुआ श्री होली की रात्रि अपने आँगन में होलिका दहन करती थीं। उसके कुछ दिन पूर्व से बुआश्री के साथ उनके मानस पुत्र डॉ. रामजी पांडेय का पूरा परिवार होली के लिए गुझिया, पपड़िया, सेव, मठरी आदि तैयार करा लेता था। एक एक पकवान इतनी मात्रा में बनता कि पीपों (कनस्तरों) और टोकनों में रखा जाता। होली का विशेष पकवान गुझिया (कसार की, खोवे की, मेवा की, नारियल चूर्ण की, चाशनी में पगी), सेव (नमकीन, तीखे, मोठे गुण की चाशनी में पगे), पपड़ी (बेसन की, माइडे की, मोयन वाली), खुरमे व मठरी, दही बड़ा, ठंडाई आदि आदि बड़ी मात्रा में तैयार करे जाते कि कम न हों।        

होली खेलत रघुवीरा

सवेरा होते ही शहर के ही नहीं, अन्य शहरों से भी साहित्यकार आते जाते, राई-नोन से उनकी नजर उतरी जाती, बुआ श्री स्वयं उन्हें गुलाल  का टीका लगाकार आशीष देतीं। आगंतुक साहित्यिक महारथियों में आकर्षण का केंद्र होते महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, फिराक गोरखपुरी, सुमित्रानंदन पंत, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, उमाकांत मालवीय, रघुवंश,अमृत राय, सुधा चौहान, कैलाश गौतम, एहतराम इस्लाम आदि आदि। साहित्यकारों पर किंशुक कुसुम (टेसू के फूल) उबालकर बनाया गया कुसुंबी रंग डाला जाता था। यह रंग भी बुआ श्री की देख-रेख में घर पर हो तैयार किया जाता था। क्लाइव रोड से बच्चन जी की अगुआई में एक टोली ‘होली खेलत रघुवीरा, बिरज में होली खेलत रघुवीरा आदि होली के लोक गीत गाते, झूमते मस्ताते हुए पहुँचती। बच्चन जी स्वयं बढ़िया ढोलक बजाते थे।  

‘बस करो भइया…’

महाप्राण निराला बुआ श्री को अपनी छोटी बहिन मानते थे, फिर होली पर बहिन से न मिलें यह तो हो ही नहीं सकता था। उनके व्यक्तित्व की दबंगई के कारण अनकहा अनुशासन बना रहता था। निराला विजय भवानी (भाँग) का सेवन भी करते थे। एक वर्ष अरगंज स्थित निराला जी के घर कुछ साहित्यकार भाँग लेकर पहुच गए, निराला जी को ठंडाई में मिलाकर जमकर भाँग पिला दी गई। भाँग के नशे में व्यक्ति जो करता है करता ही चला जाता है। यह टोली जब पहुंची तो गुजिया बाँटी-खाई जा रही थीं। निराला जी ने गुझिया खाना आरभ किया तो बंद ही न करें, किसका साहस की उन्हें टोंककर अपनी मुसीबत बुलाए। बुआ जी अन्य अतिथियों का स्वागत कर रही थी, किसी ने यह स्थिति बताई तो वे निराला जी के निकट पहुँचकर बोलीं- ”भैया! अब बस भी करो।और लोग भी हैं, उन्हें भी देना है, गुझिया कम पड़ जाएंगी।” निराला जी ने झूमते हुआ कहा- ‘तो क्या हुआ? भले ही कम हो जाए मैं तो जी भर खाऊँगा, तुम और बनवा लो।” उपस्थित जनों के ठहाकों के बीच फिर गुझिया खत्म होने के पहले ही फिर से बनाने का अनुष्ठान आरंभ कर दिया गया।    

राम की शक्ति पूजा

एक वर्ष होली पर्व पर बुआ श्री के निवास पर पधारे साहित्यकारों ने निराला जी से उनकी प्रसिद्ध रचना ”राम की शक्ति पूजा” सुनाने का आग्रह किया। निराला जी ने मना कर दिया। आग्रहकर्ता ने बुआ श्री की शरण गही। बुआ श्री ने खुद निराला जी से कहा- ”भैया! मुझे शक्ति पूजा सुन दो।” निराला जी ने ”अच्छा,  इन लोगों ने तुम्हें वकील बना लिया, तब तो सुनानी ही पड़ेगी। उन्होंने अपने ओजस्वी स्वर में समा बाँध दिया। सभी श्रोता सुनकर मंत्रमुग्ध हो गए।

खादी की साड़ी

महादेवी जी सादगी-शालीनता की प्रतिमूर्ति,  निराला जी के शब्दों में ‘हिंदी के विशाल मंदिर की वीणापाणी’ थीं।वे खादी की बसंती अथवा मैरून बार्डर वाली साड़ी पहनती थीं।  प्रेमचंद जी के पुत्र अमृत राय उन्हें प्रतिवर्ष जन्मदिन के उपहार स्वरूप खादी की साड़ी भेंट करते थे। उल्लेखनीय है की अमृत राय का विवाह महादेवी जी की अभिन्न सखी सुभद्रा कुमारी चौहान की पुत्री सुधा चौहान के साथ बुआ श्री की पहल पर ही हुआ था।

बिटिया काहे ब्याहते

बुआ श्री अपने पुत्रवत डॉ. रामजी पाण्डेय के परिवार को अपने साथ ही रखती थीं। उनके निकटस्थ लोगों में प्रसिद्ध पत्रकार उमाकांत मालवीय भी रहे। रामजी भाई की पुत्री के विवाह हेतु स्वयं महादेवी जी ने पहल की तथा यश मालवीय जी को जामाता चुना। विवाह का निमात्रण पत्र भी बुआ श्री ने खुद ही लिखा था। वर्ष १९८६ में यश जी होली की सुबह अमृत राय जी के घर पहुँच गए, वहाँ भाग मिली ठंडाई पीने के बाद सब महादेवी जी के घर पहुँचे। जमकर होली खेल चुके यश जी का चेहरा लाल-पीले-नीले रंगों से लिपा-पूत था, उस पर भाग का सुरूर, हँसी-मजाक होते होते यश जी ने हँसना शुरू किया तो रुकने का नाम ही न लें, ठेठ ग्रामीण ठहाके। बुआ श्री ने स्वयं भी हँसते हुई चुटकी ली ” पहले जाना होता ये रूप-रंग है तो अपनी बिटिया काहे ब्याहते?”

बुआ श्री ने हमेश अपना जन्मोत्सव अंतरंग आत्मीय सरस्वती पुत्रों के के साथ ही मनाया। वे कभी किसी दिखावे के मोह में नहीं पड़ीं। होली का रंग पर्व किस तरह मनाया जाना चाहिए यह बुआ श्री के निवास पर हुए होली आयोजनों से सीखा जा सकता है।

♥♥♥♥

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सदाहरी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सदाहरी ? ?

तपता मरुस्थल,

निर्वसन धरती,

सूखा कंठ,

झुलसा चेहरा,

चिपचिपा बदन,

जलते कदम,

दूर-दूर तक

शुष्क और

बंजर वातावरण..,

अकस्मात

मेरी बिटिया हँस पड़ी,

अब, लबालब

पहाड़ी झरने हैं,

आकंठ तृप्ति है,

कस्तूरी-सा तन है

तलवों में मखमल है,

उर्वरा हर रजकण है,

धरा पर श्रावण है..!

 ?

© संजय भारद्वाज  

11:07 बजे , 3.2.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है 💥  

🕉️ प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ Echoes of You… ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present Capt. Pravin Raghuvanshi ji’s amazing poem “~ Echoes of You~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

? ~ Echoes of You ??

In your sweet memories,

my heart remains aglow

An endearment that lingers on,

with an ever shining halo…

 

Whispers of the golden past,

a gentle breeze that blows

A fragrance that pervades,

wherever my heart goes

 

In the quietude of night,

I feel your haunting absence

An eerie silence that echoes,

as it misses your presence

 

The stars in the sky above,

offer a soulful show of light

A celestial reminder of the

divine love’s pure delight

 

And though you’re far away,

my heart remains with you

A love that’s forever strong

steadfastly, loyal and true

 

In dreams, I see your smile,

a radiant beam of light

A guiding star that shines,

in the darkness of night..!

~Pravin Raghuvanshi

 © Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune
22 March 2025

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ – ‘SHADOW WORLD…’ – ☆ Mrs. Poornima Rao ☆

Mrs Poornima Rao

(Mrs. Poornima Rao is from Jabalpur, India.  A teacher by profession, teaching Physics at the +2level.  She pens down her thoughts either as prose or poetry on issues that touch her heart.  She also hosts and coordinates in online poetry meets. Her poems have been published in four anthologies, Goonj the breaking of Shackles, Mosaic of poetical Musings, Waqt ek rahasya and Unscrambling of time and Yug Purush Shriram Yogi Series. She is Interested in understanding the scriptures in depth and is currently persuing Gita chanting and study through online classes.)

☆ ~ ‘SHADOW WORLD…’ ~? ☆ Mrs. Poornima Rao ☆

(The Prize winning entry in the Literary Warriors Group Contest. The subject of the contest was “परछाइयां” /Shadows”.)

Shortest we at noon

But pretty long by evening

And merge into the darkness by night.

Short lived is our span

But regrets we have none

 

Welcome to our world of shadows

Loyal to rectilinear propagation

No 3D spaces we encroach

Two dimensionally we waltz

We are content with cool areas

 

Spread beneath a large tree

Or a colourful humble umbrella

We rejuvenate and protect.

We soothe and rest tired feet

And cool a tired brain

 

As the Sun, Earth and Moon align

And play hide and seek at eclipse,

Lucky ones on the umbral path wait

 With bated breath for Baily’s Beads

And the diamond ring in dazzle

 

Discriminate we not and will never

Between the kind world and the cruel

Nor the coloured clan and the fair

Nay,  judgmental is not our job

 

Picture perfect contours

We are an artist’s envy

In this brightly lit world

A parallel presence we are

You can’t miss or ignore

~ Mrs. Poornima Rao

© Mrs. Poornima Rao

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 168 –सजल – मानवता से बड़ा न कुछ भी… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सजल – मानवता से बड़ा न कुछ भी…” । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 168 – सजल- मानवता से बड़ा न कुछ भी… ☆

(समांत – अनापदांत – है, मात्रा भार – 16)

स्वाभिमान अब बहुत घना है।

भारत उन्नत देश बना है।।

माना सदियों रही गुलामी।

शोषण से हर हाथ सना है।।

 *

सद्भावों के पंख उगाकर।

दिया बसेरा बड़ा तना है।।

 *

आक्रांताओं ने भी लूटा।

इतिहासों का यह कहना है।।

 *

झूठ-फरेबी बहसें चलतीं।

कहना सुनना नहीं मना है।।

 *

रहें सुर्खियों में हम ही हम।

समाचार शीर्षक बनना है।।

 *

मानवता से बड़ा न कुछ भी।

इसी मार्ग पर ही चलना है।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

25/3/25

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 173 ☆ “ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछ” – व्यंग्यकार… श्री प्रियदर्शी खैरा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री प्रियदर्शी खैरा जी द्वारा लिखित  “ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 173 ☆

☆ “ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछ” – व्यंग्यकार… श्री प्रियदर्शी खैरा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

व्यंग्य संग्रह …ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछ

व्यंग्यकार … श्री प्रियदर्शी खैरा

प्रकाशक भारतीय साहित्य संग्रह कानपुर

मूल्य ४०० रु, पृष्ठ १९२

“दाढ़ी से बड़ी मूँछ “ किताब का शीर्षक ही सहज ध्यानाकर्षक है। हरिशंकर परसाई जी ने शीर्षक के बारे में कई महत्वपूर्ण व्यंग्यात्मक बातें लिखी हैं। परसाई लिखते है कि “विषय पर निबंध का शीर्षक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पाठकों को सामग्री के बारे में पहले से ही सूचित करता है और उनमें उत्सुकता पैदा करता है। ” “शीर्षक निबंध, जिसके आधार पर पूरी पुस्तक का नामकरण किया गया है, आज के इस ज्वलन्त सत्य को उद्घाटित करता है कि सभी लोग किसी-न-किसी तरह शॉर्टकट के चक्कर में हैं”। प्रियदर्शी खैरा जी की कृति पर चर्चा करते हुये, परसाई जी को उधृत करने का आशय मात्र इतना है कि बढ़िया गेटअप, हास्य प्रमुदित करता, शीर्षक को परिभाषित करता आवरण चित्र और संग्रहित निबंधो को शार्टकट स्वरूप में ध्वनित करता शीर्षक “दाढ़ी से बड़ी मूँछ ” पाठक को यह समझाने के लिये पर्याप्त है कि भीतर के पृष्ठों पर उसे हास्य सम्मिश्रित व्यंग्य पढ़ने मिलेगा।

अनुक्रमणिका में  “गज़ब की सकारात्मकता”, भक्त से भगवान, ट्रेन टिकट और चुनाव टिकट, चन्द्रमा का पृथ्वी भ्रमण, नेता, अफसर और देश, एक एंकर की उदय कथा, चमत्कार को नमस्कार है, अथ आत्मकथा माहात्म्य, टोटका-माहात्म्य, अथ चरण पादुका माहात्म्य, सचिवालय-महिमा पुराण, खादी और सपने, सब जल्दी में हैं, छेदी काका बनाम सुक्खन भैया, आयकर, सेवाकर और प्रोफेसर, त्रिया भाग्यम्, पुरुषस्य चरित्रम्, योग, संयोग और दुर्योग, पी पी पी मोड में श्मशान घाट, जैसे शीर्षक पढ़ने के बाद कोई भी पाठक जो व्यंग्य में दिलचस्पी रखता है किताब में रुचि लेने से स्वयं को रोक नहीं पायेगा। इन शीर्षको से यह भी स्पष्ट होता है कि खैरा जी ने हिन्दी वांग्मय तथा साहित्य खूब पढ़ा है, और भीतर तक उससे प्रभावित हैं, तभी अनेक रचनाओ के शीर्षको में अथ कथा, महात्म्य, जैसे प्रयोग उन्होने किये हैं। ये रचनायें पढ़ने पर समझ आता है कि उन्होने विषय का पूरा निर्वाह सफलता से किया है।

पन्ने अलटते पलटते मेरी नजर “हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा होय”, एवरेस्ट पर ट्रैफिक जाम, गजब की सकारात्मकता पर ठहर गई। खैरा जी लिखते हैं …” हिंदुस्तानी गजब के सकारात्मक हैं। हम चर्चा क्रांति में विश्वास रखते हैं, फिर जो होता है उसे ईश्वर की इच्छा मानकर यथारूप में स्वीकार कर लेते हैं। अब यदि पुत्री ने जन्म लिया तो लक्ष्मी आ गई, और पुत्र हुआ तो कन्हैया आ गए। यदि संतान पढ़ लिखकर बाहर चली गई तो खानदान का नाम रोशन कर दिया, यदि घर पर रह गई तो अच्छा हुआ, नहीं तो घर कौन संभालता। ” आगे वे लिखते हैं .. हमारे गाँव में एक चिर कुंवारे थे, जहाँ खाना मिल जाता, वहीं खा लेते, नहीं मिलता तो व्रत रख लेते। पूछने वालों को व्रत के लाभ भी गिना देते, जैसे कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए उपवास जरूरी है। हमारे मनीषियों ने सप्ताह के सात दिन के नाम किसी न किसी देवी देवता के नाम पर ऐसे ही नहीं रखे हैं, उसके पीछे दर्शन है, व्रत के साथ-साथ उनकी आराधना भी हो जाती है, इस लोक का समय कट जाता है और परलोक भी सुधर जाता है। अगर इसी बीच उन्हें भोजन मिल जाता तो ऊपर वाले की कृपा और आशीर्वाद मानकर ग्रहण भी कर लेते थे। मतलब हर बात में सकारात्मक।

  इसी तरह, कोरोना काल में लिखे गये किताब के शीर्षक व्यंग्य “दाढ़ी से बड़ी मूँछ ” से अंश देखिये … मैंने कुर्सी पर बैठते हुए मुस्कुराते हुए पूछा, “क्यों भई, बरसात तो है नहीं, पर तुम छत के नीचे बरसाती पहने क्यों बैठे हो? क्या छत में लीकेज है?””सर, आप नहीं समझोगे, कोरोना अभी गया नहीं, ये सब कोरोना से आप की सुरक्षा के लिए है। कोविड काल में सब शरीर की मरम्मत में लगे हैं, छत की मरम्मत अगले साल कराएँगे, धंधा मंदा है। ” उसने उत्तर देते हुए हजामत करना प्रारंभ कर दिया। तभी मेरी दृष्टि सामने टंगी दर सूची पर गई तो होश उड़ गए, मैंने पूछा, “भाई साहब, पहले हजामत के सौ रुपए लगते थे और अब तीन सौ !”सर, आप की सुरक्षा के लिए, हजामत के तो सौ रुपए ही हैं, दो सौ रुपए पीपीई किट के हैं। अस्पताल वाले हजार जोड़ते हैं, आप कुछ नहीं कहते, हमारे दो सौ भी आपको ज्यादा लगते हैं। ” उसने उत्तर दिया। मैं क्या करता अब उठ भी नहीं सकता था, आधी हजामत हो चुकी थी। हजामत करते करते उसने पूछा, “सर, आपके पिताजी हैं?” मैंने उत्तर दिया, “नहीं’। ” “फिर तो आप मुंडन करा लेते तो अच्छा रहता, छः माह के लिए फ्री, आपके भी पैसे बचते, और हम भी आपके उलझे हुए बालों में नहीं उलझते। ” वह मुस्कुराते हुए बोला।

इतना पढ़कर पाठक समझ रहे होंगे कि व्यंग्य में हास्य के संपुट मिलाना, रोजमर्रा की लोकभाषा में लेखन, सहज सरल वाक्य विन्यास होते हुये भी चमत्कृत करने वाली लेखन शैली, व्यंग्य लेखन के विषय का चयन तथा उसका अंत तक न्यायिक निर्वाह प्रियदर्शी खैरा जी की विशेषता है। वे स्तंभ लेखन कर चुके हैं। कविता, गजल, व्यंग्य विधाओ में सतत लिखते हैं, कई साहित्यिक संस्थाओ से संबद्ध हैं। अर्थात उनका अनुभव संसार व्यापक है। श्मशान को पी पी पी मोड पर चला कर उसका विकास करने जैसे व्यंग्यात्मक विचारों पर कलम चलाने का माद्दा उनमें है।

शब्द अमूल्य होते हैं यह सही है, किन्तु “ढ़ाढ़ी से बड़ी मूंछ” में मुझे पुस्तक के अपेक्षाकृत अधिक मूल्य के अतिरिक्त सब कुछ बहुत बढ़िया लगा। मैंने किताब को ई स्वरूप में पढ़ा है। मुझे भरोसा है कि इसे प्रिंट रूप में काउच में लेटे हुये चाय की चुस्की के साथ पढ़ने में ज्यादा मजा आयेगा। किताब अमेजन, फ्लिपकार्ट आदि पर सुलभ है तो देर किस बात की है, यदि इस पुस्तक चर्चा से आपकी उत्सुकता जागी है तो किताब बुलाईये और पढ़िये। आपकी व्यय की गई राशि से ज्यादा आनंद मिलेगा यह सुनिश्चित है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 637 ⇒ अहसान और स्वाभिमान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अहसान और स्वाभिमान।)

?अभी अभी # 637 ⇒ अहसान और स्वाभिमान ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम जब से पैदा हुए हैं, हम पर कितनों के अहसान हैं, हम नहीं जानते ! अगर गिनना चाहें, तो गिनती भूल जाएं ! लेकिन बड़े होते होते, हम इन अहसानों को भूलते चले जाते हैं। हम इतने खुदगर्ज होते चले जाते हैं, कि अपने अभिमान और दर्प को ही स्वाभिमान मान बैठते हैं। मैंने कभी किसी का अहसान नहीं लिया। मैं अपने पाँव पर खड़ा हुआ, आज कहाँ से कहाँ पहुँच गया हूँ।

स्वाभिमानी खुदगर्ज नहीं होता ! वह किये हुए अहसानों के प्रति कृतज्ञ होता है, कृतघ्न नहीं ! हम पर किसके कितने अहसान हैं, उसका लेखा-जोखा रखना संभव नहीं। जब हमारा जन्म ही ईश्वर की सबसे बड़ी कृपा है, मेहरबानी है, तो मात-पिता, भाई बंधु, मित्र-परिवार समाज, देश और गुरुजन के अहसान की तो बात ही क्या है।।

प्रकृति हमारी सबसे बड़ी पालनकर्ता है। सर्दी, गर्मी, बरसात के मौसम हमें वर्ष भर स्वस्थ रहने में सहयोग करते हैं। मौसम अनुसार फल, सब्ज़ी, तरकारी हमारे शरीर को पुष्ट बनाये रखते हैं। खेतों में अनाज, नदियों में पानी, निरंतर बहती पवन और सूर्य देव की रोशनी अगर न हो, तो हमारा तो अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए। किस किस के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन किया जाए। हमने कब प्रकृति की स्तुति की।

हम प्रतिदिन आपस में सुप्रभात, good morning और राम राम करते हैं, हमें जीवन देने वाले सूर्य को क्या हमें रोज नमस्कार नहीं करना चाहिए? अग्निदेव हमारा भोजन पकाते हैं, ठंड में नहाने के लिए गर्म पानी की व्यवस्था करते हैं। शाम होते ही, केवल स्विच दबाते ही घर में रोशनी हो जाती है। हम किस किसके अहसान मंद हैं, हम ही नहीं जानते। फिर भी हम अभिमानी नहीं, स्वाभिमानी हैं।।

बिना गैस के हमारी रसोई नहीं बनती। बिना पेट्रोल के हमारी गाड़ी नहीं चलती। बिना तनख्वाह के हमारा घर नहीं चलता। बिना चार्जर के हमारा मोबाइल नहीं चलता। कितने आत्म-निर्भर हैं हम। फिर भी कितने खुद्दार हैं।

मैं अपने पाँवों पर खड़ा हूँ ! मैंने जीवन में कितना संघर्ष किया है, मैं ही जानता हूँ। मैं न होता तो इतने बड़े परिवार को कौन सँभालता। आज समाज में मेरी इतनी प्रतिष्ठा है, मान है, सब मेरा ही पुरुषार्थ है। मान मेरा अहसान, अरे नादान। फिर भी कभी नहीं किया अभिमान। और न कभी खोया अपना स्वाभिमान।

जब हम बीमार पड़ते हैं, शरीर वृद्ध हो जाता है, इन्द्रियाँ काम नहीं करती, घुटने काम नहीं करते, आँखों से कम दिखाई देता है, कानों से कम सुनाई देता है, हमें किसी के सहारे की सतत आवश्यकता होती है। गर्म खून ठंडा हो जाता है। फिर भी क्रोध पर काबू नहीं रहता। जो आपकी सेवा करता है, उसके प्रति तक कृतज्ञता का भाव तक नहीं रहता। क्या कहें इसे खुदगर्ज़ी, अभिमान या स्वाभिमान।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 221 – भक्ति रस ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है अप्रतिम आलेख “भक्ति रस”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 221 ☆

🌻आलेख🌻 🪔भक्ति रस 🪔

क्षिति जल पावक गगन समीरा।

पंच रचित अति अधम शरीरा।।

यही हमारे शरीर की संरचना है। इसी शरीर को स्वस्थ निरोगी और विद्यमान रखने के लिए अनेकों प्रकार के संसाधन किए जाते हैं। सृष्टि विधाता ने अपने विधान से इस चार युगों में बाँटे हैं – सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलयुग।

सतयुग ऋषि मुनि संतों का युग जहाँ वचन से श्राप और उन्नति का माप हो जाता था। बड़े से बड़े कार्य सिर्फ वचन के आधार पर ही स्थापित और विध्वंस हो जाते थे। इसे देवों का काल भी कहा जाता है।

त्रेता युग प्रभु श्री राम का अवतार और जहाँ मर्यादा का पाठ सर्वोपरि माना गया। इस युग में नारायण श्री हरि स्वयं धरा पर आए। सत्य, निष्ठा, वचन, धर्म – कर्म, मर्यादा का पालन करना सीखा गए। ऐसी लीला प्रभु की  जो स्थान भगवान राम को मिला अन्यत्र किसी को दुर्लभ हुआ।

द्वापर युग में प्रभु नारायण अपने ही रूप को मानव के समूल चरित्र को अंगीकृत करते और लीला रचते श्री कृष्ण के रूप में जगत में आए। बाल लीला और छलिया अंतर केवल ब्रह्म ऋषि और वेद शास्त्र ने जाना। वरन सृष्टि में सांसारिक लीला रचते मानवीय मूल्यों का अपने और पराय धर्म और धर्म का ज्ञान सीख गए। युग परिवर्तन होता गया।

कलयुग का आरंभ हुआ जिसे हम वर्तमान में कलयुग चल रहा कहते हैं।

सभी युगों में भगवान की प्रति निष्ठा, श्रद्धा, सेवा, आस्था, साकार निराकार और भक्ति से हमारे पूर्वजों ने अपने-अपने मन को शांत किया। किसी ने तप, किसी ने जप, किसी ने यज्ञ हवन और किसी ने संगीत किसी ने मन के भावों को प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में प्रदर्शित कर प्रभु की आराधना करते चले गए।

वेदव्यास जी के द्वारा महान ग्रथों की स्थापना हुई। चार वेद असंख्य ग्रंथ और तुलसी रचित रामायण ने अखंड अमित श्री राम चरित्र रामायण की रचना की।

वर्तमान काल, भूतकाल, भविष्य काल, आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल, वीरगाथा काल, पूर्व मध्यकाल, उत्तर मध्यकाल इन सभी में समय परिवर्तन धीरे-धीरे होता गया और इन सभी में समानता सामान्य यह रही की सभी ने अपने-अपने मन के भावों को उजागर किया।

आधुनिक काल में गद्य और पद्य दो विधाओं का विकास हुआ। काव्य धारा बहती गई। छाया युग, प्रगति युग, प्रयोग युग, यथार्थ युग।

गद्य में भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, रामचंद्र शुक्ल युग, प्रेमचंद युग, अघतन युग।

डॉ रामचंद्र शुक्ल ने वीरगाथा काल भक्ति, काल रीतिकाल, और आधुनिक काल का विभाजन किया। जिसे आज भी सर्वोपरि माना जाता है। आधुनिक डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल का विभाजन किया।

डॉक्टर नाम वर सिंह ने आदिकाल, भक्ति काल, रीतिकाल, और उत्तर रीतिकाल, आधुनिक काल, को विभाजित किया।

भक्ति काल संपूर्ण सृष्टि में हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग रहा। इसकी सीमा कल 1375 से 1700 मानी जाती है। इसमें भक्ति के जरिए समाज का सुधार उध्दार और एक नई दिशा प्रदान करने का सामर्थ बढा।

जनमानस तक पहुंचाने का मार्ग माध्यम बना। इस कल में निर्गुण उपासना और सगुण उपासना दोनों तरह के भक्त और साहित्यकार हुए।

भक्ति काल में मुख्य रूप से तुलसीदास, कबीर दास, रहीम, मीरा, रसखान मलिक, मोहम्मद जायसी, सूरदास, आदि महान संत हुए।

भक्ति काल के मुख्य मार्ग सगुण भक्ति मार्ग राम भक्ति एवं कृष्ण भक्ति।

दूसरा निर्गुण भक्ति मार्ग ज्ञानमार्गी एवं प्रेम मार्गी।

भक्ति काल पूर्ण रूप से प्रभु के प्रति भक्ति की भावना से प्रेरित रहा। भक्ति काल में भक्त प्रेम और भक्ति की प्रधानता रही।

” एक राधा एक मीरा दोनों ने श्याम को चाहा”

“चाह मीरा थी गिरधर दीवानी बनी।

चाह राधा श्री मोहन की प्यारी बनी”।।

इस भाव से भी हम इसे ज्यादा समझ सकते हैं। संसार में राधा कृष्ण की जोड़ी सिर्फ निश्छल प्रेम को स्थापित करती है। वहीं पर राजघराने की मीरा केवल भक्ति रूप में कृष्ण को मानसिक पति के रूप में पूजती रही।

उन्हें पाने या आत्मसमर्पण की भावना कभी भी विद्यमान नहीं दिखती। संत समागम और गुरु की महत्ता भी कूट-कूट कर भक्ति काल में समाहित हुई।

कबीर और सूरदास की रचनाओं में आज भी मनुष्य डूब कर प्रभु के साकार रूप के दर्शन करता है। जहाँ सूरदास जी काव्य संरचना में भगवान के श्रृंगार सहित सभी अंग आभूषण का वर्णन करते हैं।

वही कबीर दास जी पत्थर की चक्की को पूजने की बात कहतेहैं।

जिससे जीवन जीने की कला और मानव के भूख पेट की शांति होती है।

पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहार।

इससे तो चाकी भली पीस खाए संसार।।

 जहाँ कबीर दास जी की चक्की का वर्णन वही आज भी लोगों की धारणा है कि मीरा की भक्ति की वजह से प्रभु कृष्ण जी पत्थर की मूर्ति में स्वयं मीरा समा गई थी।

“जा की रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तीन तैसी”

 भक्ति काल में प्रभु नाम संस्मरण को  प्रथम उपाय माना गया। प्रभु भगवन प्राप्ति का महर्षि वाल्मीकि जी ने राम का नाम उल्टा जपा और स्वयं ब्रह्मा के समान हुए। पहले रत्नाकर दास नाम के डाकू थे जो केवल छीन झपट मार काट कर खाना जानते थे।

उल्टा नाम जपा जग जाना।

बाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।।

 भक्ति काल में राधा और मीरा भगवान कृष्ण की अन्नय भक्त है। एक नारी जब नर नारायण को चाहती पूजा करती या प्रेम समर्पण की भावना रखती है। तो वह किसी न किसी रूप में उसे पाना चाहती है।

राधा ने प्रभु कृष्ण को प्रेम की परिभाषा में रंगी। वही मीरा ने प्रेम को ही कृष्ण के रूप में स्वीकार किया था।

जहाँ पर  किसी प्रकार का कोई भेद नहीं सिर्फ प्रेम और प्रेम भक्ति का ही एक रूप है होता है।

राधा जानती थी कि कृष्णा मेरा है परंतु वह भक्ति समाहित प्रेम नहीं था वह सिर्फ चाह रही थी भगवान को और समय-समय पर प्रतिपल उनके साथ भी रहना चाहती थी कि कृष्ण भी उन्हें चाहे, प्रेम करें, परंतु मीरा ने जो भक्त की वह सिर्फ प्रेम भक्ति थी उसे न तो पति के रूप में उन्हें जीवन की भौतिक सुख चाहिए था और ना ही उन्हें सांसारिक माया मोह।

पति प्रेम में ही वह डूबती चली थी। साम्राज्य और लोकनाज से कोसों दूर व सिर्फ पति प्रेम जिसे वह दे रही थी उसे मिले या ना मिले इसका भी उसे कोई सरोकार नहीं था।

परंतु भक्ति ऐसी की आज के समय में तो शायद सिर्फ ग्रंथ और किताबों में ही  है। साहित्यकार इसे अपने-अपने तरीके से आज भी सुंदर और अपने भावों की रचनाओं से सुशोभित करते हैं।

राधा रानी की चाहत को लिए महारास और राधा के अनगिनत प्रेम प्रसंग से सराबोर हमारे भक्ति काल में राधा को ही सर्वोपरि माना गया। भगवान ने एक बार परीक्षा ली कि शरीर में छाले पड़ गए हैं। यदि कोई सखी अपनी चरण धूलि दे दे तो ज्वर और छाले ठीक हो जाएंगे। कहते हैं श्री कृष्ण की भक्ति में लीन कोई भी सखी ऐसा नहीं मिली जो चरण धूलि दे। परंतु बात राधा के कानों तक पहुंची। राधा श्री ने तुरंत अपने पाँव से निकलकर चरण राज दे दिया। रानी पट रानी सभी ने हार मानी।

राधा का प्रेम सिर्फ प्रेम ही नहीं वक्त पढ़ने पर भारी संकटों को अपने ऊपर लेकर अपने भगवान प्रेमी को मुक्त करना होता है। कहा गया था जो  चरण रज  देगी उसे अनंत कोटि वर्षों तक रैरव नरख  निवास मिलेगा।

परंतु राधा जी ने कृष्ण के लिए अनंत कोटि रैरव नरक स्वीकार किया। इस पल मेरे श्याम ठीक हो जाए यह भक्ति प्रेम की सर्वोपरि प्रकाष्ठा है।

तुलसीदास ने जी ने भी प्रेम से लिप्त जब पत्नी के पास पहुंचे पत्नी की कठोर कटाक्ष बातों से आत्मा को तार – तार होते देखा।

भगवान प्राप्ति के लिए अपने आप को दास मानते तप, संयम, श्रद्धा, विश्वास, प्रेम, प्रभु कृपा और शरणागति को ही अपना साधन बनाया। और आदि अनंत तक जीवंत हो गए।

दास के रूप में तुलसीदास जी ने प्रभु भक्ति का मार्ग निर्मल और साकार बताया।।

भक्त गंगा सी निर्मल पावन बनों।

प्रेम पूजे प्रभु गल की माला बनों।।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 124 – देश-परदेश – जब कोतवाल ही कातिल  हो ? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख/व्यंग्य  की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ व्यंग्य # 124 ☆ देश-परदेश – जब कोतवाल ही कातिल  हो? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में उच्च न्यायालय के ज़ज का सम्मान ना सिर्फ पद पर रहते हुए होता है, वरन सेवानिवृति के पश्चात भी उनको मिलने वाली सुविधाएं और सम्मान उच्चतम स्तर का रहता हैं। कुछ दिन पूर्व किसी उच्चतम न्यायालय के एक जज के यहां आग लगने पर बहुत अधिक मात्रा में पांच सौ के नोटों का भंडार मिलना बताया जाता है।

हमारे देशवासियों को तो किसी भी मुद्दे की आवश्यकता होती है। पूरे सोशल मीडिया के साथ टीवी चैनल वालों को भी मौका मिल जाता हैं। चुटकले से लेकर वर्तमान के व्यंग कहे जाने वाले “मीम्स” भी इस विषय पर विगत दिनों से सक्रिय हैं।

चार दशक पूर्व हमारे एक मित्र, जिनका टिंबर का व्यवसाय था, के टाल में भीषण आग लग गई थी। हम कुछ मित्र उनके व्यवसाय स्थल पर सांत्वना व्यक्त करने भी गए थे। उनके टिंबर का स्टॉक, कोयले के ढेर में परिवर्तित हो चुका था।

हमारे एक ज्ञानी साथी ने उनसे कहा, इस कोयले को धोबियों को बेच कर कुछ भरपाई कर लेनी चाहिए। व्यवसायी मित्र ने कहा, अभी मुम्बई से बीमा विभाग के बड़े अधिकारी आयेंगे और कोयले की मात्रा के अनुपात में मुआवजा तय होने पर ही कोयले को बेचेंगे। ज्ञानी मित्र ने लपक कर कहा लकड़ी में जल की कुछ मात्रा भी रहती है, फिर कैसे सही मुआवजा तय होगा। व्यवसायी मित्र ने बताया वो लोग विशेषज्ञ होते है, किसी तयशुदा फार्मूले से मुआवजा तय करते हैं।

सुनने में आया है कि जज साहब के यहां भी बहुत सारे नोट जल गए हैं, और कुछ अधजले नोट भी हैं। हम तो ये सोच रहे है, कुल राशि का सही अनुमान लगाने के लिए भी कुछ सेवानिवृत बैंकर की सेवाएं लेनी चाहिए। अधजले नोटों और जले हुए नोटों की सॉर्टिंग कर कुल राशि का सही अनुमान निकाला जा सकता है। पुराने और खराब नोटों को जला कर नष्ट करने का एक लंबा तजुर्बा सिर्फ बैंकर्स के पास ही होता है।

हमारे यहां की कुछ महिलाएं तो तथाकथित जले हुए नोटों की राख क्रय कर बर्तन भी चमकाना चाहती हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares