हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #275 ☆ शब्द-शब्द साधना… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख शब्द-शब्द साधना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 275 ☆

☆ शब्द-शब्द साधना… ☆

‘शब्द शब्द में ब्रह्म है/ शब्द शब्द में सार। शब्द सदा ऐसे कहो/ जिन से उपजे प्यार।’ वास्तव में शब्द ही ब्रह्म है और शब्द में ही निहित है जीवन का संदेश…इसलिए सदा ऐसे शब्दों का प्रयोग कीजिए, जिससे प्रेम भाव प्रकट हो। कबीरदास जी का यह दोहा ‘ऐसी बानी बोलिए/ मनवा शीतल होय। औरहुं को शीतल करे/ ख़ुद भी शीतल होय’ …उपरोक्त भाव की पुष्टि करता है। हमारे कटु वचन दिलों की दूरियों को इतना बढ़ा देते हैं; जिसे पाटना कठिन हो जाता है। इसलिए सदैव मधुर शब्दों का प्रयोग कीजिए, क्योंकि ‘शब्द से खुशी/ शब्द से ग़म। शब्द से पीड़ा/ शब्द ही मरहम’ शब्द में निहित हैं ख़ुशी व ग़म के भाव– परंतु उनका चुनाव आपकी सोच पर निर्भर करता है।

वास्तव में शब्दों में इतना सामर्थ्य है कि जहाँ वे मानव को असीम आनंद व अलौकिक प्रसन्नता प्रदान कर सकते हैं; वहीं ग़मों के सागर में डुबो भी सकते हैं। दूसरे शब्दों में शब्द पीड़ा है और शब्द ही मरहम है। शब्द मानव के रिसते ज़ख्मों पर कारग़र दवा का काम भी करते हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस मन:स्थिति में किन शब्दों का प्रयोग किस अंदाज़ से करते हैं।

‘हीरा परखै जौहरी/ शब्द ही परखै साध। कबीर परखै साध को/ ताको मतो अगाध’ हर व्यक्ति अपनी आवश्यकता व उपयोगिता के अनुसार इनका प्रयोग करता है। जौहरी हीरे को परख कर संतोष पाता है, तो साधु शब्दों व सत्य वचनों अर्थात् सत्संग को ही महत्व प्रदान करता है और आनंद प्राप्त करता है। वह उनके संदेशों को जीवन में धारण कर सुख व संतोष प्राप्त करता है; स्वयं को भाग्यशाली समझता है। परंतु कबीरदास जी उस साधु को परखते हैं कि उसके भावों व विचारों में कितनी गहनता व सार्थकता है; उसकी सोच कैसी है और वह जिस राह पर लोगों को चलने का संदेश देता है; वह उचित है या नहीं? वास्तव में संत वह है; जिसकी इच्छाओं का अंत हो गया है और उसकी श्रद्धा को आप विभक्त नहीं कर सकते; उसे सत्मार्ग पर चलने से नहीं रोक सकते–वही श्रद्धेय है, पूजनीय है। वास्तव में साधना करने व ब्रह्मचर्य को पालन करने वाला ही साधु है, जो सीधे व सपाट मार्ग का अनुसरण करता है। इसके लिए आवश्यकता है कि जब हम अकेले हों, तो अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाएं अर्थात् कुत्सित भावनाओं व विचारों को अपने मनोमस्तिष्क में दस्तक न देने दें। अहं व क्रोध पर नियंत्रण रखें, क्योंकि ये दोनों मानव के अजात शत्रु हैं, जिसके लिए अपनी कामनाओं-तृष्णाओं को नियंत्रित करना आवश्यक है।

अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को सबसे दूर कर देता है, तो क्रोध सामने वाले को तो हानि पहुंचाता ही है; वहीं अपने लिए भी अनिष्टकारी सिद्ध होता है। अहंनिष्ठ व क्रोधी व्यक्ति आवेश में न जाने क्या-क्या कह जाता है; जिसके लिए उसे बाद में प्रायश्चित करना पड़ता है। परंतु ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् समय गुज़र जाने के पश्चात् हाथ मलने अर्थात् पछताने का कोई औचित्य अथवा सार्थकता नहीं रहती। प्रायश्चित करना हमें सुख व संतोष प्रदान करने की सामर्थ्य तो रखता है, ‘परंतु गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता।’ शारीरिक घाव तो समय के साथ भर जाते हैं, परंतु शब्दों के ज़ख्म कभी नहीं भरते; वे तो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। परंतु कटु वचन जहाँ मानव को पीड़ा प्रदान करते हैं; वहीं सहानुभूति व क्षमा-याचना के दो शब्द बोलकर आप उन पर मरहम भी लगा सकते हैं। शायद! इसीलिए कहा गया है गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपनी मधुर वाणी द्वारा दूसरे के दु:खों को दूर करने का सामर्थ्य रखता है। आपका दु:खी व आपदाग्रस्त व्यक्ति को ‘मैं हूं ना’ कह देना ही उसमें आत्मविश्वास जाग्रत करता है और वह स्वयं को अकेला व असहाय अनुभव नहीं करता। उसे ऐसा लगता है कि आप सदैव उसकी ढाल बनकर उसके साथ खड़े हैं।

एकांत में व्यक्ति के लिए अपने दूषित मनोभावों पर नियंत्रण करना आवश्यक है तथा सबके बीच अर्थात् समाज में रहते हुए शब्दों की साधना करना भी अनिवार्य है… सोच- समझकर बोलने की सार्थकता से आप मुख नहीं मोड़ सकते। इसलिए कहा जा सकता है कि यदि आपको दूसरे व्यक्ति को उसकी ग़लती का एहसास दिलाना है, तो उससे एकांत में बात करो, क्योंकि सबके बीच में कही गई बात बवाल खड़ा कर देती है। अक्सर उस स्थिति में दोनों के अहं का टकराव होता है। अहं से संघर्ष का जन्म होता है और उस स्थिति में वह दूसरे के प्राण लेने पर उतारु हो जाता है। गुस्सा चाण्डाल होता है… बड़े-बड़े ऋषि मुनियों के उदाहरण आपके समक्ष हैं। परशुराम का क्रोध में अपनी माता का वध करना व ऋषि गौतम का अहिल्या का श्राप देना आदि हमें संदेश देता है कि व्यक्ति को बोलने से पहले सोचना अर्थात् तोलना चाहिए। उस विषम परिस्थिति में कटु व अनर्गल शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए और दूसरों से वैसा व्यवहार करना चाहिए; जिसे सहन करने की क्षमता आप में है। सो! आवश्यकता है, हृदय की शुद्धता व मन की स्पष्टता की अर्थात् आप अपने मन में किसी के प्रति ईर्ष्या, दुर्भावना व दुष्भावनाएं मत रखिए, बल्कि बोलने से पहले उसके औचित्य-अनौचित्य का चिन्तन-मनन कीजिए। दूसरे शब्दों में किसी के कहने पर उसके प्रति अपनी धारणा मत बनाइए अर्थात् कानों-सुनी बात पर विश्वास मत कीजिए, क्योंकि विवाह के सारे गीत सत्य नहीं होते। कानों-सुनी बात पर विश्वास करने वाले लोग सदैव धोखा खाते हैं और उनका पतन अवश्यंभावी होता है। कोई भी उनके साथ रहना पसंद नहीं करता। बिना सोच-विचार के किए गए कर्म केवल आपको ही हानि नहीं पहुंचाते; परिवार, समाज व देश के लिए भी विध्वंसकारी होते हैं।

सो! दोस्त, रास्ता, किताब व सोच यदि ग़लत हों, तो गुमराह कर देते हैं; यदि ठीक हों, तो जीवन सफल हो जाता है। उपरोक्त उक्ति हमें आग़ाह करती है कि सदैव अच्छे लोगों की संगति करें, क्योंकि सच्चा मित्र आपका सहायक, निदेशक व गुरु होता है; जो आपको कभी पथ-विचलित नहीं होने देता। वह आपको ग़लत मार्ग व ग़लत दिशा की ओर जाने पर सचेत करता है तथा आपकी उन्नति को देख कर प्रसन्न होता है; आप को उत्साहित करता है। पुस्तकें मानव की सबसे अच्छी मित्र होती हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘बुरी संगति से इंसान अकेला भला’और एकांत में अच्छे मित्र के साथ न होने की स्थिति में सद्ग्रथों व अच्छी पुस्तकों का सान्निध्य हमारा यथोचित मार्गदर्शन करता है।

हाँ! सबसे बड़ी है मानव की सोच अर्थात् जो मानव सोचता है, वही उसके चेहरे के भावों से परिलक्षित होता है और व्यवहार उसके कार्यों में झलकता है। इसलिए अपने हृदय में दैवीय गुणों स्नेह, सौहार्द, त्याग, करुणा, सहानुभूति आदि  को पल्लवित होने दीजिए… ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर की भावना को दूर से सलाम कीजिए, क्योंकि सत्य की राह का अनुसरण करने वाले की राह में अनगिनत बाधाएं आती हैं। परंतु यदि वह उन असामान्य परिस्थितियों में अपना धैर्य नहीं खोता; दु:खी नहीं होता, बल्कि उससे सीख लेता है तो वह अपनी मंज़िल को प्राप्त कर अपने भविष्य को सुखमय बनाता है। वह सदैव शांत भाव में रहता है, क्योंकि ‘सुख- दु:ख तो अतिथि हैं’…’जो आया है, अवश्य जाएगा’ को अपना मूल-मंत्र स्वीकार संतोष से अपना जीवन बसर करता है। सो! आने वाले की खुशी व जाने वाले का ग़म क्यों? इंसान को हर स्थिति में सम रहना चाहिए, ताकि दु:ख आपको विचलित न करें और सुख आपके सत्मार्ग पर चलने में बाधा उपस्थित न करें अर्थात् आपको ग़लत राह का अनुसरण न करने दें। वास्तव में पैसा व पद-प्रतिष्ठा मानव को अहंवादी बना देते हैं और उससे उपजा सर्वश्रेष्ठता का भाव अमानुष। वह निपट स्वार्थी हो जाता है और केवल अपनी सुख-सुविधाओं के बारे में सोचता है। इसलिए ऐसा स्थान यश व लक्ष्मी को रास नहीं आता और वे वहां से रुख़्सत हो जाते हैं।

सो! जहां सत्य है; वहां धर्म है, यश है और वहीं लक्ष्मी निवास करती है। जहां शांति है; सौहार्द व सद्भाव है; मधुर व्यवहार व समर्पण भाव है और वहां कलह, अशांति, ईर्ष्या-द्वेष आदि प्रवेश पाने का साहस नहीं जुटा सकते। इसलिए मानव को कभी भी झूठ का आश्रय नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह सब बुराइयों की जड़ है। मधुर व्यवहार द्वारा आप करोड़ों दिलों पर राज्य कर सकते हैं…सबके प्रिय बन सकते हैं। लोग आपके साथ रहने व आपका अनुसरण करने में स्वयं को गौरवशाली व भाग्यशाली समझते हैं। सो! शब्द ब्रह्म है; उसकी सार्थकता को स्वीकार कर जीवन में धारण करें और सबके प्रिय बनें, क्योंकि हमारी सोच, हमारे बोल व हमारे कर्म ही हमारे भाग्य-निर्माता हैं और हमारी ज़िंदगी के प्रणेता हैं।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #48 – नवगीत – ललकार… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम प्रेरक गीतललकार

? रचना संसार # 48 – गीत – ललकार…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

दमन करें रिपुओं का हरदम ,

मान मर्द कर ललकारें।

घर में बैठे जयचंदों को ,

निष्कासित कर दुत्कारें।।

 *

वीर शिवा के हम हैं वशंज,

फैला तिमिर हटाना है।

विपदाओं को दूर भगाकर,

संकट हमें मिटाना है।।

तोड़ धर्म की सब दीवारें,

रूठों को चल पुचकारें।

 *

दमन करें रिपुओं का हरदम,

मान मर्द कर ललकारें।।

 **

राग-द्वेष या भेदभाव हो,

हिय से दूर भगाना है।

समरसता का दीप जला ,जग,

ज्योतिर्मान बनाना है।।

संयम से निज को विजित करो ,

होगीं फिर तो जयकारें।

 *

दमन करें रिपुओं का हरदम,

मान मर्द कर ललकारें।।

 **

चारित्रिक उत्थान जगत में ,

राम-राज्य ले आएगा।।

स्वर्णिम आभा नव प्रभात की,

व्योम अमिय बरसाएगा।

सकल विश्व में गूँजेंगी तब

सुख की निशदिन किलकारें।

 *

दमन करें रिपुओं का हरदम,

मान मर्द कर ललकारें।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अस्तित्व ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अस्तित्व ? ?

पहाड़ की ऊँची चोटियों के बीच

अपने कद को बेहद छोटा पाया,

पलट कर देखा,

काफ़ी नीचे सड़क पर

कुछ बिंदुओं को हिलते डुलते पाया,

ये वही राहगीर थे,

जिन्हें मैं पीछे छोड़ आया था,

ऊँचाई पर हूँ, ऊँचा हूँ,

सोचकर मन भरमाया,

एकाएक चोटियों से साक्षात्कार हुआ,

भीतर और बाहर एकाकार हुआ,

ऊँचाई पर पहुँच कर भी,

छोटापन नहीं छूटा

तो फिर क्या छूटा?

शिखर पर आकर भी

खुद को नहीं जीता

तो फिर क्या जीता?

पर्वतों के साये में,

आसमान के नीचे,

मन बौनापन अनुभव कर रहा था,

पर अब मेरा कद

चोटियों को छू रहा था..!

?

 

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी 💥  

🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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English Literature – Poetry ☆ Hollow Excuses… ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present Capt. Pravin Raghuvanshi ji’s amazing poem “~ Hollow Excuses ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.) 

? ~ Hollow Excuses… ??

Mesmerizing excuses made, as a guise

You left, with hollow words in disguise

 *

Distances grew, a chasm wide and high

Memories of you, that refuse to die

 *

Those tears, woven in a shroud of pain

A heart, trying to heal itself but in vain

 *

Scars left in heart, a treasure to care

Forged in fire of parting, a legacy rare

 *

In a desolate land, I wander, lost & cold

Your memories, a catchy tale to be told

 *

Yet, in solitude, I hold on to what’s left

A heart, once full, now echoes, bereft

~Pravin Raghuvanshi

 © Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ श्वान और मालिक का प्रात: कालीन भ्रमण… ☆ श्री यशवंत कोठारी ☆

श्री यशवंत कोठारी

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री यशवन्त कोठारी जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। आपके लगभग 2000 लेख, निबन्ध, कहानियाँ, आवरण कथाएँ, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, राजस्थान पत्रिका, भास्कर, नवज्योती, राष्ट्रदूत साप्ताहिक, अमर उजाला, नई दुनिया, स्वतंत्र भारत, मिलाप, ट्रिव्यून, मधुमती, स्वागत आदि में प्रकाशित/ आकाशवाणी / दूरदर्शन …इन्टरनेट से प्रसारित। अमेज़न Kindle, Pocket FM .in पर ऑडियो बुक्स व् Matrubharati पर बुक्स उपलब्ध। 40 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। सेमिनार-कांफ्रेस:– देश-विदेश में दस राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनारों में आमंत्रित / भाग लिया। राजस्थान साहित्य अकादमी की समितियों के सदस्य 1991-93, 1995-97, ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार की राजभाषा समिति के सदस्य-2010-14.)

☆ व्यंग्य ☆ श्वान और मालिक का प्रात: कालीन भ्रमण… ☆ श्री यशवंत कोठारी ☆

रोज़ सुबह इस पोश कोलोनी में घूमने के साथ साथ कई काम एक साथ हो जाते हैं. कचरा फेंक देता हूँ दूध ले आता हूँ, गाय को रोटी दे आता हूँ और घूम भी लेता हूँ. बड़े लोग, बड़े बंगले, बड़ी गाड़ियाँ और छोटे छोटे दिल लेकिन बड़े बड़े पेट्स इनको श्वान या कुत्ता कहना मालिक या मालकिन का अपमान है.

अक्सर मुझे अमिताभ बच्चन की फिल्म का एक डायलॉग याद आता है जिसमे वे एक सुबह घूमने वाले को देख कर कहते हैं –इस गधे के साथ कहाँ जा रहें हैं पेट- मालिक बोलता है –यह गधा नहीं मेरा पेट डॉग है अमित जी मासूमियत से कहते हैं मैंने यह सवाल आप से नहीं पेट से ही पूछा था. खैर छोडिये.

अब तो अदालत ने भी गली मोहल्लों के कुत्तों के लिए स्थान सुनिश्चित करने को बोला है कोलोनी वाले उनके लिए खाने की भी व्यवस्था करेंगे. अब तो पेट डॉग्स के लिए पार्क भी बनने लग गए हैं. पेट ट्रेनर की रेट कोचिंग से भी ज्यादा हो गयी है, घुमाने के लिए स्टाफ रखा जाता है. सुबह पेट को घुमाने वाले उसे पट्टे से आजाद कर के खुला छोड़ देते हैं, पेट अपना पेट साफ कर लेता है सुसु से धरा को पवित्र कर देता है तब तक मालिक दूर खड़ा रहता है ताकि आक्षेप करने पर यह कह सके की यह पेट मेरा नहीं है, निवृत्त हो कर पेट मालिक के पास आ जाता है मालिक उसे पट्टे से बांध कर घर की और चल देता है. कुछ समझदार पेट मालिक अपने श्वान की पोट्टी थेली में भर कूड़े दान में डाल देते हैं अपनी संतानों की नेपि भले न बदली मगर पेट के लिए कर देते हैं. कॉलोनी में पेट्स का सामना अक्सर आवारा कुत्तों से हो जाता है गली के श्वान बंगले के श्वान से सेमिनार और वर्कशॉप करने लग जाते हैं इस सामूहिक रुदन से देर से उठने वाले परेशान हो जाते हैं, मगर विरोध करने पर पशुप्रेमी स्वयं सेवी संस्था के महारथी लोग आ जाते हैं और आवारा कुत्तों को उठाने वाली गाड़ी के आगे लेट जाते हैं स्थिति हर गली मोहल्ले में एक जैसी है. श्वान प्रेमी होना अच्छा है लेकिन क्या मानवतावादी होना गलत है, हर शहर में नवजात बच्चों, बूढों बुजुर्गों, महिलाओं को ये श्वान अपना शिकार बना चुके हैं एक दान्त गड़ने पर दस हज़ार का मुआवजा देने के आदेश है लेकिन ऐसी स्थिति ही क्यों आये ?

पेट पालें, मगर दूसरों की जिन्दगी से खिलवाड़ न करें. कुत्तों के अलावा बिल्ली, तोता, चिड़िया, खरगोश, कछुआ या अन्य जानवर पाले जा सकते हैं. आवारा जानवरों के खतरें बहुत है. सड़क पर रा त- बिरात निकलना तक मुश्किल हो गया है श्रीमान. पेट्स के भी खान दान होते हैं असली नस्ल को पहचानने के लिए विशेषज्ञ है, नस्ल सुधारने वाले भी मिल जाते हैं. लेकिन मानव की कौन सोचता है? कुत्ते नवजात तक भी पहुँच जाते हैं. चीर फाड़ देते हैं, लेकिन कौन सुनता है ?

डॉग के सामानों की दुकानें हैं और वहां पर खरीदारों की भीड़ भी है, विदेशों मे तो अलग से पूरे बाज़ार है भारत में भी खुलने की प्रक्रिया है लेकिन आम राहगीर, पैदल चलने वाले, सुबह घूमने के शौक़ीन लोग इस पेट प्यार से दुखी परेशान है. नगर निगम सुनता नहीं कभी सुन ले तो एन जी ओ चलाने वाले पशु प्रेमी गाड़ी को घेर कर कुत्तों को छुड़ा लेते हैं. उनका प्रेम आवारा जानवरों के प्रति नहीं उमड़ता है गरीब दलित आदिवासी के लिए भी नहीं केवल पेट प्यार के मारे हैं ये सब. हजारों लोग हर साल कुत्तों के काटने से मर जाते हैं, कुत्ता नियंत्रण क़ानून बना है लेकिन इस से क्या होता है ? पेट मालिक पर मुकदमें चलाये जाने चाहिए. आंकड़ों के अनुसार रेबीज से हर साल हजारों लोग घायल होते हैं या मर जाते हैं

पेट मालिकों को दूसरों की जिन्दगी से खेलने का कोई ह़क नहीं हैं, सुनो क्या मेरी आवाज तुम तक पहुंचती है ?

©  श्री यशवन्त कोठारी

संपर्क – 701, SB-5, भवानी सिंह रोड, बापू नगर, जयपुर -302015 मो. -94144612 07

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #275 ☆ भावना के दोहे – प्रतिशोध ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे – प्रतिशोध)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 275 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – प्रतिशोध ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

आतंकी की दुष्टता, हमने दिया जवाब।

हिंदुस्तानी फौज ने, जमकर लिया हिसाब।।🇮🇳

 *

ठान लिया है पाकियो, करना है संहार।

मातृ शक्ति को नमन है, रोका जल संचार।।🇮🇳

 *

भारत अब तो कर रहा, हर आतंकी चूर।

आँसू जिनके बह रहे, क्रोधित है सिन्दूर।।🇮🇳

 *

धधक रहा हर साँस में, लक्ष्य सकल प्रतिशोध।

घर में घुसकर मारिए, झलक रहा है क्रोध।।🇮🇳

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #257 ☆ संतोष के दोहे – नीति संबंधी ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  संतोष के दोहे – नीति संबंधी  आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 257 ☆

☆ संतोष के दोहे – नीति संबंधी ☆ श्री संतोष नेमा ☆

साथ कभी जाता नहीं, कोई भी सामान

याद रहे बस कर्म से, था कैसा इंसान

*

मैं मेरा के फेर में, उम्र गई सब बीत

काम न आया जरा कुछ, समझो मेरे मीत

*

पैसों का चक्कर बुरा, जिसका कभी न अंत

रख यह भौतिक सम्पदा, ले न गए धनवंत

*

खुलते कभी न भोग से, यह मोक्ष के द्वार

नेकी से सुख सम्पदा, जिससे सुख संसार

*

सुख शांति उनको मिले, जो करते उपकार

बिन नेकी यह जिंदगी, होती है बेकार

*

कलियुग में जो मानते, मात-पिता को भार

कैसी बिगड़ी सोच यह, सुन मेरे करतार

*

लाज – शर्म सब छोड़ कर, जिनके बिगड़े बोल

समय सीख देता उन्हें, देता आँखें खोल

*

क्रोध कभी मत कीजिए, लाता यह प्रतिशोध

सूझ -बूझ से हम करें, संयम संग विरोध

*

होते हैं घातक बहुत, क्रोध जनित परिणाम

क्रोध कभी मत पालिए, अंत रचे संग्राम

*

रिश्तों को भी फूँकती, तेज क्रोध की आग

जीवन में खलते सदा, इन जख्मों के दाग

*

तुलसी बाबा कह गए, क्रोध पाप का मूल

कहता है संतोष यह, क्रोध चुभे ज्यों शूल

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 676 ⇒ आप मुझे अच्छे लगने लगे ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आप मुझे अच्छे लगने लगे।)

?अभी अभी # 676 ⇒ आप मुझे अच्छे लगने लगे ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब हम अच्छे होते हैं, हमें अपने आसपास सब कुछ अच्छा अच्छा ही लगता है। हम सब, स्वभावतः होते तो अच्छे ही हैं, लेकिन कभी कभी हमें सब कुछ अच्छा नजर नहीं आता। हमारे मन की अवस्था के अनुसार हमारा स्वभाव बनता, बिगड़ता रहता है।

समय और परिस्थिति भी तो कहां हमेशा एक समान होती है।

जब मन चंगा होता है, तो गंगा नहाने का मन करता है। एकाएक सब कुछ अच्छा नजर आने लगता है। शायद फील गुड फैक्टर को ही अच्छा लगना कहते होंगे। मन की ऐसी उन्मुक्त अवस्था में, कोई व्यक्ति विशेष हमें अधिक पसंद आने लगता है, और हम अनायास ही कह उठते हैं, आप मुझे अच्छे लगने लगे। ।

कभी कभी आत्ममुग्ध अवस्था में हम भी अपने प्रियजनों से प्रश्न कर लिया करते हैं, मैं कैसा/कैसी लग रहा/लग रही हूं। मां बेटे से, बेटी मां से, पत्नी पति से, और एक सहेली दूसरी सहेली से, अक्सर यही तो प्रश्न करती रहती है। अगर वह अच्छा दिखेगा तो किसी को अच्छा लगेगा भी। तारीफ करना और सुनना किसे पसंद नहीं।

अगर आप किसी को अच्छे लग रहे हैं, तो अवश्य आपमें कुछ विशेष आकर्षण होगा। हमें भी यूं ही तो कोई नहीं भा जाता। अगर हम निश्छल और अलौकिक प्रेम की बात करें, तो अच्छा लगना एक ईश्वरीय अनुभूति है। मोहिनी मूरत, सांवली सूरत किसे पसंद नहीं। जहां सलोनापन, सादगी और भोलापन है, वहां शब्दाडंबर नहीं होता, अतिशयोक्ति नहीं होती, कोई अलंकार, रूपक, उपमा नहीं, बस मन से यही उद्गार प्रकट होते हैं, आप मुझे अच्छे लगने लगे। ।

ऐसी अनुभूति के क्षण हम सबके जीवन में आते रहते हैं। अगर हमारे चित्त परस्पर शुद्ध हों, तो शायद यह अनुभूति और अधिक व्यापक रूप से हम सभी के हृदय में जगह बना ले।

आज का हमारा जीवन इतना जटिल हो चुका है कि अच्छे और बुरे का तो भेद ही समाप्त हो गया है।

क्या अच्छे दिन, अच्छे लोगों के साथ ही समाप्त हो गए हैं।

अचानक दरवाजे पर दस्तक होती है, पड़ोस की एक दो वर्ष की कन्या मुझे तलाशती हुई कमरे में प्रवेश करती है। मुझे मानो मेरे प्रश्न का समाधान मिल गया हो। वह बोलती नहीं, लेकिन इशारों इशारों में सब कुछ कह जाती है।

उस बच्ची की आँखें मुझे देख मानो कह रही हैं, आप मुझे अच्छे लगने लगे। और मेरा भी उसको यही जवाब है, आप भी मुझे अच्छे लगने लगे। मैं यह भली भांति जानता हूं, मुझसे अच्छे इस दुनिया में कई लोग होंगे, लेकिन उस प्यारी दो वर्ष की कन्या जैसा अच्छा कोई हो ही नहीं सकता।

तुमसे अच्छा कौन है ?

आप मुझे अच्छे लगने लगे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आतंक और विनाश ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ आतंक और विनाश ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

आतंक मिटाता ज़िन्दगी, करता सदा विनाश,

यह समझें हैवान यदि, तो बदलेगा मौसम।

ख़ूनखराबा कब तक होगा, बतलाओ तुम मुझको,

पहलगाम जैसी जगहों पर होगा कब तक मातम।।

जिसने तुमको भड़काया है, समझो उनकी करनी,

मूर्ख बनाकर वे यूँ सबको, करें मौत का खेला।

नहीं जान लेने में हिचकें, चिंतन है शैतानी,

बरबादी भाती है जिनको, करते रोज़ झमेला।।

 *

लानत है आतंक कर्म पर, मौत का जो उत्सव है,

कब तक लाशें और गिरेगीं, कब तक सब रोएंगे।

असुर मनुज की बस्ती में हों, तो कैसे सुख-चैना,

कैसे हम सब शांत चित्त हो, फिर तो सो पाएंगे।।

 *

यही चेतना, संदेशा है, अविलम्ब जागना होगा,

अब तो इस आतंक को हमको, अभी रोकना होगा।

यही जागरण, वक़्त कह रहा, आतंक की अब इतिश्री हो,

नगर-गांव में हर्ष पले अब, शौर्य रोपना होगा।।

 *

आतंक मानसिकता हैवानी, मिटे ज़िन्दगी जिससे,

होता सदा विनाश खुशी का, केवल बचता है ग़म।

धर्म कराता न बर्बादी, इसको तो तुम जानो,

फिर क्यों ख़ून बहाते हो तुम, चला गोलियाँ औ’ बम।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 249 – दृष्टी…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 249 – विजय साहित्य ?

☆ दृष्टी…!

 

निसर्गाची दृष्टी ,

देई रवी जगताला ‌

जाग सृजनाला,

पदोपदी…! १

 *

वात्सल्याची दृष्टी ,

जणू मायबाप हाक.

नजरेचा धाक,

लेकराला…!२

 *

वासनेची दृष्टी

जोड व्यसनांची जडे

घरदार रडे

रात्रंदिस…!३

 *

आंधळ्यांची दृष्टी ,

दृकश्राव्य तिची भाषा .

जगण्याची  आशा ,

वागण्यात…!४

 *

कवितेची दृष्टी ,

तिचा सर्वत्र संचार .

व्यासंगी विचार ,

लेखनात…! ५

 *

दृष्टीहीन जन ,

लोटू नका दूर

गवसेल सूर ,

जीवनाचा…!६

 *

कलाकार  दृष्टी ,

तिचा सार्‍याना आदर .

होतेस सादर ,

रगमंची…!७

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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