हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 47 ⇒ व्यंग्य – पाठक होने का सुख… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “पाठक होने का सुख।)  

? अभी अभी # 47 ⇒ पाठक होने का सुख? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जो पढ़ सकता है, उसे पाठक होने से कोई नहीं रोक सकता! लिखने की बात अलग है। लिखने से कोई लेखक नहीं बन जाता। जवानी की कविता और प्रेम पत्र ने कईयों को कुमार विश्वास और कन्हैयालाल नंदन बना दिया है।

एक लेखक की लेखनी का श्री गणेश, संपादक के नाम पत्र से भी हो सकता है। कुछ लेखक और अखबार वाले उन लोगों से संपादक के नाम पत्र लिखवाते भी हैं, जिनको छपास का रोग होता है। लिखते लिखते एक दिन ये लेखक हो ही जाते हैं। ।

एक पाठक को इन सब मुश्किलों से नहीं गुजरना पड़ता। वह एक अख़बार का नियमित पाठक भी हो सकता है और किसी गुलशन नंदा का गंभीर पाठक भी। इब्ने सफी बी.ए. को पढ़ने के लिए, बी.ए.करना कतई ज़रूरी नहीं। सुरेन्द्र मोहन पाठक को एक बड़ा लेखक, पाठकों ने ही बनाया है, आलोचकों ने नहीं।

एक लेखक का अस्तित्व सुधि पाठक ही होता है। हर पाठक लेखक की नज़रों में एक सुधि पाठक ही होता है। जब कोई पाठक अपनी सुध बुध खोकर, किसी लेखक की बुराई कर बैठता है तो वह पाठक से आलोचक बन बैठता है। बिना फिल्म देखे समीक्षा लिखना और बिना कोई पुस्तक पढ़े आलोचना करना किसी सिद्धहस्त के बूते का ही काम है, नौसिखिए इन करतबों से दूर ही रहें तो बेहतर है। ।

मैं पोथी पढ़ पढ़ पंडित तो नहीं बन पाया, पुस्तक पढ़ पढ़, केवल पाठक ही बन पाया! कभी ढंग से प्रेम पत्र नहीं लिख पाया, इसलिए कवि नहीं बन पाया। झूठ के प्रयोग लिखे नहीं जाते, सच उगला नहीं जाता, इसलिए आत्मकथा का हर पन्ना कोरा ही रह जाता। जो कुछ काग़ज़ पर लिखता, कहीं छप नहीं पाता, इसलिए एक मशहूर लेखक बनने से वंचित रह गया।

भला हो इस मुख पोथी का, जिसने सभी पोथियों को काला अक्षर भैंस बराबर सिद्ध कर दिया, और मुझे रातों रात पाठक से स्वयंभू लेखक बना दिया। स्वयंभू लेखक वह होता है, जो स्वयं अपनी ही रचना पढ़कर उसकी तारीफ करता है।

ऐसे स्वयंभू लेखक स्वांतः सुखाय रचना करते हैं, और अपनी रचना दूसरों को सुना सुनाकर दुखी करते रहते हैं। ।

साहित्य और पाठक में एक सुखद दूरी होती है, जो दोनों को, एक दूसरे की दृष्टि में महान बनाए रखती है। जैसे जैसे पाठक और लेखक करीब आते जाते हैं, पोल खुलने लगती है, पाठक, पाठक नहीं रहता, लेखक, लेखक नहीं रहता।

कहां का बड़ा लेखक ? मुझसे दस साल पहले पांच सौ रुपए उधार ले गया, अभी तक नहीं लौटाए, सब लेखक साले ऐसे ही होते हैं। न जेब में कौड़ी, न कपड़ों में केरेक्टर।

मुझे पाठक होने का वास्तविक सुख फेसबुक पर ही नसीब हुआ। किसी लेखक की रचना की तारीफ करना हो, तो उसे पत्र लिखो, फिर जवाब का इंतजार करो। उसकी रचना पढ़ ली, यही क्या कम है। कमलेश्वर को एक पोस्ट कार्ड लिखा था, जब वे सारिका के संपादक थे, पोस्ट कार्ड पर औपचारिक जवाब भी आया था। फोन का उपयोग आज भी मैं किसी लेखक की तारीफ करने के लिए नहीं करता। अब तो फेसबुक पर लाइव चैटिंग होती है। जो गंभीर किस्म के लेखक है, वे आज भी फेसबुक से परहेज़ करते हैं। वे इतने अनौपचारिक नहीं बन सकते, इससे उनके लेखन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। आडंबर लेखन को अधिक गंभीर बनाता है। ।

मोहब्ब्त की राहों पे चलना संभल के! एक पाठक को अपने पाठक काल में लेखक बनने के इतने अवसर मिलते हैं, कि उसका ईमान डोल जाता है। हाथ कलम थामने से परहेज़ नहीं कर पाते, पन्ने स्याही के लिए तरस जाते हैं, और एक अच्छा भला पाठक लेखक की जमात में शामिल हो ही जाता है। लेखकों के बीच बोलचाल की भाषा में, फेसबुक पर, उनके साथ, उठ बैठकर, मीरा की तरह वह भी एक पाठक की लोक लाज तज, लेखक बन ही बैठता है।

आजकल फेसबुक पर जो भी आता है, वह लेखक बनने के लिए ही आता है। अगर यह इसी तरह चलता रहा, तो लेखकों के लिए पाठक ढूंढ़ना मुश्किल हो जाएगा। पुस्तक मेला ही देख लीजिए। वहां पाठक के अलावा सब कुछ मिलेगा। अब समय आ गया है, पाठकों की घटती संख्या को लेकर गंभीर होने की।

अभी कुछ समय पहले अमेज़न पर एक किताब उन्नीस रुपए में बिक गई। अब कहां से लाएं पाठक! शीघ्र ही लेखकों की तरह पाठकों के लिए भी पुरस्कार घोषित करना पड़ेगा। कहीं ऐसा न हो कि आजीवन ब्रह्मचारी तो कई मिल जाएं, आजीवन पाठक एक भी ना मिले।।

मुझे भी डर है, मैं भी कहीं लेखक न बन जाऊं, तेरी संगति में ओ लेखक देवता! रब मुझे बुरी नज़र से बचाए, मेरे अंदर के पाठक की इन सृजन रिपुओं से रक्षा करे। आमीन!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ ‘अस्तित्व…’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Existence…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem “~ अस्तित्व ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि – अस्तित्व ??

पहाड़ की ऊँची चोटियों के बीच

अपने कद को बेहद छोटा पाया,

पलट कर देखा,

काफी नीचे सड़क पर

कुछ बिंदुओं को हिलते डुलते पाया,

ये वही राहगीर थे,

जिन्हें मैं पीछे छोड़ आया था,

ऊँचाई पर हूँ, ऊँचा हूँ,

सोचकर मन भरमाया,

एकाएक चोटियों से साक्षात्कार हुआ,

भीतर और बाहर एकाकार हुआ,

ऊँचाई पर पहुँच कर भी,

छोटापन नहीं छूटा

तो फिर क्या छूटा?

शिखर पर आकर भी

खुद को नहीं जीता

तो फिर क्या जीता?

पर्वतों के साये में,

आसमान के नीचे,

मन बौनापन अनुभव कर रहा था,

पर अब मेरा कद

चोटियों को छू रहा था..!

© संजय भारद्वाज 

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

? ~ Existence ??

In the midst of the skyscraping

mountain peaks

found my stature too short,

Looked back,

down the road

found some points moving,

These were the passers-by

whom I had left behind

on my way up…

I’m at the height, I’m way too high

My ego got inflated…

 

Suddenly met with the peaks,

Inside and outside merged in unison,

Realisation dawned,

even at the top,

smallness has not gone

Then, what has left?

Even at the peak

I couldn’t even win myself

Then what have I won…?

In the shade of the mountains,

under the sky,

Feeling of dwarfness engulfed me,

But now my height

was touching the summit..!

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 189 ☆ “परसाई के शहर में शरद जोशी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक माइक्रो व्यंग्य  – ——)

(जन्म: 21 मई 1931 – मृत्यु: 5 सितम्बर 1991)

☆ संस्मरण — “परसाई के शहर में शरद जोशी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(स्व. शरद जोशी जी के जन्मदिवस पर विशेष) 

वर्षों पूर्व आदरणीय शरद जोशी जी “रचना”  संस्था के आयोजन में परसाई की नगरी जबलपुर में मुख्य अतिथि बनकर आए थे।  हम उन दिनों “रचना” के संयोजक के रूप में सहयोग करते थे। 

उन दिनों “रचना” को साहित्यिक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था का मान था । प्रत्येक रंगपंचमी के अवसर पर राष्ट्रीय स्तर के हास्य व्यंग्य के ख्यातिलब्ध हस्ताक्षर आमंत्रित किए जाते थे। आदरणीय शरद जोशी जी के रुकने की व्यवस्था रसल चौक स्थित उत्सव होटल में की गई थी। वे  “व्यंग्य की दशा और दिशा” विषय पर केंद्रित इस कार्यक्रम के वे मुख्य अतिथि थे। व्यंग्य विधा के इस आयोजन के प्रथम सत्र में ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई जी की रचनाओं पर आधारित रेखाचित्रों की प्रदर्शनी का उदघाटन करते हुए जोशी जी ने कहा था-“मैं भाग्यवान हूँ कि परसाई के शहर में परसाई की रचनाओं पर आधारित रेखाचित्र प्रदर्शनी के उदघाटन का सुअवसर मिला।”

फिर उन्होंने परसाई की सभी रचनाओं को घूम घूम कर पढ़ा हंसते रहे और हंसाते रहे। ख्यातिलब्ध चित्रकार श्रीअवधेश बाजपेयी की पीठ ठोंकी। खूब तारीफ की। व्यंग्य विधा की बारीकियों पर उभरते लेखकों से लंबी बातचीत की। 

शाम को जब होटल के कमरे में वापस लौटे तो दिल्ली के अखबार के लिए ‘प्रतिदिन‘कालम लिखा, हमें डाक से भेजने के लिए दिया। साहित्यकारों के साथ थोड़ी देर चर्चा की, फिर टीवी देखते देखते सो गए ।

आज 21 मई को उनका जन्मदिन है, वे याद आ गए… अमिट स्मृतियों से निकल कर…    

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 131 ☆ # फैमिली कोर्ट… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# फैमिली कोर्ट… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 131 ☆

☆ # फैमिली कोर्ट… # ☆ 

वो फैमिली कोर्ट में खड़े है

अपनी अपनी जिद पर अड़े है

शिक्षित, नौकरी पेशा है

संस्कारवान, धर्मभीरु हमेशा है

दोनों सुंदर और सुशील है

दयालु, करूणा से भरे नेकदिल है

चांद चांदनी की जोड़ी है

एक है फूल तो दूसरा पंखुड़ी है

दांपत्य की एक

चिंगारी से झुलस गये

दोनों के अहम टकराये

दोनों अलग हुए

कोर्ट में लगाई अर्जी है

तलाक चाहिए यह मर्जी है

प्यारा सा मासूम

छोटा-सा एक बच्चा है

बालपन की अवस्था है

मम्मी का हाथ थामा है

पास उसके मामा है

पापा को देख

हल्के हल्के मुस्कुराता है

पापा को मन ही मन

रूलाता है

क्या हो रहा है

वो समझ नहीं पाता है

कभी मम्मी तो

कभी पापा को

देखते जाता है।

 

न्यायाधीश ने पूछा -?

अगर तलाक हो गया

तो बच्चा किसके

पास रहेगा ?

इसका भरण पोषण

कौन करेगा ?

महिला ने कहा –

यह मेरे आंखों का उजाला है

मैंने इसे नौ महीने

अपने उदर में पाला है

पुरूष ने कहा –

यह मेरे वंश की निशानी है

इसके बिना तो

अधूरी मेरी कहानी है

न्यायाधीश को ना जाने

क्या सूझा ?

उन्होंने बच्चे से पूछा –

आप किसके पास रहोगे ?

मम्मी या पापा ?

अबोध बालक ने

एक हाथ से

मम्मी का हाथ पकड़ा और

दूसरे हाथ से

पापा का हाथ पकड़ा

और बोला –

दोनों के साथ रहूंगा

दोनों का प्यार चाहूंगा

न्यायाधीश ने आदेश दिया

सुंदर निर्णय लिया

आप दोनों सालभर

बच्चे के साथ रहेंगे

आगे कुछ नहीं कहेंगे

सालभर बाद जब

दोनों कोर्ट आये

बच्चे को साथ लाये

न्यायाधीश से बोलें –

हम दोनों अपने भूल पर

शर्मिंदा है

अब खुशी खुशी

साथ में जिंदा है

आपने गृहस्थी का

मतलब समझाया है

आपने हमारा घर

टूटने से बचाया है  /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – श्री सुजित कदम – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

श्री सुजित कदम

💐अ भि नं द न 💐

आपल्या ई-अभिव्यक्ति समूहातील सिद्धहस्त तरुण कवी श्री सुजित कदम यांचाअरे अरे ढगोबा”  हा नवा बालकविता संग्रह – नरवीर प्रकाशन, पुणे, यांनी नुकताच अतिशय आकर्षक मांडणी करून प्रकाशित केला आहे. 

“अशा मोठ्ठ्या विमानात एकदा तरी बसू

उंच उंच फिरताना आपण ढगांसोबत हसू.” 

— अशासारखे बालमनाचे एक लोभस कल्पनाविश्व या संग्रहाला व्यापून राहिले आहे, असे म्हटल्यास ती अतिशयोक्ती ठरणार नाही. 

आजी गाई गाणे, झाड हळू हळू डुले.

हिरवी हिरवी पाने म्हणजे,–

झाडोबाची मुले……… अशासारख्या निरागस ओळी मोठ्यांनाही बालपणात घेऊन जातील अशाच.. 

लहान मुलांसाठी असे साहित्य लिहिणे, हे अतिशय अवघड असते. त्यामुळे, उत्तम बालसाहित्यकार मोजकेच असतात असे म्हटले जाते.. या संग्रहामुळे, या यादीत सुजित कदम या कवीचे नाव महत्त्वाचे ठरावे, असे म्हणूनच समीक्षकांनी म्हटले आहे. 

‘सावली देताना झाड कधी

जातपात पाहत नाही-!

कितीही असलं ऊन तरी-

सावली देणं सोडत नाही—!’

यासारख्या ओळी जाताजाता मुलांना कर्तव्यपालन, स्वभावधर्म व एकात्मतेचा मार्गही दाखवून जातात. 

म्हणूनच हे पुस्तक मोठ्यांनी आवर्जून विकत घ्यायला हवे. आणि मुलांच्या हाती वाचायला आवर्जून द्यायला हवे, अशी प्रतिक्रिया जाणकारांनी वाचताच व्यक्त केली आहे. 

💐 श्री सुजित कदम यांचे त्यांच्या या नव्या पुस्तकाबद्दल आपल्या ई-अभिव्यक्ति समूहातर्फे मनःपूर्वक अभिनंदन आणि पुढील अशाच समृद्ध साहित्यिक वाटचालीसाठी हार्दिक शुभेच्छा. 💐

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नदी… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ नदी… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

नदी दुथडी भरून आता निघाली माहेरी

काठावरी निरखती झाडं कावरी बावरी

 

गच्च भरतेस तेव्हा तुला ओढ भर्ताराची

ससे होलपट होते तेव्हा किती माहेराची

नको तोडू ताल बाई नको होऊस नवरी ॥ १ ॥ 

 

रानपालटत जाते दिस उगवून येतो

ओलसर पुनवेच्या मनी चांदवा रुजतो

नव्या जगण्यासाठीची होते मनाची तयारी ॥ २ ॥ 

 

आम्ही शेतकरी साधे तुझ्यावरी जडे जीव

तुझ्या कुशीत नांदते देते हुंकार वैभव

बाई तुझ्या ग पाण्याने आम्हा लाभते उभारी ॥ ३ ॥ 

 

तुझी गाताना थोरवी तुला म्हणती माऊली

भाव ठेऊन अंतरी तुझी पूजाही मांडली

तुझे पिऊन अमृत आम्ही जगतो शिवारी ॥ ४ ॥ 

 

तुझ्या काठी वसणारे तुला देवता मानती

तुला माहेरवाशीण म्हणूनीया पूजताती

 तुझ्या वटी भरणाला साडी चोळी जरतारी ॥ ५ ॥ 

 

अशी नको रोडाउस उन्हातानात तापून

हरघडी टाकी बाई तुझे पाऊल जपून

माझ्या मनाचे पाखरू झुरे पाणवठ्यावरी ॥ ६ ॥ 

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 132 ☆ वेदनेच्या कविता …! ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 132 ? 

☆ वेदनेच्या कविता…! ☆

वेदनेच्या ह्या कविता सांगू कशा 

मूक झाली भावना ही महादशा..धृ

 

अश्रू डोळ्यांतील संपून गेले पहा 

स्पंदने हृदयाची थांबून गेली पहा 

आक्रोश मी कसा करावा, कळेना हा.. १

नाते-गोते आप्त सारे विखुरले 

रक्ताचे ते पाणी झाले आटले 

मंद मंद मृत शांत भावना.. २

 

ऐसे कैसे दिस आले, सांगा इथे 

कीव ना इतुकी कुणाला काहो इथे 

आंधळे हे विश्व अवघे भासे इथे.. ३

 

सांगणे इतुकेच माझे आता गडे 

अंध ह्या चालीरीतीला पाडा तडे 

राज कवीचे शब्द आता तोकडे.. ४

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचारपुष्पातील मधुसंचय… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

🌸 विविधा 🌸

विचारपुष्पातील मधुसंचय… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

स्वामी विवेकानंद  यांचे जीवन व कार्य  याविषयी सविस्तर  माहिती देणारी ‘विचारपुष्प ‘ ही डॉ.नयना कासखेडीकर लिखित  लेखमाला नुकतीच समाप्त झाली. सुमारे सव्वावर्षाहून अधिक काळ  ही साप्ताहिक  लेखमाला चालू होती.  स्वामीजींच्या बालपणापासून  ते त्यांची जीवनज्योत मालवेपर्यंतचा जीवनपट यात त्यांनी मांडला आहे. अवघ्या एकोणचाळीस वर्षांच्या अल्पायुष्यात असामान्य  कार्य करणा-या महामानवाचे कार्य  मोजक्या शब्दमर्यादेत  लोकांपर्यंत  पोहोचवणे हे काम सोपे  नव्हते.पण सौ.कासखेडीकर  यांनी आपल्या  अन्य जबाबदार-या पार पाडून  ते पूर्ण  केले आहे.

डाॅ.नयना कासखेडीकर

स्वामीजींचे बालपण, युवावस्था, त्यांचे मानसिक द्वंद्व, जिज्ञासा, प्रखर बुद्धीमत्ता, विदेशातील कार्य अशा अनेक बाबींवर या लेखमालेतून वाचायला मिळाले. लेखमालेतील  सर्वच भागांचा आढावा घेणे शक्य  व योग्य  नसले तरी स्वामीजींचे  काही विचार, वचने ही कधीच विसरता येणार  नाहीत. त्यापैकी  काहींचा उल्लेख  इथे करावासा वाटतो.

जीवनातील ध्येयाविषयी स्वामीजी म्हणतात, “जीवनात आदर्श  हवा. प्रयत्नांची पराकाष्ठा आणि दुर्दम्य  इच्छाशक्ती असेल तर अपयशाला  यशामध्ये बदलता येते.”

शिक्षणाविषयी ते म्हणतात

“जे शिक्षण सामान्य  लोकांमध्ये चारित्र्य, बल, सेवा, तत्परता आणि साहस निर्माण करु शकत नाही, ते काय कामाचे ? ज्यामुळे सामान्य  माणूस  स्वतःच्या पायावर  उभा राहू शकतो, तेच खरे शिक्षण.”

कशासाठी वाचायचे?

“वाचनाने जीवन जगण्याचा दृष्टिकोन  मिळतो, उमेद मिळते. मन संवेदनाशील होते. एकमेकांच्या सुखदुःखाची  तीव्रता कळते. शब्दसंग्रह  वाढतो.”

स्वामीजींचे संगीताविषयीचे  ज्ञानही सखोल होते. ते स्वतः गात असत. ते म्हणत, “संगीत ही सर्वश्रेष्ठ कला आहे आणि ज्यांना समजू शकते त्यांच्या दृष्टीने ईश्वराची  पूजा करण्याचा तो सर्वोत्कृष्ट  प्रकार आहे.”

“परिस्थिती जितकी प्रतिकूल असेल तितकी तुमच्या आंतरिक शक्तींना अधिक जाग येत असते. “हे स्वामीजींचे विधान सर्वांनाच मार्गदर्शक ठरणारे आहे.

निरासक्त, निःसंग,वैराग्यशीलता आणि विनम्रता हे स्वामीजींचे विशेष गुण. अनेक प्रसंगातून याचे दर्शन घडते.

स्वामीजींची धर्माविषयीची मते तर जाणून घेऊन  आचरणात  आणणे आवश्यक  आहे.कर्मकांडाचा अतिरेक झाल्यामुळेच  समाज रचनेत दोष निर्माण  झाला आणि त्यामुळेच संस्कृतीचा-ह्रास झाला हे त्यांचे मत परखड असले तरी सत्य आहे. “आपल्या संस्कृतीतील आध्यात्मिक  आदर्श  आपण विसरुन गेलो आहोत हे आपले खरे दारिद्र्यपण आहे. आपल्या ठायी स्वतःच्या अस्मितेचे भान उत्पन्न  होईल  तेव्हाच  आपले सारे प्रश्न  सुटतील. “स्वामीजींचे हे निरीक्षण आजही खरे ठरत आहे. सर्वधर्मसमभाव हा शब्द आपणा सर्वांनाच  माहित आहे. स्वामीजी म्हणतात, “प्रत्येकाने दुस-या धर्मातलं सारभूत तत्व ग्रहण करायचं आहे. त्याचवेळी आपलं वैशिष्ट्यही जपायचं आहे. आणि अखेर स्वतःच्या स्वाभाविक  प्रवृत्तीला अनुसरून आपला विकास  करुन घ्यायचा आहे.”

अध्यात्म आणि विज्ञान  यांचा सुरेख  संगम  व्हावा अशी इच्छा बाळगणारे  स्वामी विवेकानंद  म्हणतात, “भारताचा अध्यात्म  विचार पाश्चात्य  देशात पोहोचला पाहिजे आणि भारताने पाश्चात्यांकडून त्यांचे विज्ञान  घेतले पाहिजे.”

प्रत्येक  लेखातून  अशी नवीन  माहिती, विचार, वचने मिळत गेल्याने संपूर्ण  लेखमाला वाचनीय झाली आहे. मालिका संपली असली तरी त्यातील विचार कण वेचावेत तेवढे थोडेच  आहेत. हा सारांश नव्हे पण लेखमाला वाचल्यानंतर  आपल्याला मिळालेले इतरांनाही द्यावे, म्हणून  लिहावेसे वाटले, एवढेच !

© सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ तिचं दु:ख… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती : सुश्री माधुरी परांजपे ☆

? जीवनरंग ❤️

☆ तिचं दु:ख… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती : सुश्री माधुरी परांजपे ☆

गीता ला जाऊन महिना झाला होता. पंधरा दिवस थांबलेली पाहुणे मंडळी आपापल्या घरी गेली होती. मुलगा अमेरिकेला जॉब करीत होता.

मुलगी म्हणाली,” चला ना बाबा सोबत काही दिवसासाठी “.

माधवने मात्र नकार दिला… रात्री त्याला भयंकर शांत वाटू लागलं…

चाळीस वर्षाच्या सहजीवनात असं कधीच एकटं राहण्याचा प्रसंग आला नव्हता. त्याला गीता सोबत घालवलेले दिवस आठवू लागले. कधी भांडण, तंटा झालेला सुद्धा आठवत नव्हतं. आपण कितीही आदळआपट केली तरी  मात्र शांतच राहायची. लोकांच्या दृष्टीने एक आदर्श जोडी. गीता  होतीच तशी. सगळयांशी मिळून मिसळून राहणारी. माधवने कधी विचारही केला नाही ती अशी आपल्याला अर्ध्यावर सोडून जाईल…

“गीता,  तुझ्याशिवाय जीवन ही कल्पनाच करता येत नाही ग… कस जगू मी गीता तुझ्या शिवाय…” माधवला हुंदका अनावर झाला…

गीताचे लग्न झाले तेव्हा ती वीस वर्षाची. लग्नानंतर प्रायमरी शिक्षिकेची नोकरी लागली. नोकरी, घर सांभाळत नेटाने संसार केला. मुलं चांगली शिकली. चांगल्या पदावर नोकरीला लागली. मुलामुलींचं लग्न झालं. आताच कुठे गीता सेवानिवृत्त झाली होती. किती ठरविले होते आपण की निवृत्त झाल्यावर दोघंही मस्त फिरू.  सगळं छान असताना अशी अचानक निघून गेली. अचानक हार्ट फेल झाले. … लक्षातच आलं नाही. अगदी शेवटच्या क्षणी लक्षात आलं. वेळच मिळाला नाही ट्रीटमेंट घ्यायला आणि  अचानक निघून गेली…

माधवने  डोळे पुसले आणि कपडे बदलायचे म्हणुन कपाट उघडलं त्याला हवा तो शर्ट दिसत नव्हता म्हणुन वरच्या कप्प्यात हात घातला.. एक डायरी खाली पडली.

थरथरत्या हातानी डायरी उघडली आणि डायरी वाचायला सुरवात केली.. 

दि, =====

‘नुकतंच लग्न होऊन महिना झालाय. घरचं वातावरण फार विचित्र आहे. सासू सासरे सतत भांडत असतात आणि भावाभावात पण विशेष पटत नाही.  नवरा तसा चांगला परंतु मी म्हणेल ती पूर्व दिशा म्हणणारा. एक दोनदा काही बोलून पाहिलं पण तो आपलं ऐकणारा नाही हे कळलं त्यामुळे तुम्ही म्हणाल तस, असं म्हणून जगायचं ठरविले… ‘

बरंच काही लिहिलं होत… तो पानं  पालटत राहिला.

दि……

आज आमच्या लग्नाचा पहिला वाढदिवस. ह्यांना म्हटलं ,”आपण बाहेर जाऊ. सिनेमाला जाऊ आणि बाहेरच जेऊ या. ” तर म्हणाले ,”मला नाही आवडत. तुला खायचं असेल तर  चल…  तू खा मी तुला सोडतो हॉटेलला “.

‘अरे, हे काय बोलणं झालं… मला काय एकटीला खायला जायची हौस होती का….?’

मैत्रिणी सांगायच्या आमच्या लग्नाच्या वाढदिवसाला आम्ही बाहेर फिरायला गेलो… नवऱ्याने गिफ्ट दिलं … फार हेवा वाटायचा… कारण इथे काहीच आवडत नव्हतं .. काही म्हटलं तर ऐकणार नाही. मला म्हणतात, ‘नवऱ्यानं गिफ्ट दिल म्हणजे, फिरवलं, हॉटेल मध्ये जेवू घातलं म्हणजे  बायकोवर खूप प्रेम करतोच असं काही नसत. नवरा -बायकोच्या प्रेमाचा जगाला दिखावा का करायचा ?’

त्यानंतर मी बाहेर चला म्हणणेच सोडले……

दि….

माझा मुलगा पाच वर्षाचा आहे . माझ्याकडे आई आलेली.. आमच्या गप्पा गोष्टी सुरु होत्या. मुलानी खाताना इकडे तिकडे सांडवलेलं. हे बाहेरून आले. कचरा पाहून डोकं फिरलं. बडबड सुरु झाली. मी म्हटलं करते ना साफ… थांबा थोडा वेळ…. माहिती नाही काय इगो दुखावला. अगदी अंगावर धावून आलेत. हात उचलला. माझ्या आईच्या डोळ्यात पाणी आले. मलाही खूप अपमानित वाटले. खुप राग आला. असं वाटल सोडून जावं परंतु तेवढी हिम्मत नव्हती आणि त्यांचा राग उतरला की परत चांगले वागतात. आपण काही चुकीचं वागलं… हीचं मन दुखावलं हे लक्षातही नसतं… मी मात्र विसरू शकत नाही.. सगळं दुःख…. मनाच्या एका कोपऱ्यात बंद करून ठेवते… आणि परत कधी ठेच लागली तर कप्पा उघडून बघते… फार त्रास होतो तेव्हा…

दि,…. 

आज मी पडद्याचे कापडं आणले…  खुप ओरडले… कुठलीही गोष्ट ह्यांच्याच मनाप्रमाणे व्हावी. मला घर सजवायला खुप आवडायचं.. काही विकत घेऊ या म्हटलं तर त्यावर लेक्चर देणार.. तुला वापरायची तरी अक्कल आहे का?   वगैरे वगैरे… काही कधी विकत आणले तर त्यात खोट काढणार. तुझी पसंत चांगली नाही… तुला व्यवहार समजत नाही.. तुला लोक ठगवतात… इतक बोलणं होतं की वाटतं कशाला आणलं आपण विकत… त्यानंतर मात्र काहीही विकत आणले नाही….

पानांमागून पान पलटवू लागला.. प्रत्येक पानावर त्याच्या तक्रारीच लिहिल्या होत्या. माधवला खूप आश्चर्य वाटले. वाटले की आपल्याला कधी वाटलेच नाही की गीता इतकी दुःखी आहे. गीताच्या मनात इतकी कटुता असून ती वरून चांगलीच वागायची. आणखी एक पान पलटवले…. बहुतेक शेवटचे.

दि….

आज डावा हात खूप दुखतोय. यांना सांगून काय उपयोग. दवाखान्यात चला म्हटलं तर बडबड करणार त्यापेक्षा नकोच. मीच जाऊन येते…. तसंही ह्यांना बाहेरगावी जायचं आहे.

दि….

काल मैत्रिणीसोबत दवाखान्यात जाऊन आली… डॉक्टरांनी सगळ्या तपासण्या केल्या.. Ecg मध्ये प्रॉब्लेम निघाला.. त्यानंतर अँजिओग्राफी सांगितली..यांना फोन लावला… म्हणाले ज्या काही तपासण्या करायच्या त्या करून घे…’

अँजिओग्राफी केली… 95 टक्के ब्लॉकेज… डॉक्टरांनी सांगितले ताबडतोब ओपन हार्ट सर्जरी करावी लागेल…

घरी येऊन यांना सांगावं या  विचारातच घरी आले…..हे बाहेरगावावरून आलेले होते. घरी येताना औषध आणायला विसरले…. खुप थकवा आला होता…

म्हटलं, ‘थोडी औषधं आणून देता का?’

‘आताच आलीस ना रस्त्याने, आणायची ना स्वतः, परत कपडे बदलवू, परत जाऊ ” खुप चिडचिड आणि बडबड केली.

“असू द्या, मी घेईन उद्या “

“अग, पण काय झालंय….? काय सांगितलं डॉक्टरांनी “

“काही नाही, सगळं ठीक आहे “

मी ह्यांना काहीही सांगितलं नाही… साधी औषध आणायला सांगितली तर किती त्रास ? आणि आपलं ऑपरेशन असलं तर किती त्रास करून घेतील.. तसंही आपण जगून काय करायचं.. मुलगा सेटल आहे… रोजची लहान सहान बाबीवरून कटकट… आता मी थकले… हार्ट प्रॉब्लेम म्हणजे मरताना त्रासही होणार नाही.. शांतपणे जाता येईल.. घेतच नाही आता औषध आणि जातच नाही आता दवाखान्यात……..

डायरीचे शेवटचेच पान होते.

माधवने डायरी बंद केली.. डोळ्यातून अश्रू वाहू लागले… गीताचा हार्ट अटॅक नसून आत्महत्या आहे आणि त्याला कारणीभूत मी आहे…. गीता, माझं वागणं तुला पटत नव्हतं तर तेव्हाच विरोध करायचास ना… तुझ्या मनात एवढा असंतोष होता हे कधी मला कळलंच नाही… मला वाटायचं आपण एकरूप आहोत परंतु नाही, तुझं शरीर फक्त माझ्या सोबत होतं आणि तुझं मन?? ते तर कधी माझं झालंच नाही…..

का वागली तू अशी गीता ? कोणत्या गुन्ह्यांची शिक्षा दिलीस तू ? गीता  मी तुला समजूच शकलो नाही… आणि तू मला समजून घेतलं नाहीस…. तू आणि मी वेगळे आहोत असा कधी विचारच केला नाही… मला वाटायचं मी माझा निर्णय तुला सांगतो आणि तो तुला पटतोय.. तुझ्यावर लादतोय असं कधी मला वाटलच नाही… तुझं मन मला कधी वाचताच आलं नाही…. पण गीता, अग एकदा बोलायचं होतंस ग.. व्यक्त व्हायच होतस… भांडलो असतो कदाचित… परंतु कदाचित मला तुझं म्हणणं पटलंही असतं… नसत पटलं तर निदान मला अपराधी पणाची भावना घेऊन तर जगावं नसतं लागलं…. मला कधीच जाणवलं नाही ग तुझी पण काही स्वप्नं असतील.

तुझं दुःख जर मला वेळीच समजलं असतं तर आज तू माझ्या सोबत राहिली असतीस ग. मला माफ कर… !!

✧═❁═✧

लेखक – अज्ञात 

संग्राहिका – सुश्री माधुरी परांजपे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ भिक्षेकरी ते कष्टकरी… भाग – २ ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

डॉ अभिजीत सोनवणे

© doctorforbeggars 

??

☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ भिक्षेकरी ते कष्टकरी भाग – २ ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

  1. मध्यम वयाची एक अंध ताई. चिंचवड परिसरात एका जागी बसून भीक मागते आणि स्वतःसह आईला जगवते.बरेच दिवसांपासून मी तिला विनंती करत होतो की, ‘ बाई गं, बसून भीक मागतेस, त्याऐवजी तुला एक वजन काटा आणून देतो. लोक येतील, स्वतःचं वजन करतील आणि त्या बदल्यात तुला पैसे देतील. भिकेपेक्षा जास्त पैसे तुला वजन काट्यावर मिळतील…. तेही स्वाभिमानाने…!‘ 

…. तिला कळत होतं परंतु वळत नव्हतं…! दरवेळी वेगवेगळी कारणं देऊन ती मला टोलवत होती…

आता हिचं काही ऐकायचं नाही, असं म्हणून मग एके दिवशी डायरेक्ट वजन काटा घेऊन गेलो, तिच्या पुढ्यात ठेवला आणि गळ्यात एक पाटी अडकवली…

डोळ्यातली फक्त ज्योत विझली आहे… मनातला प्रकाश नाही….

” फक्त सृष्टी हरवली आहे… आत्मविश्वास नाही…

आम्हाला भिकेचा चंद्र नको आहे…कष्टाची भाकरी हवी  आहे…

आम्हालाही सन्मानाने जगण्याची संधी द्या…

यानंतर सर्वप्रथम मी माझं वजन करून तिला पन्नासची नोट दिली…. बाजूला उभ्या असणाऱ्या भाविकांनी मग तिच्या गळ्यात अडकवलेली पाटी वाचून, स्वतःचं वजन करून, पैसे द्यायला सुरुवात केली….

बघता बघता… शे दीडशे रुपये पंधरा मिनिटातच जमले…. !  ती प्रचंड खुश झाली….

मला म्हणाली, ‘आदीच सांगायला पायजे हुतं ना तुमी डाक्टर, आदीपस्नच केला आस्ता ना ह्यो धंदा मी …’

.. मी चमकलो, इतक्या वेळा सांगूनही तिने यापूर्वी माझं ऐकलं नव्हतं…. आणि आज ही अशी बोलतेय…. ? 

मी तिला म्हणालो, ‘अगं बाई , पन्नास वेळा तुला सांगत होतो, तरी तू माझं त्यावेळी ऐकलं नाहीस, म्हणून आज आता डायरेक्ट हा काटा घेऊन आलो मग मी…’ 

ती हसत म्हणाली, ‘हां, त्येच तर म्हनतीया मी…. तुमी आदी नुसतेच सांगत व्हते… डायरेक्ट आज आनला तसा तवाच काटा घीवून माझ्यासमुर ठीवायाचा ना…. ??? ‘ 

‘ होय गं बाई चुकलंच माझं…. आता तो जोडा घे आणि हान माज्या टाळक्यात…’

… माझं वाक्य ऐकून आजूबाजूचे लोक हसायला लागले… पण तिचं त्याकडे लक्ष नव्हतं…. ती मिळालेले पैसे मोजण्यात व्यस्त होती…. गालातल्या गालात ती हसत होती…. ! 

हे चित्र मी जपून ठेवलंय माझ्या हृदयात… !!!

मनातलं काही

रस्त्यात पडलेली “ती” … 

६ एप्रिलला तिला व्हीलचेअर देऊन, रस्त्यातून उचलून सुस्थितीत ठेवलं…. १२ तारखेला ती अनंतात विलीन झाली…! 

६० वर्षे प्रतिकूल परिस्थितीत जगली…मात्र ६ दिवस सुद्धा अनुकूल परिस्थितीत जगू शकली नाही…! 

जगण्याने छळले होते…मरणाने सुटका केली, हेच खरं …!!!

मागेही एकदा असंच झालं होतं….

बारा वर्षे फुटपाथवर पडून असलेले बाबा…. त्यांना मुलाने घराबाहेर काढलं होतं ! बाबांना मग आंघोळ घालून, नवे कपडे घालून एका आश्रमात ठेवलं….अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितीत बारा वर्षे ते जगत होते आणि आश्रमात ठेवल्यानंतर पुढील पंधरा दिवसात तेही गेले…. ! 

मला कळत नव्हतं…. हे असं का ? 

एके दिवशी माईला (आदरणीय श्रीमती सिंधुताई सपकाळ) हा प्रश्न विचारला. ‘ माई इतक्या प्रतिकूल परिस्थितीत ही माणसं जगतात आणि अनुकूल परिस्थिती आल्यानंतर ही माणसं निघून जातात. मला याचं खूप आश्चर्य वाटतं आणि खूप त्रासही होतो…. ! ‘ 

माईने सांगितलं, ‘अरे वाईट वाटून घेऊ नकोस… “आपलं” कुणीतरी आपल्याला भेटायला, कधीतरी येईल…  या आशेवर ते प्रतिकूल परिस्थितीतही स्वतःचा जीव जगवत असतात…. परंतु त्यांची “आपली माणसं” कधीच येत नाहीत…. ते शेवटपर्यंत वाट पाहतात. तू जेव्हा त्यांची मायेनं विचारपूस करतोस… जेवू घालतोस, अंघोळ घालतोस आणि त्यांना निवारा देतोस, त्यावेळी त्यांना त्यांचं हे हरवलेलं “आपलं माणूस” परत भेटल्याचा आनंद होतो… .. याच क्षणासाठी तर ते प्रतिकूल परिस्थितीत सुद्धा जगत होते…. 

शेवटाला का होईना…. परंतु “आपलं माणूस” मिळालं, या सुखाच्या कल्पनेनं, ते अगदी आनंदानं मग आपला जीव सोडतात…. ! 

माईचं हे वाक्य ऐकून, माझ्या अंगावर सर्रकन काटा आला होता….!!!

कधी अंगावर काटे आणणारं… कधी रोमांच उभे करणारं…. कधी खळखळून हसवणारं….कधी डोळ्यात पाणी उभं करणारं… तुम्हा सर्वांच्या साथीनं आणि साक्षीनं चालणारं हे काम….! 

आपली सुख दुःख आपण आपल्याच माणसांशी शेअर करतो ना ? 

आणि म्हणूनच एप्रिल महिन्याचा हा लेखा जोखा आपल्या पायाशी सविनय सादर….!!!

प्रणाम ….. 

– समाप्त – 

© डॉ अभिजित सोनवणे

डाॕक्टर फाॕर बेगर्स, सोहम ट्रस्ट, पुणे

मो : 9822267357  ईमेल :  [email protected],

वेबसाइट :  www.sohamtrust.com  

Facebook : SOHAM TRUST

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares