हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 68 ☆ ।। मैं तेरी बात करूँ, तू मेरी बात करे ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ मुक्तक  ☆ ।। मैं तेरी बात करूँ, तू मेरी बात करे ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

हाथों में सबके  ही  सबका हाथ हो।

एक दूजे के लिए  मन से  साथ   हो।।

जियो जीने दो,एक ईश्वर की संतानें।

बात ये दिल में हमेशा जरूर याद हो।।

[2]

सुख सुकून हर किसी   का आबाद हो।

हर किसी लिए संवेदना ये फरियाद हो।।

हर किसी लिए सहयोग बस हो सरोकार।

मानवता रूपी  एक  दूसरे से संवाद हो।।

[3]

हर दिल में  स्नेह  नेह का ही लगाव हो।

दिल भीतर तक बसता प्रेम का भाव हो।।

प्रभाव नहीं हो किसी पर घृणा  दंश का।

आपस में मीठेबोल का कहीं नअभाव हो।।

[4]

हर कोई दूसरे के जज्बात की ही बात करे।

विश्वास का बोलबाला न घात प्रतिघात करे।।

स्वर्ग से ही हिल मिल  कर रहें धरती पर हम।

मैं बस तेरी बात करूं, और तू मेरी बात करे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 45 ⇒ नारियल पानी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नारियल पानी “।)  

? अभी अभी # 45 ⇒ नारियल पानी ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

एक कहावत आम है, आम के आम, गुठलियों के दाम ! हमने तो अक्सर आम खाया और गुठली फेंक दी। हमने आम के भी दाम दिए और गुठलियों के भी। आम से हमको मतलब, गुठली से क्या लेना।

लेकिन प्रकृति हमें आम भी देती है और एक गुठली फिर से उगकर आम का पेड़ बन जाती है। आम की सिर्फ  गुठली ही नहीं, पूरा पेड़ उपयोगी है, पत्ती से लेकर तने तक। ठीक इसी प्रकार आम की तरह नारियल का भी मामला है। एक नारियल अगर   हमें गुणकारी पानी देता है तो वही नारियल हमें खोपरे का तेल भी देता है। यानी एक ही नारियल में पानी का कुआं भी है और तेल का भी। नारियल, एक कितनी छोटी गागर, लेकिन इसमें समाए हुए सभी सागर। ।

पूरी सृष्टि हो या हमारा शरीर, पांच तत्व, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्व ही इसका आधार है। कहा जाता है इस पृथ्वी पर तीन चौथाई समुद्र है। हमारे शरीर में अगर जल तत्व की मात्रा कम हो, तो हमारा जीवन खतरे में पड़ सकता है। सभी तरह की शारीरिक व्याधियों में नारियल पानी एक रामबाण औषधि है, संजीवनी है। जो काम अस्पताल में सलाइन करती है, वही काम नारियल पानी भी करता है। इसमें अगर  क्षार है तो मिठास भी। An apple a day की कहावत तो सबने सुनी है लेकिन अगर रोज नारियल पानी का नियम से सेवन किया जाए तो यह भी किसी डॉक्टर से कम नहीं।

इसी नारियल को श्रीफल भी कहते हैं जो पूजा में भी काम आता है और सारस्वत सम्मान में शॉल श्रीफल बन किसी की साहित्य साधना का फल बन जाता है। साधक शॉल ओढ़े और खोपरा खाए। सुना है, इसी खोपरे से खोपड़ी में सरस्वती यानी ज्ञान की देवी प्रवेश करती है। ।

ऊपर से कड़क और अंदर से पानी पानी, नारियल पानी की यही कहानी ! अक्सर समुद्री तटों के आसपास ही नारियल के पेड़ होते हैं। एक और फल कदली अर्थात् केले के वृक्ष  का तो एक पत्ता ही डायनिंग टेबल का काम कर जाता है। नारियल का ही पानी, नारियल की ही चटनी और नारियल का तेल। अद्भुत है नारियल का खेल।

समुद्र का पानी खारा होता है, उसे आप पी नहीं सकते। एक नारियल समुद्र से सिर्फ नमक ही नहीं लेता, उसे साफ कर, उसमें मिश्री भी घोल देता है। उसे एक सुरक्षित पात्र में एकत्रित कर देता है और आप जब चाहें तब, प्यास लगने पर कुआं खोदने की जगह, नारियल छीलकर पानी पी सकते हैं। पेट की सभी बीमारियों और कमजोरियों में स्वादिष्ट पेय, नारियल पानी। ।

किसी भी पूजा का फल श्रीफल के बिना निष्फल है। पूजा के नारियल में गीरी होती है, जो खोपरा कहलाता है और प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। सूखने पर इसी खोपरे के कई व्यंजन बनते हैं। इस खोपरे की गिनती सूखे मेवे के रूप में होती है जिसका तेल हम सर में लगाते भी हैं और खाते भी हैं।

सर्दी में रोज सवेरे सर से पांव  तक, पूरे बदन में, खोपरे का तेल लगाएं, खुश्की से बचें ! ठंड में खोपरा खाएं, सेहत बनाएं, पेट की गर्मी, डिहायड्रेशन सहित पेट की सभी बीमारियों के लिए नियमित नारियल पानी का सेवन करें। सभी मिनरल कंटेंट युक्त, १०० प्रतिशत शुद्ध प्राकृतिक पेय, और ज़रा इसका सुरक्षित पैकिंग तो देखिए, कच्चा नारियल हो, या पूजा का नारियल, और दांतों तले उंगलियां दबाइए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 132 ☆ “रूख बदलता जा रहा है…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित ग़ज़ल – “रूख बदलता जा रहा है…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #131 ☆ ग़ज़ल – “रूख बदलता जा रहा है…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

ले रहा करवट जमाना मगर आहिस्ता बहुत।

बदलती जाती है दुनियाँ मगर आहिस्ता बहुत।।

 

कल जहां था आदमी है आज कुछ आगे जरूर

फर्क जो दिखता है, आ पाया है आहिस्ता बहुत।

 

सैकड़ों सदियों में आई सोच में तब्दीलियां

हुई सभी तब्दीजियां मुश्किल से आहिस्ता बहुत।

 

गंगा तो बहती है अब भी वहीं पहले थी जहां

पर किनारों के नजारे बदले आहिस्ता बहुत।

 

अंधेरे तबकों में बढ़ती आ चली है रोशनी  

पर धुंधलका छंट रहा है अब भी आहिस्ता बहुत।

 

रूख बदलता जा रहा है आदमी अब हर तरफ

कदम उठ पाते हैं उसके मगर आहिस्ता बहुत।

 

निगाहों में उठी है सबकी ललक नई चाह की

सलीके की चमक पर दिखती है आहिस्ता बहुत।

 

मन ’विदग्ध’ तो चाहता है झट बड़ा बदलाव हो

गति सजावट की है पर हर ठौर आहिस्ता बहुत।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… प्रीति ने ही निखारा है… ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित, विविध छंद कलश प्रकाशनाधीन ।राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 200 से अधिक सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… प्रीति ने ही निखारा है☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

(विधा-अनुष्टुप्छन्दः)

यह एक संस्कृत छंद है, जिस पर भगवत गीता के श्लोक भी लिखे गये है‌ ‌।

कैसे भूलूँ सहारा हो जानो माधो सदैव ही ।

है तेरी याद सौगातें नैना भीगे वियोग में ।।1!!

 

चाहा तुम्हीं किनारा हो बहे प्रीति बहाव में।।

चैन भी देख खोते हैंं तुझे ढूँढ़ें अभाव में ।।2!!

 

दर्श की आस माधो है कौन देवे सुझाव को ।

साध प्रेमा पिपासा को ज़िन्दगी है लगाव में ।।3

 

नैन प्यासे जहाँ ताके बीते रैना उदास हो ।

आओ प्यारे नहीं रूठो तेरा हृद प्रवास हो ।।4!!

 

प्रीति ने ही निखारा है, रहती हूँ प्रभाव में।

प्रेम पंथ बुहारी हूँ, माधव मान लो अभी  ।।5!!

☆ 

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’

मंडला, मध्यप्रदेश

(दोहा कलश (जिसमें विविध प्रकार के दोहा व विधान है) के लिए मो 8435157848 पर संपर्क कर सकते हैं ) 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सखे… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सखे… 🧚 ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

मन रानात-वनात

मन श्रावण थेंबात

मन  प्रतिबिंब माझे

तुझ्या डोळ्यांच्या ऐन्यात

 

मन सावळ्या मेघात

मन आकाशी ताऱ्यात

मन निवांत हे संथ

तुझ्या मनाच्या डोहात

 

मन पावसाची धारा

मन खट्याळसा वारा

मन गुंफले गं माझे

त्या ओलेत्या रुपात

 

मन  आठवांचे तळे

मन गंधाळले मळे

माझे हळवे गं गीत

तुझ्या केशर ओठात

 

मन भिजते दंवात

मन प्राजक्त गंधात

मन पाणीदार मोती

तुझ्या मनी कोंदणात

 

मन माझे गं ओढाळ

मन चांदणं मोहोळ

मन घुटमळे सखे

तुझ्या चाहूल वाटेत

 

© वृंदा (चित्रा) करमरकर

सांगली

मो. 9405555728

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 153 – तुझी गर्द छाया ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 153 – तुझी गर्द छाया ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

मला आठवे ती तुझी आर्त माया।

पिलांच्या शिरीवर तुझी गर्द छाया।

 

किती राबला तू जिवाचा उन्हाळा ।

तुझ्या रोमरंध्री झरे तो जिव्हाळा ।

 

मनी स्वप्न वेडे पिलींची भरारी।

गरे गोड सारे फणस ते करारी।

 

समजतो पिलांना उशीराच बाबा।

नसे आसवांना तो जाताच ताबा।

 

अशी कौतुकाची पुन्हा थाप यावी।

तुझी गोड वाणी कानी घुमावी।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “जागतिक  परिचर्या दिन…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ “जागतिक परिचर्या दिन…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

बाळाचे पाय पाळण्यातच दिसतात अशी एक म्हण आहे.त्यानुसार आपल्या आवडीनिवडी, कल हा बालपणी पासून लक्षात येतो.अर्थातच ह्यात काही अंशी बदलही होतोच. माझ्या लहान बहिणीचा सेवाभावी कल ओळखून ही वैद्यकीय पेशा स्विकारुन रुग्णसेवा उत्तम करेल हे लहानपणीच लक्षात आलं.ती ह्या शिक्षणाच्या मार्गाने गेली नाही परंतु तिची रुग्णांची सेवा मनापासून करण्याची सवय मात्र अजूनही तशीच आहे. तसचं आमच्या व्हाट्सएप समुहामधील  एक सदस्या श्रुती आंबेकर ह्या तर विदेशात राहून आवडीने मनापासून रुग्णसेवा करतात ह्याच खूप कौतुक वाटतं. आज ही आठवण यायला आजचा दिवस खूप खास.

एखादी आपत्ती, संकट ह्यांचा अनुभव आल्यानंतर त्यातील गांभीर्य हे कळायला लागतं

तमाम जगाला हा अनुभव कोविड च्या येऊन गेलेल्या जीवघेण्या लाटेने दिला . ह्या अनुभवा नंतर मात्र जवळपास प्रत्येकाला “सर सलामत तो पगडी पचास”ह्या म्हणीवर विश्वास बसायला भाग पाडले. ह्या आणिबाणीच्या काळात महत्त्वाचे, विश्वासाचे जिव्हाळ्याचे तसेच  आजार,दवाखाने, रुग्ण ह्यांच्याशी संबंधित असलेल्या प्रत्येक व्यक्तीचे मनापासून आभार.

12 मे .   “जागतिक परिचर्या दिन”. आज आपण ह्या दिनाच्या निमीत्ताने “जगाची सुश्रुषा”हे घोषवाक्य सत्यात उतरविणा-या सर्व परिचारीकांचे मनापासून धन्यवाद. खरतरं त्या करीत असलेल्या सेवेसाठी धन्यवाद हा शब्दच मुळी खूप तोकडा आहे.

असं म्हंटलं जातं सेवा करणं ह्या मागे बरेच वेळा स्वार्थ दडलेला असतो परंतू सांगायला खूप आनंद आणि अभिमान वाटतो की कोरोना काळात सुद्धा अमरावती ला सरकारी दवाखान्यात आणि अनेक कोवीड आयसोलेशन सेंटर मध्ये ह्या परिचारीकांनी स्वतःच्या जीवाची पर्वा न करता अनेक वृद्धांची, रुग्णांची निस्वार्थ भावनेने मनापासून सेवा केली. नुसतेच औषधोपचार न करता रुग्णांना तुम्ही नक्की बरे होऊन घरी जाणार हे मनावर ठसवितं भक्कम मानसिक आधार पण दिला. विशेष म्हणजे हा चांगुलपणाचा परिचारीकांचा अनुभव एकट्यादुकट्याचा नसून अनेकांनी अनुभवला आहे. खरोखरच आपले ब्रीदवाक्य आचरणात आणून जगणाऱ्या ह्या परिचारीकांना मानाचा मुजरा.

नाइटिंगेल ह्यांचे नाव माहिती नसलेली एकही व्यक्ती वैद्यकीय क्षेत्रात आढळणार नाही. ह्या परिचारिका, लेखिका,संख्याशास्त्रज्ञ होत्या. 1853 मध्ये त्यांनी जखमी सैनिकांवर उपचार केला.त्यांनी शरीरासोबतच त्यांच्या मनावरील जखमा भरून काढल्या.त्यांना लेडी विथ दी लँप ही उपाधी मिळाली.त्यांचा जन्मदिवस 12 मे हा त्यांच्या सन्मानार्थ जागतिक परिचर्या दिन म्हणून साजरा केल्या जातो.

आजच्या दिनी कौशल्यवान,सेवाव्रती, प्रेमळ, सामाजिक कार्यात भाग घेणारी,आणि रुग्णसेवा हीच ईशसेवा मानणारी परिचारिका अरुणा शानबाग हीचेही हटकून स्मरण होतचं.

आजच्या ह्या दिनी परिचारिका नाइटिंगेल व अरुणा शानबाग ह्यांना अभिवादन करुन आजच्या पोस्टची सांगता करते.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ रेशमाची झूल… ☆ सुश्री स्वप्ना मुळे (मायी) ☆

सुश्री स्वप्ना मुळे (मायी)

? जीवनरंग ?

☆ रेशमाची झूल… ☆ सुश्री स्वप्ना मुळे (मायी)

“गेले पंधरा दिवस भुर्रकन निघून गेले … उद्या तुम्ही पण जाल.. मग मात्र सासुबाईंशिवाय हे घर मला आणि अविला खायला उठेल हो ताई..” एवढं बोलून शरु ढसढसून रडायला लागली. ह्या पंधरा दिवसात ती बरीच खंबीर होती. खरंतर आईचं पडल्यापासूनचं दुखणं या आठ महिन्यात तिनेच काढलं होतं. आपण फक्त नावाला लेक होतो. तिच्या कर्तव्याने खरी लेक शरुच झाली होती. त्यामुळे आपल्याला आईची उणीव जाणवणार, पण शरुला ती जास्त प्रखरपणे जाणवेल..

… स्मिताने तिला पटकन जवळ घेतलं. थोडा वेळ कोणीच काही बोललं नाही, कारण ‘ स्वामी तिन्ही जगाचा आईविना भिकारी ‘ हे आता सगळेच अनुभवत होते. तिघांनी परत मनसोक्त रडून घेतलं. 

मग शरु अलगद उठली. कपाटातून तिने सासुबाईचे कानातले जोड आणि बांगड्या नणंदेपुढे ठेवल्या. कपाटही उघडं ठेवलं. ती स्मिताला म्हणाली, ” ताई, आईची आठवण म्हणून हे दागिने आणि त्यांच्या ज्या साड्या पाहिजे त्या तुम्ही घेऊन जा…”

स्मिता उदास हसत म्हणाली, “अगं माणूस आठवणींनी मनात, हृदयाच्या कप्प्यात जपलेला असतो.. ह्या वस्तू, दागिने हे सगळं गौण आहे गं,.. मला काही नको, असू  दे तुमच्याकडेच.. आईचा एवढा दवाखाना, खर्च, तुम्ही सगळं कसं पेललं असेल ह्याची कल्पना आहे मला… हे दागिने सगळे तुमच्याकडेच ठेवा. पण एक वस्तू मात्र मी हक्काने मागेल. आईने रेशीम दोऱ्याची एक सुंदर झूल शिवली होती.. ती मला दे. त्याच्या फार सुंदर आठवणी आहेत गं माझ्या मनात.”

शरुने लगेच खालच्या पांढऱ्या शुभ्र कपड्यात गुंडाळलेली ती झूल काढली. स्मिताने ती गच्च छातीशी धरली. तिला परत आईची खूप आठवण आली. रडणं ओसरल्यावर ती बोलू  लागली, ” एकदा मागच्या अंगणात एक गाभण गाय हंबरत होती.. आईने बघितलं आणि म्हणाली ‘अगं बाई, इथेच पाडस जन्माला घालते की काय..? हिचा मालक कुठे गेला, का ही वाट चुकुन इकडे शिरली..’ .. पण तिला आता हाकलून लावणं शक्य नव्हतं… अवि तुला आठवतं का, त्या गावी बाबांची बदली झाली होती तिथं आपलं मागच्या पुढच्या अंगणाचं घर होतं बघ.”

त्यावर अवि म्हणाला, ” फार काही आठवत नाही, पण त्या कच्च्या दुधाच्या वड्या आठवतात.. पोटभर खायला मिळाल्या होत्या बघ….”

स्मिता म्हणाली, ” हं, तू लहान होतास फार, मला मात्र स्पष्ट आठवतं सगळं.. आपल्याकडे कामाला येणाऱ्या शामलाबाईंना आईने लगेच बोलवलं.. त्यांना सगळी माहिती होती.. आई म्हणाली ‘ मुकं जनावर असलं तरी त्रास आणि लाज दोन्ही असतात प्राण्याला..’ 

भिंतीच्या कोपऱ्यात घुसून हंबरत होती ती गाय. मग आईने तिला आडोसा केला.. गरम पाण्याचा शेक… अगदी जणू लेकीचं बाळंतपण केल्यासारखं केलं.. पाडस तर किती सुंदर होतं.. आणि काही क्षणात चार पायावर उभं राहिलं. आई म्हणाली, ‘ देवाला काळजी सगळ्या जीवांची.. ह्या मुक्या प्राण्यांना बघा कसं मिनिटात उभं करतो तो.. आपली लेकरं वर्ष घेतात..’ 

शामलाबाई आईला म्हणायच्या, ‘ फार जीव लावू नका, कधी मालक येईल आणि घेऊन जाईल तर करमणार नाही…’ आईने तेंव्हा त्या पाडसासाठी ही झूल केली होती.. अगदी रातोरात जागून… म्हणाली, ‘आपल्याकडे नव्या लेकराला कपडे करतात, त्याला झूल तर करू….’

मला फार आवडली होती ती रेशमी झूल, सुंदर रंगांची मऊमऊ. मी पण जागी होते त्या रात्री.. सकाळी उठून कधी त्या पाडसावर घालू असं झालं होतं.. पण सकाळी जाग आली ती आईच्या रडण्याने… गाय, वासरू निघून गेलं होतं आपल्या वाटेने.. तू खूप रडला होतास.. ‘बांधलं का नाहीस?’ तिला विचारत होतास…

आई म्हणाली, ‘ ती आपली मालकीची नव्हती, तिची अडचण म्हणून आडोश्याला उभी राहिली. आपलं मन वेडं, लगेच गुंतलं त्यात.’

मी ही झूल छातीशी घट्ट धरून रडत होते. आई म्हणाली, ‘ रडू नकोस.. अगदी स्त्री जन्म कसा असतो ते तुझ्या या वयात ही गाय येऊन तुला शिकवून गेली बघ. लज्जा, वेदना, मातृत्व… बघितलं ना वासराला कशी चाटत होती, आनंदाने दूध पाजत होती सगळ्या वेदना विसरून.. परत आपण दिलेल्या आरामाच्या मोहात रमली नाही, गेली निघून. आपल्या कर्तव्यांचं असंच असतं..  स्त्रीच जगणं…  माहेरी दोन दिवस यायचं, लाड करून घ्यायचे आणि जायचं निघून परत आपल्या भूमिकेच्या युद्धावर..’

आईने झूल हातात घेतली.  म्हणाली, ‘आता येणाऱ्या प्रत्येक चैत्र गौरीला मी ही झूल घालेल.. त्यावर माझी गौर बसेल.. कारण ही गाय माझ्या लेकीसारखीच आली माझ्या आयुष्यात, राहिली आणि निघून गेली… पण ह्या रेशमी झुलीवर तिच्या आठवणींच्या पाऊलखुणा सोडून गेली…’ आईने ह्या झुलीतून मला खूप काही शिकवलं आयुष्यभरासाठी. ही तिची आठवण मात्र मला द्या..”

अविने आणि शरुने स्मिताला जवळ घेतलं. तिघेही आईच्या आठवणीने रडत होते आणि रेशमी झूल, म्हणजे आईनेच हातात हात धरलाय असं अनुभवत होते…

© सुश्री स्वप्ना मुळे (मायी)

मो +91 93252 63233

औरंगाबाद

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ लेखाजोखा… ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

डॉ अभिजीत सोनवणे

© doctorforbeggars 

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☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ लेखाजोखा… ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

जिंकणं हे मोरपिसासारखं हलकं असतं… कुणीही ते हसत हसत झेलू शकतं….

आणि हरण्याइतकं दुसरं ओझं या जगात कशाचंही नसतं….!  

हे ओझं पेलता पेलता, जो हसत जगतो तो खरा बलवान…. ! 

सर्व काही जिंकूनही, जगत जगत मरणारी माणसं रोज भेटतात…. 

आणि सर्वस्व हरूनही मरता मरता जगणारी माणसंही रोजच भेटतात…!

दोघांकडूनही बरंच शिकायला मिळतं…! 

हे शिकत, शिकवत… लाचारीने जगणाऱ्या लोकांना आपल्या साथीने एक हात देत आहे, त्याचाच हा एप्रिल महिन्याचा लेखाजोखा… !!!

वैद्यकीय

वैद्यकीय शिक्षण घेत असताना पुस्तकात अतिशय दुर्धर अगम्य अशा अनेक केसेस वाचलेल्या असतात… परंतु डॉक्टर झाल्यानंतर प्रत्येकाला अशा केसेस आयुष्यात कधीतरी पहायला मिळतीलच याची गॅरंटी नसते.  

रस्त्यावर काम करताना, मला मात्र महिन्याभरात किमान एकतरी अशी केस पाहायला मिळते. 

अशा केसेस मग हॉस्पिटलमध्ये नेऊन सुपर स्पेशालिस्टना दाखवाव्या लागतात, ऍडमिट करावे लागते. 

या महिन्यात असे सहा पेशंट मिळाले. इतर अनेकांबरोबर त्यांनाही ऍडमिट केले आहे. 

यातील एकाला अंतिम टप्प्यात असलेला कॅन्सर आहे. डॉक्टर म्हणाले, ‘याला आधी आणलं असतं, तर आपण काहीतरी केलं असतं, आता फक्त याला वेदनामुक्त मरण देणं, इतकंच आपल्या हातात आहे….!’ 

हा मुलगा खरंतर नेपाळचा. मोठी स्वप्नं घेऊन नोकरीसाठी पुण्यात आला. गावी गरीब, वृद्ध आई-वडील आहेत, लग्न झालेलं नाही. नोकरी मिळाली, गावी पैसे पाठवू लागला, परंतु परिस्थितीच्या विळख्याने सगळंच पालटलं. आजारपण सुरू झालं, नोकरी गेली … होते नव्हते ते पैसे उपचारासाठी गेले. आई-वडिलांना पैसे पाठविणे सोडा, स्वतःच्या जगण्यासाठी सुद्धा याला भीक मागावी लागली. वेळ होती, त्यावेळी कोणीही हात दिला नाही…. आता माझ्या माध्यमातून, “तुमचा हात” त्याच्यापर्यंत पोहोचवायचा म्हटलं, तर वेळ निघून गेलेली आहे… मिनिटा मिनिटाने आयुष्य डोळ्यादेखत संपत चाललंय… मृत्यु 

उंबऱ्याबाहेर ताटकळत उभा आहे…!  समोर आपल्याशी बोलत असणारा माणूस पंधरा-वीस दिवसानंतर, “तो” आपल्यात नसणार आहे… हे आपल्याला माहित आहे…. परंतु त्याला माहीत नाही…

— हे पाहणं, अनुभवणं आणि पचवणं… वाटतं तितकं सोपं नाही, खूप वेदनादायी आहे हे ! 

समोरच्या कॉटवर असलेलं, चालतं बोलतं “शरीर”, काही दिवसानंतर “बॉडी” म्हणून पांढऱ्या कपड्यात गुंडाळलं जाणार आहे…

श्वास असतात तेव्हा “शरीर”… श्वास थांबले की “बॉडी”, शरीर आणि बॉडी मध्ये अंतर फक्त एका श्वासाचं ! 

आज पन्नास किलो वजनाचं हे शरीर …काही दिवसानंतर मुठभर राख म्हणून तांब्यात विसावणार आहे… 

जिवंत असताना कोणी साथ नाही दिली, सोबत नाही केली, कुणीही पाठीशी नाही… पण, हा गेल्यावर मात्र याच्यामागे चालत पन्नासजण याच्या पाठीशी राहुन याला “पोचवायला” येतील…! 

जिवंत असताना याला कोणी घास भरवला नाही…. पण गेल्यावर मात्र दरवर्षी याला “घास” ठेवले जातील, न चुकता…! 

“या घासापासून” ते “त्या घासापर्यंत”, मध्ये जे काही असतं, ते आयुष्य !!!

आणि,…. आयुष्यभर तुझं – माझं करत आपण जगत राहतो, झुंजत राहतो….फक्त मुठभर राख होण्यासाठी ! 

मुठभर राख हेच अंतिम सत्य !!! 

असो. 

… दरवेळी भेटला की विचारतो, ‘डॉक्टर मैं बचुंगा ना ? बाकी कुछ नही, लेकिन मेरे मा बाप उधर है, उनके लिये मुझे जिंदा रहना पडेगा ‘, हात जोडून तो केविलवाणे जेव्हा बोलू लागतो…. तेव्हा आपल्याच आतड्याला पीळ पडतो. 

‘अरे हो रे… तुला काय झालंय मरायला ? अजून खूप काही करायचं आहे तुला… चल, असा विचार करू नकोस…’ अशी खोटी खोटी वाक्यं बोलत, त्याला उरलेले दिवस हिमतीने जगण्याची आशा दाखवत आहे. 

सर्वात जास्त वेदनादायी आहे ते हे… खोटं बोलणं…! 

कधी वाटतं, खरं खरं सांगून मोकळं व्हावं… पण नकोच, प्रत्येक जण जगतो तो आशेवर…

आपल्यालाही आपल्या मृत्यूची तारीख समजली, तर आपण आज, आत्ता या क्षणापासूनच जगणं सोडून देऊ….!…. असू दे, रोज बोलत राहीन मी खोटं ….रोज वाढवत राहीन मी त्याची आशा…एक जीव वाचला… तर रोज खोटं बोलल्याबद्दल मला मिळतील त्या शंभर शिक्षा घ्यायला मी तयार आहे… तयार आहे… !!! 

अन्नपूर्णा प्रकल्प

रस्त्यावर असहायपणे पडून असणारे आणि दवाखान्यात उपचार घेत असणारे असे दयनीय अवस्थेत जगणाऱ्या लोकांना अन्नपूर्णा प्रकल्पाच्या माध्यमातून रोज अन्नदान केले आहे. सणावाराच्या दिवशी आपल्या घरी काहीतरी गोड असतं….. याच धर्तीवर, सणावाराला त्यांना गोडाचे जेवण दिले आहे. 

… तुम्हा सर्वांचे माध्यमातून अक्षय्य तृतीयेनिमित्त किमान १००० लोकांना जेवू घातले. 

हा यज्ञ आपणा सर्वांच्या साथीने रोजच सुरू आहे. 

खराटा पलटण

जी मंडळी भीक मागणे सोडून काम करायला लागली आहेत त्यांना वेळोवेळी कोरडा शिधा / किराणा दिला आहे. ४० आज्यांची स्वच्छता टीम तयार केली आहे.  पुण्यातील विविध भाग त्यांच्याकडून स्वच्छ करून घेऊन त्यांनाही शिधा दिला आहे. आमची ही टीम पुण्याच्या स्वच्छता अभियानाची ब्रँड अँबेसिडर आहे. 

भीक नको बाई…. शिक

एप्रिल महिना म्हटलं, की परीक्षांचा आणि परीक्षांचे निकाल लागण्याचा महिना….! 

पूर्वी भीक मागणाऱ्या ५२ मुलांना शैक्षणिक मदत करत आहोत. आणि ही सर्व मुलं यावर्षी पास झाली आहेत. कुणी दुसरीतून तिसरीत गेलं…. कुणी तिसरीतून चौथीत गेलं… कोणी चौथीतून पाचवीत गेलं… 

त्यापैकी असाच एक यावर्षी इन्स्पेक्टर होणार आहे, आणि येत्या काही वर्षात कुणी सीए, कुणी बीबीए तर कुणी कॉम्प्युटर सायन्स पदवीधर होणार आहे…! 

एका बापाला अजून काय हवं…??? 

© डॉ अभिजित सोनवणे

डाॕक्टर फाॕर बेगर्स, सोहम ट्रस्ट, पुणे

मो : 9822267357  ईमेल :  [email protected],

वेबसाइट :  www.sohamtrust.com  

Facebook : SOHAM TRUST

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ माणसाला शेपूट येईल का ? ☆ प्रस्तुती – सौ. उज्ज्वला पई ☆

? वाचताना वेचलेले ?

⭐ माणसाला शेपूट येईल का ? ☆ प्रस्तुती – सौ. उज्ज्वला पई ⭐

माणसाने माणसाशी

संवाद तोडला आहे

म्हणून तो घराघरात

एकटा पडला आहे

 

येत्या काळात ही समस्या

अक्राळविक्राळ होईल

तेव्हा आपल्या हातातून

वेळ निघून जाईल

 

कदाचित माणूस विसरेल

संवाद साधण्याची कला

याच्यामुळे येऊ शकते

मुकं होण्याची बला

 

पूर्वी माणसं एकमेकांशी

भरभरून बोलायची

पत्रसुद्धा लांबलचक

दोन चार पानं लिहायची

 

त्यामुळे माणसाचं मन

मोकळं  व्हायचं

हसणं काय, रडणं काय

खळखळून यायचं

 

म्हणून तेव्हा हार्ट मध्ये

ब्लॉकेज फारसे नव्हते

राग असो लोभ असो

मोकळेचोकळे होते

 

पाहुणे रावळे गाठीभेटी

सतत चालू असायचं

त्याच्यामुळे प्रत्येक माणूस

टवटवीत दिसायचं

 

आता मात्र माणसाच्या

भेटीच झाल्या कमी

चुकून भेट झालीच तर

आधी बोलायचं कुणी ?

 

ओळख असते नातं असतं

पण बोलत नाहीत

काय झालंय कुणास ठाऊक

त्यांचं त्यांनाच माहीत

 

घुम्यावाणी बसून राहतो

करून पुंगट तोंड

दिसतो असा जसा काही

निवडुंगाचं  बोंड

 

Whatsapp वर प्रत्येकाचेच

भरपूर ग्रुप असतात

बहुतांश सदस्य तर

नुसते येड्यावणी बघतात

 

त्यांनी मेसेज वाचल्याच्या

दिसतात निळ्या खुणा

पण रिप्लाय साठी सुटत नाही

शब्दांचा पान्हा

 

नवीन नवीन Whatsapp वर

चांगलं बोलत होते

दोनचार शब्द तरी

Type करत होते

 

आता मात्र बऱ्याच गोष्टी

इमोजीवरच भागवतात

कधी कधी तर्कटी करून

इमोजीनेच रागवतात

 

म्हणून इतर प्राण्यांसारखी

माणसं मुकी होतील का ?

भावना दाबून धरल्या म्हणून

माणसाला शिंगं येतील का ?

 

काय सांगावं नियती म्हणेल,

लावा याला शेपटी

वाचा देऊन बोलत नाही

फारच दिसतो कपटी

 

हसण्यावर नेऊ नका

खरंच शेपूट येईल

पाठीत बुक्का मारून मग

कुणीही पिळून जाईल

 

म्हणून म्हणतो बोलत चला

काय सोबत येणार

नसता तुमची वाचा जाऊन

फुकट शेपूट येणार

संग्राहिका : सौ. उज्ज्वला पई

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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