Anonymous Litterateur of Social Media# 142 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 142)
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
आज कबीर जयंती है। यूँ कहें तो कबीर याने फक्कड़ फ़कीर, यूँ समझें तो कबीर याने दुनिया भर का अमीर। वस्तुत: कबीर को समझने के लिए पहले आवश्यक है यह समझना कि वस्तुतः हमें किसे समझना है। पाँच सौ साल पहले निर्वाण पाए एक व्यक्ति को या कबीर होने की प्रक्रिया को? दहन किये गए या दफ़्न किये गए या विलुप्त हो गये दैहिक कबीर को पाँच सदी की लम्बी अवधि बीत गई। अलबत्ता आत्मिक कबीर को समझने के लिए यह समयावधि बहुत कम है।
प्रश्न तो यह भी है कि कबीर को क्यों समझें हम? छोटे मनुष्य की छोटी सोच है कि कबीर से हमें क्या हासिल होगा? कबीर क्या देगा हमें? कबीर जयंती पर इस प्रश्न का स्वार्थ अधिक गहरा जाता है।
कबीर को समझने में सबसे बड़ा ऑब्सटेकल या बाधा है कबीर से कुछ पाने की उम्मीद। कबीर भौतिक रूप से कुछ नहीं देगा बल्कि जो है तुम्हारे पास, उसे भी छीन लेगा। पाने नहीं छोड़ने के लिए तैयार हो तो कबीर आत्मिक रूप से तुम्हें मालामाल कर देगा।
आत्मिक रूप से मालामाल कर देने का एक अर्थ कबीर का ज्ञानी, पंडित, आचार्य, मौलाना, फादर या प्रीस्ट होना भी है। इन सारी धारणाओं का खंडन खुद कबीर ने किया, यह कहकर,
‘मसि कागद छूयौ नहिं, कलम नहिं गहि हाथ।’
कबीर दीक्षित है, शिक्षित नहीं।
कबीर अंगूठाछाप है। ऐसा निरक्षर जिसके पास अक्षर का अकूत भंडार है। कबीर कुछ सिखाता नहीं। अनसीखे में बसी सीख, अनगढ़ में छुपे शिल्प को देखने-समझने की आँख है कबीर। हासिल होना कबीर होना नहीं है, हासिल को तजना कबीर है। भरना पाखंड है, रीत जाना आनंद है। पाना रश्क है, खोना इश्क है,
हमन से इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या
रहे।
आज़ाद या जग से, हमन को दुनिया से यारी क्या।
और जब इश्क या प्रेम हो जाए तो अनसीखा आत्मिक पांडित्य तो जगेगा ही,
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
कबीर सहज उपलब्ध है। कबीर होने के लिए, उसकी संगत काफी है। ओशो ने सहक्रमिकता के सिद्धांत या लॉ ऑफ सिंक्रोनिसिटी का उल्लेख कबीर के संदर्भ में किया है। किसी वाद्य के दो नग मंगाये जाएँ। कमरे के किसी कोने में एक रख दिया जाए। दूसरे को संगीत में डूबा हुआ संगीतज्ञ (ध्यान रहे, ‘डूबा हुआ’ कहा है, ‘सीखा हुआ’ नहीं) बजाए। सिंक्रोनिसिटी के प्रभाव से कोने में रखा वाद्य भी कसमसाने लगता है। उसके तार अपने आप कसने लगते हैं और वही धुन स्पंदित होने लगती है।
कबीर का सान्निध्य भीतर के वाद्य को स्पंदित करता है। भीतर का स्पंदन मनुष्य में मानुषता का सोया भाव जाग्रत कर देता है। जाग्रत अवस्था का मनुष्य, सच्चा मनुष्य हो जाता है और बरबस कह उठता है,
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए
अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(A weekly column ‘The Grey Lights’ by Mr. Ashish Mulay)
Prologue: This poem is about the original mistake humankind has made… from which all the discriminations are born and has made human life miserable. That first mistake was not considering women as equal human… and using force to bend her will. No other animal in nature does that to his own species’ better half… and unfortunately for survival the better half had to weaponise the most beautiful thing in the world – “love.”
…and span of this mistake isn’t limited to only man and woman relation, but you can see it everywhere from kings oppressing subjects, bosses suppressing subordinates, teachers suppressing students and so on…I hope power is not used against the weak… power is for thorns not the flowers.
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा डॉ राजकुमार तिवारी ”सुमित्र’ जी की कृति “आदमी तोता नहीं” की काव्य समीक्षा।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 140 ☆
☆ काव्य समीक्षा – आदमी तोता नहीं – डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆
☆
काव्य समीक्षा
आदमी तोता नहीं (काव्य संग्रह)
डॉ। राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’
प्रथम संस्करण २०२२
पृष्ठ -७२
मूल्य १५०/-
आईएसबीएन ९७८-९३-९२८५०-१२-७
पाथेय प्रकाशन जबलपुर
☆ आदमी तोता नहीं : खोकर भी खोता नहीं – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दो जून की रोटी“।)
अभी अभी # 60 ⇒ दो जून की रोटी… श्री प्रदीप शर्मा
दीवाना आदमी को बनाती हैं रोटियाँ ! पूरी दुनिया में लड़ाई का कारण सिर्फ़ रोटी है। इंसान सब कुछ कर सकता है, भूखा नहीं रह सकता ! रोटी का महत्व वे लोग नहीं जान सकते, जो रोज पिज़ा, बर्गर खाते हैं। एक देश में अकाल पड़ा ! रानी के पास शिकायत गई, लोगों के पास खाने को रोटी नहीं है। ये लोग केक क्यों नहीं खाते, रानी ने मासूमियत से पूछा।
आज दो जून है ! हम ईश्वर को धन्यवाद देते हैं कि वो हमें दो जून की रोटी नसीब करवा रहा है। आज की रोटी में ऐसा क्या खास है, रोटी को उलट-पलट कर देखें। कुछ नज़र नहीं आएगा। ।
जून माह साल में एक बार आता है। दूसरा जून फिर अगले साल आएगा। बीच में पूरा एक बरस है। ईश्वर हमें इस जून को रोटी दे रहा है, दूसरा जून जो अगले साल आ रहा है, तब तक हमारी रोटी की व्यवस्था हो जाए, बस यही दो जून की रोटी है।
साईं इतना दीजिये, जा में कुटुंब समाए, मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाए !पहले लोग साल भर का अनाज घर में भर लेते थे।
दो जून का इंतज़ाम हो गया।
पकवान न सही, प्याज, नमक से भी रोटी खाकर भूख मिटाई जा सकती है। सिर्फ दो रोटी का सवाल है। ।
आजकल लोग दो जून की चिंता नहीं करते ! बहुत दिया है देने वाले ने तुझको। साल भर का अनाज कौन अवेरे ! बाज़ार में इतने रेडीमेड आटे उपलब्ध हैं, अन्नपूर्णा, शक्तिभोग आदि आदि, कौन अनाज की साल भर देखभाल करे। जब भी आटा खत्म हुआ, बिग बाज़ार है, सुपर मार्केट है। और नहीं तो इतनी होटलें तो हैं ही। आज का डिनर बाहर ही सही।
हम शहरी लोग हैं। एक गरीब किसान पर क्या गुजरती है, जब उसकी खड़ी फसल सिंचाई के अभाव में जल जाती है, अथवा तेज़ आँधी बारिश में तबाह हो जाती है। वह कहाँ से लाएगा दो जून की रोटी ? वह तो जब अनाज बेचेगा तब ही उसकी रोटी की व्यवस्था होगी।।
एक मज़दूर जो रोज पसीना बहाता है, रोज कमाता है, रोज खाता है। उसके दो जून की व्यवस्था कौन करता है। उसे तो रोज कुआ खोदना है।
मैं आज दो जून की रोटी खा रहा हूँ। मैं चाहता हूँ यह दो जून की रोटी हर भारतवासी को नसीब हो। किसी को रोटी के लिए भीख न माँगनी पड़े। हर इंसान अपने दो जून की रोटी की व्यवस्था कर पाए, तो मैं समझूँगा स्वर्ग धरती पर आ गया। बड़ी महँगी है, मूल्यवान है, स्वादिष्ट है, यह दो जून की रोटी। आप भी खाकर देखें, किसी को खिलाकर देखें। ।
जुन्या चालीरीतींना डावलणे, परंपरा मोडणे, जे वर्षानुवर्षे चालत आले आहे त्याला विरोध दर्शविणे…काहीतरी वेगळं नवीन करणं म्हणजे अधुनिकता का?
खरं म्हणजे आधुनिकता याचा अर्थ कुठल्याही परंपरेच्या संकल्पनेचा शोध घेणं…त्यातली भूमिका, कारणं, आणि काळ याचा अभ्यास करुन बदलत्या काळाशी, वातावरणाशी, जीवनपद्धतीशी त्याची सांगड घालून
प्रथेचं उचित नूतनीकरण करणं म्हणजे आधुनिकीकरण…. हा अर्थ मला अधिक पटतो…आधुनिकीकरण म्हणजे उच्चाटन नव्हे– तर पुनर्बांधणी.
वटपौर्णिमा ह्या मुख्यत्वे स्रियांच्या सणाविषयी काही भाष्य करताना हा विचार महत्वाचा वाटला…
पारंपारिक पद्धतीची वटपौर्णिमा म्हणजे ,पत्नीने पतीला दीर्घायुष्य मिळावे,आणि हाच पती सात जन्म मिळावा म्हणून केलेले व्रत !! मग उपास, वडाची पूजा ,वडाभोवती दोरा गुंडाळत मारलेल्या फेर्या..वगैरे वगैरे.. मग त्याच्याशी जोडलेली सत्यवान सावित्रीची कथा…
वास्तविक हिंदू संस्कृतीत कुठल्याही सणाशी , व्रताशी कुठलीतरी कथा ही असतेच…मात्र या कथांच्या माध्यमातून एक शास्त्रोक्त वैज्ञानिक दृष्टीकोन असतो. तो समजून घेणं म्हणजे आधुनिकता..
आणि आजची स्त्री हा विचार करते. कारण ती शिक्षित आहे. विचारक्षम आहे. परंपरेतला अंधश्रद्धेचा ,फोलपणाचा भाग ती डावलू शकते…आजची स्त्री वटपौर्णिमेच्या दिवशी भले उपास करणार नाही, विधीपूर्वक वडाची पूजा करणार नाही, सात जन्म हाच नवरा मिळावा म्हणून प्रार्थना करणार नाही ,पण या मागचं सौंदर्य आणि महत्व नक्की जपेल. तेही डोळसपणे…
वटवृक्षाच्या नैसर्गिक सुंदरतेचे , उपयुक्ततेचं या सणाशी , व्रताशी घनिष्ठ नातं आहे.पर्यावरणाचा महान संदेश यातून दिला आहे…हा वड सावली देतो, भरपूर प्राणवायू पुरवतो, पक्षी पांखरं पांथस्थ यांचा आधारवड आहे. याची मुळं मातीची धूप होऊ देत नाहीत .आणि हे झाड दीर्घायुषी असतं..त्याची पूजा ही कृतज्ञता व्यक्त करण्यासाठी असते..त्याचं जतन करण्याची शपथ घेणं असतं..आणि ही जागरुकता असणं ही काळाची गरज आहे…आजची स्त्री हे जाणते…वृक्षसंवर्धन ही हिंदू संस्कृतीत प्रत्येक सणाची मूळ संकल्पना आहे. आणि ती पाळणं म्हणजेच नवा विचार रुजवणं … मग बाकीच्या बाबी या केवळ मौज, हौस, गंमत करमणुक — ‘साजरीकरण’ या सदरात कुठल्याही अंधश्रद्धेविना जाऊ शकतात…
आजही एखादी व्यक्ती जीवघेण्या आजारातून बरी झाली की आपण त्याच्या पत्नीविषयी चटकन् म्हणतो, “..खरंच सावित्री आहे ती..म्हणूनच तो मरणाशी झुंज जिंकला….”
… इथे सावित्री ही प्रतिकात्मक असते. ती शक्ती असते. सकारात्मकता असते.
आजच शेजारचा अमोल म्हणाला.,” गेले दहा दिवस सीमा आजारी आहे. तिला विश्रांतीची गरज आहे. .मी घर सांभाळू शकलो नसेल तिच्याइतकं..पण मनापासून केलं. आज साबुदाण्याची खिचडी तिचा वटपौर्णिमेचा उपास म्हणून बनवलीही… आणि काकू आज मीही उपास केला..का विचारा..
तमाम सावित्र्यांना मी आज मानवंदना दिली…स्त्रीमधे नैसर्गिक त्याग, सहनशक्ती ,संयम हे गुण असतात. म्हणून व्रते ही स्त्रियांची मक्तेदारी..पण आज मी तिच्या वतीने हे व्रत करुन स्त्रीत्व काय असतं याचा यत्किंचित अनुभव घेतला…”
— अमोलचं हे वक्तव्य ऐकून वाटलं,हे आधुनिकत्व.. नव्या विचारधारेची अर्थपूर्ण रुजवण ..
कथा माणुसकीच्या, हा खेळ भावनांचा, रंग हळव्या मनाचे, गिफ्ट आणि अशी माणसं अशा गोष्टी
पुरस्कार-
विविध मान्यवर साहित्य मंडळांचे 16 राज्यस्तरीय पुरस्कार प्राप्त झाले आहेत
जीवनरंग
☆ पीळ… – भाग -1 ☆ श्री दीपक तांबोळी ☆
डाँक्टरांनी श्यामलाबाईंच्या छातीवर स्टेथास्कोप ठेवून थोडा वेळ तपासणी केली. मग वैभवकडे पहात ते म्हणाले,
” साँरी शी इज नो मोअर “
ते ऐकताच वैभवने “आईsss”असा जोरात हंबरडा फोडत आईच्या पार्थिवाला मिठी मारली आणि तो हमसून हमसून रडू लागला. जरा सावरल्यावर त्याने बाजूला पाहिलं. त्याचे वडील-जयंतराव खुर्चीवर बसून रडत होते. गेली पाचसहा वर्ष श्यामलाबाईंच्या आजारपणामुळे जे हाल बापलेकांचे झाले होते त्यांचं स्पष्ट प्रतिबिंब त्यांच्या चेहऱ्यावर उमटलेलं दिसत होतं. पाचसहा वर्षं प्रचंड प्रयत्न करुन आणि पाण्यासारखा पैसा खर्च करुनही हाती शुन्य लागलं होतं. एकुलत्या एक मुलाचं लग्न बघायची श्यामलाबाईंची खुप इच्छा होती पण तीही अपूर्ण राहिली होती.
त्याच्या खांद्यावर हात पडला तसं वैभवने वळून पाहिलं. शेजारपाजारचे बरेच जण जमा झाले होते. त्याच्या खांद्यावर हात ठेवणाऱ्या पाटील काकांनी त्याला नजरेने इशारा केला तसा तो उठून त्यांच्यासोबत बाहेर आला.
” वैभव कुणाला फोन करुन कळवायचं असेल तर मला नंबर दे मी फोन करतो “
‘ मामा, मावशीला सोडून सगळ्यांना कळवून टाक वैभव ” अचानक जयंतराव मागून येत म्हणाले,
” असं कसं म्हणता बाबा?त्यांची सख्खी बहिण होती आई “
” असू दे. मला नकोत ती दोघं इथं “
” कमाल करता जयंतदादा तुम्ही!अहो तुमची काहिही भांडणं असोत. सख्ख्या भाऊबहिणीला कळवणं आवश्यकच आहे. ” पाटील काका आश्चर्य वाटून म्हणाले.
” बरोबर म्हणताय पाटील काका तुम्ही. अहो भाऊबहिण आले नाही तर बाईंच्या पिंडाला कावळा तरी शिवेल का? काही काय सांगताय जयंतदादा?”
घोळक्यात बसलेली एक म्हातारी रागावून म्हणाली तसे जयंतराव चुप बसले. वैभवने त्यांच्या रागावलेल्या चेहऱ्याकडे दुर्लक्ष करत मोबाईल काढला आणि पहिला फोन संजूमामाला लावला. ‘मामा , अरे आई गेली. ‘ संजू रडत रडत बोलला.
” “काय्य्यsss?कधी आणि कशी?”मामा ओरडला आणि रडू लागला.
” आताच गेली आणि तुला तर माहितीच आहे की ती पाचसहा वर्षापासून आजारीच होती. तिला काय झालंय हे डाँक्टरांना शेवटपर्यंत कळलं नाही. मागच्या आठवड्यात तिला रक्ताच्या उलट्या होत होत्या म्हणून आयसीयूत अँडमीट केलं होतं. काल डाँक्टरांनी ट्रिटमेंटचा काही उपयोग होत नाहिये हे पाहून तिला घरी घेऊन जायला सांगितलं होतं. म्हणून काल घरी घेऊन आलो होतो. कालपासून ती मला मामाला बोलव असं म्हणत होती “
“अरे मग कळवलं का नाही मला?मी ताबडतोब आलो असतो “
वैभव बाहेर अंगणात आला. आसपास जयंतराव नाहीत हे पाहून हळूच म्हणाला,
” बाबांनी मला तुला कळवायला मनाई केली होती”
एक क्षण शांतता पसरली मग मामा जोरात ओरडून म्हणाला,
“हलकट आहे तुझा बाप. मरतांना सुद्धा त्याने माझ्या बहिणीची इच्छा पुर्ण केली नाही “
आता मामा जोरजोरात रडू लागला. ते ऐकून वैभवही रडू लागला.
थोड्या वेळाने भावना ओसरल्यावर मामा म्हणाला,
“मी निघतो लगेच. विद्या मावशीला तू कळवलंय का?”
“नाही. बाबांनी मना केलं होतं “
” खरंच एक नंबरचा नीच माणूस आहे. पण आता त्याच्यावर बोलण्याची ही वेळ नाही. मी कळवतो विद्याला आणि मी लगेच निघतो. तरी मला तीन तास तरी लागतील पोहचायला, तोपर्यंत थांबवून ठेव तुझ्या बापाला. नाहितर आमची शेवटची सुध्दा भेट होऊ नये म्हणून मुद्दाम घाई करायचा “
” नाही मामा. मावशी आणि तू आल्याशिवाय मी बाबांना निघू देणार नाही. खुप झाली त्यांची नाटकं. आता मी त्यांचं ऐकून घेणार नाही “
” गुड. बरं तुला पैशांची मदत हवीये का?”
वैभवला गहिवरून आलं. बाबा मामाशी किती वाईट वागले पण मामाने आपला चांगूलपणा सोडला नव्हता.
“नको. सध्यातरी आहेत. अडचण आलीच तर तसं तुला सांगतो. “
” बरं. ठेवतो फोन “
मामाने फोन ठेवला आणि वैभवला मागच्या गोष्टी आठवू लागल्या. संजूमामा आणि जयंतराव यांचं भांडण अगदी जयंतरावांच्या लग्नापासून होतं आणि त्यात चूक जयंतरावांच्या वडिलांचीच होती. लग्नाला “आमची फक्त पन्नास माणसं असतील” असं अगोदर सांगून जयंतरावांचे वडील दोनशे माणसं घेऊन गेले होते. बरं वाढलेल्या माणसांची आगावू कल्पनाही त्यांनी मुलीकडच्या लोकांना दिली नाही. अचानक दिडशे माणसं जास्त आल्यामुळे संजूमामा गांगरला. त्यावेळी कँटरर्सना जेवणाचे काँट्रॅक्ट देण्याची पध्दत नव्हती. अर्थातच ऐनवेळी किराणा आणून जेवण तयार करण्यात साहजिकच उशीर झाला. जेवण्याच्या पंगतीला उशीर झाला, वराकडच्या मंडळींना ताटकळत बसावं लागलं म्हणून जयंतरावांच्या वडिलांनी आरडाओरड केली. आतापर्यंत शांततेने सगळं निभावून नेणाऱ्या संजूमामाचा संयम सुटला आणि त्याने सगळ्या लोकांसमोर जयंतरावांच्या वडिलांची चांगलीच कान उघाडणी केली. नवरामुलगा म्हणून जयंतराव त्यावेळी काही बोलले नाहीत पण वडिलांचा अपमान केला म्हणून त्यांनी संजूमामाशी कायमचा अबोला धरला. मात्र संधी मिळाली की ते चारचौघात संजूमामाचा पाण उतारा करत. त्याला वाटेल ते बोलत. इतर नातेवाईंकांमध्येही त्याची बदनामी करत, पण आपल्या बहिणीचा संसार व्यवस्थित रहावा म्हणून संजू सगळं सहन करत होता. सात आठ वर्षांपूर्वी संजूचा जुना वडिलोपार्जित वाडा विकला गेला. त्यावेळी वैभवच्या आईने जयंतरावांना न सांगताच एक रुपयाही हिस्सा न घेता हक्कसोड पत्रावर सह्या केल्या होत्या. तिचंही साहजिकच होतं. ज्या माणसाने आयुष्यभर आपल्या भावाचा अपमान केला त्याला आपल्या वडिलोपार्जित इस्टेटीतला एक रुपयाही द्यायची त्या माऊलीची इच्छा नव्हती. एक वर्षाच्या आतच जयंतरावांना ही गोष्ट कुठूनतरी कळली आणि त्यांनी एकच आकांडतांडव केलं. श्यामलाबाईंना आणि संजूला खुप शिव्या दिल्या. संजूशी आधीच संबंध खराब होते ते आता कायमचेच तोडून टाकले. तीन महिने ते श्यामला बाईंशी बोलले नाहीत. त्या दिवसांनंतर त्यांनी आपल्या सासरी पाऊलही टाकलं नाही. संजूने मात्र आपलं कर्तव्य सोडलं नाही. दर दिवाळीला तो आपल्या बहिण, मेव्हण्याला न चुकता निमंत्रण द्यायचा पण जयंतराव त्याच्याशी बोलायचे नाहीत शिवाय श्यामला बाईंनाही माहेरी पाठवायचे नाहीत. श्यामलाबाईंच्या शेवटच्या दिवसात त्यांची भावाला भेटायची इच्छाही त्यांनी पुर्ण होऊ दिली नव्हती.
बरोबर तीन तासांनी संजू आला. आल्याआल्या आपल्या मेव्हण्याला भेटायला गेला. आपल्यापरीने त्याने जयंतरावांना सांत्वन करायचा प्रयत्न केला. पण जयंतराव त्याच्याशी एक शब्दानेही बोलले नाहीत. सुंभ जळाला पण पीळ मात्र तसाच होता. थोड्या वेळाने विद्या आली. तिने मात्र काळवेळ न बघता बहिणीच्या तब्येतीबद्दल काहीही न कळविल्याबद्दल जयंतरावांची चांगलीच खरडपट्टी काढली. तिच्याशीही जयंतराव एक शब्दानेही बोलले नाहीत.
अंत्यविधी पार पडला. सगळे घरी परतले. जयंतराव वैभवला घेऊन मागच्या खोलीत आले.
“वैभव कार्य पार पडलं. मामा मावशीला घरी जायला सांग “
वैभव एक क्षणभर त्यांच्याकडे पहातच राहिला. मग संतापून म्हणाला.
” कमाल करता बाबा तुम्ही!आईला जाऊन आताशी पाचसहा तासच झालेत आणि तिच्या सख्ख्या भावाबहिणीला मी घरी जायला सांगू?”
” मला ते डोळ्यासमोर सुध्दा नको आहेत “
आता मात्र वैभवची नस तडकली. वेळ कोणती आहे आणि हा माणूस आपलं जुनं वैर कुरवाळत बसला होता. तो जवळजवळ ओरडतच म्हणाला, ” मी नाही सांगणार. तुम्हांला सांगायचं असेल तर तुम्हीच सांगा. अशीही या दु:खाच्या प्रसंगी मला मामा मावशीची खुप गरज आहे”तो तिथून निघून बाहेर आला. बाहेरच्या खोलीत विद्या मावशी संजू मामाच्या खांद्यावर डोकं ठेवून रडत होती. तिला तसं रडतांना पाहून वैभवला ही भडभडून आलं आणि तो मावशीला मिठी मारुन रडू लागला. मामा त्यांच्या डोक्यावरुन हात फिरवत म्हणाला,
” वैभव काही काळजी करु नकोस. आम्ही आहोत ना!तुझ्या वडिलांमुळे आम्हांला मनात असुनही तुम्हांला मदत करता आली नाही. पण तू मात्र बिनधास्त आमच्याशी बोलत रहा. काही गरज लागली तर नि:संकोचपण सांग “
कित्येक वर्षात असं कुणी वैभवशी प्रेमाने बोललंच नव्हतं. ” खरंच आईच्या आजारपणात मामाचा आधार असता तर किती बरं वाटलं असतं. काय सांगावं कदाचित आई बरी सुद्धा झाली असती “वैभवच्या मनात विचार येऊन गेला.
” चल आम्ही निघतो. तिसऱ्या दिवशी परत येतो “मामा म्हणाला,
“का?थांबा ना. मी इथे एकटा पडेन. तुम्ही दोघं थांबलात तर बरं वाटेल “
” मला कल्पना आहे. पण नको. तुझा बाप आम्ही कधी जातो याकडे डोळे लावून बसला असेल. ते आमच्याशी बोलत नसतांना आम्हालाही घरात कोंडल्यासारखं होईल “
मामा बरोबरच म्हणत होता त्यामुळे वैभवचा नाईलाज झाला. मामामावशी गेले तसा वैभव उदास झाला. त्याला लहानपणीचे दिवस आठवले. खुप मजा यायची मामाकडे रहायला. दिवाळी आणि उन्हाळ्यातल्या सुट्यांची तो आतुरतेने वाट बघत असायचा. केव्हा एकदा सुट्या लागतात आणि मामाकडे जातो असं त्याला होऊन जायचं. वैभवला सख्खे भाऊबहिण नव्हते. त्यातून वडिलांचा स्वभाव असा शिघ्रकोपी. त्यामुळे स्वतःच्या घरी असंही त्याला करमायचं नाही. मामाकडे मात्र मोकळेपणा असायचा. तिथे गेल्यावर मामाची मुलं, विद्या मावशीची मुलं आणि तो स्वतः खुप धिंगाणा घालायचे. गंमत म्हणजे त्यावेळीही मोबाईल होते पण मामा मुलांना मोबाईलला हात लावू द्यायचा नाही. त्यामुळे ही मुलं दिवसभर खेळत असायची. प्रेमळ आजी जितके लाड करायची त्यांच्या दुप्पट लाड मामा करायचा. तेव्हा मामाची आर्थिक स्थिती जेमतेमच होती तरीही मामा खर्चाच्या बाबतीत हात आखडता घेत नसे. खाण्यापिण्याची तर खुप रेलचेल असायची. रात्री गच्चीवर झोपता झोपता मामा आकाशातल्या ग्रह ताऱ्यांची माहिती द्यायचा. मामाकडे सुटीचे दिवस कधी संपायचे तेही कळत नसायचं.
” गेले ते आनंदाचे दिवस “वैभव मनातल्या मनात बोलला. त्याला आठवलं तो मोठा झाला, इंजिनीयर झाला तरीही मामाच्या घरी जायची त्याची ओढ कधीही कमी झाली नाही. सात आठ वर्षांपूर्वी ते श्यामलाबाईंचं हक्क सोड प्रकरण झालं आणि जयंतरावांनी दोघा मायलेकांना संजू मामाकडे जायला मनाई केली. तेव्हापासून संजू मामाशी त्यांचे संबंध तुटले होते.
☆ आला सणवटपौर्णिमेचा..! ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆
गेल्या दहा वर्षात वटपौर्णिमेला वडाला जाऊन पूजा करणे बंद झाले माझे ! लग्नाची चाळीशी उलटून गेली आणि या पूजेबाबतच्या दृष्टिकोनात हळूहळू बदलही होत गेला. लग्न झाल्यावर नवीन सून म्हणून सासूबाई बरोबर नटून-थटून पूजेला गेले होते ते आठवलं ! जरीची साडी, अंगावर दागिने आणि चेहऱ्यावर सगळा नव्या नवतीचा साज घेऊन नदीकाठी असलेल्या वडावर पूजेला गेले होते. थोडा पाऊस पडल्यावरचे रम्य, प्रसन्न वातावरण, समोर कृष्णेचा घाट आणि वडाच्या झाडाभोवती सूत गुंडाळत फिरणाऱ्या उत्साही, नटलेल्या बायका असं ते वातावरण होतं ! धार्मिकतेची गोष्ट सोडली तरी त्या निसर्गातील आल्हाददायक वातावरणात चैतन्य भरून राहिलेले होते, त्यामुळे मन खरोखरच प्रसन्न झाले !
अशी काही वर्षे गेली आणि लहान मुलांच्या व्यापात वडावर जाणे जमेना. घराची जागा बदलली, त्यामुळे नदीकाठ आता दूर गेला होता. वडाची फांदी आणून त्याची पूजा करणे आणि दिवसभर उपवासाचे पदार्थ खाणे एवढाच वटपौर्णिमेचा कार्यक्रम होऊ लागला !
हळूहळू या सर्वातून मन बाहेर येऊ लागले. पतीचे आयुष्य वाढावे आणि सात जन्म हाच पती मिळावा म्हणून हे व्रत करणे ही गोष्ट अंधश्रद्धेचा भाग वाटू लागली. हिंदू धर्मात त्या त्या काळाचा विचार करून सणावाराच्या रूढी समाजात रुजलेल्या ! पुरुषप्रधान संस्कृतीत स्त्रीला लहानपणी पिता, मोठेपणी पती आणि वृद्धापकाळी पुत्र अशा व्यक्तीचाच आधार आहे ही गोष्ट मनावर ठसलेली ! स्त्रीचा बराचसा काळ संसारात पतीबरोबर व्यतीत होत असल्याने पतीवरील निष्ठा सतत मनात राहणे हेही अशा पूजेला पूरक होते. पूर्वीच्या काळी स्त्रीला घराबाहेर पडणे फारसे मिळत नव्हते. त्यामुळे स्त्रियांना निसर्गाच्या सहवासात मैत्रिणी, नातलगांसह अशा सणाचा आनंद घेता येत असे.
यानंतरच्या काळात पावसाला जोरात सुरुवात होते. आषाढ, श्रावण महिन्यापर्यंत पावसाचा जोर असतो. हवामान प्रकृतीसाठी पोषक असतेच असे नाही, त्यामुळे उपवासाची सुरुवातही ज्येष्ठी पौर्णिमेपासूनच केली जाते आणि चातुर्मासात विविध नेम, उपास केले जातात.
‘वड’ हे चिरंजीवीत्त्वाचे प्रतीक आहे. या झाडाचे आयुष्य खूप ! तसेच वडाचे झाड छाया देणारे, जमिनीत मुळे घट्ट धरणारे आणि पर्यावरण पूरक असल्याने ते जंगलाची शोभा असते. वडाच्या पारंब्या त्याचे वंशसातत्यही दाखवतात. पारंबी रुजून वृक्ष तयार होतो. वडाचे औषधी उपयोगही बरेच आहेत. या सर्वांमुळे आपल्याकडे वड, पिंपळ, चिंच, आवळा, आंबा यासारख्या मोठ्या झाडांचे संवर्धन केले गेले. या सर्वाला धार्मिकतेचे पाठबळ दिले की या प्रथा समाजात जास्त चांगल्या रुजतात. जसे हिंदू धर्मात आपण नागपंचमी,नारळी पौर्णिमा, बैलपोळा,तुलसी विवाह यासारखे सण निसर्गातील प्राणी, वनस्पती यांच्या प्रती कृतज्ञता व्यक्त करण्यासाठी करतो.तशीच ही वडपौर्णिमा आपण पर्यावरणपूरक अशा वडाच्या झाडाबरोबर साजरी करतो.
वटपौर्णिमेच्या पूजेमागे सत्यवान- सावित्रीची पौराणिक कथा सांगितली जाते. सत्यवान अल्पायुषी आहे हे सत्य सावित्रीला समजल्यावर सत्यवानाचे आयुष्य मिळवण्यासाठी सावित्रीने तप केले. हे तप तिने वडाच्या झाडाखाली बसून केले. तिच्या तपश्चर्येने प्रसन्न होऊन देवाने तिला वर मागण्यास सांगितले. तेव्हा सावित्रीने एका वराने सासू-सासऱ्यांचे आयुष्य मागितले, तर दुसऱ्या वराने त्यांचे राज्य त्यांना परत मिळावे अशी इच्छा व्यक्त केली. आणि तिसऱ्या वराने मी अखंड सौभाग्यवती राहावे हा वर मागितला. या वरामुळे सत्यवानाचे आयुष्य तिने परत मागून घेतले. सावित्रीचे हे बुद्धीचातुर्य आपल्यात यावे ही इच्छा प्रत्येक स्त्रीने या दिवशी व्यक्त केली पाहिजे !
अरविंद घोष यांचे ‘सावित्री’ हे महाकाव्य एम्. ए. ला असताना अभ्यासले. तेव्हा या सावित्रीची अधिक ओढ लागली. ‘सावित्री’ ही आपल्या जीवनाचे प्रतीकात्मक रूप आहे. एका शाश्वत ध्येयाकडे जात असताना कितीही संकटे आली तरी आपली निष्ठा ढळता कामा नये हेच ‘सावित्री’ सांगते. प्रत्येकाचे एक आत्मिक आणि वैश्विक वलय असते. जीवन जगताना आपल्या स्वतःच्या आत्म्याशी संवाद साधत साधत ‘ हे जगच परमात्मा स्वरूप असून आपण त्याचा एक अंशात्मक भाग आहोत ‘ हे चिरंतन सत्य समजून घेण्याचा प्रयत्न या ‘सावित्री’ त आहे.
कधीकधी मनात येतं की, स्त्रियांनीच का अशी व्रते करावी? उपास का करावे? पण अधिक विचार केला की वाटते, निसर्गाने स्त्रीला अधिक संयमी, सोशिक आणि बुद्धीरूप मानले आहे. स्त्री जननी आहे, त्यामुळे वंशसातत्याची जबाबदारी तिच्यावर आहे. सात जन्म हाच पती मिळावा ही भावना मनात ठेवली तरी स्त्री-पुरुष किंवा नवरा बायकोचे साहचर्य ह्या जन्मी तरी चांगल्या तऱ्हेने राहण्यास मदतच होते. पुनर्जन्म आहे की नाही याबद्दल खात्री नसली तरी आत्ताच्या जन्मात संसार सुखाचा होवो यासाठी तरी हे व्रत पाळायला किंवा एक सुसंस्कार मनात ठेवायला हरकत नाही ना?