हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – कविता ??

चलो

कुछ न करें

और रचें एक कविता…

 

सुनो,

कुछ न करने से

क्या रची जा सकती है

एक कविता..?

 

भगीरथ के

अथक परिश्रम से

पृथ्वी पर उतरी थी गंगा,

साठ हजार कुदालों के

स्वेद-कणों से

धारा बन बही थी गंगा,

अनुभूति की निर्मल

भगीरथी जब

सरस्वती होती है,

कविता

मन-मस्तिष्क से

कागज़ पर

अवतरित होती है…

 

कविता

कर्मठता की उपज है,

कर्म, निरीक्षण

और

चिंतन-मनन की समझ है,

तो फिर तुम्हीं कहो

कुछ न करते हुए

कैसे रची जा सकती है

एक कविता..?

 

और सुनो-

बिना अनुभव के

कैसी पढ़ी और समझी

जा सकती है कविता..?

© संजय भारद्वाज 

(गुरुवार दि. 2 जून 2016, संध्या 7:10 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “अन्तरराष्ट्रीय मदर्स डे (मातृदिन) – एक पहलू ऐसा भी…” ☆ डॉक्टर मीना श्रीवास्तव ☆

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

☆ “अन्तरराष्ट्रीय मदर्स डे (मातृदिन) – एक पहलू ऐसा भी…” ☆ डॉक्टर मीना श्रीवास्तव ☆

नमस्कार पाठकगण,

अन्तरराष्ट्रीय मदर्स डे (मई महीने का दूसरा रविवार) अर्थात मातृदिन की सबको शुभकामनाएं! 🌹

यह मातृदिन आज के ही दिन क्यों मनाया जाता है, इस प्रश्न का उत्तर ढूंढते हुए मुझे कुछ दिलचस्प और साथ ही विचारणीय जानकारी हाथ लगी| मदर्स डे का सबसे पुराना इतिहास ग्रीस के साथ जुड़ा है| वहाँ ग्रीक देवी देवताओं की माता की आदर सहित पूजा की जाती थी| माना जाता है कि, यह मिथक भी हो सकता है | परन्तु आज अस्तित्व में रहे मदर्स डे की शुरुवात करने का श्रेय ज्यादातर लोग अॅना रीव्ह्ज जार्विस (Anna Reeves Jarvis) को ही देते हैं| उसका अपनी माता के प्रति (अॅन मारिया रीव्ह्ज- Ann Maria Reeves) अत्यधिक प्रेम था| जब उसकी माता का ९ मई १९०५ को निधन हुआ, तब अपनी माता तथा सभी माताओं के प्रति आदर और प्रेम व्यक्त करने हेतु एक दिन होना चाहिए ऐसा उसे बहुत तीव्रता से एहसास होने लगा| इसलिए उसने बहुत अधिक प्रयत्न किये और वेस्ट व्हर्जिनिया में आन्दोलन की शुरुवात की| तीन साल के बाद (१९०८) अँड्र्यूज मेथोडिस्ट एपिस्कोपल चर्च में प्रथम अधिकृत मदर्स डे सेलिब्रेशन का आयोजन किया गया| वर्ष १९१४ को अमरीका के राष्ट्राध्यक्ष वुड्रो विल्सन ने अॅना जार्विस की कल्पना को मान्यता देते हुए मई महीने के प्रत्येक दूसरे रविवार को राष्ट्रीय अवकाश (छुट्टी) को मान्यता देनेवाले विधेयक पर हस्ताक्षर किये| फिर यह दिन धीरे धीरे अमरीका से युरोपीय और अन्य देशों में और बाद में सारे जगत में अन्तरराष्ट्रीय मदर्स डे के रूप में मान्य किया गया|

कवी तथा लेखिका ज्यूलिया वॉर्ड होवे (Julia Ward Howe) ने इस आधुनिक मातृदिन के कुछ दशक पहले अलग कारण के लिए ‘मातृशांति दिन’ मनाये जाने के लिए प्रचार किया। अमरीका और युरोप में युद्ध के चलते हजारों सैनिक मारे गए, अनेक प्रकार से जनता ने कष्ट और पीड़ा झेली और आर्थिक हानि हुई सो अलग| इस पार्श्वभूमि पर एकाध दिन युद्धविरोधी कार्यकर्ताओं ने एक साथ आकर मातृदिन मनाये जाने की कल्पना जग में फैलनी चाहिए, ऐसा ज्यूलिया को लग रहा था| उसकी कल्पना यह थी कि, महिलांओं को वर्ष में एक बार चर्च या सोशल हॉल में एकत्रित होने के लिए, प्रवचन सुनने के लिए, अपने विचार प्रकट करने के लिए , ईश्वरभक्ति के गीत प्रस्तुत करने के लिए और प्रार्थना करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए और उनके लिए ऐसा एकाध दिन तय करना चाहिए। इस कृति से शांति में वृद्धि होगी और युद्ध का संकट टल जायेगा, ऐसा उसे लग रहा था|

परन्तु ‘एकसंध शांतता-केंद्रित मदर्स डे’ मनाये जाने के ये प्रारंभिक प्रयत्न पीछे रह गए क्योंकि, तब तक व्यक्तिगत रूप से मातृदिन मनाया जाने की दूसरी संकल्पना ने जोर पकड लिया था| इसका कारण था व्यापारीकरण! नॅशनल रिटेल फेडरेशन द्वारा २०१९ में प्रकाशित हुए आंकड़ों के अनुसार आजकल मदर्स डे अमरीका में $२५ अरब जितना महँगा अवकाश का दिन बन गया है| वहाँ लोग इस दिन मां पर सबसे अधिक खर्चा करते हैं| ख्रिसमस और हनुक्का सीझन (ज्यू लोगों का ‘सिझन ऑफ जॉय’) को छोड़ मदर्स डे के लिए सब से अधिक फूल खरीदे जाते हैं| आलावा इसके गिफ्ट कार्ड, भेंट की चीजें, गहने, इन पर $५ अरब से भी अधिक खर्चा किया जाता है| इसके अतिरिक्त विविध स्कीम के अंतर्गत स्पेशल आउटिंग भी बहुत लोकप्रिय है|

अॅना रीव्ह्ज जार्विस को इसी कारण मातृप्रेम पर आधारित उसकी कल्पना के बारे में दुःख हो रहा था| उसके जीवन काल में, वह फ्लोरिस्ट्स (फूल बेचने वाली इंडस्ट्री) के आक्रमक व्यापारीकरण के विरोध में अकेले लडी. परन्तु दुर्भाग्य ऐसा था कि, इस बात के लिए उसे ही जेल जाना पडा| इस अवसर पर माता के प्रति भावनाओं का गलत तरीके से राजनितिक लाभ उठाना, धार्मिक संस्थाओं के नाम पर निधि इकठ्ठा करना, ये बातें भी उसकी आँखों के सामने घटित हो रही थीं|  जार्विस ने वर्ष १९२० में एक अत्यंत महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किया| उसने कहा, ‘यह विशेष दिन अब बोझिल और फालतू बन गया है| माँ को महंगे गिफ्ट देना, यह  मदर्स डे मनाने का योग्य मार्ग नहीं है|’  वर्ष १९४८ में, ८४ की उम्र में, जार्विस की एक सॅनेटोरियम में एकाकी रूप में मृत्यु हुई| तब तक उसने अपना सारा पैसा मदर्स डे की छुट्टी के व्यापारीकरण के खिलाफ लडने के लिए उपयोग कर खर्च कर दिया था| इस बहादुर और उन्नत विचारों की धनी वीरांगना स्त्री को आज के मातृदिवस पर मैं नतमस्तक हो कर प्रणाम करती हूँ| उसका छायाचित्र लेख के साथ जोडा है|

मित्रों, जब मैंने यह जानकारी पढी तब मेरे मन में विचार आया कि, क्या सचमुच ही माँ की ऐसी महँगी अपेक्षाएं रहती हैं? सच में देखें तो, अपेक्षा रहित प्रेम करना ही स्थायी मातृभाव होता है| फिर उसे व्यक्त करने के लिए इस खालिस व्यापारिक रवैये को बढ़ावा देकर पुष्ट करना क्या ठीक है? बहुतांश माताओं को ऐसा लगता है कि, इस दिन उनके बच्चों ने उन्हें केवल अपना समय देना चाहिए, उनसे प्रेम के दो शब्द बोलना चाहिए, माँ के साथ बिताए सुंदर क्षणों की यादें ताज़ातरीन करनी चाहिए। गपशप करना और साथ रहना, बस! इसमें एक ढेले का भी खर्चा नहीं होगा। मेरे विचार में यहीं सबसे बहुमूल्य गिफ्ट होगा आज के मदर्स डे का अर्थात मातृदिन का!

धन्यवाद!  🌹

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

दिनांक – १४ मई २०२३

फोन नंबर: ९९२०१६७२११

(टिपण्णी- इस लेख के लिए इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी उपयोग किया है| कृपया लेख को अग्रेषित करना हो तो मेरा नाम एवं फोन नंबर उसमें रहने दें!)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 40 ⇒ लाखों का सावन…☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लाखों का सावन ।)  

? अभी अभी # 40 ⇒ लाखों का सावन? श्री प्रदीप शर्मा  ?  ०००

 एक वह भी ज़माना था, (आप समझ गए) हाँ, वह कांग्रेस का ज़माना था, जब सावन लाखों का होता था, और नौकरी दो टके की, यानी 90-ढाई की ! मास्टर गाँव में पड़ा रहता था, और नई नवेली बहू शहर में सास-ससुर की सेवा करते हुए आनंद बक्षी का यह गीत सुनकर पति-परमेश्वर को कोसा करती थी।

उसे भी अपने मायके के सावन के झूले याद आया करते थे।

अब वह न घर की थी, न नाथ की।

समय बदलते देर नहीं लगती।

जो नौकरी कभी टके की थी, वह लाखों की हो गई, और लाखों का सावन टके का हो गया। सावन लगने पर किसी को आज उतनी खुशी नहीं होती, जितनी तनख्वाह में इन्क्रीमेंट लगने पर होती है।

तब भी सावन लगने से ज़्यादा खुशी हमें गुरुवार को शहर के थिएटर में नई फिल्म लगने पर होती थी। आज भी अच्छी तरह से याद है कि आया सावन झूम के जब रिलीज़ हुई थी, तो झूमकर बारिश हुई थी। जिनके पास छाते नहीं थे, वे सावन का मज़ा झूमकर ही नहीं भीगकर भी ले रहे थे। ।

कितनी फुरसत थी, जब सावन आता था ! श्रावण सोमवार को गाँधी-हॉल का बगीचा खचाखच महिलाओं और बच्चों से भर जाता था। पेड़ों पर झूले बाँध दिये जाते थे, जिन पर युवतियां जोड़े से झूला करती थी। ऊपर जाना, नीचे आना, ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव को हँसते-हँसते झेलना, यही तो ज़िन्दगी का मेला होता था। बच्चों के लिए तो पुंगी और फुग्गे ही काफी थे। घास में लोटना और कोड़ा-बदाम छाई खेलना। घर की बनाई पूरी/पराँठे के साथ आलू/भिंडी की सब्जी, प्याज-अचार, और गाँधी-हॉल के गेट से दो रुपये का नमकीन मिक्सचर। बगीचे की घास पर मूँगफली के बचे हुए छिलके थे। बस, यही लाखों का सावन था।

समय ने करवट बदली ! सियासत ने अपना रंग बदला, ढंग बदला।

सावन की जगह बदले का मौसम आ गया। 60 साल से सोलह साल तक का पागल मन तलत का यह गीत गुनगुनाने लग गया !

बदली, बदली दुनिया है मेरी। वह बादल की बदली की नहीं, डिजिटल इंडिया की बात कर रहा है, वह सावन की बारिश में भीगकर बंद एटीएम तक नहीं जाना पसंद करता। paytm का आनंद लेता है, और  रेडियो मिर्ची पर मन की बात सुना करता है।

आजकल की फिल्मों ने भी सावन का दामन छोड़ दिया है,

संगीत ने मधुरता खो दी है,

तो गानों ने अर्थ खो दिया है।

व्यर्थ की फिल्में करोड़ों कमा रही है तो पद्मिनी पद्मावत बनी जा रही है। सावन कहीं प्यासा है तो  कहीं अभी से ही सावन-भादो की झड़ी लगी जा रही है। संगीत की स्वर-लहरियां मेरे कानों में गूँज रही हैं। नेपथ्य में फ़िल्म आया सावन झूम के का गाना बज रहा है। मन भी आज यही कह रहा है, सावन आज भी लाखों का है, सावन को आने दो।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ माइक्रो व्यंग्य # 188 ☆ बैठे-ठाले — “जेंडर चेंज…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक माइक्रो व्यंग्य  – ——)

☆ माइक्रो व्यंग्य # 188 ☆ बैठे-ठाले — “जेंडर चेंज…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

आंख खोलकर जब दुनिया देखता हूं तो बड़ी विषमता नजर आती है। अमीर है गरीब है, नर है नारी है, युद्ध है शान्ति है। बैठे – ठाले सोचा कि इन दिनों नारी सशक्तिकरण के नाम से खूब योजनाएं चल रहीं हैं।  अगले गणतंत्र दिवस परेड में तो अब सिर्फ महिलाएं ही परेड करेंगी ऐसी बात चल रही है। कहीं एक हजार महीना मिल रहा है, कहीं फ्री सिलेंडर मिल रहे हैं, कहीं आवास बन रहे, कहीं साइकल, तो कहीं लैपटाप, कहीं दहेज का समान और न जाने क्या क्या…! ऐसे अनेक तरह के फायदे का लाभ उठाने के लिए सोचा, बैठे ठाले क्यों न जेंडर चेंज करा लूं।

सुना है यूक्रेन के खिलाफ एक साल से भी लंबे समय से चल रही जंग में बार्डर पर जाने से बचने के लिए रूस के पुरुष जेंडर चेंज कराकर महिला बन रहे हैं। रूस में जेंडर चेंज कराना बड़ा आसान है।  जेंडर चेंज कराने के लिए किसी तरह के आपरेशन की जरूरत नहीं पड़ती।

अपने यहां तो बिना आपरेशन ऐसा हो नहीं सकता, अपने यहां आम आदमी की थथोलने की प्रवृत्ति है। रूस में तो जेंडर चेंज करने के लिए सिर्फ मनोवैज्ञानिक टेस्ट होता है। इस टेस्ट में यह पाए जाने पर कि कोई व्यक्ति खुद को मानसिक तौर पर महिला महसूस करता है तो उसे कानूनन महिला मान लिया जाता है। उन्हें महिलाओं के मिलने वाले हर अधिकार मिल जाते हैं।  अपने यहां ऐसा हो जाए तो नेता लोग तुरंत जेंडर चेंज करवा कर वोट मांगने पहुंच जाएंगे, और महिलाओं को मिलने वाले हर अधिकार पर कब्जा कर लेंगे। रूस में कानून इतने सरल हैं कि कोई पुरुष सुबह उठता है और सोचता है कि अब वह महिला बनना चाहता है तो शाम तक बन जाता है। अपने यहां ऐसे होने लगे तो ये 140 करोड़ का देश एक दिन में ‘महिला राष्ट्र’ बन जाएगा, पर बजरंगबली यहां ऐसा होने नहीं देंगे।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 129 ☆ # हमने साथ साथ… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# हमने साथ साथ… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 129 ☆

☆ # हमने साथ साथ… # ☆ 

हमने गुजारा है

यह वक्त साथ साथ

वक्त के थपेड़ो को

झेला है साथ साथ

 

तूफानों ने कोई

कसर नही छोड़ी

जब भी मौका मिला

कश्ती मेरी तोड़ी

हमने बनाया है

नयी कश्ती को साथ साथ

 

एक वक्त ऐसा आया

अपनों ने साथ छोड़ा

सुनहरे सपनों को

बेरहमी से तोड़ा

हमने नये सपनों को

फिर देखा है साथ साथ

 

जिन पौधों को लगाया था

कि खिलेंगे फूल यहां

वो खुशबू बिखेरेंगे, महकेंगे

गुलशन में वहां

हमें कांटे मिले, जिसे चुना है

हमने साथ साथ

 

खुशियां उधार की

जमाने में बहुत मिली

उनकी उमर छोटी थी

कुछ देर तक चली

खुशियां ढूंढते रहे

हम जीवन भर साथ साथ

 

यह रिश्ते नाते, दिखावे का प्यार

एक खूबसूरत भरम है

बुजुर्ग मां-बाप, एक बोझ है

कहते बेशरम है

पति पत्नी का रिश्ता अटूट है

जो हम निभा रहे हैं साथ साथ/

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ रा.तु.म. नागपुर विश्वविद्यालय के भाषा विभाग द्वारा महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत साहित्यकार सम्मानित”– अभिनंदन ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

(सुश्री इन्दिरा किसलय जी सम्मानित)

? रा.तु.म. नागपुर विश्वविद्यालय के भाषा विभाग द्वारा महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत साहित्यकार सम्मानित”– अभिनंदन ?  

विदर्भ में ‘हिन्दी भाषा और साहित्य’ यही विषय था विचार गोष्ठी का जो राष्ट्रसन्त तुकडोजी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय के भाषा विभाग द्वारा आयोजित किया गया था। जिसमें सर्व श्री मनोज पाण्डेय, डाॅ वीणा दाढ़े, श्री श्रीपाद भालचंद्र जोशी, श्री राजेन्द्र पटोरिया ने प्रतिपाद्य विषय पर बहुकोणीय चिन्तन पेश किया।

कार्यक्रम के उत्तर अंश में महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत साहित्यकारों का सम्मान- पत्र देकर सत्कार किया गया।

इस शानदार पहल के श्रेयार्थी हैं नागपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग प्रमुख डाॅ मनोज पाण्डेय

इस गरिमामय अवसर पर उपस्थित थे सर्व श्री–संतोष पाण्डेय बादल,अविनाश बागड़े,नरेन्द्र परिहार,बालकृष्ण महाजन,कृष्णकुमार द्विवेदी, कृष्ण नागपाल, नीरज श्रीवास्तव,श्री सूर्यवंशी, डाॅ विनोद नायक, डाॅ कृष्णा श्रीवास्तव,डाॅ सुरेखा ठक्कर, सुश्री यामिनी रामपल्लीवार, डाॅ प्रभा ललित सिंह, नेहा भंडारकर, सुधा काशिव, प्रभा मेहता, दीप्ति कुशवाह, सुरेखा देवघरे, मधु शुक्ला तथा इन्दिरा किसलय

? ई-अभिव्यक्ति की ओर से इस अभूतपूर्व उपलब्धि के लिए सभी सम्मानित साहित्यकारों का अभिनंदन एवं हार्दिक बधाई ?

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मधुमालती… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मधुमालती… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

फुललेली मधुमालती सुंदर दिसते

मंद सुगंध सगळीकडे पसरते

साधे पणाने मन प्रफुल्लित करते

पण तिला देवघरात स्थान नसते

 

कधी केसात वेणी बनून असते

कधी मुलांचे खेळणे बनते

कधी नुसतीच पायदळी जाते

कधी कचरा म्हणून हिणवली जाते

 

तरीही रोज रोज फुलते

आनंदाने बहरत जात असते

बघणाऱ्यांना आनंद देत असते

जणू आपल्याला संदेशच देत असते

 

कुणी कसेही वागले

कुठेही स्थान नसले

कोणी काळजी घेणारे नसले

तरीही आपण आपला धर्म सोडू नये

घेतला वसा टाकू नये

आनंद व सुगंध देणे थांबवू नये

 

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

सांगवी, पुणे

मोबाईल नंबर – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 131 ☆ माझी वेदना…! ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 131 ? 

☆ माझी वेदना…! ☆

(विषय – तू अबोल का झाली..!)

तू अबोल का झाली

कुठे उणीव भासली

सौख्य प्रीत बहरतांना

का अशी दूर गेली.!!

 

तू अबोल का झाली

बोल नं मधुर बोली

सखे उक्त कर काही

नको राहू, अबोली.!!

 

तू अबोल का झाली

मज चिंता पडली

विरहात तुझ्या मृग-नयने

तहान भूक हरली.!!

 

तू अबोल का झाली

कर राज, उक्त लवकरी

होईल ते होऊ दे परंतु

बोल नं माझे, सोनपरी.!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 67 – उत्तरार्ध – स्वामी विवेकानंद, एक महान यात्रिक ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 67 – उत्तरार्ध – स्वामी विवेकानंद, एक महान यात्रिक ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

रामकृष्ण मिशन चे काम सुरू झाले. स्वामीजिंचा प्रवास, भेटीगाठी, काम वाढवण्याच्या दृष्टीने सुरूच होता. भारतात भारतीय शिष्य आणि परदेशी शिष्य काम करत होतेच. पण परदेशातील शिष्य यांच्याशी पण पत्रव्यवहाराने संपर्क होत होता. सतत मार्गदर्शन चालू होते, काश्मीर, पंजाब, खेतडी, नैनिताल, कलकत्ता, आल्मोरा, अमरनाथ, मायावती, पूर्व बंगाल असं सगळीकडे संचार झाला. त्याच प्रमाणे पुन्हा एकदा दीड वर्षे ते पाश्चात्य देशांचा प्रवास करून परतले. बेलूर मठात पोहोचल्यावर मन प्रसन्न झाले. एक दिवस विश्रांती झाल्यानंतर एकेक वृत्तान्त कळू लागला. आपल्या कार्यासाठी ज्यांनी स्वतच्या देशाचा त्याग केला आणी आपल्या हिमालयासारख्या दुर्गम भागात राहून मोठ्या कष्टाने अद्वैत आश्रम उभा केला. आपले एक स्वप्न साकार केले ते सेव्हियर पती पत्नीने. त्यातले स्वत: सेव्हियर कार्य करता करताच निधन पावले, तर गुडविन आधीच गेले होते. या दोन इंग्रज शिष्यांनी भारतमातेच्या चरणी आपली जीवनपुष्पे वाहिली, याचे स्वामीजींना दु:ख झाले. मिसेस सेव्हियर मायावतीला होत्या, त्यांचे ताबडतोब सांत्वन करायला गेले पहिजे आणि तशी तार त्यांनी मिसेस सेव्हियर यांना केली. प्रकृती ठीक नसतानाही स्वामीजी प्रतिकूल हवामान व परिस्थितीत ,गैरसोयीचा प्रवास असतानाही ते शिष्यांबरोबर गेले.   

मदतीशिवाय त्यांना चालणेही कठीण झाले. श्वास घ्यायला त्रास होऊ लागला,  त्यावर बरोबर असलेल्या  विरजानंदाना ते म्हणाले, “पहा मी किती दुबळा आहे जणू वृद्ध होऊन गेलो आहे. हे एव्हढेसे चालायचे आहे तेही मला बिकट वाटते आहे, पूर्वी पर्वत प्रदेशात २५- २५ मैल चालायलाही काही वाटायचे नाही. माझ्या आयुष्याचा शेवट जवळ येत चालला आहे हेच खरं”. ते ऐकून विरजानंद मनातून हादरून गेले. मिसेस सेव्हियरना भेटणे आपले कर्तव्य आहे म्हणून हा खडतर प्रवास ते करत होते.मिसेस सेव्हियर ने आपले दु:ख बाजूला ठेऊन स्वामीजींचे स्वागत केले. पतीच्या निधनाचे दु:ख मोठे असतानाही आपण घेतलेले व्रत चालूच ठेवणार असल्याचे त्यांनी सांगितले, मायावतीला स्वामीजी पंधरा दिवस राहिले. सेव्हियर पती पत्नी ने  इथे अद्वैत आश्रमाचे काम मार्गी लावले होते. इथल्या वास्तव्यात अनेकजण स्वामीजींना भेटायला येऊन गेले. मायावती हून स्वामीजी कलकत्त्याला निघाले, बेलूर मठात आल्यावर आणखी एक धक्कादायक वृत्त समजले ते म्हणजे खेतडीचे राजा अजित सिंग यांचे अपघाती निधन झाले. या अकस्मात दुर्घटनेमुळे स्वामीजीना मोठा धक्का बसला. राजा अजित सिंग हा त्यांचा मोठा आधार होता.

बेलूरला आल्यावर मठाच्या व्यवस्थेतील काही कायदेशीर पूर्तता आणि विश्वस्त मंडळ करून घेतले. ब्रह्मानंद ,शिवानंद, प्रेमानंद, सारदानंद, अखंडानंद, त्रिगुणातीतानंद, रामकृष्णानंद, अद्वैतानंद, सुबोधानंद, अभेदानंद, आणि तुरियानंद यांचे विश्वस्त मंडळ करून त्यांच्यावर कारभार सोपवला, यात त्यांनी एकही पाश्चात्य शिष्य घेतला नाही, ते दुरदृष्टीने कायदेशीर गुंतागुंत होऊ नये म्हणून. ६ फेब्रुवारीला रीतसर नोंदणी करण्यात आली. विवेकानंदांनी कोणतेही अधिकार पद स्वीकारले नाही. स्वत:च्या मालकीच्या जागेत रामकृष्ण संघाचे काम आले. भारताच्या इतिहासात एक नवे पान उघडले गेले होते, स्वामीजींनि पाहिलेले स्वप्न साकार झाले होते. फेब्रुवारीत रामकृष्ण परमहंस यांचं जन्मदिन बेलूर मठात साजरा झाला तेंव्हाही स्वामीजीना खूप समाधान वाटले.

त्यानानंतर त्यांनी पूर्व बंगालचा प्रवास आखला आणि आई भुवनेश्वरी देविंची इच्छा पण पूर्ण करावी असे मनात होते. बंगालच्या या सुपुत्राने एकदा तरी आपल्या गावात यावे अशी तिथल्या लोकांची इच्छा होती. चंद्रनाथ आणि कामाख्यादेवी ही  तीर्थ क्षेत्रे भुवनेश्वरी देविंच्यासह स्वामिजिनी केली आणि आईसाठी काही केल्याचे समाधान त्यांना होते. या यात्रेत तिथल्या भेटी, स्वागत, आपल्या मुलाबद्दल लोकांचे प्रेम आणि आदर पाहून भुवनेश्वरी देविंना मनोमन समाधान वाटले. हाच तो आपला लहान बिले ना ? असे नक्की वाटले असेल.

पूर्व बंगाल आणि आसामचा हा प्रवास दोन महिन्यांचा झाला आणि स्वामीजींची प्रकृती आणखीनच ढासळली ,विश्रांती नाही, सतत कामाचा ताण यामुळे दम्याचा त्रास आणखीन बळावला .आपलं अखेरचा क्षण जवळ आला की के अशी शंका स्वामीजींच्या मनात डोकावली. प्रवासात ते अनेकांना पत्र लिहीत असत. अधून मधून जरा बारे वाटले की लगेच उत्साहाने पुढचे नियोजन करीत. एकदा त्यांचे शिष्य शरदचंद्र चक्रवर्ती भेटले तेंव्हा त्यांनी सहज प्रकृती बद्दल विचारले, तर स्वामीजी म्हणाले, “ अरे बाबा आता प्रकृतीची चौकशी कशाला करायची? प्रत्येक दिवशी शरीराचा व्यापार बिघडत चालला आहे. जे काही आयुष्याचे थोडे दिवस आता राहिले आहेत ते मी तुम्हा सर्वांसाठी काहीना काही करण्यात घालवेन आणि असा कार्यमग्न असतानाच एके दिवशी या जगाचा निरोप घेईन”.

दुर्गापूजा उत्सव बंगाल मधला महत्वाचा उत्सव, आता स्थिरावलेल्या बेलूर मठात दुर्गा पूजा व्हावी असे सगळ्यांच्याच मनात आले. स्वामीजींच्या अंगात बराच ताप होता. श्री दुर्गा प्रतिष्ठापना झाली होती. अष्टमीला मुख्य पूजेला स्वामीजी कसेबसे आले. नवमीला थोडे बरे वाटले तेंव्हा देवीसमोर त्यांनी काही भजने म्हटली. श्रीरामकृष्ण यांची आवडती भजने त्यांनी गायली. हे पाहून भुवनेश्वरी देवींना बरे वाटले. बरोबर केलेल्या  तीर्थयात्रेपासूनच त्यांना माहिती होते की आपल्या मुलाची प्रकृती अलीकडे ठीक नसते. त्याला भेटायला त्या मधून मधून मठात येत असत. आल्यावर बाहेरूनच ‘बिले..’ अशी हाक मारत आणि विश्वविख्यात बिले, संन्यासीपुत्र नरेन आईची हाक आल्यावर भरभर खाली येइ. दोघांच्या गप्पा होत. मग त्या परत जात.  

एकदा नरेंद्र लहान असताना आजारी पडला, तेंव्हा तो बरा व्हावा म्हणून बोललेला देवीचा नवस आपल्याकडून पूर्ण करायचा राहिला हे अनेक वर्षानी लक्षात आले. तेंव्हा आता कालीमातेला जाऊन, विशेष पूजा करून मुलाला तुझ्यासमोर लोळण घ्यायला सांगेन असा तो, आता पूर्ण करायला हवा. आईची इच्छा पूर्ण करायची म्हणून विवेकानंद बरे नसतानाही गंगेत स्नान करून कालिघाटावर ओल्या वस्त्रानिशी मंदिरात गेले. पूजा केली, तीन वेळा  लोळण घेतली, गाभाऱ्याला सात प्रदक्षिणा घातल्या. विधिपूर्वक होम हवन केले. आईला खूप समाधान झाले आणि इतक्या वर्षानी नवस पूर्ण झाल्याचा आनंद पण.

साधारण २८ जून चा दिवस, शुद्धानंदाना विवेकानंद यांनी पंचांग घेऊन बोलावले आणि ते चालून तिथी पाहून ठेऊन घेतले. नंतर ची ४,५, दिवस रोज ते पंचांग चालायचे आणि स्वतशीच काही विचार करायचे ,बाकी सर्व रोजचे व्यवहार नेहमीप्रमाणे चालू होते. १ जुलैला विवेकानंद, मठाच्या बाहेर हिरवळीवर फेऱ्या मारत होते. त्यावेळी प्रेमानंदाना एका  जागेकडे बोट दाखवून म्हणाले, “माझ्या मृत्यूनंतर या ठिकाणी माझे दहन करा”. अंत्यसंस्काराचा एव्हढा स्पष्ट उल्लेख केलेला कोणाच्याच लक्षात आला नाही.

२ जुलै बुधवार – एकादशी, विवेकानंदांनी शास्त्रोक्त पद्धतीने उपवास केला होता. त्या दिवशी भगिनी निवेदिता बेलूर मठात स्वामीजींना भेटण्यास आल्या होत्या. त्यांच्यासाठी काही पदार्थ विवेकानंदांनी मागवले, हात धुण्यासाठी निवेदिता उठल्या तेंव्हा स्वामीजींनी त्यांच्या हातावर स्वत पाणी घातले, एक पणचं घेऊन हात पुसले. हे पाहून निवेदिता खजील झाल्या. त्या म्हणाल्या स्वामीजी हे मी तुमच्यासाठी करायचे तर तुम्हीच..? स्वामीजी म्हणाले,  का? जिझसने तर आपल्या शिष्यांच्या पायांवर पाणी घातले होते ना? . पण ती त्यांची अखेरची वेळ होती असे निवेदिता म्हणणार पण आवंढा गिळला. कदाचित ही शेवटची वेळ..?ही खरचच दोघांची अखेरची भेट ठरली .

४ जुलैचा दिवस उजाडला. शुक्रवार, नेहमीपेक्षा स्वामीजी लवकर उठले. ध्यानसाठी देवघरात गेले. दारे खिडक्या बंद केल्या. तीन तास एकटे खोलीत होते. त्यानंतर दार उघडून बाहेर येताना कालिमातेचे गीत गुणगुणत बाहेर आले.श्री रामकृष्ण यांच्या प्रतिमेसमोर बसून इतका वेळ ध्यान मग्न झालेले विवेकानंद स्वतच्याच नादात मुग्ध असे बाहेर येऊन फेऱ्या मारू लागले ,इतरत्र कुठेही लक्ष नव्हते. सकाळी पण अतिशय प्रसन्नपणे हसत खेळत सर्वांच्या बरोबर अल्पोपहार घेतला होता . आणि आज आपल्याला उत्साह वाटतोय असेही म्हणाले होते. दुपारच्या जेवणानंतर तीन तास संस्कृत व्याकरणाचा वर्ग त्यांनी घेतला. दुपारनंतर प्रेमानंदांच्या बरोबर बेलूर मध्ये तीन किलोमीटर लांब पर्यन्त फेरफटका मारून आले.आल्यावर संन्यासांशी गप्पा झाल्या.

आल्यावर खोलीत जाऊन आपली जपमाळ मागवून घेतली, तासभर जप झाला. मग अंथरुणावर आडवे झाले उकडते आहे म्हणून थोडा वारा घालण्यास शिष्याला सांगितले.थोडे तळपाय चोळले तर बरे वाटेल म्हणून तेही शिष्याने चोळले. डाव्या कुशीवर वळलेले, हातात जपमाळ तशीच, पाठोपाठ दोन वेळ दीर्घ श्वास घेतला. नंतर काही हालचाल नाही. न्यू वाजले होते, जेवणाची घंटा वाजली होती. जवळचा शिष्य घाबरत घाबरत खाली आला. प्रेमानंद आणि निश्चयानंद वर धावत आले. रामकृष्ण यांचे नाव घेतले तर ही दीर्घ समाधी उतरेल स्वामीजींची असे वाटले पण नाही, डॉक्टर महेंद्रनाथ मजुमदार यांना बोलावले गेले. मध्यरात्री पर्यन्त बरेच प्रयत्न केले. प्राणज्योत मालवली आहे हे डॉक्टरांचे शब्द ऐकून सारा बेलूर मठच दु:खाच्या छायेत गेला.

स्वामीजींचे वय यावेळी ३९ वर्ष, ५ महीने, आणि २४ दिवस इतके होते. सगळीकडे वाऱ्या सारखी बातमी गेली. भारतात, परदेशात तारा  गेल्या. बेलूर मठाकडे चारी दिशांनी दर्शनासाठी लोंढे येऊ लागले. भुवनेश्वरी देवी पण आल्या. त्यांचा अवखळ बिले अवखळपणेच साऱ्या जगात फिरून येऊन आता शांतपणे पहुडला होता. भले जगासाठी तो कीर्तीवंत असला, तरी या जन्मदात्रीचा तो पुत्र होता. पुत्रवियोगाने तिच्या हृदयाला किती घरे पडले असतील? शब्दच नाहीत.   

बिल्व वृक्षाची जागा प्रेमानंदाना विवेकानंद यांनी ४,५ दिवसांपूर्वीच दाखवली होती. तिथेच अंत्यसंस्कार करण्यात आले. भारताच्या या महान, असामान्य, अलौकिक सुपुत्राची ही जीवनयात्रा.

 – मालिका समाप्त –

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ खिचडी – भाग – २  ☆ प्रा. बी. एन. चौधरी ☆

प्रा. बी. एन. चौधरी

(प्रा. बी. एन. चौधरी (लेखक / कवी / गझलकार / समिक्षक / व्यंगचित्रकार / पत्रकार) यांचे ई – अभिव्यक्ती समूहातर्फे स्वागत आणि या पुरस्काराबद्दल हार्दिक अभिनंदन.)

? जीवनरंग ?

☆ खिचडी – भाग – २  ☆ प्रा. बी. एन. चौधरी

(साहित्य संस्कृती मंडळ, बऱ्हाणपूर, म. प्र. आयोजित अ.भा. कमलबेन गुजराती मराठी कथा लेखन स्पर्धेतील प्रथम पुरस्कार प्राप्त कथा)—-  

(तोच त्यांचं लक्ष आतल्या दाराकडे गेलं. तिथं सुभाष होता. तो आत काय करतोय हे पाहण्यासाठी त्यांनी  हळूच आत डोकावलं.) इथून पुढे —- 

सुभाषनं हातातली पिशवी जवळच्या लाकडी कपाटावर ठेवली. दोन खांबांना बांधलेल्या झोळी जवळ तो गेला. झोळीत लहान बाळ होतं. ते पडू नये म्हणून त्यास साडीच्या फडक्याने बांधलेलं होतं. त्याने फडक्याची गाठ सोडली. झोळीतून चार पाच वर्षाच्या लहान मुलीला बाहेर कढलं. ती रडून रडून थकली असावी. तिचे केस अस्ताव्यस्त होते. त्याने हातानेच तिचे केस व्यवस्थित केले. हातातलं फडकं जवळ पडलेल्या तांब्यातील पाण्यात बुडवून ते त्याने त्या लहान मुलीच्या चेह-यावर फिरवलं. आता तिला हुशारी आली होती. ती भावाकडे बघून खुदकन हसली. त्याला प्रेमानं बिलगली. त्यानंही तिला ” छकूली माझी ! ” म्हणत पोटाशी लावली. मग तो तिला म्हणाला…..

“छकुली बघ मी तुला काय आणलं, ओळख ? “

लहान छकुली आश्चर्याने त्याच्याकडे पहात म्हणाली…..

” दादा, ताय आणलं तू माझ्यासाठी ? “

” छकुली, अगं तू रात्री खिचडी मागत होती नं आई जवळ ? ….. रात्री आईला खिचडी देता आली नाही नं 

तुला ! ……. म्हणून तूला खिचडी आणली बघ शाळेतून ! ….. गलम गलम खिचडी आहे.”

असं म्हणत सुभाषनं कापडी पिशवीतून डबा काढला. डबा उघडला. त्यात खिचडी होती. त्याला शाळेत मिळालेली. त्याने तिथं स्वतः न खाल्लेली. डब्यातून त्याने खिचडीचा एक घास हातात घेतला. आणि तो त्याच्या बहिणीच्या तोंडात भरवू लागला. तिनेही आनंदाने तो घास तोंडात घेतला. तो भरवत होता. ती खात होती. आनंदत होती. खाता खाता तिनं तिचा हात डब्यात घातला. डब्यातून तिनं चिमूटभर खिचडी घेतली. तो घास तिनं तिच्या भावाच्या तोंडाजवळ नेला.

” दादा, तू पण घे ना ले खिची ….. तू पन जेवला नाही ना राती.” 

सुभाषनं बहिणीच्या हातातला घास मोठ्या  आपुलकीनं तोंडात घेतला. तिच्या डोक्यावरून मायेने हात फिरवला. आणि तोही तिच्याबरोबर खिचडी खाऊ लागला.

” एक घास चिऊला, एक घास काऊला, एक घास माझ्या छकुलीला ! ” असं म्हणत तो तिला भरवू लागला. डब्यातली गरम खिचडी ओठाजवळ नेत, त्यावर फुंकर मारत तो तिला निववत होता. छकुलीला भरवत होता. गरम घासाचा चटका तिला लागू नये याची काळजी घेत होता. छकुलीही त्याच्याकडून आपले लाड पुरवून घेत होती. तो जणू तिची आईच झाला होता. तीही त्याच्याकडे आर्द्र नजरेने पहात त्याला मायेने बिलगत होती. त्याला बिलगतांना तिचे खिचडीने उष्टे भरलेले हात, तोंड  त्याच्या कपड्यांना  लागत होते. मात्र, तो त्याकडे दुर्लक्ष करत होता. रात्री घरात खायला काहीच नसल्याने आईसह तो, त्याची बहिण उपाशीच झोपले होते. त्याला रात्रभर झोप लागली नव्हती. आपल्या पोटात ओरडणा-या कावळ्यांमुळे नव्हे, तर…. बहिणीच्या पोटात अन्नाचा कण गेला नाही म्हणून तो दु:खी होता. रात्रीच त्याच्या डोक्यात विचारांचे चक्र फिरत होते. सकाळी शाळेत खिचडी मिळेल. तीच आपण घरी आणून बहिणीला खावू घालू या विचारात त्याला रात्रभर झोपच आली नव्हती. याचसाठी सकाळ केव्हा होते याची वाट पहात त्याने भल्या पहाटे शाळा  गाठली होती. मधली सुटी झाल्यावर त्याला मिळालेली खिचडी घेवून त्याने घराकडे धूम ठोकून बहिणीला जेवू घातले होते. त्याच्या चेह-यावर समाधान पसरले होते. अचानक तो मोठा झाला होता. कर्ता झाला होता.

बहिणीला पोटभर खिचडी भरवून त्याने तिचे तोंड, हात, पाय कापडाने स्वच्छ पुसले. तिला पुन्हा झोळीत टाकून त्याने तिला कापड गुंडाळले. त्याची गाठ मारली. तिचा एक छानसा मुका घेत तो म्हणाला…..

” छकुली, झोप हं आता. मी  शाळेत जावून येतो. तोवर आई येईल हं कामावरुन. मग आपण पुन्हा जेवण करु.”

ती पुन्हा हसली निराससपणे. आताचं तिचं हसणं तृप्ततेचं होतं.

झोळीतूनच तिनं हात हलवत टाटा केलं. जणू ती आपल्या लाडक्या भावाला निरोप देत होती.

दाराआडून हे दृष्य पाहणा-या पाटील सरांच्या डोळ्यातून अश्रूंच्या धारा वाहत होत्या. शाळेत होणा-या किरकोळ चो-या करणारा चोर सापडल्याच्या त्यांच्या आनंदावर असं अनपेक्षित विरजण पडलं होतं. चोर म्हणून ज्यावर अविश्वास दाखविला, ज्याचा पाठलाग केला तोच सुभाष नात्यांच्या व कर्तव्याच्या कसोटीवर खरा उतरला होता. परिस्थिती माणसाला खोटं बोलायला, चोरी करायला लावते हे सरांना वाटणारं मत सुभाषनं खोटं ठरवलं होतं. उलट त्याच्या आताच्या वागण्यानं  त्याने आदर्शाचं सर्वोच्च शिखर गाठलं होतं.  दिसतं, वाटतं ते सारं खरंच नसतं या गोष्टीवर पाटील सरांचा आता विश्वास दृढ झाला होता. गरीबी, कठीण परीस्थितीतही काही माणसं आपलं इमान विसरत नाहीत. आपल्या कर्तव्याला भुलत नाहीत याचं विहंगम उदाहरण त्यांना सुभाषच्या रुपानं संजयनगरच्या झोपडपट्टीत बघायला मिळालं होतं. सुभाष घरातून बाहेर पडायच्या आत त्यांनी स्वतःला लपवत बाहेरची वाट धरली. आणि ते माणसांच्या गर्दीत मिसळून गेले. थोड्याच वेळात सुभाष दार बंद करून खोपटाच्या बाहेर पडला. त्याने दुडकी घेत शाळेची वाट धरली. मधल्या सुटीनंतरची शाळा सापडावी म्हणून. त्याच्या पाठमो-या देहाकडे पहात पाटील सर स्वतःशीच पुटपुटले ” दिसतं तसं नसतं, म्हणून जग फसतं ! ” आणि तेही शाळेची वाट चालू लागले. आता त्यांच्या वागण्यात ती लगबग नव्हती. ती ओढ नव्हती. होती ती एक बोच. एका प्रामाणिक मुलावर आपण उगाच अविश्वास दाखविल्याची. गरीबीची उगाच चेष्टा केल्याची. एका पराभूत मानसिकतेत ते शाळेत पोहचले. तत्पूर्वी सुभाष शाळेत पोहचला होता. त्याच्याच वर्गातून पू. साने गुरुजींची प्रार्थना ऐकू येत होती…….

खरा तो एकची धर्म,

जगाला प्रेम अर्पावे.

जगी जे दीन पददलित,

तया जाऊन उठवावे !

— समाप्त —

©  प्रा.बी.एन.चौधरी

संपर्क – देवरुप, नेताजी रोड, धरणगाव जि. जळगाव. ४२५१०५. (९४२३४९२५९३ /९८३४६१४००४)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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