मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ थंड हवेचं ठिकाण –  पुणं — … लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री माधव केळकर ☆

? मनमंजुषेतून ?

 ☆ थंड हवेचं ठिकाण –  पुणं — लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री माधव केळकर ☆

…. होय मंडळी. एकेकाळी पुणं चक्क थंड हवेचं ठिकाण म्हणून प्रसिद्ध होतं. मुंबईचे रहिवासी उन्हाळ्यात हवापालट म्हणून पुण्याला येत असत.  खोटं वाटत असेल तर विद्यापीठात चक्कर टाकून या. उगाच नाही ब्रिटिश गव्हर्नरनं एवढा आलिशान राजवाडा बांधला स्वतःसाठी… उन्हाळ्यात मुंबई इलाख्याचा गव्हर्नर मुक्कामाला पुण्यात असायचा. 

पूर्वीचं सोडा. अगदी आपल्या लहानपणीही वाडे होते. त्यातली थंडगार शहाबादी फरशी…. भर उन्हातून सायकल मारत आलं, की बाहेरच्या नळावर हात-पाय वगैरे धुवून सरळ त्या गारेगार शहाबादी फरशीवर आडवं पसरायचं….. माठातलं वाळामिश्रित थंडगार पाणी…. क्वचित पन्हं…. घराबाहेर असलो, तर कुठेतरी रसवंती गृहात बसून मस्त बर्फ टाकलेला उसाचा रस .. नाहीतर रस्त्याच्या कडेला असलेल्या खोकड्यांमध्ये विक्रीला असलेली “निरा” प्यायची. कुठे हातगाडीवर ताडगोळेही विक्रीला असत. एरवी बेचव, गिळगिळीत वाटणारे ते ताडगोळे उन्हाळ्यात मात्र अमृतासमान वाटायचे….. उरलेल्या निरेपासून “हातभट्टीची” बनवतात अशी एक कथाही प्रचलित होती…. खरं खोटं परमेश्वरालाच माहीत….

पूर्वी पुण्यात रस्त्यावर चिंच, वड, पिंपळ असे डेरेदार वृक्ष होते. “रस्तारुंदी” या गोंडस नावाखाली झाडांची बेसुमार कत्तल केली गेली.  ( आणि पुन्हा वाहतुकीचा बोजवारा उडतोच आहे). 

पूर्वी उन्हाळ्यात पुण्यात पाहुण्यांचं स्वागत कैरीचे पन्हं देऊन व्हायचं.  त्यात मस्त वेलची, मिरपूड घालून चटपटीत चव आणलेली असायची. संध्याकाळी सारसबाग, कमला नेहरू पार्क वगैरे ठिकाणी जाऊन भेळ खायची. हापूस आंबा सर्वसामान्यांच्या आवाक्यात होता. लाकडी पॉटमध्ये हँडल फिरवून फिरवून मॅंगो आईस्क्रीम बनवण्याची मजाच काही वेगळी होती.  ( मला वाटतं ही आइस्क्रीम पॉटस् भाड्याने मिळण्याची सोयही काही  ठिकाणी होती ). सारसबागेबाहेर काडी असलेलं “जम्बो आइस्क्रीम”  मिळायचं. शिवाय माझ्या लहानपणी खाऊ म्हणजे “लॉलीपॉप”.-  काठीला लावलेली गोल गोड चकती चाटत बसणं ही एक 

” मेडिटेशन ” होती…..

तेव्हा पुणं सगळ्याच अर्थांनी शांत होतं. सुंदर होतं. रमणीय होतं. कुठच्याही टेकडीवरून खाली पाहिलं की हिरव्यागार झाडीत लपलेलं पुणं दिसायचं. थंडीत तर पुण्यात चक्क धुकं पडायचं. पण पुण्यातला उन्हाळाही सुंदर होता. शहाबादी फरशीवर आडवं लवंडून रेडिओवर “वल्हव रे नाखवा हो वल्हव रे रामा….” “माळ्याच्या मळ्यामंदी कोण गं उभी….” किंवा “ये रे घना ये रे घना…..” 

यासारखी अवीट गोडीची गाणी ऐकत निद्राधीन व्हायचं…. तेव्हा वाड्यांमधल्या काहीशा अंधारलेल्या स्वयंपाक घरांमधून येणारे वरण, मुगाची खिचडी, कांदेपोहे वगैरे वासही अप्रतिम वाटायचे. 

चहाबाज मस्त ब्रूक बॉण्ड, फॅमिली मिक्स्चर, आसाम वगैरे चहा प्यायचे. जवळच्या साने, सावरकर, खन्ना या डेअरीचं म्हशीचं दाट दूध असायचं. त्याच्या विरजणापासून घरीच भरपूर लोणी तूप बनायचं… 

कॉलेजात गेल्यावर अगदीच “मागासलेले” वाटायला नको म्हणून क्वचित कॅम्पमध्ये “मार्झोरिन” मधे जाऊन सॅन्डविच खा, चॉकलेट कुकीज खा, सहजच “कयानी” मधून “श्रूसबेरी” बिस्किटं घेऊन या,  अशा लीला चालायच्या. पण खरी मजा म्हणजे “संतोष” किंवा “हिंदुस्तान” चे पॅटीस…. रविवारी सकाळी नाश्त्याला चहाबरोबर हे पॅटीस खायचे…. रात्री भूक लागली तर “पॅराडाईज”,. “लकी”, किंवा “नाझ” या ठिकाणी क्रीम रोल खायचे….. मंडळी, हे काही नुसतं खाण्याचं वर्णन नाही…. पुणेकर या थोड्या थोड्या गोष्टींवर समाधानी होते… 

लिहिण्याचा उद्देश एवढाच की आता सुबत्ता आली, गाड्या – परदेशप्रवास, हॉटेलिंग… सगळं काही आहे…. 

पण ते साधं पुणं वेगळंच होतं….

ते ज्यानं अनुभवलं, त्यालाच पुणं खरं “कळलं” ….

बाकीचे नुसतेच “पुण्यात राहिले….”

 

लेखक –  अज्ञात 

प्रस्तुती : श्री माधव केळकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ चांगदेव पासष्ठी – भाग-7… ☆भावानुवाद- सुश्री शोभना आगाशे ☆

सुश्री शोभना आगाशे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ चांगदेव पासष्ठी – भाग-7…  ☆भावानुवाद-  सुश्री शोभना आगाशे ☆

जैसा आपुल्याच बुबुळा

न पाही आपुला डोळा॥३१॥

 

ज्ञानरूप परमात्मा तैसा

आत्मज्ञाने जाणसी कैसा॥३२॥

 

मौनचि जेथे बोलणे

नसणेचि जेथे असणे

अज्ञानबाधा नसता जेणे

ज्ञानरूप परमेश लाभणे॥३३॥

 

जैसे लाटात जळाचे आस्तित्व

ज्ञाता ज्ञेय ज्ञानात असे एकत्व

ज्ञाता ज्ञेयाची सोयरीक होता

ज्ञान येई आपसूक हाता॥३४॥

 

आत्मज्ञान का दृग्गोचर होई

एकलेपणाने सर्वत्र राही॥३५॥

 

© सुश्री शोभना आगाशे

सांगली 

दूरभाष क्र. ९८५०२२८६५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ खूप नको …. इतके बास…अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆

सुश्री प्रभा हर्षे

📖 वाचताना वेचलेले 📖

खूप नको …. इतके बास…अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे

हातामध्ये पुस्तक आहे,

डोळ्यावरती चष्मा आहे,

जवळ भरपूर वेळ आहे,

इतके मला बास आहे !

 

सोबतीला माझ्या मोबाईल आहे,

बोलायला मला मित्र आहेत,

मित्रही माझे खास आहेत,

इतके मला बास आहे !

 

पायामध्ये त्राण आहेत,

छातीमध्ये श्वास आहे,

देहामध्ये प्राण आहे …

हे काय कमी आहे?

इतके मला बास आहे !

 

डोक्यावरती छत आहे,

कष्टाचे दोन पैसे आहेत,

पोटाला दोन घास आहेत,

मला इतके बास आहे !

 

बागेत माझ्या फूल आहे,

फुलाला छान वास आहे,

त्यात ईश्वराचा वास आहे,

आणि ईश्वराचा मला ध्यास आहे,

इतके मला बास आहे !

 

हे ही हवे, ते ही हवे,

असे मी करत नाही,

कशाचाही हव्यास,

मी फार धरत नाही,

जितके मिळाले आहे मला,

तितके मला बास आहे !!!

 

लेखक : अज्ञात

संग्राहिका –  सुश्री प्रभा हर्षे 

पुणे, भ्रमणध्वनी:-  9860006595

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #192 ☆ कथा-कहानी – बाकी सफर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर कहानी  बाकी सफर। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 192 ☆

☆ कथा-कहानी ☆  बाकी सफर

रोज़ सुबह उठ कर उमाशंकर देखते हैं, सामने पटेल की चाय की भठ्ठी चालू हो गयी है। दूकान में काम करने वाले लड़के ऊँघते ऊँघते भट्ठी के आसपास मंडराते दिखते हैं और पटेल चिल्ला चिल्ला कर उनकी नींद भगाता नज़र आता है। तड़के से ही दो चार ग्राहक चाय की तलब में दूकान के सामने पड़ी बेंचों पर डट जाते हैं।

सड़क के इस पार उमाशंकर का मकान है और उस पार पटेल की दूकान है। उमाशंकर ऊपर रहते हैं इसलिए बालकनी से दूकान का दृश्य स्पष्ट दिखता है। उमाशंकर की पत्नी दिवंगत हुईं, बहू नौकरी पर जाती है, इसलिए कभी कोई मिलने वाला आ जाए तो बालकनी में खड़े होकर पटेल को आवाज़ देकर उँगलियाँ दिखा देते हैं और थोड़ी देर में दूकान से कोई लड़का उँगलियों के हिसाब से चाय लेकर आ जाता है।

करीब चालीस साल की सरकारी नौकरी के बाद उमाशंकर रिटायरमेंट को प्राप्त हो फुरसत की ज़िन्दगी बिता रहे हैं। मँझला बेटा रेवाशंकर साथ रहता है। दो बेटे शहर से बाहर हैं।

उमाशंकर भावुक और भले आदमी हैं। देश में गरीब असहाय बच्चों की दुर्दशा देखकर उन्हें बहुत तकलीफ होती है। समाचार-पत्रों में पत्र लिखकर वे अपनी भावनाएँ व्यक्त करते रहते हैं।
सड़क के किनारे कचरे के ढेरों पर झुके, नंगे पाँव, बीमारियों और विपत्तियों को आमंत्रित करते बच्चों को देखकर वे बहुत व्यथित होते हैं। सारे निज़ाम पर वह खूब दाँत पीसते हैं।

एक बार एक दस बारह साल का लड़का उन्हें भर दोपहर, चलती सड़क के किनारे, कचरे का थैला सिर के नीचे रखे, शायद थकान के मारे सोता हुआ दिखा। उस वक्त उन्हें लगा धरती फट जाए और उन जैसे सफेदपोशों का पूरा कुनबा उसमें समा जाए। खयाल आया कि कहाँ है वह संविधान का निर्देश जो चौदह साल तक की उम्र के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की ताकीद करता है?

कोई बच्चों की भलाई या मदद के लिए काम करता है तो जानकर उमाशंकर का मन उस व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता से भर जाता है। सवेरे पूजा के लिए बैठते हैं तो भगवान की मूर्ति से अक्सर कहते हैं— ‘तुमने मेरे मन में लौ तो जगायी, लेकिन मद्धी मद्धी। जुनून दिया होता तो मैं भी कुछ कर गुज़रता। जिससे भी कराना हो, कराओ। काम होना चाहिए।’

तीन-चार दिन से उन्हें पटेल की दुकान में एक नया लड़का दिखता है। इस धंधे में वह रँगरूट ही लगता है। सवेरे उठता है तो बड़ी देर तक उकड़ूँ बैठा दूसरों को काम करते देखता रहता है। लगता है सेठ भी उसके ज़्यादा पीछे नहीं पड़ता। माथे पर बाल बिखेरे वह बड़ी देर तक उनींदा बैठा रहता है। काम भी धीरे-धीरे करता दिखता है। पटेल लड़कों का मनोविज्ञान जानता है। उन्हें दूकान के वातावरण में रसने-बसने के लिए चार छः दिन का टाइम देता है।

दो दिन बाद उमाशंकर ने ऊपर से चाय के लिए इशारा किया तो संयोग से वही नया लड़का लेकर आया। धीरे-धीरे लटपट चलता सीढ़ियाँ चढ़कर वह ऊपर पहुँच गया। उमाशंकर ने देखा, लड़के की उम्र दस बारह साल के करीब होगी। चेहरा सलोना और भोला था। अभी शहर की व्यवहारिकता की झाँईं उस पर नहीं उतरी थी। घुँघराले से बालों के बीच उसका चेहरा मोहित करता था। हाथ-पाँव पर भी अभी भट्ठी की तपिश से पैदा हुई सख़्ती और कालिख नहीं दिखती थी।

उमाशंकर ने उसे चार बिस्कुट दिये, कहा, ‘ले, खा लेना।’ उसने ले लिये, फिर पूछने पर अपना नाम बताया, ‘नन्दू’। बिस्कुट जेब में रखकर वह सीढ़ी उतरने लगा। उमाशंकर ने उसकी लटपट चाल देखकर पीछे से आवाज़ दी— ‘सँभलकर उतरना। लुढ़क मत जाना।’ प्यार की आँच लड़के तक पहुँची। वह पीछे देख कर हँसा, फिर धीरे-धीरे उतर गया।

फिर अक्सर नन्दू चाय लेकर आने लगा। लगता था जैसे वह जानबूझकर अपनी ड्यूटी वहाँ चाय लाने के लिए लगवाता हो।

दूसरी बार आया तो उमाशंकर ने उसे थोड़ी देर बैठा लिया, पूछा, ‘कहाँ के हो?’

नन्दू बोला, ‘सिंहपुर के। इलाहाबाद के पास है।’

उमाशंकर ने पूछा, ‘यहाँ कैसे पहुँच गया?’

नन्दू आँखें झुका कर बोला, ‘पापा अम्माँ को बहुत मारता था। मुझे और मेरी छोटी बहन गुड़िया को भी मारता था। जब वह दारू पी कर आता था तब हम लोगों को बहुत डर लगता था। उस दिन उसने अम्माँ को मारा तो मुझे बहुत गुस्सा आ गया। मैंने उसे हाथ में जोर से काट लिया। फिर डर के मारे जो भागा तो सीधा स्टेसन पहुँचा। वहाँ जो गाड़ी खड़ी थी उसी में छिप कर बैठ गया। यहाँ उतर गया।’

उमाशंकर ने पूछा, ‘इस तरह यहाँ कब तक रहेगा? घर वापस नहीं जाएगा?’

नन्दू बोला, ‘अभी तो सोच कर बहुत डर लगता है। पापा बहुत मारेगा। बाद में सोचेंगे।’

उमाशंकर ने पूछा, ‘घर की याद नहीं आती?’

नन्दू का मुँह लटक गया, आँखों में पानी की रेख खिंच गयी, बोला, ‘अम्माँ और गुड़िया की बहुत याद आती है।’

फिर उसने गिलास उठाये, बोला, ‘देर हो गयी तो सेठ ऊटपटाँग बोलेगा। फिर आऊँगा।’

फिर जब उसकी मर्जी होती आ जाता। हफ्ते में एक दिन की उसे छुट्टी मिलती थी, उस दिन आकर उमाशंकर के साथ खूब बतयाता था। एक दिन उमाशंकर ने पूछा, ‘पढ़ा लिखा नहीं?’

नन्दू बोला, ‘तीसरी तक पढ़ा था, फिर मन नहीं लगा। मास्टर जी साँटी से बहुत मारते थे। थोड़ा सा हल्ला किया नहीं कि सटासट पड़ती थी।’

फिर उसे कुछ याद आ गया। हँसते हुए बोला, ‘एक बार हमारी क्लास के पवन को जोर से साँटी मारी तो वह ऐसे पड़ गया जैसे बेहोस हो गया हो। बड़ा नाटकबाज था। मुँह से फसूकर छोड़ दिया। मास्टर जी की हालत तो डर के मारे खराब हो गयी। जल्दी-जल्दी उसके मुँह पर पानी छोड़ा तब उसने आँखेंं खोलीं। फिर हलवाई की दुकान से एक पाव जलेबी मँगा कर उसे खिलायी। बाद में पवन खूब हँसा।’

उमाशंकर को भी खूब मज़ा आया। नन्दू अब मौका मिलते ही उनके पास बैठक जमा लेता था। उसकी छठी इन्द्रिय ने जान लिया था कि अटक-बूझ में यह भला आदमी उसे अपनी छाया दे सकता है।

लेकिन नन्दू की यह बार-बार की उपस्थिति उमाशंकर के परिचितों के कान खड़े कर रही थी। जब वह आता-जाता तो आसपास के लोग उसे घूर कर देखते। यह चायवाला आवारा लड़का उमाशंकर से क्यों चिपका रहता है?

एक दिन रेवाशंकर ने उनसे कह ही दिया, ‘पापाजी, यह चायवाला लड़का क्यों हमेशा आपके पास घुसा रहता है?’

उमाशंकर हँसकर बोले, ‘कौन? नन्दू? वह बहुत अच्छा लड़का है। मुझे उसकी बातें सुनकर बड़ा आनन्द आता है।’

रेवाशंकर बोला, ‘लेकिन ऐसे लड़कों को मुँह लगाना ठीक नहीं। ये अच्छे लड़के नहीं होते।’

उमाशंकर ने जवाब दिया, ‘अच्छा बुरा कोई जन्म से नहीं होता। परिस्थितियाँ उसे अच्छा बुरा बनाती हैं। मुझे तो यह अपराध-बोध रहता है कि हमारे देश की भावी पीढ़ी इस तरह नष्ट हो रही है और हम पढ़े लिखे लोग आँख मूँद कर अपने स्वार्थ-साधन में लगे हैं। कभी न कभी हमें इन कर्मों का फल भोगना पड़ेगा। तब यही लड़के पत्थर मार मार कर हमारा जीना हराम कर देंगे। लेकिन शायद तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।’ 

रेवाशंकर बोला, ‘प्रारब्ध की बात है। सब अपना प्रारब्ध भोगते हैं।’

उमाशंकर उत्तेजित होकर बोले, ‘यह पलायनवाद है। जिनका भाग्य जन्म से पहले ही निश्चित हो जाता हो उनका प्रारब्ध क्या होगा? जिस घर में गरीबी है, पढ़ाई-लिखाई का वातावरण नहीं है, कलह है, वहाँ बच्चे का प्रारब्ध तो पूर्वज्ञात है। कोई विरला अपवाद निकल सकता है।’

रेवाशंकर अप्रसन्न होकर बोला, ‘मैं आप से बहस करने लायक नहीं हूं, लेकिन इतना ही कह सकता हूँ कि ऐसे लड़कों की संगत आपको शोभा नहीं देती।’

उमाशंकर हँसकर बोले, ‘भैया, मैंने तुम सभी भाइयों को पढ़ा लिखा कर अपने पैरों पर खड़े होने लायक बना दिया। अब मेरा कार्यक्रम सिर्फ खाने, पीने और सोने का है या इधर-उधर गपबाज़ी करने का, जो एक तरह से निरर्थक है। मैं सोचता हूँ ऐसा कुछ करूँ जिससे जीवन में कुछ दूर तक ऐसा लगे कि मेरा जीवन उपयोगी है। मैं अपनी पेंशन से एक दो लड़कों की ज़िन्दगी सुधारने की कोशिश कर सकता हूँ। परिणाम ऊपर वाले के हाथ में है।’

रेवाशंकर कुछ नाराज़ी के स्वर में  ‘जैसा आप ठीक समझें। मैं क्या कह सकता हूँ?’ कहकर चला गया।’

नन्दू आसपास वालों का रुख भाँप कर उमाशंकर के पास आने में झिझकने लगा था। एक दिन उमाशंकर से बोला, ‘बाबूजी, यहाँ के लोगों को मेरा आपके पास आना अच्छा नहीं लगता। गुस्से से मेरी तरफ देखते हैं। मैं आपके पास नहीं आया करूँगा।’ फिर करुण चेहरा बनाकर बोला, ‘आपके पास आकर बहुत अच्छा लगता है, इसलिए आता हूँ।’

उमाशंकर उसकी पीठ पर हाथ रख कर बोले, ‘तुम इन बातों की फिक्र मत करो। जो जैसे देखता है, देखने दो। यह महीना सेठ के यहाँ पूरा करो, फिर तुम्हें स्कूल में भर्ती कराना है। घर में डंडा लेकर मैं तुम्हें पढ़ाऊँगा। तुम्हें आदमी बनाना है।’

सुनकर नन्दू हँसते-हँसते लोटपोट हो गया। बोला, ‘तो क्या मैं अभी जानवर हूँ? मेरे पूँछ कहाँ है?’

उमाशंकर भी हँसे,बोले, ‘हाँ, तू बिना पूँछ का जानवर है। तुझे पूरा इंसान बनाऊँगा। पढ़ाई से आदमी पूरा इंसान बनता है।’

उस दिन नन्दू सोया तो बड़ी मीठी नींद आयी। सपने में दिखी उसकी तरफ बाँहें फैलाती अम्माँ और हाथ बढ़ा कर पुकारती उसकी नन्हीं बहन गुड़िया, लेकिन आज उन्हें देखकर उसका मन भारी नहीं हुआ।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 139 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media# 139 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 139) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 139 ?

☆☆☆☆☆

☆ Language of Silence 

☆☆☆

खामोशियों की भी एक

अपनी ज़ुबान होती है

मगर बातें भी सबसे ज्यादा

दो चुप लोगों में होती हैं।

☆ ☆

 Even the silence has its

own expressive language

Most intent talks happen

between two silent people.

☆☆☆☆☆

बिखर गये सब ख्वाब मेरे

बन  के  चुनिंदा अलफ़ाज़…

एहसास तेरा वो हकीक़त बन

मन में यूंही सिमट कर रह गया…

☆ ☆

By turning into few words,

all my dreams got scattered…

Yet your feelings remained

confined in mind, as a reality

 ☆☆☆☆☆

तुमसे  जुड़े  हुए  एहसास

मेरे लिए बहुत खास होते हैं,

क्योंकि उन अहसासो में

हम बिल्कुल तेरे पास होते हैं…

☆ ☆

Feelings linked with you

are very special to me,

Because in those feelings

I’m totally with you only…

☆☆☆☆☆

मैं  तेरे  बाद  कोई

तेरे  जैसा  ढूँढता हूँ,

जो बेवफ़ाई तो  करे

मगर  बेवफ़ा न लगे…

☆ ☆

After you, I look for

someone like you only

Who is unfaithful but

doesn’t look disloyal

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 190 ☆ जानना और मानना ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 190  जानना और मानना ?

मनुष्य अन्वेषी प्रवृत्ति का है। इसी प्रवृत्ति के चलते कोलंबस ने अमेरिका ढूँढ़ा, वास्को-डी-गामा भारत तक आया। शून्य का आविष्कार हुआ। मनुष्य ने दैनिक उपयोग के अनेक छोटे-बड़े उपकरण बनाए। खेती के औज़ार बनाए, कुआँ खोदने के लिए, कुदाल, फावड़ा बनाए। स्वयं को पंख नहीं लगा सका तो उड़ने के अनुभव के लिए हवाई जहाज और अन्यान्य साधन बनाए। समय के साथ वर्णमाला विकसित हुई, संवाद के लिए पत्र का चलन हुआ। शनै:- शनै: यह तार, टेलीफोन, मोबाइल, ई-मेल तक पहुँचा। कोरोनावायरस में ऑनलाइन मीटिंग एप बने। आँखों दिखते भौतिक को जानना चाहता है मनुष्य और जानने के बाद मानने लगता है मनुष्य।

विसंगति देखिए कि विचार या दर्शन के स्तर पर, बहुत सारी बातें जानता है मनुष्य पर मानता नहीं मनुष्य। कुछ-कुछ हैं जो मानने लगते हैं पर इस प्रक्रिया में लगभग सारा जीवन ही बीत जाता है। अधिकांश तो वे हैं जिनकी देह की अवधि समाप्त हो जाती है पर भीतर की जड़ता सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होती। झूठ बोलने वाला जीवन भर अपने असत्य को स्वीकार नहीं करता। आलसी अपने आलस को अलग-अलग कारणों का जामा पहनाता है लेकिन खुद को आलसी ठहराता नहीं। अहंकारी अपनी सारी साँसें अहंकार को समर्पित कर देता है पर जताता यों है, मानो उस जैसा विनम्र धरती पर दूसरा ना हो। अटल मृत्यु का सच प्रत्येक को पता है। हरेक जानता है कि एक दिन मरना होगा लेकिन इस शाश्वत सत्य को जानते हुए भी व्यक्ति इतने पाखंडों में जीता है, जैसे कभी मरेगा ही नहीं…और जब मरता है तो जीवन का हासिल शून्य होता है। अर्थात मरा भी तो ऐसे जैसे कभी जिया ही न हो। सच तो यह है कि जानने से मानने तक का प्रवास मनुष्य को मनुष्यता प्रदान करता है। मनुष्यता ही आगे संतत्व का द्वार खोलती है।

गुजरात के भूकंप के समय की घटना किसी परिचित ने सुनाई थी। सेवानिवृत्त एक उच्च पदाधिकारी अपनी हाईक्लास हाऊसिंग सोसायटी के पीछे स्थित झोपड़पट्टी से बहुत ख़फ़ा थे। उच्चवर्गीय क्षेत्र में यह झोपड़पट्टी उन जैसे संभ्रांतों के लिए धब्बा थी। नगरनिगम को बीच-बीच में इसके अनधिकृत होने और हटाने के लिए पत्र लिखते रहते थे। भूकम्प में उनका भी घर ध्वस्त हुआ। बेहोश होकर वे एक झोपड़ी पर जाकर गिरे। सरकारी सहायता पहुँचने तक झोपड़ी में रहनेवाले परिवार ने चावल का माँड़ पिलाकर उन्हें जीवित रखा। बाद में अस्पताल में उनका इलाज हुआ।

मनुष्य कुल के अद्वैत को जानते तो वे भी होंगे पर मानने के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। दैनिक जीवन में यह और इस जैसे अनेक उदाहरण हमारे सामने आते हैं।

हमारे पूर्वज विषय के विभिन्न आयामों को समझने के लिए शास्त्रार्थ करते थे। सामनेवाले विद्वान से शास्त्रार्थ में यदि पराजित हो जाते तो उसके तत्व को सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लेते थे। यह जानने से मानने की ही यात्रा थी।

बहुत कुछ है, जो हम जानते हैं, बस जिस दिन मानना आरंभ कर देंगे, जीवन की दिशा बदल जाएगी। जानना सामान्य बात है, मानना असामान्य। स्मरण रहे, मनुष्य जीवन सामान्य के लिए नहीं अपितु असामान्य होने के लिए मिला है। निर्णय हरेक को स्वयं करना है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

💥 अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक 💥

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ कविता ☆ मातृ दिवस विशेष – “माँ और बच्चा” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

 

☆ मातृ दिवस विशेष – “माँ और बच्चा” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

(“कि मैं जिन्दा हूँ अभी :- मेरी माँ और सरस्वती माँ, दोनों माँओं ने मुझसे कहा – “बेटे, जब तूने कलम छू ही लिया है, तो सदा सच ही लिखना। खुद के खिलाफ हो तो भी और मेरे खिलाफ हो तो भी। ” मदर्स-डे  के अवसर पर माँ के खिलाफ नहीं, कलम के पक्ष में। माओं को एक प्रणाम — )

टीवी देखती / किटी पार्टी में/ माँ

तीन माह के रोते बच्चे के मुँह में/

बजाय स्तन के/

थमा देती है

स्तन जैसी

रबर की एक निप्पल।

बच्चा मन ही मन बोलता है-

” मम्मी,

अब हम बच्चे नहीं रहे,

पैदा हो गए हैं।

हम सब जानते हैं,

रबर की चिपचिपाट

और स्तन की गर्माहट को

अच्छी तरह पहचानते हैं। “

दूसरे ही पल उसे

पिछले  जनम में सुने हुए

मुनव्वर राणा के कुछ शेर याद आए

 और बजाय ‘वाह ‘ के उसके मुँह से

ये कच्चे-पक्के शेर निकल आए।

“माँ कितनी भी मैली हो

माँ से कोई

उज्जवल हो नहीं सकता,

माँ ने दिया है

तो स्तन ही होगा

निप्पल हो नहीं सकता।” 

पर मुशायरों की ‘वाह – वाह’ और तालियाँ

कुछ ही देर की होती है।

वह स्तन नहीं, निप्पल है

इस  हकीकत को आखिर

बच्चा भी जान गया।

मगर बकोल-ए- ग़ालिब,

दिल के बहलाने को….,

बच्चा, निप्पल में

स्तन का ख्याल करते

उसे चूसते हुए

चुपचाप सो जाता है

इस रात वह

माँ से बड़ा हो जाता है।

          **

(मित्रो, रचना और रचनाकार का संबंध माँ और बच्चे सा होता है। बिना नाम के शेयर करने का पाप न करें।)

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 39 ⇒ कृत्रिम बुद्धिमत्ता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कृत्रिम बुद्धिमत्ता।)  

? अभी अभी # 39 ⇒ कृत्रिम बुद्धिमत्ता? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हमने साधारण और असाधारण बुद्धि के लोग तो देखे थे, सामान्य और विशिष्ट की भी हमें पहचान थी, लेकिन असली और नकली की पहचान कहां इतनी आसान थी। जिसे आज आर्टिफिशियल कहा जाता है, हम कभी उसे बनावटी और कृत्रिम ही तो कहा करते थे। प्राकृतिक और सामान्य जीवन में तब कहां कृत्रिमता का स्थान होता था। गुरुदत्त ने कागज़ के फूल में यह भोगा है। असली फूल और शुद्ध जल का आज भी इंसाफ के मंदिर में कोई विकल्प नहीं है।

बनावटी हंसी, इमिटेशन के नाम पर आर्टिफिशियल ज्वेलरी, बनावटी चेहरे और बनावटी मुस्कान वैसे भी हमें एक कृत्रिम जीवन जीने को मजबूर कर रही है। ।

हमारी पीढ़ी किताबों से पढ़ी, पाठ्य पुस्तकों से पढ़ी, कुंजी, गैस पेपर, गाइड और नकल से नहीं। मेरे एक मित्र ने कॉलेज में अंग्रेजी विषय तो ले लिया, लेकिन अंग्रेजी में उसका हाथ तंग था। अच्छे खासे पहलवान थे, एक दिन हमें घेर लिया, आप कब फ्री हो, अंग्रेजी की इस किताब की गाइड नहीं छपी है, किसी दिन बैठकर इसे शुद्ध हिंदी में समझा दें। वे सबको शुद्ध हिंदी में ही समझाते थे, हमने भी उन्हें शुद्ध हिंदी में समझा दिया, वे परीक्षा की वैतरिणी अन्य कृत्रिम संसाधनों की सहायता से आखिर पार कर ही गए। वे आगे जाकर वकील बने और हम बैंक के बाबू ! इसे कहते हैं आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का कमाल।

हम कितने ओरिजनल थे कभी, औलाद नहीं हुई, नीम हकीम, मंदिर, मन्नत, ताबीज, गंडे, टोटके और व्रत उपवास क्या नहीं किए और अगर ईश्वर को मंजूर नहीं था, तो किसी बच्चे को गोद ले लिया, उसे अपने बच्चे जैसा प्यार दिया, लेकिन कभी कृत्रिम गर्भाधान और टेस्ट ट्यूब बेबी की ओर रुख नहीं किया। पहले यशोदा भी मां होती थी, आजकल सरोगेट मदर भी होने लग गई। ।

पहले बच्चे ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरुकुल जाते थे, गुरु सेवा करते थे, उनकी सेवा ही गुरु दक्षिणा होती थी, गुरु का गुण देखिए, गुरु गुड़ और सत्शिष्य शक्कर निकल आता था। कितने खुश होते हैं हमारे जीवन को संवारने वाले पुराने शिक्षक, जिनके ज्ञान के झरने में स्नान कर आज की पीढ़ी विश्व में उनका नाम रोशन कर रही है।

अंग्रेजी एक ऐसी भाषा है जो आपको आसानी से प्रभावित कर देती है। आर्टिफिशियल शब्द डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप और शाइनिंग इंडिया की तरह इतना प्रचलित हो गया है, कि इसके आगे सामान्य, नैसर्गिक, और असली शब्द बौने नजर आने लगे हैं। चार्ल्स शोभराज और नटवरलाल से लगाकर किंगफिशर तक, शुरू से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का ही तो राज रहा है। जब घी सीधी उंगली से नहीं निकलता, तो उंगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है। साइबर क्राइम का जमाना है, आर्डिनरी इंटेलिजेंस इनका कोई इलाज नहीं। ।

हमारे टीवी, मोबाइल, लैपटॉप और गूगल सर्च सब आर्टिफिकल इंटेलिजेंस ही तो है। संसार को आगे बढ़ना है, तो रोबोट को चौराहे पर खड़ा होना ही है। अ, आ, इ, ई और abcde सब आजकल a और i पर आकर रुक गए हैं। आज की दुनिया आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की दुनिया है, इसे कृत्रिम बुद्धिमत्ता कहकर जलील ना करें। कभी a कहीं का असिस्टेंट होता था, वह भी आजकल आर्टिफिशियल हो गया है। ।

बहुत ही जल्द विश्व का कोई विश्वविद्यालय जब मास्टर ऑफ एंटायर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की डिग्री प्रदान करेगा, तब विपक्ष के कलेजे में ठंडक पहुंचेगी। अगर हिम्मत है तो जाओ और चैलेंज करो एंटायर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की डिग्री को, यू आर्टिफिशियल देशभक्त और असली देशद्रोही विपक्ष। ।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 138 ☆ गीत: कोई अपना यहाँ… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  गीत: कोई अपना यहाँ)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 138 ☆ 

गीत: कोई अपना यहाँ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

मन विहग उड़ रहा,

खोजता फिर रहा.

काश! पाये कभी-

कोई अपना यहाँ??

*

साँस राधा हुई, आस मीरां हुई,

श्याम चाहा मगर, किसने पाया कहाँ?

चैन के पल चुके, नैन थककर झुके-

भोगता दिल रहा

सिर्फ तपना यहाँ…

*

जब उजाला मिला, साथ परछाईं थी.

जब अँधेरा घिरा, सँग तनहाई थी.

जो थे अपने जलाया, भुलाया तुरत-

बच न पाया कभी

कोई सपना यहाँ…

*

जिंदगी का सफर, ख़त्म-आरंभ हो.

दैव! करना दया, शेष ना दंभ हो.

बिंदु आगे बढ़े, सिंधु में जा मिले-

कैद कर ना सके,

कोई नपना यहाँ…

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२-५-२०१२, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्य की दुनिया ☆ प्रस्तुति – श्री कमलेश भारतीय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्य की दुनिया – श्री कमलेश भारतीय  🌹

(साहित्य की अपनी दुनिया है जिसका अपना ही जादू है। देश भर में अब कितने ही लिटरेरी फेस्टिवल / पुस्तक मेले / साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाने लगे हैं । यह बहुत ही स्वागत् योग्य है । हर सप्ताह आपको इन गतिविधियों की जानकारी देने की कोशिश ही है – साहित्य की दुनिया)

☆ मंटो और मोहन महर्षि की याद

यह सप्ताह प्रसिद्ध लेखक, फिल्म पटकथाकार और पत्रकार सआदत हसन मंटो और प्रसिद्ध रंगकर्मी मोहन महर्षि की याद में बीता। जहां मंटो का जन्मदिन था , वहीं मोहन महर्षि हमसे विदा हो गये। मंटो का जन्म समराला(पंजाब) के निकट हुआ और फिर उन्होंने मुम्बई में छह वर्ष बिताये और पाकिस्तान बनने पर भारत छोड़कर चले गये। अपने खुलेपन से लिखने के कारण अनेक मुकद्दमे और परेशानियां भी झेलीं लेकिन वे कहते थे कि क्या करूं, यह समाज ही अश्लील है और मेरी कहानियां इसी समाज से आती हैं। वैसे देश विभाजन का दर्द वे सह नहीं पाये थे और टोबा टेक सिंह जैसी मार्मिक कहानी लिखी थी और इसके नायक की तरह दो दी बार मंटो को भी मेंटल अस्पताल भर्ती होना पड़ा था। इस कहानी पर आधारित नाटक बहुत बार मंचित किया गया। इनके तीन बेटियां ही हैं जिन्हें कुछ वर्ष पूर्व पंजाब के समराला के निकट गांव में आमंत्रित कर सम्मानित किया गया था। मंटो की कहानियां और विभाजन पर इनकी लघुकथाएं कमाल की हैं।

जहां तक रंगकर्मी मोहन महर्षि की बात है वे मूल रूप से राजस्थान से थे लेकिन पंजाब विश्वविद्यालय के इंडियन थियेटर डिपार्टमेंट में उन्होंने न जाने कितने रंगकर्मियों को रंगकर्म में प्रशिक्षित किया। खुद भी फिल्म में काम किया। धर्मवीर भारती के खंड काव्य नाटक अंधा युग का मंचन भी अविस्मरणीय है। ऐसे रंगकर्मी का जाना बहुत बड़ी क्षति है। मंटो व मोहन महर्षि दोनों को नमन्।

बिलासपुर में बंसीराम शर्मा जयंती : हिमाचल के बिलासपुर में लेखक संघ द्वारा लोकसाहित्य के पुरोधा डाॅ बंशीधर शर्मा की जयंती के अवसर पर ऑनलाइन साहित्यिक संगोष्ठी आयोजित की गयी। इसमें डाॅ बंशीधर की किन्नौर लोक साहित्य , संस्कृति के क्षेत्र में किये गये कार्यों का उल्लेख किया गया। कार्यक्रम में बहुभाषी काव्य गोष्ठी भी आयोजित की गयी। एक जेबीटी शिक्षक से डाॅ बंशीधर  हिमाचल कला व संस्कृति अकादमी के सचिव पद तक पहुंचे। कार्यक्रम की अध्यक्षता डाॅ अनेक राम सांख्यान ने की जबकि संचालन रविंद्र कुमार आर्य ने किया।

प्रवासी रचनाकारों का काव्य संग्रह : गीतांजलि बहुभाषी साहित्यिक समुदाय की ओर से ऋषिकेश में ‘हरपल बसंत रचते हैं’ काव्य संग्रह का विमोचन किया गया। इस दो दिवसीय संगोष्ठी मे इसका लोकार्पण उत्तराखंड के राज्यपाल लेफ्टिनेंट कर्नल गुरमीत सिंह ने किया। पूर्व केंद्रीय शिक्षा मंत्री रहे रमेश कुमार पोखरियाल निशंक, डाॅ योगेन्द्र नाथ अरूण , डाॅ रजनीश शुक्ल ने इसकी भूरि भूरि प्रशंसा की। इस संकलन की परिकल्पना डाॅ कृष्ण कुमार ने की जबकि संपादन डाॅ रश्मि खुराना ने किया है। काव्य संकलन में इंग्लैंड में रह रहे 29 कवियों की रचनायें संकलित हैं। डाॅ रश्मि खुराना को बधाई।

सतीश कश्यप का नया स्वांग कृष्णा : हरियाणा के प्रसिद्ध लोककलाकार व रंगकर्मी डाॅ सतीश कश्यप को आप दादा लखमी फिल्म और काॅलेज कांड में नेगेटिव रोल में  देख चुके हो। वैसे वे स्वांग के लिये हरियाणा ही नहीं देश विदेश में जाने जाते हैं और अब उन्होंने नये स्वांग कृष्णा का मंचन किया है हिसार के राधाकृष्ण मंदिर में। सबसे बड़ी बात कि यह स्वांग संस्कृत में है। यह स्वांग गीता और ऋषभ गांधार पर आधारित हैं। स्वयं सतीश कश्यप इसमें कृष्ण की भूमिका में हैं जबकि कुलदीप खटक अर्जुन की भूमिका में हैं। पंडित प्रीतपाल ने इसका मधुर संगीत दिया है और सह निर्देशक हैं संगीत में नरेश सिंघल। नगाड़े पर राजेश हैं।

इनके अतिरिक्त संगीत में स्वर दिये हैं – विभोर, रोली भारद्वाज और संजना कश्यप ने। ये कृष्ण की गोपियों की भूमिका में भी रहीं ! इसकी अवधि एक घंटे की है। सतीश कश्यप को नये स्वांग के लिये बहुत बहुत बधाई।

साभार – श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क – 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी द्वारा साहित्य की दुनिया के कुछ समाचार एवं गतिविधियां आप सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का सामयिक एवं सकारात्मक प्रयास। विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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