(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी सूरत तेरी आँखें”।)
अभी अभी # 36 ⇒ मेरी सूरत तेरी आँखें… श्री प्रदीप शर्मा
अज़ीब अंधेरगर्दी है ! हमें अपनी आँखों से ही अपनी सूरत दिखाई नहीं देती। हमें या तो दूसरों की आँखों का सहारा लेना पड़ता है, या फिर किसी आईने का !
आईने के सामने घण्टों सजने-संवरने के बाद जब सजनी अपने साजन से पूछती है, मैं कैसी लग रही हूँ? तो, किसी किताब में गड़ी आँखों को बिना उठाए, वह जवाब दे देते हैं, ठीक है ! और वह पाँव पटकती हुई किचन में चली जाती है। थोड़ी ही देर में चाय का प्याला लेकर वापस आती है। मिस्टर साजन चाय की पहली चुस्की लेते हुए जवाब देते हैं, हाँ, अब ठीक लग रही हो।।
जिन आँखों से आप पूरी दुनिया देख चुके हो, उन आँखों से अपनी ही सूरत नहीं देख पाना तो उस कस्तूरी मृग जैसा ही हुआ, जो उस कस्तूरी की गंध की तलाश में है, जो उसकी देह में ही व्याप्त है। अगर आईना नहीं होता, तो कौन यक़ीन करता कि, मैं सुंदर हूँ।
इंसान से कई गुना सुंदर पशु-पक्षी इस प्रकृति पर मौजूद है, जिनके बदन पर कोई अलंकारिक वस्त्र-आभूषण मौजूद नहीं, लेकिन इसका उन्हें कोई भान-गुमान नहीं। उनके पास प्रकृति द्वारा प्रदत्त सुंदरता को निहारने का कोई आईना ही नहीं ! जब किसी सुंदर पक्षी के सामने आईना रख दिया जाता है, तो वह उसे कोई अन्य पक्षी समझ आईने पर चोंच मारता है। उसे अपनी सुंदरता का कोई बोध ही नहीं। जब कि उसने कई बार अपनी परछाई पानी में अवश्य देखी होगी।।
अगर आईना नहीं होता, तो क्या सुंदरता नहीं होती ! आईना सुंदर नहीं ! आईने का अपना कोई अक्स नहीं। क्या आपने ऐसा कोई आइना देखा है, जिसमें कुछ भी नज़र नहीं आता? जब भी आप ऐसा आईना देखने जाएँगे, अपने आप को उसमें पहले से ही मौजूद पाएँगे।
केवल शायर ही नहीं, ऐसे कई इंसान हैं जो किसी की आँखों में खो जाते हैं, उन आँखों पर मर-मिटने को तैयार हो जाते हैं। तेरी आँखों के सिवा, दुनिया में रखा क्या है। तीर आँखों के, जिगर से पार कर दो यार तुम। क्या करें ! तेरे नैना हैं जादू भरे।
यही हाल किसी मासूम सी सूरत का है ! हर सूरत कितनी मशहूर है। तेरी सूरत से नहीं मिलती, किसी की सूरत ! हम जहां में तेरी तस्वीर लिये फिरते हैं। सूरत तो सूरत, तस्वीर तक को सीने से लगाकर रखने वाले कई आशिक मौजूद हैं, इस दुनिया में।।
अगर इस खूबसूरत से चेहरे पर आँखें ही न होती तो क्या होता ! आँखें ही रौशनी हैं, आँखें ही नूर हैं। आँखों में परख है, इसीलिए तो हीरा कोहिनूर है। सूरत और आँखों को आप एक दूसरे से अलग नहीं कर सकते।
ऐसा नहीं ! चेहरे बदसूरत भी होते हैं, आँखें कातिल ही नहीं डरावनी भी होती हैं। क्यों कोई हमें फूटी आँखों नहीं सुहाता, क्यों हम किसी की सूरत भी नहीं देखना चाहते? अरे! कोई कारण होगा।
हमारी इन दो खूबसूरत आँखों के पीछे भी आँखें हैं, जो हमें इन आँखों से दिखाई नहीं देती, वे मन की आँखें हैं। वे मन की आँखें सूरत को नहीं सीरत को पहचानती हैं। मन की आँखों ही की तरह हर सूरत में एक सीरत छुपी रहती है। वही अच्छाई है, आप चाहें तो उसे ईश्वरीय गुण कहें या ख़ुदा का नूर।।
संसार ऐसी कई विभूतियों से भरा पड़ा है, जो जन्म से ही दृष्टि-विहीन थे। भक्त सूरदास से लगाकर रवींद्र जैन तक कई जाने-अनजाने नेत्रहीनों का सहारा रही हैं, ये मन की आँखें ! इस दिव्य-दृष्टि के स्वामी को कोई अक्ल का अंधा ही अंधा कहेगा।
यारों, सूरत हमारी पे मत जाओ ! मन की आँखों से हमें परखो। हम दिल के इतने बुरे भी नहीं।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बिनु पद चले, सुने बिनु काना…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 148 ☆
☆ बिनु पद चले, सुने बिनु काना… ☆
प्रकृति ने हर मौसम के लिए अलग- अलग रंग संयोजित किए हैं, किंतु उत्साह का तो एक ही रंग होता है जिसकी चमक सब बयां कर देती है। नेह की भावना जहाँ अपनों को जोड़ कर रखती है वहीं बिन बोले ही वो कह जाती है जो सामने वाला हमसे चाहता है।
आकर्षण, घर्षण, विकर्षण सारे ही व्यवहार में देखने को मिलते हैं, बस ये हमें चयन करना है कि हम किसके साथ चल सकते हैं।
शिखर की चाह में एक -एक कर सबको हटाते जाना फिर जोड़ने की कोशिश करना ; इन्हीं स्थितियों के लिए रहीम दास जी का ये दोहा प्रासंगिक है –
रहिमन माला प्रेम की, जिन तोड़ो चटकाय।
जोड़े से फिर न जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय।।
पर कोई बात नहीं जैसे ही व्यक्ति सफल होता है, उसे अनेको लोग मिल जाते हैं, उसके प्रशंसक ; ऐसी दशा में क्या जरूरत है ; अड़ंगेबाजों को सिर पर चढ़ाने की ?
परन्तु दूसरी ओर ये बात भी ध्यान रखने योग्य है –
रूठे स्वजन मनाइये, जो रूठे सौ बार।
रहिमन फिर फिर पोइये, टूटे मुक्ता हार।।
इस दोहे में रहीम दास जी ने स्वयं कहा है रूठे स्वजन को मनाइए, हम सभी मनाते हैं ; लेकिन केवल ऐसे लोगों को जो हमारे लिए उपयोगी होते हैं। असली मोती का हार तो हम नये धागे में पिरो कर सजो लेते हैं; किंतु सामान्य मोती को धागा टूटते ही फेंक देते हैं।ये बात जीवन के सभी क्षेत्रों में लागू होती है। उपयोगी को सहेजो अनुपयोगी को बाहर करो। जोड़- तोड़ के इस चक्कर में जाने अनजाने गलतियाँ होने लगती है। गलतियों से सबक लेना जिसको आ गया या बिगड़ी बात को अपने पाले में पुनः कर लेने की कला जिसको आ गयी समझो वो बाजी जीत ही लेगा।
जीत- हार भले ही एक सिक्के के दो पहलू हों किन्तु विजेता का ताज धारण करने की इच्छा ही समस्त जगत का मूल मंत्र होता है। करते चलो, बढ़ते चलो बस रुकना नहीं चाहिए जब तक मंजिल आपके कदमों तक न आ जाए। इसी क्रम में ये ध्यान रखने की बात है कि-
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – फिटनेस जरूरी क्यों…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 211 ☆
आलेख – फिटनेस जरूरी क्यों…
कहा गया है कि धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया और चरित्र गया तो सब कुछ गया. यद्यपि यह उक्ति चरित्र के महत्व को प्रतिपादित करते हुये कही गई है किन्तु इसमें कही गई बात कि “स्वास्थ्य गया तो कुछ गया” रेखांकित करने योग्य है. हमारा शरीर ही वह माध्यम है जो जीवन के उद्देश्य निष्पादित करने का साधन है. स्वस्थ्य तन में ही स्वस्थ्य मन का निवास होता है. और निश्चिंत मन से ही हम जीवन में कुछ अच्छा कर सकते हैं.
कला और साहित्य मन की अभिव्यक्ति के परिणाम ही हैं. स्वास्थ्य और साहित्य का आपस में गहरा संबंध होता है. स्वस्थ साहित्य समाज को स्वस्थ रखने में अहम भूमिका अदा करता है. साहित्य में समाज का व्यापक हित सन्नहित होना वांछित है. और समाज में स्वास्थ्य चेतना जागृत बनी रहे इसके लिये निरंतर सद्साहित्य का सृजन, पठन पाठन, संगीत, नाटक, फिल्म, मूर्ति कला, पेंटिंग आदि कलाओ में हमें स्वास्थ्य विषयक कृतियां देखने सुनने को मिलती हैं. यही नहीं नवीनतम विज्ञान के अनुसार मनोरोगों के निदान में कला चिकित्सा का उपयोग बहुतायत से किया जा रहा है. व्यक्ति की कलात्मक अभिव्यक्ति के जरिये मनोचिकित्सक द्वारा विश्लेषण किये जाते हैं और उससे उसके मनोभाव समझे जाते हैं. बच्चों के विकास में कागज के विभिन्न आर्ट ओरोगामी, पेंटिग, मूर्ति कला, आदि का बहुत योगदान होता है.
स्वास्थ्य दर्पण, आरोग्य, आयुष, निरोगधाम, आदि अनेकानेक पत्रिकायें बुक स्टाल्स पर सहज ही मिल जाती हैं. फिल्में, टी वी और रेडियो ऐसे कला माध्यम है जिनकी बदौलत साहित्य और कला का व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है.
जाने कितनी ही उल्लेखनीय हिन्दी फिल्में हैं जिनमें रोग विशेष को कथानक बनाया गया है. अपेक्षाकृत उपेक्षित अनेक बीमारियों के विषय में जनमानस की स्वास्थ्य चेतना जगाने में फिल्मों का योगदान अप्रतिम है.
फिटनेस उपकरणों, प्रोटीन, दवाओ, और नेचुरोपैथी, योग, जागिंग, जिम पर जनता करोड़ो रूपए प्रति वर्ष खर्च कर रही है, योग को वैश्विक मान्यता मिली है.
ये सब खान पान रहन सहन आखिर जन सामान्य में लोकप्रिय क्यों है? इसका कारण मात्र यही है की कहीं न कहीं हम सब फिटनेस का महत्व समझते हैं. भले ही आलस्य, समय की कमी या रुपए कमाने की व्यस्तता में हम फिटनेस प्रोग्राम को कल पर टालने की कोशिश करते हैं, क्योंकि शारीरिक मेहनत हमे सहज पसंद नही आती, उसकी जगह हम कोई रेडीमेड फार्मूला चाहते हैं जो हमे तन मन से फिट बनाए रखे. किंतु इस सत्य को स्वीकार कर लेने में ही भलाई है कि फिटनेस का कोई शॉर्ट कट नहीं होता, यह एक नियमित प्रक्रिया है जिसे दिनचर्या का हिस्सा बना लेने में ही भलाई है. स्वस्थ्य रहें, सबल बने, जीवन के हर मैदान में फिट रहें हिट रहें. निरोगी काया के प्रति जागरूख रहें, घर परिवार बच्चों अपने परिवेश में स्वच्छता, खान पान, लिविंग में फिटनेस का वातावरण सृजित बनाए रखें और चमत्कार देखें चिकत्सा में व्यय बचेगा, जीवन में सकारात्मक वैचारिक परिपक्वता के दृष्टिकोण से नौकरी, व्यवसाय, समाज में व्यवहारिक सफलता मिलेगी.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 159 ☆
☆ बाल सजल – मनमौजी हैं तोते राजा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’☆
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक बाल गीत – “पानी चला सैर को”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 137 ☆
☆ बाल गीत – “पानी चला सैर को” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
मध्यंतरी काँलनीत शेजारी एक नवीन बि-हाड आलं.अतिशय आटोपशीर, मोजकं सामान आलं.नेहमीच्या उत्सुकतेने आपल्या नेहमीच्या कुवतीनुसार मनात आलं अजून मागून बाकीचे सामान येणार असेल.पण नंतर कळलं त्या कुटुंबात मोजकं आणि आटोपशीर सामान आहे. कळल्यावर ,बघितल्यावर खूप जास्त कौतुक वाटलं,आणि थोडी स्वतःच्या हव्यास म्हणा सोस म्हणा त्याची लाजचं वाटली.
मग कुठे जरा डोळे उघडून माझी स्वतःची स्वारी आवरासावरीकडे वळली. भसाभसा कपाट उपसली. आधी नंबर लावला कपड्यांच्या कपाटाचा. ते साड्यांचं,ड्रेसेस चं कलेक्शन बघितल्यावर क्षणभरासाठी का होईना स्वतःची स्वतःलाच लाज वाटली. किती हव्यासासारखे जमवितो आपण. मनात आल जवळपास थ्रीफोर्थ आयुष्य निघून गेलं.उर्वरित आता जे काही दिवस असतील ते नोकरीतील निवृत्तीनंतर घरीच राहण्याचे. त्यामुळे आपण ह्या सगळ्याचा विनीयोग कसा करणार ?
त्याक्षणी प्रकर्षांने जाणवून गेलं प्रत्येक व्यक्तीने पसारा हा घालावा पण त्याचा त्याला आवरता येईल इतपतच घालावा. मनात आल हा पसारा मला आवडतोय म्हणून मी मांडून ठेवला हे खरयं पण हा पसारा आपल्यापश्चात घरच्यांना आवरतांना नाकी नऊ आणेल हे पण नक्की. म्हणजेच आपण दुस-याचा त्रास कमी करण्याऐवजी वाढवतोयच की.
खरंच ज्या माणसाला कुठेतरी थांबायचं, आवरत घ्यायचं,आटोपत़ घ्यायचं हे नीट वेळेवर उमगलं तो शहाणा,सुज्ञ माणूस समजावा. पूर्वी जी वानप्रस्थाश्रम नावाची संकल्पना होती ती किती यथार्थ होती नाही कां ?
जी गोष्ट कपड्यांची तीच वस्तु वा भांडी ह्यांचीपण. थोडक्यात काय तर प्रश्न हा किती संग्रह, साठवणूक करतो आणि तो संग्रह वा साठवणूक खरंच आपल्या पुढील पिढीसाठी फायद्याची वा आवश्यक असणार आहे ह्याचा पण आपल्याला गांभीर्याने विचार करावाच लागणार आहे.दिवसेंदिवस हा काळ धावपळीचा दगदगीचा येतोय तेव्हा जातांना तरी पुढील पिढीच्या समस्या वाढवून जाऊ नये ही मला प्रकर्षाने जाणीव झाली.
आता आपला हा पसारा आवरता घेऊन नवीन पिढीला त्यांच्या मनाने पसारा घालायला वाव द्यावा हा नवीन विचार ह्या वर्षात सुचला हा प्लसपाँईंटच म्हणावा.
☆ अनुवादित कथा – “देवकी अजून जीवंत आहे” – सुश्री अनघा जोगळेकर ☆ (भावानुवाद) – सौ. उज्ज्वला केळकर☆
(मूळ हिंदी कथा – “देवकी अभी मरी नही‘”)
रात्रीचा पहिला प्रहर सरलाय. अंधार गडद होत चाललाय. टेबलावर ठेवलेल्या कादंबरीची पाने हवेतील पंखांप्रमाणे फडफडत आहेत. या आवाजात माझ्या मनाचा आवाजदेखील मिसळत चाललाय. झोप डोळ्यांपासून कित्येक योजने दूर आहे. तुटलेल्या मनाचे तुकडे जुन्या जखमांना चिरताहेत. गेल्या तीन-चार वर्षातली ती हृदयद्रावक घटना माझ्या डोळ्यांपुढे फिरते आहे. या दु:खद आठवणी विसरण्यासाठीच मी ती कादंबरी हातात घेतली आणि एवढ्यात माझ्या खोलीत आवाज आला, ‘ शिवाला नीलकंठ का म्हणतात, माहीत आहे?
त्या आवाजाने मी थबकले. खोलीत इकडे तिकडे पाहिले. खोलीत कुणीच नव्हते.
‘इकडे-तिकडे काय बघतेस? मी तुझ्यासमोरच तर आहे. मी आहे देवकी.’
‘देवकी.’
‘होय. देवकी. तुला माहीत आहे शिवाला नीलकंठ का म्हणतात, माहीत आहे?’
‘नीलकंठ. होय. माहीत आहे. … कारण त्यांनी वीष प्यालं होतं॰’
‘एकदा की पुन्हा पुन्हा?’
‘…..’
‘सांग ना! एकदा की पुन्हा पुन्हा?’
‘ए….एकदा ….’ मी चाचरत म्हंटलं॰
‘आणी मी?’ देवकीचा कंठ अवरुद्ध होत चालला.
‘…..’
(सुश्री अनघा जोगळेकर)
‘तू मलाच वाचत होतीस ना! ती बघ. टेबलावारच्या कादंबरीची पाने अजूनही फडफडताहेत.
मी पुतळा बनून देवकीकडे बघत राहिले. तिची वेदना अनुभवू लागले.
‘आपल्याच प्राणनाथाद्वारे आपल्याच पुत्रांना आपल्याच भावाकडे , त्यांच्या मृत्यूसाठी सोपवणं…’ देवकीला वेदना असह्य झाली. ती विव्हळली.
‘मला माहीत आहे.’ मी धीर करून म्हंटलं.
‘नाही. तुला काही माहीत नाही. माझा एक नव्हे… सहा सहा मुलं….’
‘ मी तुझी वेदना समजू शकते.’ तिचं बोलणं मधेच तोडत मी म्हंटलं.
‘काय, खरोखरच तू माझी वेदना समजू शकतेस?’ तिचा आवाज करुणार्द्र झाला होता. ती हळू हळू हुंदके देऊ लागली. ‘माझ्यासमोर माझ्या मुलांना शिळेवर आपटलं गेलं… ओह!’ यापुढे ती काहीच बोलू शकाली नाही. तिचे अश्रू खोलीतील हवा आर्द्र बनवू लागले होते. खूप वेळ अश्रू ढळल्यानतर ती काहीशी संतुलित झाली. म्हणाली,
‘तू खरंच बोलली होतीस. तू माझी व्यथा समजू शकतेस. एक स्त्रीच दुसर्या स्त्रीची पीडा समजू शकते.’
‘ हं! खरच एक स्त्री दुसर्या स्त्रीची पीडा समजू शकली असती तर …. ‘ मी उदास होऊन म्हंटलं.
“म्हणजे …” देवकी चमकून म्हणाली.
मी उगीचच तिच्यावर संतापले. ‘तुला काय वाटतं, तू इतिहासातील एक मात्र स्त्री आहेस, की जिच्या मुलांना मारून टाकलं गेलय.’
मी क्षणभर थांबले आणि दीर्घ श्वास घेतला. माझ्या मनातील व्यथा माझ्या डोळ्यात उतरली.
‘तू आजसुद्धा जीवंत आहेस. तू मेली नाहीस देवकी. तू कधीच मेली नाहीस. देवकी कधी मरत नाही. ती प्रत्येक युगात जीवंत असते. हां! तुझ्या मुलांच्या मृत्यूमुळे त्या घृणीत कामाला सुरुवात झाली आणि वर्तमान काळात त्याचं स्वरूप बदललं. एवढंच!’
‘तुझं बोलणं कळलं नाही मला!’ देवकीच्या स्वरात आश्चर्य होतं आणि वेदनाही. ‘देवकी’, मी माझे अश्रू पुसत म्हंटलं, ‘ तुझ्या मुलांना जन्म घेतल्यानंतर मारलं गेलं आणि माझ्या…’ खोलीत माझे हुंदके घुमू लागले. त्यातच देवकीची पीडाही मिसळली. खूप वेळपर्यंत आम्ही दोघींनी गुपचुपपणे आपआपल्या दु:खाला वाट मोकाळी करून दिली.
हे मौन देवकीनेच प्रथम तोडलं. नऊ महीने गर्भात रक्ताचं तीळ तीळ सिंचन करून झाल्यावर ते रक्त आपल्यासमोर शिळाखंडावर वाहाताना बघणं… ओह! केवढी असह्य वेदना होती ती… आपल्याच पुत्राचा सुकोमल देह छिन्न भिन्न होताना बघणं… मी माझ्याच मृत्यूची कामना करत होते तेव्हा…’ देवकीची पीडा मुखरीत झाली होती.
देवकीच्या या बोलण्याने माझ्या न जन्मलेल्या दोन भ्रूणांची आठवण झाली.
देवकी तू निदान नऊ महीने त्यांना आपल्या गर्भाशयात ठेवलंस. वाढवलंस. त्यांना आनुभवलंस. त्यांच्या जन्माच्या प्रसववेदना सहन केल्यास. त्यांचा सुंदर चेहरा बघितलास. एक क्षणभर का होईना, पण त्यांना आपल्या उराशी कवटाळलंस… पण मी… मला तर हेही सुख अनुभवायला मिळालं नाही.
‘…..’ देवकी आता काही न बोलता माझ्या व्यथा ऐकून घेत होती.
‘मला तर मुलगाच पाहिजे, असं काही नव्हतं. मी गर्भवती झाले, यातच मी खूश होते. ‘पण….’
‘पण…. काय?’ देवकीच्या अधीर स्वरात करूणा मिसळली होती.
‘देवकी तुझ्या पतीने तुझ्या मुलांचा बळी मान्य केला, कारण त्याला तुझे प्राण वाचवायचे होते. कारण तुझा आठवा पुत्र जन्माला येईल आणि विश्वाचे कल्याण होईल. आपले प्राण वाचवण्यासाठी तुझ्याच भावाने तुझ्या मुलांना मारलं. ते सारं अतीव दु:खदायक होतं, खूप दु:खदायक, पण…. ‘ माझ्या आसवांनी माझा सारा चेहरा भिजून गेला होता. भावनेच्या प्रवाहात मी वहात चालले होते. ‘पण माझा गर्भ तर तीन महिन्याचाही झाला नव्हता. त्याची हत्या करणारा दुसरा कुणी नव्हता. माझाच नवरा होता. त्याला मी जीवंत रहाण्याची वा मरण्याची पर्वा नव्हती आणि मारणारा पौरुषहीन होता. या घृणीत कामात स्त्रीसुद्धा सामील होती.’
‘काय? ‘ देवकीचा स्वर कारूणामिश्रित झाला. त्यात अविश्वास होता.
‘होय देवकी! आता तुझ्याबाबतीत घडलेल्या अपराधाचं स्वरूप बदललय. आता जन्म घेण्यापूर्वीच भ्रूणाला मारून टाकलं जातं. भ्रूणाचं मुलगा होणं अपराध नाही. मुलगी होणं हा अपराध आहे. आज पती, पत्नीला वाचवण्यासाठी नाही, आपला वंश वाचवण्यासाठी पत्नीला जिवंतपणीच मारून टाकतो आणि त्याला अन्य कुणी पुरुष नाही, घरच्या स्त्रियाच साथ देतात.’
देवकी स्तब्ध उभी राहिली मग म्हणाली, ‘म्हणजे …’
‘म्हणजे… देवकीची पीडा सरलेली नाही. उलट बदलत्या स्वरुपात अनेक पटींनी वाढलेली आहे. मग माझ्याकडे बघत म्हणाली, ‘मला वाटलं होतं, माझ्या पश्चात दुसरी देवकी होणार नाही. व्हायला नको. … ओह!’
मी माझ्याच दु:खात गुरफटून राहिले. तुझं दु:ख समजूनच घेतलं नाही.’
मी आसवांनी भरलेल्या डोळ्यांनी देवकीकडे बघत राहिले. आज देवकी माझ्यापुढे स्वत:ची पीडा कमी लेखू लागली होती. पण खरोखरच आईची पीडा समजून घेणं इतकं का सोपं आहे? जिचं एक अंग कापलं गेलय, तिचं दु:ख, दुसर्या कुणाचं दुसरं अंग कापलं गेलय, त्यापेक्षा कमी का असणार आहे? वेदनेला परिभाषित करणं इतकं का सोपं आहे? वेदना ही वेदनाच असते. तिची कुठलीच परिभाषा नसते.
मी आणि देवकी आपल्या आपल्या दु:खात बुडून गेलो आणि एक दुसरीचे सांत्वन करत राहिलो. मला वाटलं, देवकीचं दु:ख माझ्यापेक्षा मोठं आहे. देवकीला वाटलं, माझं दु:ख तिच्यापेक्षा मोठं आहे.
एवढ्यात टेबलावर ठेवलेल्या कादंबरीची पाने फडफडू लागली. त्यातून आणखी एक स्त्री बाहेर पडून आमच्या दोघींमध्ये उभी राहिली.
‘रोहिणी तू?’ त्या स्त्रीकडे बघ देवकी आश्चर्याने म्हणाली.
‘हो. मीच! तुम्ही दोघींनी आपापलं दु:ख वाटून घेतलंत, पण माझं दु:ख…’
‘तुझं दु:ख?’ तू तर गोकुळात मजेत, सुखाने राहिलीस. बळिरामासारखा पुत्र तुला होता. तुला कसलं दु:ख?’
माझं बोलणं ऐकून क्षणभरासाठी रोहिणी हसली, पण त्याचबरोबर तिचे डोळेही डबडबून आले.
‘जिला हेही माहीत नसेल की कधी, कुणाचा भ्रूण तिच्या गर्भात रोपित केला गेलाय, ते गोपनीय ठेवणेही अनिवार्य आहे आणि माहीत झाल्यावरही ती त्याबद्दल कुणालाच काहीच सांगू शकत नाही, तिचं दु:ख…’
‘ओह!’ माझ्या तोंडून आपोआपच बाहेर पडलं. रोहिणीचं बोलणं अर्धवटच राहिलं. माझा सुस्कारा ऐकून देवकीने पुढे होऊन रोहिणीला सांभाळलं.
‘ती वेळच अशी होती रोहिणीची गोपनीयता आवश्यक होती आणि बळिरामाचा जन्मही।‘
‘माहीत आहे. मी आपल्याला दोष देत नाही, पण पतीच्या दीर्घकालीन अनुपस्थितीत पत्नीचं गर्भवती होणं आणि दुसर्याला खरंही सांगता न येणं…. माझं दु:ख कुणाला कळेल?
मी त्या दोघींकडे बघत राहिले. एक आपल्याच मुलांच्या हत्येन तडफडत होती, तर दुसरीने किती कलंक माथ्यावर झेलले होते. सहन केले होते. पण माझी खात्री आहे, शेवटी दोघीही जणी संतुष्ट झाल्या असणार. कारण…. कारण कृष्णाचा जन्म नेहमीच शुभ करून जातो. पण…. पण कृष्ण काय माझ्या उदरातून जन्म घेऊन मला माझ्या दु:खातून वर काढेल? हा प्रश्न माझ्या मानात यक्षप्रश्नाप्रमाणे विक्राळ रूप धारण करून उभा आहे.
देवकी आणि रोहिणी कादंबरीच्या आपापल्या पानात गुप्त झाल्या आहेत आणि … मी आणखी एक देवकी बनण्याच्या दिशेनेपुढे निघाली आहे आणि कदाचित रोहिणी बनण्याच्या दिशेनेही….
मूळ कथा – ‘देवकी अभी मरी नही’ – मूळ लेखिका – अनघा जोगळेकर मो.- 9654517813
अनुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर
संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.- 9403310170 ईमेल – [email protected]
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
मला अजूनही आठवतोय आईंचा त्या दिवशीचा चेहेरा ! चेहऱ्यावरील प्रसन्नता आणि मनात न मावणारा आनंद !!
आई, म्हणजे माझ्या सासूबाई, “विद्यावती गजानन जोशी.”आणि सासरे म्हणजेच आप्पा,मला पहायला (वधुपरिक्षा) आमच्या घरी आले होते .जेवढी भीती कुणाही मुलीला वाटेल, त्यापेक्षा कितीतरी अधिक मला वाटत होती. कारण लग्न करण्याचं आमच्या दोघांचं पक्क ठरलं होत. पण जर सासू सासऱ्यांनी नकार दिला तर…? हा विचारच भयंकर होता. पण आईंच्या चेहऱ्यावरचा आनंद आणि डोळ्यातली पसंती यामुळं मन थोडं सुखावलं होतं. भीतीचा भार कमी झाला होता.
सासऱ्यांची मात्र नखशिखांत भीती वाटत होती. ते खूप कसून आणि कठोर परीक्षा घेण्याचा नजरेने बघत होते. त्यांच्या चेहऱ्यावरील रेषही हलत नव्हती. उसासा कधी टाकावा,असा जीव टांगणीला लागला होता.
तशात आई सहजपणे बोलून गेल्या, ” पहिली लक्ष्मी पाहिली, तिला नाट नाही लावायचा “.
त्या माझ्याबद्दलच बोलत होत्या हे कळलं. कारण ह्यांनी माझ्या आधी कुठलीच मुलगी पाहिली नव्हती. सासऱ्यांचं मन कळत नसलं तरी एक मार्ग तर खुला झाला होता. त्यामुळे दुसरा मार्ग खुला होण्याची आशा होती….. तर अशा आई !
साध्या, सरळ, सहज पण ठामपणे आपलं म्हणणं मांडणाऱ्या. नजरेने, शब्दाने, आपली पसंती आणि नापसंतीही दर्शविणाऱ्या.
लग्न ठरल्यानंतर ते होईपर्यंत सहा महिन्यांचा अवधी होता. त्या दरम्यान आईंनी मला पत्रही लिहिलं होतं. अगदी प्रेमानं ओथंबलेलं. लाडू वगैरे खाऊ पण पाठवायच्या माझ्यासाठी. अजून काय हवं?
मी दोन अडीच वर्षांची असताना माझी आई गेली. ती उणीव भरून निघाली आईंच्या रूपाने.
जुन्या काळाप्रमाणे आईंचं आयुष्यही कष्टाचंच होत. रोज सोवळ्यात स्वयंपाक, देवदर्शन, रूढी परंपरा, कर्मकांड सारं नेकीनं करणाऱ्या. माहेरी आमच्या घरी सुधारकी वळण. आईंनी त्यांच्या परीने सासरच्या रीतीभाती मला समजावून सांगितल्या. पण कधी जाच जबरदस्ती नाही केली कशाची.
साऱ्या आयुष्यभर घरादारासाठी, शेजाऱ्या पाजाऱ्यांसाठी, नातेवाईकांसाठी अपार कष्ट केले. पण कधी तक्रार म्हणून नाही. ‘ स्वत:साठी काही हवं ‘ हे तर अगदी जाणीवेपलीकडेच असायचं त्यांच्या. पण सतत करत रहाणं हे मात्र कर्तव्य बुध्दीत घट्ट रोवलेले.
तशा मितभाषी असल्या तरी, प्रसंगी “सौ सुनारकी,एक लोहारकी. ” असं असायचं त्यांचं कधीकधी. बोलता बोलता काही म्हणी सडेतोड वापरायच्या. उदा. पोळी केलेली असताना कोणी भाकरी मागितली तर “.असेल ते नासवा नसेल ते भेटवा “. किंवा खूप कपडे असून कोणी वाईट कपडे घातले तर “ सतरा लुगडे,भागुबाई तुझे ….. उघडे.”
“ दिवस सरला की मागचं मागं टाकून आल्या दिवसाला सामोरे जायचं. ” असं जगण्याचं त्यांचं रोकडं तत्वज्ञान होत. जे बोलायच्या तसंच वागायच्या.
अत्यंत संयमी, कर्तव्यतत्पर निर्धारित जीवन त्या जगल्या. अनेक दुःख झेलली, पचवली, पण मोडून पडल्या नाहीत. कोणाच्याच दुःखावरची खपली न काढता आयुष्यात सामावून जाणं हाच त्यांचा वसा होता.
आप्पांच्या निधनाचं दुःखही त्यांनी खंबीरपणे पचवलं. आपलं दुःख उगाळून इतरांच्या आनंदावर कधी विरजण घातलं नाही. वयाची ८५ वर्ष झाली तरी सहासहा, सातसात तास वाचन करायच्या. रोज गीतेचे अठरा अध्याय वाचायच्या.
८५ वर्षांचं अवघं जीवन असं कष्टातून वेचलं. वयोमानपरत्वे डोळ्यासमोर नसणाऱ्या मुलांच्या, नातवंडांच्या आठवणीने सैरभैर होतं. कातर होतं. तरी पुन्हा स्वत:च स्वत:चं बोट धरून समजावल्यासारखं गीता वाचनात स्वत:ला मग्न ठेवत.
त्यांचं जीवन म्हणजे आदर्श स्त्री-जीवनाचा वस्तुपाठच होता.