English Literature – Poetry ☆ ‘सीढ़ियां…’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Stairs…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem “~ सीढ़ियां ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि – सीढ़ियां – ??

आती-जाती

रहती हैं पीढ़ियाँ,

जादुई होती हैं

उम्र की सीढ़ियाँ,

जैसे ही अगली

नज़र आती है,

पिछली तपाक से

विलुप्त हो जाती है,

आरोह की सतत

दृश्य संभावना में,

अवरोह की अदृश्य

आशंका खो जाती है,

जब फूलने लगे साँस,

नीचे अथाह अँधेरा हो,

पैर ऊपर उठाने को

बचा न साहस मेरा हो,

चलने-फिरने से भी

देह दूर भागती रहे,

पर भूख-प्यास तब भी

बिना नागा लगाती डेरा हो,

हे आयु के दाता! उससे

पहले प्रयाण करा देना,

अगले जन्मों के हिसाब में

बची हुई सीढ़ियाँ चढ़ा देना!

मैं जिया अपनी तरह,

मरुँ भी अपनी तरह,

आश्रित कराने से पहले

मुझे विलुप्त करा देना!

© संजय भारद्वाज 

प्रातः 8:01 बजे, 21.4.19

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

? ~ Stairs ~ ??

Generations keep

coming and going,

Magical are the 

stairs of age,

As soon as the

next one appears,

vanishes the

previous one…

In the perpetual prospect

of visual ascension,  

the invisible apprehension

of the descent is lost,

When my breath

starts to pant,

there’s fathomless

darkness before me,

I may not have the courage

to raise my feet,

Even the body shuns away

from taking a step forward…

But the hunger and thirst 

camp without absence,

O’ Giver of age! 

Before that happens,

Call me to Your mighty self

Make me climb the

remaining stairs,

adjusting it in the next births,

I’ve lived the life my way,

Let me die my ways only…

Make me extinct before

making me dependent…! 

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अनंत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – अनंत ??

जीवन भर

बाहरी यात्रा पर रहा,

शहर दर शहर

मील के पत्थर गिनता रहा,

सुना है इन दिनों

अपने भीतर का

भ्रमण कर रहा है,

अनंत प्रवास की तुलना में

मापा जा सकनेवाला अंतर

अब उसे बेमानी लग रहा है..!

© संजय भारद्वाज 

(10:42 बजे रात्रि, 8 मई 2023)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 07 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग तीन – पत्थर साहब लदाख ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग तीन – पत्थर साहब लदाख)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 07 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग तीनपत्थर साहब लदाख ?

(सितम्बर 2015)

2015 इस वर्ष हम रिटायर्ड शिक्षकों का यायावर दल ने लेह लदाख जाने का निर्णय लिया। सितंबर का महीना था। लेह-लदाख जाने के लिए यही समय सबसे उत्तम होता है।

चूँकि हम सभी साठ पार कर चुकीं थी तो यही निर्णय लिया कि मुंबई से डायरेक्ट लेह न जाकर हम श्रीनगर तक फ्लाइट से जाएँ और वहाँ से हम बाय रोड लेह-लदाख तक की यात्रा करें।

 इस निर्णय के पीछे एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारण था। लेह -लदाख समुद्री तल से 3500 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है जिस कारण ऑक्सीजन की मात्रा घटती जाती है। अगर सीधे लेह जाकर उतरते तो दो दिन ऑक्सीजन सिलिंडर के साथ अस्पताल में पड़े रहते। श्रीनगर से आगे बाय रोड जाने पर घटते ऑक्सीजन की मात्रा का अहसास ही नहीं होता। शरीर बाहरी जलवायु के अनुकूल होता जाता है।

श्रीनगर में हम दो रात रहे। तीसरे दिन हम कारगिल के लिए रवाना हुए। श्रीनगर से अट्ठाइस किलोमीटर की दूरी पर नौवीं शताब्दी में निर्मित अवन्तिपुर मंदिर के खंडहर को देखने के लिए हम लोग रुके।

 विशाल पत्थरों पर सुंदर और अद्भुत आकर्षक नक्काशी देखने को मिला। विशाल परिसर में फैला विष्णुजी और शिवजी के यहाँ कभी भव्य मंदिर हुआ करते थे। सुल्तानों ने इसे न केवल लूटा बल्कि तोड़- फोड़कर इसका विनाश भी किया। अब केवल खंडहर शेष है। यह खंडहर ही उसकी भव्यता का दर्शन कराता है।

 हम आगे सेबों से लदे बगीचों का आनंद उठाते हुए कारगिल पहुँचे। श्रीनगर से कारगिल 202 किलोमीटर के अंतर पर है। पाँच -छह घंटे पहुँचने में लगे।

हम कुछ दो बजे कारगिल पहुँचे। यह पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। इसे द्रास घाटी कहा जाता है। यहीं पर पाकिस्तान के साथ 26 जुलाई 1999 को युद्ध छिड़ा था।

आज यहाँ एक विशाल मेमोरियल बनाया गया है। यहाँ शहीद सैनिकों का बड़ा सा सूची फलक है। यहाँ युद्ध संबंधी डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी देखने का मौका मिला। हम आम नागरिक अपने घर में सुरक्षित होते हैं जबकि हमारी सेना दिन रात ठंडी-गर्मी में हमारी सुरक्षा में तैनात रहती है। इस बात का अहसास तब होता है जब वहाँ की शीतलहर को थोड़ी देर झेलकर हम काँप उठते हैं।

1999 के युद्ध में देश ने जीत हासिल की इस बात का न केवल हमें गर्व है बल्कि हमें खुशी भी है पर शहीद हुए जवानों की सूची देखकर तथा किन हालातों का हमारी सेना ने सामना किया था यह जानकर दिल दहल भी उठा। उन सबके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम सबका मस्तक झुक जाता है।

हमने दो रातें कारगिल में बिताई और वहाँ के अन्य दर्शनीय स्थल देखकर हम लोग नुब्रा वैली के लिए रवाना हुए।

पुणे से रवाना होने से पूर्व हरेक को एक – एक छोटी-सी पोटली दी गई थी। इन पोटलियों में विशेष औषधीय गुण युक्त कपूर थे। रास्ते भर हम कपूर सूँघते हुए श्वास-कष्ट से बचते हुए आगे बढ़ रहे थे। कपूर में ऑक्सीजन लेवल को नियंत्रण में रखने का गुण होता है। हम में से किसी को कोई कष्ट नहीं हुआ।

रास्ते अच्छे थे और लोकल चालक भी सतर्क और जानकार। घुमावदार सड़कें और दूर-दूर तक बर्फीली चोटियाँ आकर्षक दिखाई दे रही थीं। हमारी गाड़ी भी बीहड़ पहाड़ों के बीच से गुज़र रही थी। हर पहाड़ का रंग ऐसा मानो किसीने तूलिका फिरा दी हो। 

नुब्रा वैली जाने से पहले हम दुनिया के सर्वोच्च मोटरेबल रोड खारडुंगला पास पहुँचे। इसका असली नाम खारडूंगज़ा ला है। यह 18,380 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ पर जवानों के लिए एक सुंदर शिव मंदिर है। हमें कड़कड़ाती बर्फीली ठंड में बीस मिनट ही गाड़ी से बाहर रहने की इज़ाज़त थी। ऑक्सीजन लेवेल कम होने के कारण तबीयत बिगड़ने की संभावना होती है। हम सभी सहेलियाँ यहाँ लगे बोर्ड के सामने तस्वीरें खींचकर , शिव मंदिर में बाहर से ही दर्शन करके तुरंत गाड़ी में लौट आए।

खारडुंगला के बाद हम चांग ला पास से गुज़रे। यह 17800 फीट की ऊँचाई पर स्थित है।

खारडुंगला पास से 38 की.मी की दूरी पर पत्थर साहिब गुरुद्वारा है। यहाँ दूर -दूर तक रहने की कोई व्यवस्था नहीं है। न ही खाने -पीने के लिए कोई रेस्तराँ ही है बस एक सुंदर गुरुद्वारा है। हर आने-जाने वाली गाड़ी यहाँ अवश्य रुकती है। दर्शन करके ही आगे बढ़ती है।

गुरु नानक अपने सिद्धांतों का प्रचार करते हुए तिब्बत, भूटान, नेपाल होते हुए लदाख पहुँचे। लौटते समय वे इसी स्थान पर रुके थे।

वहाँ के लोग एक कथा सुनाते हैं कि एक राक्षस था जो वहाँ के लोगों को सताया करता था। लोकल लोग नानक जी को नानक लामा कहते हैं। तिब्बत के लोग उन्हें गुरु गोमका महाराज कहा करते हैं। यद्यपि लदाख के अधिकांश लोग बुद्ध धर्म के अनुयायी हैं पर वे गुरु नानक का भी सम्मान करते हैं।

एक दिन वे साधना में लीन थे कि पीछे से उस राक्षस ने एक विशाल और भारी पत्थर नानक जी को मारने के लिए ऊपर से लुढ़का दिया। पत्थर लुढ़ककर नानक जी की पीठ पर धँस गया। पर पत्थर मोम की तरह पिघल चुका था। पत्थर पर आज भी उनकी पीठ की निशानी है। नानक जी को चोट नहीं लगी यह देखकर राक्षस ने नीचे उतरकर पत्थर की दूसरी छोर पर लात मारी तो उसका पैर मोम जैसे पत्थर पर चिपक गया।

उसे समझ में आ गया कि नानक जी साधारण मनुष्य नहीं थे। वह वहाँ से चला गया और फिर उसने गाँववालों को कभी नहीं सताया।

वहाँ के निवासी उस पत्थर को बहुत महत्व देते थे। समय के साथ -साथ घटना पुरानी भी हो गई और भूली भी गई।

सन 1970 में जब लेह -नीमू सड़क निर्माण का कार्य शुरू हुआ तो वह पत्थर रोड़ा बन गया। आर्मी ने उसे हटाने का बहुत प्रयास किया। पर पत्थर टस से मस न हुआ। जब उस पत्थर को बम विस्फोटक द्वारा उड़ा देने का निर्णय लिया गया तो वहाँ के निवासी और कुछ लामाओं ने आकर ऐसा करने से उन्हें रोका। गुरु नानक लामा की कथा आर्मी चीफ को सुनाई गई और सबने मिलकर वहाँ पत्थर साहिब गुरुद्वारा का निर्माण किया।

आज इस गुरुद्वारे की देखरेख वहाँ की आर्मी ही करती है। साफ -सुंदर परिसर। विशाल ठंडे बर्फीले पर्वतमालाओं के बीच स्थित यह गुरुद्वारा पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है।

जिस दिन हम दर्शन के लिए गुरुद्वारा पहुँचे तो वहाँ अखंड पाठ समाप्त ही हुआ था। किसी कर्नल की पल्टन अपनी अवधि पूरी करके लदाख से शिफ्ट हो रही थी। इसलिए अखंड पाठ रखा गया था। साथ ही बहुत ही उम्दा लंगर का आयोजन भी था। उस दिन गुरुद्वारे में पल्टन के सभी लोग उपस्थित थे। उत्सव का वातावरण था। आने-जानेवाले पर्यटक भी लंगर में शामिल हुए थे। हम भी लंगर में शामिल हो गए।

हम सभी ने इस दर्शन को अपना सौभाग्य ही माना कि इतने दूर दराज स्थान पर हमें नानक जी के उस रूप का दर्शन मिला जो एक पवित्र पाषाण के रूप में है। वैसे गुरुद्वारों में सिवाए गुरु ग्रंथसाहब के किसी मूर्ति को रखने की प्रथा नहीं है। पर यहाँ यह पत्थर मौजूद है और यात्री पास जाकर दर्शन कर सकते हैं।

हम वहाँ से नुब्रा पहुँचे। हमारे रहने की बहुत ही उत्तम व्यवस्था की गई थी। नुब्रा में एक रात रहने बाद इसके आगे हमारी यात्रा बहुत लंबी थी। हम पैंगोंग त्सो देखने के लिए निकले। रास्ते में कहीं कहीं बायसन चरते हुए दिखाई देते। यहाँ के निवासी ज़मीन के नीचे गुफा जैसी जगह बनाकर रहते हैं ताकि सर्द हवा और बर्फ से बचे रहें। गाड़ी के चालक ने बताया कि बायसन पालनेवाले उनके दूध से चीज़ बनाने की कला सीख गए हैं। यहाँ लेह लदाख के सुदूर इलाकों में जीवन बहुत कठिन है। उद्योग के खास ज़रिए भी नहीं है।

हम सब पैंगोंग त्सो या लेक देखने पहुँचे। यहाँ पर भी प्रियंवदा के नेतृत्व में हमें आर्मी मोटर बोट में बैठकर विहार करने का 112 मौका मिला। यद्यपि पिछले पाँच वर्षों से वहाँ पर्यटकों के लिए नौका विहार की मनाही थी। पर प्रियंवदा के किसी परिचित आर्मी चीफ की सहायता से हम शिक्षकों को इजाज़त मिल गई और हम सबने इस विहार का आनंद भी लिया।

लेक के किनारे ही गणपति जी का छोटा-सा मंदिर है। उस दिन सुदैव से संकष्टी चतुर्थी का दिन था। हम सबने आरती की और टेन्ट की ओर बढ़े जहाँ हमारे रहने की व्यवस्था थी। न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि कदम – कदम पर ईश्वर इस यात्रा में हमारे साथ उपस्थित थे। जो कुछ देखना चाहा,करना चाहा बस वह जादू की तरह तुरंत सामने उपस्थित हो जाता। इसे ईश्वर की कृपा ही कहेंगे न!

पैगोंग त्सो या लेक 134 कि.मी लंबा है। यह

समुद्री तल से 4350 मी.की ऊँचाई पर है। यह संसार का सबसे ऊँचाई पर स्थित खारे जल का स्रोत है।

इसके एक छोर पर चीन का कब्ज़ा है। इस लेक का पानी स्वच्छ ,पारदर्शी और आकर्षक है। लेक के किनारे स्थित पहाड़ों का प्रतिबिंब लेक के जल में इतना स्पष्ट दिखाई देता है कि आँखों पर विश्वास ही नहीं होता। यहाँ भयंकर सर्द हवा चलती है। ठंड के दिनों में लेक पर बर्फ की मोटी परत चढ़ जाती है। सारा पानी जम जाता है। इस लेक में किसी प्रकार के कोई जीव,मत्स्य आदि नहीं पाए जाते। यह खारे जल का स्रोत है।

अनेकों कमियों और अभावों के चलते भी हमारे रहने तथा भोजन आदि की व्यवस्था अति उत्तम थी। पर्यटकों के आने पर कई लोगों को रोज़गार भी मिल जाता है।

दूसरे दिन हम लदाख से लेह की ओर लौटने लगे। रास्ते में थ्री इडियट नामक सिनेमा में दर्शाए गए फुनसुख वांगडू की पाठशाला भी देखने गए। लोकल लोगों के नृत्य का कार्यक्रम देखने का अवसर मिला। उनके साथ हमारी सखियाँ नाच भी लीं। आनंदमय वातावरण था। सन ड्यू रेगिस्तान में दो कूबड़ वाले और लंबे बालवाले ऊँट की सवारी की गई। थोड़ी देर के लिए हम सब अपनी उम्र भूल ही चुके थे।

धीरे -धीरे लेह की ओर लौटते हुए कई बौद्ध विहार के हमने दर्शन किए। कुछ पहाड़ों की ऊँचाई पर स्थित हैं तो कुछ पहाड़ों की तराई में। हर एक मंदिर /विहार अपनी सुंदरता,शांति और भव्यता के कारण पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है।

वहाँ के निवासी सीधे -सरल और मिलनसार हैं। वे पर्यटकों की बहुत अच्छी देखभाल करते हैं। मृदुभाषी हैं। सभी बड़ी सरलता से हिंदी बोलते हैं।

गाड़ी के चालक से ही ज्ञात हुआ कि जब कड़ाके की सर्दी पड़ती है और पर्यटक भी नहीं होते तब वे हमारी सेना की सहायता के लिए सियाचिन की ओर निकल जाते हैं और तीन माह वे वहीं अच्छी रकम पाकर सामान ढोने का काम करते हैं। सियाचिन में भी एक निश्चित स्थान के बाद सेना की ट्रकें आगे नहीं बढ़ सकती हैं वहीं ये लदाखी काम आते हैं।

हमारे लौटने का समय आ गया था। दस – बारह दिन अत्यंत आनंद के साथ गुज़ारे गए। हम जिस भीड़भाड़ में रहते हैं,जहाँ सभी दौड़ते – से लगते हैं उस भीड़ से बिल्कुल हटकर एक अलग दुनिया की हम सैर कर आए थे। शांति, संतोष, सौंदर्य और सरलता का अगर दर्शन करना चाहते हैं तो लेह लदाख अवश्य जाएँ।

यह मेरा सौभाग्य ही है कि 2022 सितंबर के महीने में मैं अपने पति बलबीर को साथ लेकर फिर लेह- लदाख के लिए निकली। इस बार पत्थर साहब में बाबाजी का दर्शन साथमें किया।

ईश्वर के प्रति कृतज्ञ हूँ कि इस तरह दूर -दराज़ स्थानों के पवित्र मंदिर और गुरुद्वारों के दर्शन का मुझे निरंतर सौभाग्य मिलता आ रहा है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ धोबी का कुत्ता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “धोबी का कुत्ता”।)  

? अभी अभी ⇒ धोबी का कुत्ता? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

क्या आपने कभी किसी धोबी के कुत्ते को देखा है ? मैंने तो नहीं देखा। मैंने धोबी का घर भी देखा है, और घाट भी। लेकिन वह बहुत पुरानी बात है। तब शायद धोबी और कुत्ते का कुछ संबंध रहा हो।

धोबी को आज कुत्ते की ज़रूरत नहीं! वह खुद ही आजकल घाट नहीं जाता तो कुत्ते को क्या ले जाएगा। वैसे धोबी कुत्ता क्यों रखता था, यह प्रश्न कभी न तो धोबी से पूछा गया, न कुत्ते से।।

पहले की तरह आज धोबी-घाट नहीं होते! सुबह 5 बजे से ही कपड़ों के पटकने की आवाज़ें वातावरण में गूँजने लगती थीं। कपड़ों की दर्द भरी आवाज़ों के साथ ही धोबी के मुँह से भी एक सीटी जैसी आवाज़ निकलती थी, जो सामूहिक होने से संगीत जैसा स्वर पैदा करती थी। कपड़े चूँकि सूती होते थे, अतः उनकी तबीयत से धुलाई होती थी। बाद में उन्हें सुखाने का स्नेह सम्मेलन होता था। तब शायद कुत्ता उनकी रखवाली करता हो।

सूती कपड़ों की जगह टेरीकॉट और टेरिलीन ने ले ली! घर घर महिलाओं के लिए वाशिंग मशीन और सर्फ एक्सेल की बहार आ गई। कपड़े ड्रायर से ही सूखकर बाहर आने लगे। और तो और, घर की स्त्रियाँ घर पर ही कपडों की इस्त्री करने लगी। अब कुत्ते का धोबी खुद ही न घर का रहा न घाट का।।

मैं कपड़ों पर इस्त्री करवाने धोबी के घर जाता था, लेकिन उसके कुत्ते से मुझे डर लगता था। लकड़ी के कोयलों की बड़ी सारी इस्त्री होती थी, जो एक ही हाथ में कपड़ों की सलवटें दूर कर देती थी। कपड़ों की तह भी इतने सलीके से की जाती थी कि देखते ही बनता था। 25 और 50 पैसे प्रति कपड़े की इस्त्री आज कम से कम 5 रुपये में होती है। सब जगह बिजली की प्रेस जो आ गई है। ज़बरदस्त पॉवर खींचती है भाई।

बेचारे  देसी लावारिस कुत्ते, निर्माणाधीन मकानों के चौकीदारों के परिवार के साथ सपरिवार अपने दिन काट रहे हैं। रात भर चौकीदारी करते हैं, दिन भर सड़कों पर घूमते हैं। विदेशी नस्ल के कुत्तों ने न कभी धोबी देखा न धोबी घाट। कभी मालिक अथवा मालकिन के साथ मॉर्निंग वॉक पर देसी कुत्तों से दुआ सलाम हो जाती है। एक दूसरे पर गुर्रा लेते हैं, और अपने अपने काम पर लग जाते हैं।।

आज की राजनीति में मतदाता की स्थिति भी धोबी के कुत्ते जैसी हो गई है। चुनाव सर पर आ रहे हैं, मानो लड़की की शादी करनी है, और अभी लड़का ही तय नहीं हुआ। ढंग के लड़के एक बार मिल जाएं, लेकिन मनमाफिक उम्मीदवार मिलना मुश्किल है।

उम्मीदवारों का बाज़ार सजा है।मन-लुभावन नारे हैं, वायदे हैं, संकल्प हैं। एक तरफ कुआं, एक तरफ खाई, मतदाता जाए तो किधर जाए! फिर भी वह चौकन्ना रहेगा। आखिर वही तो सच्चा चौकीदार है भाई।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 137 – “उस सफर की धूप छांव” – डा पूजा खरे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डा पूजा खरे जी के कथा संग्रह “उस सफर की धूप छांव” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 137 ☆

☆ “उस सफर की धूप छांव” – डा पूजा खरे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

कृति : उस सफर की धूप छांव

लेखिका : डा पूजा खरे

प्रकाशक: ज्ञान मुद्रा प्रकाशन, भोपाल

मूल्य: १५० रुपये

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

☆ सेरेंडिपीटी अर्थात मूल्यवान संयोगो की मंगलकामनायें ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

लाकडाउन अप्रत्याशित अभूतपूर्व घटना थी, सब हतप्रभ थे, किंकर्त्व्यविमूढ़ थे, कहते हैं यदि हिम्मत न हारें तो जब एक खिड़की बंद होती है तो कई दरवाजे खुल जाते हैं, लाकडाउन से जहां एक ओर रचनाकारो को समय मिला, वैचारिक स्फूर्ति मिली वहीं उसे अभिव्यक्त करने के लिये नये संसाधनो प्रकाशन सुविधाओ, इंटरनेट के सहारे सारी दुनियां का विशाल कैनवास मिला, मल्टी मीडिया के इस युग में भी किताबों का महत्व यथावत बना हुआ है, नैसर्गिक या दुर्घटना जनित त्रासदियां संवेदना में उबाल लाती हैं, भोपाल तो गैस त्रासदी का गवाह रहा है, कोरोना में राजधानी होने के नाते न केवल भोपाल वरन प्रदेश की घटनाओ की अनुगूंज यहां मुखरता से सुनाई देती रही है, तब की किंकर्त्व्य विमूढ़ता के समय में कला साहित्य ने मनुष्य में पुनः प्राण फूंकने का महत्वपूर्ण कार्य किया, किताब की लम्बी भूमिका में आनंद कृष्ण जी ने त्रासदियों के इतिहास और मानव जीवन पर विस्तार से प्रकाश डाला है, पुस्तक की लेखिका डा पूजा खरे मूलतः भले ही डेंटिस्ट हैं किन्तु उनके संवेदनशील मन में एक नैसर्गिक कहानीकार सदा से जीवंत रहा है, जब कोई ऐसा जन्मजात अनियत कालीन रचनाकार शौक से कुछ अभिव्यक्त करता है तो वह स्थापित पुरोधाओ के क्लिष्ट शब्दजाल से उन्मुक्त अपनी सरलता से पाठक को जीत लेता है, डा पूजा की कहानियां भी ऐसी ही हैं, छोटी, मार्मिक और प्रभावी,

मेरे पिता वरिष्ठ कवि प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव “विदग्ध” जी की पंक्तियां हैं

“सुख दुखो की आकस्मिक रवानी जिंदगी

हार जीतो की बड़ी उलझी कहानी जिंदगी

भाव कई अनुभूतियां कई, सोच कई व्यवहार कई

पर रही नित भावना की राजधानी जिंदगी “

इस संग्रह “उस सफर की धूप छांव ” में कुल दस हमारे आस पास बिखरी घटनाओ पर गढ़ी गई कहानियां संजोई गई हैं, सुख दुख, हार जीत, जीवन की अनुभूतियों और व्यवहार, इन्हीं  भावों की कहानियां बड़ी कसावट और शिल्प सौंदर्य से बुनी गई हैं, ये सारी ही कहानियां पाठक के सम्मुख अपने वर्णन से पाठक के सम्मुख दृश्य उपस्थित करती हैं, संग्रह की अंतिम कहानी ” मन के जीते जीत ” को ही लें,..

यह कहानी संभवतः वर्ष २०४५ में मूर्त हो सकेगी, क्योंकि कोरोना काल में पैदा हुआ रोहित मां की मेहनत और अपने श्रम से तपकर उससे पहले तो आई ए एस की परीक्षा में प्रथम नही आ सकता, अस्तु यह भविष्य की कल्पना के जीवंत दृश्य बुन सकने की क्षमता लेखिका को विशिष्ट बनाती है, सरल संवाद की भाषा कोई बनावटीपन नहीं अच्छी लगी,

कोरोना काल का इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र, राजनीति सब कुछ मिलता है इन कहानियों में, सचमुच साहित्य समाज का दर्पण है, निशान, जागा हुआ सपना, कब तक, घंटी, कुछ ख्वाब चंद उम्मीदें, चातक की प्यास, प्राण वायु, एक्स फैक्टर, लत और मन के जीते जीत ये कुल दस कहानियां हैं,

जागा हुआ सपना कहानी से ही उधृत करता हूं,..” १४ दिन मुझे अस्पताल के कोरोना वार्ड में ही गुजारने थे,,.. न कोई घर का व्यक्ति न दोस्त, हर तरफ सिर्फ मेरी तरह मरीज, चिकित्सक, नर्स और सफाई कर्मचारी ही दिखते थे,..उस हमउम्र नर्स को मैंने किसी पर खीजते नहीं देखा,. पी पी ई किट के भीतर से आती उसकी दबी दबी सी आवाज से ही उसे पहचानता था… जिस तरह मैंने सिंद्रेला, रँपन्जेल, स्नो व्हाईट, स्लीपिंग ब्यूटी को कभी नहीं देखा उसी तरह उसे भी कभी नही देखा,.. किंचित कवित्व और नाटकीयता भी इस कहानी की अभिव्यक्ति में मिली, यह भी पता चलता है कि लेखिका विश्व साहित्य की पाठिका है, अस्तु मैं ये छोटी छोटी कहानियां एक एक सिटिंग में मजे से पढ़ गया, आपको भी खरीद कर पढ़ने की सलाह दे रहा हूं, इधर ज्ञान मुद्रा प्रकाशन ने भोपाल में सद साहित्य को सामने लाने का जो महत्वपूर्ण बीड़ा उठाया है, उसके लिये उन्हें भी बधाई बनती है, डा पूजा खरे से हिन्दी कहानी जगत को और उम्मीदें हैं, उन्हें उनके ही शब्दों में सेरेंडिपीटी अर्थात मूल्यवान संयोगो की मंगलकामनायें,

एक कमी का उल्लेख जरूरी लगता है किताब में लेखकीय फीड बैक के लिये क से कम एक मेल आईडी दी जानी चाहिये थी, डा पूजा जैसी लेखिका एक किताब लिखकर गुम होने के लिये नहीं हैं,

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 157 – परछाई ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा परछाई”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 15 ☆

☆ लघुकथा 🌹 परछाई 🌹

कमला रोज सिर पर लकड़ी का बोझ लिए चलती जाती। कड़क तेज धूप पसीना पोंछती अक्सर अपनी परछाई को देखती।

उसे लगता क्या?? सारी जिंदगी सिर्फ बोझ ही उठाती रहूंगी। थकी हारी शाम को अपने घर भोजन बनाकर सभी परिवार का रुखा सुखा इंतजाम करती और थकान से चूर बिस्तर पर सोते ही नींद लग जाती।

कभी उसने रात में चांदनी की सुंदरता नहीं देखी थी।

आज पूनम की रात अचानक नींद खुली। बाहर आंगन में निकलकर वह बैठी थी। साड़ी का पल्लू सिर पर डाल रही थी कि पीछे से आज उसकी परछाई किसी खूबसूरत रानी की तरह बनी। ऐसा लगा मानो सिर पर ताज लगा रखी हो।

अपनी परछाई को घंटों निहारते वह बैठी रही। उसने सोचा सही कहा करती थी अम्मा.. पूनम की रात सभी के सपने पूरे होते हैं। खुशी से आंखों से आंसू बहने लगे। दूर से दूधिया रोशनी से नहाती आज वह अत्यधिक प्रसन्न हो रही थी।

परछाई ही सही, मेरी अपनी परछाई ही तो है। तभी पति देव ने आवाज लगाई… आ जा कमला सो जा पूनम का चांद सिर्फ हम सुनते हैं और देखते हैं, हमारे लिए नहीं है हमारे लिए तो सिर्फ तपती दोपहरी की परछाई ही हकीकत है। जो हमें सुख से रात को चैन की नींद सुलाती है।

पति देव की बात को शायद समझ नहीं सकी। परन्तु सोकर जल्दी उठ काम पर जाना है सोच वह सोने चली गई।  

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 33 – देश-परदेश – हमारा गुरुद्वारा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 33 ☆ देश-परदेश – हमारा गुरुद्वारा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज विदेश में प्रातः भ्रमण के समय एक गुरुद्वारे के दर्शन हो गए। हमारी खुशी का ठिकाना ना रहा, मानो कोई साक्षात भगवान के दर्शन हो गए।

करीब बीस एकड़ भूमि में बने गुरुद्वारे में प्रवेश किया, तो वहां एकदम शांति थी। छोटे से कस्बे मिलिस जिला मैसाचुसेट्स जो कि अमेरिका के पूर्वी भाग में स्थित हैं। आस पास लोगों के घर हैं, कोई भारतीय निवासी भी नहीं दिख रहा था।

एक अंग्रेज़ सी दिखने वाली महिला ने अपना भारतीय मूल का नाम जिसमें कौर भी शामिल था, परिचय दिया। वो मूलतः फ्रांस देश से हैं।

गुरुग्रंथ साहब को सम्मान पूर्वक माथा टेकने के पश्चात, महिला से थोड़ी देर गुरुद्वारे की जानकारी ली।

गुरुद्वारे का संबंध “मेरिकन सिख” से हैं। इस देश में करीब सौ वर्ष पूर्व कुछ सिख परिवार इस देश में रच बस गए हैं। हमारी जानकारी में तो इंग्लैंड, कनाडा और अफगानिस्तान में ही सिख समुदाय के लोग बहुतायत से रहते है। अमेरिका में भी सात लाख के करीब सिख बंधु रहते हैं।

ये लोग योग और कुंडलिनी से संबंधित ऑनलाइन शिक्षा देते हैं। वो बात अलग है, कुछ फर्जी प्रकार के कुंडलिनी योग भी अमेरिका में पैसा कमाने का साधन बने हुए हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्य यांत्रिकी की प्रथम गोष्ठी संपन्न ☆ प्रस्तुति – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्य यांत्रिकी की प्रथम गोष्ठी संपन्न ☆ प्रस्तुति – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव🌹

भाषा की समृद्धि में उसका तकनीकी पक्ष तथा साहित्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है. यूनीकोड लिपि व विभिन्न साफ्टवेयर में हिन्दी के उपयोग हेतु अभियंताओ ने महत्वपूर्ण तकनीकी योगदान दिया है . तकनीक ने ही हिन्दी को कम्प्यूटर से जोड़ कर वैश्विक रूप से प्रतिष्ठित कर दिया है.

हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि में भी अनेक अभियंता साहित्यकारो का भी अप्रतिम योगदान है , स्व चंद्रसेन विराट हिन्दी गजल में, इंजीनियर नरेश सक्सेना हिन्दी कविता के पहचाने हुये नाम है .यद्यपि साहित्य को लेखक की व्यवसायिक योग्यता की खिड़कियों से नहीं देखा जाना चाहिये . साहित्य रचनाकार की जाति, धर्म, देश, कार्य, आयु, से अप्रभावित, पाठक के मानस को अपनी शब्द संपदा से ही स्पर्श कर पाता है. तथापि समीक्षक की अन्वेषी दृष्टि से अभियंताओ के साहित्यिक अवदान को रेखांकित किया जाना वांछित है . इस उद्देश्य से इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स के तत्वावधान में एक राष्ट्रीय अधिवेशन प्रस्तावित है . निरंतरता का साहित्य साधना में बड़ा महत्व होता है . इस भाव से साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय इंजीनियर्स ने साहित्य यांत्रिकी का गठन किया है . संस्था प्रति माह प्रथम रविवार को विचार गोष्ठी , काव्य गोष्ठी का आयोजन नियमित रुप से करेगी .इसी क्रम का श्रीगणेश साहित्य यांत्रिकी की प्रथम गोष्ठी के साथ इंजी प्रियदर्शी खैरा जी के आवासीय सभागार में संपन्न हुआ .

वरिष्ठ व्यंग्यकार एवं कवि श्री हरि जोशी जी की अध्यक्षता में गोष्ठी का प्रारंभ किया इंजी मुकेश नेमा ने….

“ये देखकर मेरी जान जलती है,

मेरी नहीं चलती बस उनकी चलती है “

रवींद्र नाथ टैगोर विश्वविद्यालय वैशाली के कुलपति श्री व्ही के वर्मा ने अपनी गजल तरन्नुम में पढ़ी …

” हर बात जुबां तक आ जाये यह बात तो मुमकिन कभी नहीं,

हर बात तेरी सुन ली जाये यह बात तो मुमकिन कभी नहीं ”

श्री प्रियद्रशी खैरा की बसंत को लेकर पढ़ी गई इन पंक्तियों ने सबका ध्यानाकर्षण किया …

“बस अंत आ गया ,

सोच कर जियो ,

जीवन का हर क्षण ,

सोम रस पियो ,

जीवन दर्शन मौसम सिखा गया ,

लो बसंत आ गया “

गायक एवं कवि मंथन शीर्षक से कई पुस्तकों के रचनाकार श्री अशेष श्रीवास्तव ने पढ़ा

“मैं सूर्य हूं पर कभी बताया नहीं

जीवन देता हूं पर जताया नहीं

अंधकार से कभि घबराया नहीं

अकेला ही सही डगमगाया नहीं “

इंजी अरुण तिवारी प्रेरणा पत्रिका के संपादक हैं. वे राष्ट्रीय स्तर पर पहचाने जाने वाले वरिष्ठ कथाकार हैं. उन्होने गोष्ठी का वातावरण बदलते हुये अपनी कहानी “मुखौशे” पढ़ी, जिसकी सभी ने मुक्त कंठ सराहना की.

वरिष्ठ कवि सशक्त हस्ताक्षर श्री अजेय श्रीवास्तव ने फरमाईश पर अपनी लोकप्रिय रचना “बाउजी” एवं “अक्षुण्ण ” पढ़ीं . उनकी अकविता की डिलेवरी शैली ने सभी को प्रभावित किया और इन भाव प्रवण रचनाओ ने श्रोताओ की सराहना अर्जित की .

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ने “शब्द तुम्हारे कुछ लेकर के घर लौटें तो अच्छा हो, कवि गोष्ठी से मंथन करते घर लौटें तो अच्छा हो ” रचना पढ़कर गोष्ठी आयोजन का महत्व प्रतिपादित किया.

अध्यक्षीय व्यक्तव्य में श्री हरि जोशी जी ने कहा कि अभियंताओ के साहित्यिक अवदान को एक मंच देने का भोपाल में किया जा रहा यह प्रयास राष्ट्रीय स्तर पर सर्वथा प्रथम कदम प्रतीत होता है . इस प्रयास की अनुगूंज हिन्दी के समीक्षा साहित्य में अवश्य होगी . उन्होने छोटी छोटी रचनायें भी पढ़ी.

“सिर्फ काम काम अ्वा सोना सोना

दोनों का अर्थ होता है जीवन खोना

सोना और काम दोनो जरूरी

बिना दोनों जिंदगी अधूरी”

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ने गोष्ठी का अत्यंत कुशलता पूर्वक संचालन किया. अंत में श्री प्रियदर्शी खैरा जी के आभार व्यक्तव्य के साथ नियत समय पर गोष्ठी पूरी हुई . इस अभिनव साहित्यिक आयोजन की भोपाल के साहित्य जगत में भूरि भूरि सराहना हो रही है .

साभार –  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

भोपाल, मध्यप्रदेश

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ओढ तीच अजूनही… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ओढ तीच अजूनही… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

ओढ  तीच अजूनही

अजूनही तीच आस

क्षणोक्षणी, पानोपानी

तेच तेच तुझे भास

 

मनी आठव दाटतो

गंधाळले हे चांदणे

माझ्या तुझ्या भेटीचेच

सुखवती ते बहाणे

 

हास्य तुझे मधाळसे

लाजुनिया ते पाहणे

पावसाच्या धारांचे ते

चिंब चिंब भिजवणे

 

कडाडता नभी वीज

बिलगुनी मज  जाणे

चिंब तुझ्या कुंतलात

माझे तुझे प्रेमगाणे

 

वाऱ्यावरी सखे तुझे

केस मोकळे मोकळे

गंधमळे दरवळता

जीव माझा तळमळे

 

 दोन धृवांवरी जरी

आज दोघे विहरतो

कोंदणात मनाच्या ग

 सुगंधल्या  क्षणी न्हातो

© वृंदा (चित्रा) करमरकर

सांगली

मो. 9405555728

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #187 ☆ ओठ कोरडे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 187 ?

☆ ओठ कोरडे…

दुष्काळाच्या सोबत मी तर नांदत होते

ओठ कोरडे घामासोबत खेळत होते

किती मारले काळाने या जरी कोरडे

काळासोबत तरी गोड मी बोलत होते

जरी फाटक्या गोणपटावर माझी शय्या

सवत लाडकी तिला दागिने टोचत होते

शिकार दिसता रस्त्यावरती डंख मारण्या

साप विषारी अबलेमागे धावत होते

उंबरठ्याची नाही आता भिती राहिली

नवी संस्कृती तिरकट दारा लावत होते

रक्त गोठले भांगेमधले कुंकू नाही

जखमा काही केसामागे झाकत होते

सरणावरती अता कशाला हवेय चंदन

दुर्भाग्याचा रोजच कचरा जाळत होते

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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