हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 60 ☆ ।। हे माँ दुर्गा पापनाशनी,तेरा वंदन बारम्बार है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। हे माँ दुर्गा पापनाशनी,तेरा वंदन बारम्बार है।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 60 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।। हे माँ दुर्गा पापनाशनी,तेरा वंदन बारम्बार है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

सुबह शाम की आरती और

माता का जयकारा।

नौदिवस का हरदिन बन गया

शक्ति का भंडारा।।

केसर चुनरी चूड़ी रोली हे माँ

तेरा श्रृंगार सब करें।

सिंह पर सवार माँ दुर्गा आयी

बन भक्तों का सहारा।।

[2]

तेरे नौं रूपों में समायी शक्ति

बहुत असीम है।

तेरी भक्ति से बन जाता व्यक्ति

बहुत प्रवीण है।।

हे वरदायनी पापनाशनी चंडी

रूपा कल्याणी तू।

दुर्गा नाम मात्र हो जाता व्यक्ति

भक्ति तल्लीन है ।।

[3]
नौं दिन की नवरात्रि मानो कि

ऊर्जा का संचार है।

भक्ति में लीन तेरे भजनों की

माया अपरम्पार है।।

कलश कसोरा जौ और पानी

आस्था के प्रतीक।

हे जगत पालिनी माँ दुर्गा तेरा

वंदन बारम्बार है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 124 ☆ ग़ज़ल – “अधर जो कह नहीं पाते…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक गावव ग़ज़ल  – “अधर जो कह नहीं पाते …” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #124 ☆  गजल – “अधर जो कह नहीं पाते …” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

अचानक राह चलते साथ जो जब छोड़ जाते हैं

वे साथी जिन्दगी भर, सच, हमेशा याद आते हैं।

 

बने रिश्तों को हरदम प्रेम जल से सीचते रहिये

कठिन मौकोें पै आखिर अपने ही तो काम आते हैं।

 

नहीं देखे किसी के दिन हमेशा एक से हमने

बरसते हैं जहाँ आँसू वे घर भी जगमगाते हैं।

 

बुरा भी हो तो भी अपना ही सबके मन को भाता है

इसी से अपनी टूटी झोपड़ी भी सब सजाते हैं।

 

समझना सोचना हर काम के पहले जरूरी है

किये कर्मो का फल क्योंकि हमेशा लोग पाते हैं।

 

जहाँ  पाता जो भी कोई परिश्रम से ही पाता है

जो सपने देखते रहते कभी कुछ भी न पाते हैं।

 

बहुत सी बातें मन की लोग औरों से छुपाते हैं

अधर जो कह नहीं पाते नयन कह साफ जाते हैं।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गीत – “गाँव की बेटी-दोहों में” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ गीत – “गाँव की बेटी-दोहों में” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

बेटी भाती गाँव की,जो गुण से भरपूर। 

जहाँ पहुँच जाती वहाँ, बिखरा देती नूर।। 

बेटी प्यारी गाँव की,प्रतिभा का उत्कर्ष। 

मायूसी को दूरकर,जो लाती है हर्ष।। 

बेटी जो है गाँव की,करना जाने कर्म। 

हुनर संग ले जूझती,सतत् निभाती धर्म।। 

गाँवों की बेटी सुघड़,बढ़ती जाती नित्य।

चंदा-सी शीतल लगे,दमके ज्यों आदित्य।। 

कुश्ती लड़ती,दौड़ती,पढ़ने का आवेग। 

गाँवों की बेटी लगे,जैसे हो शुभ नेग।। 

बेटी गाँवों की भली, होती है अभिराम। 

जिसके खाते काम के,हैं अनगिन आयाम।। 

खेतों से श्रम का सबक,बढ़ना जाने ख़ूब। 

गाँवों की बेटी प्रखर,होती पावन दूब।। 

करती बेटी गाँव की,अचरज वाले काम। 

मुश्किल में भी लक्ष्य पा,हासिल करती नाम।। 

गाँवों को देती खुशी,रचती है सम्मान। 

बेटी मिट्टी से बनी,रखती है निज आन।। 

राजनीति,सेना गहे,कला और विज्ञान। 

गाँवों की बेटी करे,पूरे सब अरमान।। 

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 16 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 16 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

और मनोरथ जो कोई लावै।

सोइ अमित जीवन फल पावै।।

चारों जुग परताप तुम्हारा।

है परसिद्ध जगत उजियारा।।

अर्थ:– हे हनुमान जी आप भक्तों के सभी प्रकार के मनोरथ को पूर्ण करते हैं। जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करें तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन में कोई सीमा नहीं होती।

हे हनुमान जी, आपके नाम का प्रताप चारों युगों तक फैला हुआ है। जगत में आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।

भावार्थ:- मनोरथ का अर्थ होता है “मन की इच्छा”। यह अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है। अगर हम हनुमान जी के पास, मन की अच्छी इच्छाओं को लेकर जाएंगे तो कहा जाएगा कि हम अच्छे मनोरथ से हनुमान जी से कुछ मांग रहे हैं। हनुमान जी हमारी इन इच्छाओं की पूर्ति कर देते हैं।

चारों युग अर्थात सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलयुग में परम वीर हनुमान जी का प्रताप फैला हुआ है। हनुमान जी का प्रताप से हर तरफ उजाला हो रहा है। उनकी कीर्ति पूरे विश्व में फैली हुई है।

संदेश:- हनुमान जी से अगर हम सच्चे मन से प्रार्थना करते हैं वह प्रार्थना अवश्य पूरी होती है।

इन चौपाइयों के बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-

और मनोरथ जो कोई लावै। सोइ अमित जीवन फल पावै।।

चारों जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा।।

इन चौपाइयों के बार-बार पाठ करने से जातक के सभी मनोरथ सिद्ध होंगे और उसकी कीर्ति हर तरफ फैलेगी।

विवेचना:- ऊपर हमने पहली और दूसरी पंक्ति का सीधा-साधा अर्थ बताया है। मनोरथ का अर्थ होता है इच्छा। परंतु किस की इच्छा। मनोरथ का अर्थ केवल मन की इच्छा नहीं है। अगर हम मनोरथ को परिभाषित करना चाहें तो हम कह सकते हैं की “मन के संकल्प” को मनोरथ कहते हैं। हमारा संकल्प क्योंकि मन के अंदर से निकलता है अतः इसमें किसी प्रकार का रंज और द्वेष नहीं होता है। हमारी इच्छा हो सकती है कि हम अपने दुश्मन का विध्वंस कर दें। भले ही वह सही रास्ते पर हो और हम गलत रास्ते पर हों। परंतु जब हम संकल्प लेंगे और वह संकल्प हमारे दिल के अंदर से निकलेगा तो हम इस तरह की गलत इच्छा हनुमान जी के समक्ष नहीं रख पाएंगे। हनुमान जी के समक्ष इस तरह की इच्छा रखते ही हमारी जबान लड़खड़ा जाएगी। दुश्मन अगर सही रास्ते पर है तो फिर हम यही कह पाएंगे कि हे बजरंगबली इस दुश्मन से हमारी संधि करा दो। हमें सही मार्ग पर लाओ। हमें कुमार्ग से हटाओ। यह संत-इच्छा पूरी हो इसके लिए हमें हनुमान जी से मन क्रम वचन से ध्यान लगाकर मांग करनी होगी। ऐसा नहीं है कि आप चले जा रहे हैं और आपने हनुमान जी से कहा कि मेरी इच्छा पूरी कर दो और हनुमान जी तत्काल दौड कर आपकी इच्छा को पूरी कर देंगे। इसीलिए इसके पहले की चौपाई में तुलसीदास जी कह चुके हैं “मन क्रम वचन ध्यान जो लावे”। हनुमान जी से कोई मांग करने के पहले आपको उस मांग के बारे में मन में संकल्प करना होगा। संकल्प करने के कारण आपकी मांग आपके मस्तिष्क से ना निकालकर हृदय से निकलेगी। आपके मन से निकलेगी। आदमी के अंदर का मस्तिष्क ही उसके सभी बुराइयों का जड़ है। मानवीय बुराइयां मस्तिष्क के अंदर से बाहर आती हैं। आप जो चाहते हो कि पूरी दुनिया का धन आपको मिल जाए यह आपका मस्तिष्क सोचता है, दिल नहीं। दिल तो खाली यह चाहता है कि आप स्वस्थ रहें। आपको समय-समय पर भोजन मिले। भले ही इस भोजन के लिए आपको कितना ही कठोर परिश्रम करना पड़े।

मनुष्य के मन का जीवन चक्र में बहुत बड़ा स्थान है। मैं एक बहुत छोटा उदाहरण आपको बता रहा हूं। मैं अपने पौत्र को जमीन से उठा रहा था। इतने में मेरे घुटने में कट की आवाज हुई और मेरी स्थिति खड़े होने लायक नहीं रह गई। मैंने सोचा कि मेरे घुटने की कटोरी में कुछ टूट गया है और मैं काफी परेशान हो गया। हनुमान जी का नाम बार-बार दिमाग में आ रहा था। मेरा लड़का मुझे लेकर डॉक्टर के पास गया। डॉक्टर ने मुझे देखने के बाद एक्सरे कराने के लिए कहा। एक्सरे कराने के उपरांत रिजल्ट देखकर डॉक्टर ने कहा कि नहीं कोई भी हड्डी टूटी नहीं है। लिगामेंट टूटे होंगे। यह सुनने के बाद मन के ऊपर जो एक डर बैठ गया था वह समाप्त हो गया। और मैं लड़के के सहारे से चलकर अपनी गाड़ी तक गया। यह मन के अंदर के डर के समाप्त होने का असर था जिसके कारण डॉक्टर को दिखाने के बाद मैं पैदल चल कर गाड़ी तक पहुंचा। एक दूसरा उदाहरण भी लेते हैं। एक दिन मैं अपने मित्र के नर्सिंग होम में बैठा हुआ था। कुछ लोग एक वृद्ध को स्ट्रेचर पर रखकर मेरे मित्र के पास तक आए। उन्होंने बताया कि इनको हार्ट में पेन हो रहा है। मेरे मित्र द्वारा जांच की गई तथा फिर ईसीजी लिया गया। इसीजी देखने के उपरांत मेरे मित्र ने पुनः पूछा कि क्या आपको दर्द हो रहा है ? बुजुर्ग महोदय ने कहा हां अभी भी उतना ही दर्द है। मेरे मित्र को यह पुष्टि हो गई कि यह दर्द हृदय रोग का ना हो कर गैस का दर्द है। जब हमारे मित्र ने यह बात बुजुर्ग को बताई तो उसके उपरांत वे बगैर स्ट्रेचर के चलकर अपनी गाड़ी तक गए। यह मन का आत्म बल ही था जिसके कारण वह बुजुर्ग व्यक्ति अपने पैरों पर चलकर गाड़ी तक पहुंचे। एक बार मन भयभीत हो गया कि हमारी सम्पूर्ण शारीरिक शक्ति व्यर्थ हो जाती है। इसलिए मन का शरीर में असाधारण स्थान है। ऐसा होने पर भी, भौतिक जीवन जीने वाले लोग मन की ओर उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं। अपने मस्तिष्क को श्रेष्ठ मानते हैं। शरीर के अंदर यह मन क्या है ? यह आपकी आत्मा है और आत्मा शरीर में कहां निवास करती है यह किसी को नहीं मालूम। आत्मा कभी गलत निर्णय नहीं करती। मन कभी गलत निर्णय नहीं करता। मन के द्वारा किया गया निर्णय हमेशा सही और उपयुक्त होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि :-

काम, क्रोध, मद, लोभ, सब, नाथ नरक के पंथ।

सब परिहरि रघुबीरहि, भजहुँ भजहिं जेहि संत।

विभीषण जी रावण को पाप के रास्ते पर आगे बढ़ने से रोकने के लिए समझाते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि नरक के रास्ते पर ले जाने वाले हैं। काम के वश होकर आपने जो देवी सीता का हरण किया है और आपको जो बल का अहंकार हो रहा है, वह आपके विनाश का रास्ता है। जिस प्रकार साधु लोग सब कुछ त्यागकर भगवान का नाम जपते हैं आप भी राम के हो जाएं। मनुष्य को भी इस लोक में और परलोक में सुख, शांति और उन्नति के लिए इन पाप की ओर ले जाने वाले तत्वों से बचना चाहिए।

इस प्रकार तुलसी दास जी विभीषण के मुख से रावण को रावण की आत्मा या रावण के मन की बात को स्वीकार करने के लिए कहते हैं।

रामचरित मानस में तुलसी दास जी यह भी बताते हैं कि संत के अंदर क्या-क्या चीजें नहीं होना चाहिए। इसका अर्थ यह भी है क्या-क्या चीजें आपके मस्तिष्क के अंदर अगर नहीं है तो यह निश्चित हो जाता है कि आप मन की बात सुनते हो।

विभीषण जी रावण को पाप के रास्ते पर आगे बढ़ने से रोकने के लिए समझाते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि नरक के रास्ते पर ले जाने वाले हैं। काम के वश होकर आपने (रावण) जो देवी सीता का हरण किया है और आपको जो बल का अहंकार हो रहा है, वह आपके विनाश का रास्ता है। जिस प्रकार साधु लोग सब कुछ त्यागकर भगवान का नाम जपते हैं उसी प्रकार आप भी दुर्गुणों को छोड़कर राम के हो जाएं। मनुष्य को इस लोक और परलोक में सुख, शांति और उन्नति के लिए इन पाप की ओर ले जाने वाले तत्वों से बचना चाहिए।

ऊपर की सभी बातों से स्पष्ट है कि अगर आप काम, क्रोध, मद, लोभ आदि मस्तिष्क के विकारों से दूर होकर के मन से संकल्प लेंगे और हनुमान जी को एकाग्र (मन क्रम वचन से) होकर याद कर उनसे मांगेंगे तो आपको निश्चित रूप से जीवन फल प्राप्त होगा। परंतु यह जीवन फल क्या है। इसको गोस्वामी तुलसीदास जी ने कवितावली में स्पष्ट किया है।:-

सियराम सरूप अगाध अनूप, विलोचन मीनन को जलु है।

श्रुति रामकथा, मुख राम को नामु, हिये पुनि रामहिं को थलु है।।

मति रामहिं सो, गति रामहिं सो, रति राम सों रामहिं को बलु है।

सबकी न कहै, तुलसी के मते,इतनो जग जीवन को फलु है।।

अर्थात राम में पूरी तरह से रम जाना अमित जीवन फल है। परंतु यह गोस्वामी जी जैसे संतों के लिए है। जनसाधारण का संकल्प कुछ और भी हो सकता है। आप की मांग भी निश्चित रूप से पूर्ण होगी। आपको किसी और दरवाजे पर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। एक और बात में पुनः स्पष्ट कर दूं कि यहां पर हनुमान जी शब्द से आशय केवल हनुमान जी से नहीं है वरन सभी ऊर्जा स्रोतों जैसे मां दुर्गा और उनके नौ रूप या कोई भी अन्य देवी देवता या रामचंद्र जी कृष्ण जी आदि से है।

 एक तर्क यह भी है कि अपने मन की बातों को हनुमान जी से कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। वे तो सर्वज्ञ हैं। उनको हमारे बारे में सब कुछ मालूम है। वे जानते हैं कि हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा है। अकबर बीरबल की एक प्रसिद्ध कहानी है जिसमें एक बार अकबर की उंगली कट गई सभी दरबारियों ने इस पर अफसोस जताया परंतु बीरबल ने कहा चलिए बहुत अच्छा हुआ ज्यादा उंगली नहीं कटी। अकबर इस पर काफी नाराज हुआ और बीरबल को 2 महीने की जेल का हुक्म दे दिया। कुछ दिन बाद अकबर जंगल में शिकार खेलने गए। शिकार खेलते-खेलते वे अकेले पड़ गए। आदिवासियों के झुंड ने उनको पकड़ लिया। ये आदिवासी बलि चढ़ाने के लिए किसी मनुष्य को ढूंढ रहे थे। अकबर को बलि के स्थान पर लाया गया। बलि देने की तैयारी पूर्ण कर ली गई। अंत में आदिवासियों का ओझा आया और उसने अकबर का पूरा निरीक्षण किया। निरीक्षण के उपरांत उसने पाया कि अकबर की उंगली कटी हुई है। इस पर ओझा ने कहा कि इस मानव की बलि पहले ही कोई ले चुका है। अतः अब इसकी बलि दोबारा नहीं दी जा सकती है। फिर अकबर को छोड़ दिया गया। राजमहल में आते ही अकबर बीरबल के पास गए और बीरबल से कहा कि तुमने सही कहा था। अगर यह उंगली कटी नहीं होती जो आज मैं मार डाला जाता।

 भगवान को यह भी मालूम है कि हमारे साथ आगे क्या क्या होने वाला है। अगर हम एकाग्र होकर हनुमान जी का केवल ध्यान करते हैं तो वे हमारे लिए वह सब कुछ करेंगे जो हमारे आगे की भविष्य के लिए हित वर्धक हो। उदाहरण के रूप में एक लड़का पढ़ने में अच्छा था। डॉक्टर बनना चाहता था। पीएमटी का टेस्ट दिया जिसमें वह सफल नहीं हो सका। वह लड़का हनुमान जी का भक्त भी था और उसने हनुमान जी के लिए उल्टा सीधा बोलना प्रारंभ कर दिया। गुस्से में दोबारा मैथमेटिक्स लेकर के पढ़ना प्रारंभ किया। आगे के वर्षों में उसने इंजीनियरिंग का एग्जाम दिया। एन आई टी में सिलेक्शन हो गया। शिक्षा संपन्न करने के बाद उसने अखिल भारतीय सर्विस का एग्जाम दिया और उसमें सफल हो गया। आईएएस बनने के बाद कलेक्टर के रूप में उसकी पोस्टिंग हुई। तब उसने देखा कि उस समय जिन लड़कों का पीएमटी में सिलेक्शन हो गया था, वे आज उसको नमस्ते करते घूम रहे हैं। तब वह लड़का यह समझ पाया बजरंगबली ने पीएमटी के सिलेक्शन में उसकी क्यों मदद नहीं की थी।

 निष्कर्ष यह है कि आप एकाग्र होकर, मन क्रम वचन से शुद्ध होकर, हनुमान जी का सिर्फ ध्यान करें,उनसे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है,आपको अपने आप जीवन का फल और ऐसा जीवन का फल जो कि अमित होगा, कभी समाप्त नहीं हो सकता होगा हनुमान जी आपको प्रदान करेंगे।

 हनुमान चालीसा की अगली चौपाई “चारों युग परताप तुम्हारा है प्रसिद्ध जगत उजियारा” अपने आप में पूर्णतया स्पष्ट है। यह चौपाई कहती है कि आपके गुणों के प्रकाश से आपके प्रताप से और आपके प्रभाव से चारों युग में उजाला रहता है। यह चार युग हैं सतयुग त्रेता द्वापर और कलयुग। यहां पर आकर हम में से जिसको भी बुद्धि का और ज्ञान का अजीर्ण है उनको बहुत अच्छा मौका मिल गया है। हमारे ज्ञानवीर भाइयों का कहना है हनुमान जी का जन्म त्रेता युग में हुआ है। फिर सतयुग में वे कैसे हो सकते हैं। इसलिए हनुमान चालीसा से चारों युग परताप तुम्हारा की लाइन को हटा देना चाहिए। इसके स्थान पर तीनों युग परताप तुम्हारा होना चाहिए।

हनुमान जी चिरंजीव है। उनकी कभी मृत्यु नहीं हुई है और न उनकी मृत्यु कभी होगी। यह वरदान सीता माता जी ने उनको अशोक वाटिका में दी है ऐसा हमें रामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा हुआ मिलता है :-

अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहु।।

करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमान।।”

हर त्रेता युग में एक बार श्री रामचंद्र जन्म लेते हैं और रामायण का अख्यान पूरा होता है। परंतु हनुमान जी पहले कल्प के पहले मन्वंतर के पहले त्रेता युग में जन्म ले चुके हैं और उसके उपरांत उनकी कभी मृत्यु नहीं हुई है इसलिए वे मौजूद मिलते हैं। इस प्रकार से चारों युग परताप तुम्हारा कहना उचित लग रहा है। आइए इस संबंध में विशेष रुप से चर्चा करते हैं।

 ब्रह्मा जी की उम्र 100 ब्रह्मा वर्ष के बराबर है। अतः मेरे विचार से ब्रह्मा जी के पहले वर्ष के पहले कल्प के पहले मन्वंतर जिसका नाम स्वयम्भुव है के पहले चतुर्युग के पहले सतयुग में हनुमान जी नहीं रहे होंगे। एक मन्वंतर 1000/14 चतुर्युगों के बराबर अर्थात 71.42 चतुर्युगों के बराबर होती है। इस प्रकार एक मन्वंतर में 71 बार सतयुग आएगा। अतः पहले त्रेता युग मैं हनुमान जी अवतरित हुए होंगे। उसके बाद से सभी त्रेतायुग में हनुमान जी चिरंजीव होने के कारण मौजूद मिले होंगे।

 चैत्र नवरात्रि प्रतिपदा रविवार को सतयुग की उत्पत्ति हुई थी। इसका परिमाण 17,28,000 वर्ष है। इस युग में मत्स्य, हयग्रीव, कूर्म, वाराह, नृसिंह अवतार हुए जो कि सभी अमानवीय थे। इस युग में शंखासुर का वध एवं वेदों का उद्धार, पृथ्वी का भार हरण, हरिण्याक्ष दैत्य का वध, हिरण्यकश्यपु का वध एवं प्रह्लाद को सुख देने के लिए यह अवतार हुए थे। इस काल में स्वर्णमय व्यवहार पात्रों की प्रचुरता थी। मनुष्य अत्यंत दीर्घाकृति एवं अतिदीर्घ आयुवाले होते थे।

 उपरोक्त से स्पष्ट है की पहले कल्प के पहले मन्वंतर के पहले सतयुग में हनुमान जी नहीं थे। उसके बाद के सभी सतयुग में हनुमान जी रहे हैं। परंतु प्रकृति के नियमों में बंधे होने के कारण उन्होंने कोई कार्य नहीं किया है जो कि ग्रंथों में लिखा जा सके।

आइए अब हम हिंदू समय काल के बारे में चर्चा करते हैं।

जब हम कोई पूजा पाठ करते हैं तो सबसे पहले हमारे पंडित जी हमसे संकल्प करवाते हैं और निम्न मंत्रों को बोलते हैं।

 ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:। श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्यैतस्य ब्रह्मणोह्नि द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे कलिप्रथमचरणे भूर्लोके भारतवर्षे जम्बूद्विपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तस्य…  क्षेत्रे…  मण्डलान्तरगते …  नाम्निनगरे (ग्रामे वा) श्रीगड़्गायाः…  (उत्तरे/दक्षिणे) दिग्भागे देवब्राह्मणानां सन्निधौ श्रीमन्नृपतिवीरविक्रमादित्यसमयतः…  संख्या -परिमिते प्रवर्त्तमानसंवत्सरे प्रभवादिषष्ठि -संवत्सराणां मध्ये…  नामसंवत्सरे,…  अयने,…  ऋतौ, …  मासे,…  पक्षे,…  तिथौ,…  वासरे,…  नक्षत्रे, …  योगे, …  करणे, …  राशिस्थिते चन्द्रे…  राशिस्थितेश्रीसूर्ये, …  देवगुरौ शेषेशु ग्रहेषु यथायथा राशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणविशेषणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ …  गोत्रोत्पन्नस्य …  शर्मण: (वर्मण:, गुप्तस्य वा) सपरिवारस्य ममात्मन: श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त-पुण्य-फलावाप्त्यर्थं ममऐश्वर्याभिः वृद्धयर्थं।

संकल्प में पहला शब्द द्वितीये परार्धे आया है। श्रीमद भगवत पुराण के अनुसार ब्रह्मा जी की आयु 100 वर्ष की है जिसमें से की पूर्व परार्ध अर्थात 50 वर्ष बीत चुके हैं तथा दूसरा परार्ध प्रारंभ हो चुका है। त्रैलोक्य की सृष्टि ब्रह्मा जी के दिन से प्रारंभ होने से होती है और दिन समाप्त होने पर उतनी ही लंबी रात्रि होती है। एक दिन एक कल्प कहलाता है।

यह एक दिन 1. स्वायम्भुव, 2. स्वारोचिष, 3. उत्तम, 4. तामस, 5. रैवत, 6. चाक्षुष, 7. वैवस्वत, 8. सावर्णिक, 9. दक्ष सावर्णिक, 10. ब्रह्म सावर्णिक, 11. धर्म सावर्णिक, 12. रुद्र सावर्णिक, 13. देव सावर्णिक और 14. इन्द्र सावर्णिक- इन 14 मन्वंतरों में विभाजित किया गया है। इनमें से 7वां वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है। 1 मन्वंतर 1000/14 चतुर्युगों के बराबर अर्थात 71.42 चतुर्युगों के बराबर होती है।

यह भिन्न संख्या पृथ्वी के 27.25 डिग्री झुके होने और 365.25 दिन में पृथ्वी की परिक्रमा करने के कारण होती है। दशमलव के बाद के अंक को सिद्धांत के अनुसार नहीं लिया गया है। दो मन्वन्तर के बीच के काल का परिमाण 4,800 दिव्य वर्ष (सतयुग काल) माना गया है। इस प्रकार मन्वंतरों के बीच का काल=14*71=994 चतुर्युग हुआ।

हम जानते हैं कि कलयुग 432000 वर्ष का होता है इसका दोगुना द्वापर युग, 3 गुना त्रेतायुग एवं चार गुना सतयुग होता है। इस प्रकार एक महायुग 43 लाख 20 हजार वर्ष का होता है।

71 महायुग मिलकर एक मन्वंतर बनाते हैं जो कि 30 करोड़ 67 लाख 20 हजार वर्ष का हुआ। प्रलयकाल या संधिकाल जो कि हर मन्वंतर के पहले एवं बाद में रहता है 17 लाख 28 हजार वर्ष का होता है। 14 मन्वन्तर मैं 15 प्रलयकाल होंगे अतः प्रलय काल की कुल अवधि 1728000*15=25920000 होगा। 14 मन्वंतर की अवधि 306720000*14=4294080000 होगी और एक कल्प की अवधि इन दोनों का योग 4320000000 होगी। जोकि ब्रह्मा का 1 दिन रात है। ब्रह्मा की कुल आयु (100 वर्ष) =4320000000*360*100=155520000000000=155520अरब वर्ष होगी। यह ब्रह्मांड और उसके पार के ब्रह्मांड का कुल समय होगा। वर्तमान विज्ञान को यह ज्ञात है कि ब्रह्मांड के उस पार भी कुछ है परंतु क्या है यह वर्तमान विज्ञान को अभी ज्ञात नहीं है।

अब हम पुनः एक बार संकल्प को पढ़ते हैं जिसके अनुसार वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है अर्थात 6 मन्वंतर बीत चुके हैं सातवा मन्वंतर चल रहा है। पिछले गणना से हम जानते हैं की एक मन्वंतर 306720000 वर्ष का होता है। छे मन्वंतर बीत चुके हैं अर्थात 306720000*6=1840320000 वर्ष बीत चुके हैं। इसमें सात प्रलय काल और जोड़े जाने चाहिए अर्थात (1728000*7) 12096000 वर्ष और जुड़ेंगे इस प्रकार कुल योग (1840320000+12096000) 1852416000 वर्ष होता है।

हम जानते हैं एक मन्वंतर 71 महायुग का होता है जिसमें से 27 महायुग बीत चुके हैं। एक महायुग 4320000 वर्ष का होता है इस प्रकार 27 महायुग (27*4320000) 116640000 वर्ष के होंगे। इस अवधि को भी हम बीते हुए मन्वंतर काल में जोड़ते हैं ( 1852416000+116640000) तो ज्ञात होता है कि 1969056000 वर्ष बीत चुके हैं।

28 वें महायुग के कलयुग का समय जो बीत चुका है वह (सतयुग के 1728000+ त्रेता युग 1296000+ द्वापर युग 864000 ) = 3888000 वर्ष होता है। इस अवधि को भी हम पिछले बीते हुए समय के साथ जोड़ते हैं (1969056000+ 3888000 ) और संवत 2079 कलयुग के 5223 वर्ष बीत चुके हैं।

अतः हम बीते गए समय में कलयुग का समय भी जोड़ दें तो कुल योग 1972949223 वर्ष आता है। इस समय को हम 1.973 Ga वर्ष भी कह सकते हैं।

ऊपर हम बता चुके हैं कि आधुनिक विज्ञान के अनुसार पृथ्वी का प्रोटेरोज़ोइक काल 2.5 Ga से 54.2 Ma वर्ष तथा और इसी अवधि में पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई है। इन दोनों के मध्य में भारतीय गणना अनुसार आया हुआ समय 1.973 Ga वर्ष भी आता है। जिससे स्पष्ट है कि भारत के पुरातन वैज्ञानिकों ने पृथ्वी पर जीवन के प्रादुर्भाव की जो गणना की थी वह बिल्कुल सत्य है।

आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य 4.603 अरब वर्ष पहले अपने आकार भी आया था। इसी प्रकार पृथ्वी 4.543 अरब वर्ष पहले अपने आकार में आई थी।

हमारी आकाशगंगा 13.51 अरब वर्ष पहले बनी थी। अभी तक ज्ञात सबसे उम्रदराज वर्लपूल गैलेक्सी 40.03 अरब वर्ष पुरानी है। विज्ञान यह भी मानता है कि इसके अलावा और भी गैलेक्सी हैं जिनके बारे में अभी हमें ज्ञात नहीं है। हिंदू ज्योतिष के अनुसार ब्रह्मा जी का की आयु 155520 अरब वर्ष की है जिसमें से आधी बीत चुकी है। यह स्पष्ट होता है कि यह ज्योतिषीय संरचनाएं 77760 अरब वर्ष पहले आकार ली थी और कम से कम इतना ही समय अभी बाकी है।

ऊपर की विवरण से स्पष्ट है की हनुमान जी चारों युग में थे और उनकी प्रतिष्ठा भी हर समय रही है। एक सुंदर प्रश्न और भी है कि आदमी को यश या प्रतिष्ठा कैसे मिलती है। इस विश्व में बड़े-बड़े योद्धा राजा राष्ट्रपति हुए हैं परंतु लोग उनको एक समय बीतने के बाद भूलते जाते हैं परंतु तुलसीदास जी को नरसी मेहता जी को और भी ऋषि-मुनियों को कोई आज तक नहीं भूल पाया है। यश का सीधा संबंध आदमी के हृदय से है। जिसके हृदय में श्री राम बैठे हुए हैं उसकी प्रतिष्ठा हमेशा रहेगी। उसका यश हमेशा रहेगा। एक राजा की प्रतिष्ठा तभी तक रहती है जब तक वह सत्ता में है। सत्ता से हटते ही उसकी प्रतिष्ठा शुन्य हो जाती है। एक धनवान की प्रतिष्ठा तभी तक रहती है जब तक उसके पास धन है। कभी इस देश में टाटा और बिड़ला की सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा थी, आज अंबानी और अदानी की है। परंतु संतों की प्रतिष्ठा सदैव एक जैसी रहती है। वह कभी समाप्त नहीं होती है। इसी तरह से कुछ और भी हैं जैसे कवि या लेखक, साइंटिस्ट आदि। इन की प्रतिष्ठा हमेशा ही एक जैसी रहती है, क्योंकि इनका किया हुआ कभी समाप्त नहीं होता है।

हनुमान जी के हृदय में श्री राम जी सदैव बैठे हुए हैं उनकी प्रतिष्ठा कैसे समाप्त हो सकती है। एक भजन है :-

जिनके हृदय श्री राम बसे,

उन और को नाम लियो ना लियो।

एक दूसरा भजन भी है :-

जिसके ह्रदय में राम नाम बंद है

उसको हर घडी आनंद ही आनंद है

लेकर सिर्फ राम नाम का सहारा

इस दुनिया को करके किनारा

राम जी की रजा में जो रजामंद है

उसको हर घडी आनंद ही आनंद है

अतः जिसके हृदय में श्री राम निवास करते हैं उसको कोई और नाम लेने की आवश्यकता नहीं है। हनुमान जी की प्रभा को करोड़ों सूर्य के बराबर बताया गया है:-

ओम नमों हनुमते रुद्रावताराय

विश्वरूपाय अमित विक्रमाय

प्रकटपराक्रमाय महाबलाय

सूर्य कोटिसमप्रभाय रामदूताय स्वाहा।

इस प्रकार यह सिद्ध हो गया कि इन करोड़ों सूर्य के प्रकाश के बराबर हनुमान जी का प्रकाश चारों युग में फैल रहा है।

हनुमान जी की प्रतिष्ठा के बारे में बाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड के प्रथम सर्ग के द्वितीय श्लोक में श्री रामचंद्र जी ने कहा है कि हनुमान जी ने ऐसा बड़ा काम किया है जिसे पृथ्वी तल पर कोई नहीं कर सकता है। करने की बात तो दूर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है।

कृतं हनुमता कार्यं सुमहद्भुवि दुर्लभम्।

मनसापि यदन्येन न शक्यं धरणीतले॥

(वा रा /युद्ध कांड/1./2)

 और भी तारीफ करने के बाद श्री रामचंद्र जी ने कहा इस समय उनके पास अपना सर्वस्व दान देने के रूप में आलिंगन ही महात्मा हनुमान जी के कार्य के योग्य पुरस्कार है। यह कहने के उपरांत उन्होंने अपने आलिंगन में हनुमान जी को ले लिया।

 एष सर्वस्वभूते परिष्वङ्गो हनूमतः।

मया कालमिमं प्राप्य दत्तस्तस्य महात्मनः॥

(वाल्मीकि रामायण/युद्ध कांड/1 /13)

 इत्युक्त्वा प्रीतिहृष्टाङ्गो रामस्तं परिषस्वजे।

हनूमन्तं कृतात्मानं कृतकार्यमुपागतम् ॥

(वा रा/युद्ध कांड/ 1/14)

इस प्रकार भगवान श्री राम ने हनुमान जी को उनकी कृति और यश को हमेशा के लिए फैलने का वरदान दिया।

रुद्रावतर पवन पुत्र केसरी नंदन अंजनी कुमार भगवान हनुमान जी की कीर्ति जब से यह संसार बना है और जब तक यह संसार रहेगा सदैव फैलती रहेगी। उनके प्रकाश से यह जग प्रकाशित होता रहेगा। जय श्री राम। जय हनुमान।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वास्तु देव… ☆ सौ.मंजुषा सुधीर आफळे ☆

सौ. मंजुषा सुधीर आफळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वास्तु देव… ☆ सौ.मंजुषा सुधीर आफळे ☆

दिस आज, दीन झाले

उदास मी, हा तिष्ठतो

रिकाम्या घराचे ओझे

ओणव्याने रे सोसतो

 

शेतीवाडी टाकून तू

कुठे बरे, विसावला?

वास्तुपुरुष मी, माझा

संग तू कसा सोडला?

 

खरे तुझे, दारिद्र्य हे

इथे आज पसरले

लक्ष्मी, सरस्वती अशी

रुसली ते, बिनसले.

 

कर तयांची प्रार्थना

ज्ञानाची धरून कास

कृपा करी अन्नपूर्णा

मनी असावा विश्वास

 

आहे मी, इथेच असा

प्राण आणून डोळ्यांत

परतुनी ये मानवा

खरा मोद, निसर्गात

 

पुन्हा एकदा होऊ दे

गोकुळ आपले घर

कोकणात चैतन्याची

एकवार येवो सर

 

आंबा, सुपारी, फणस

माड, भात, काजूगर

शिवार, सडा फुलू दे

वाडीत दशावतार

 

हसावी, लाट किनारी

फेर धरी रे नाखवा

मातीच ती कोकणाची

धाडेल, तुला सांगावा.

 

© सौ.मंजुषा सुधीर आफळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 145 – शब्दभ्रम ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 145 – शब्दभ्रम ☆

नको नुसते शब्दभ्रम करा थोडे तरी काम।

जनतेच जीवन वर किती कराल आराम।।।धृ।।

आश्वासनांची खैरात कशी वारेमाप लुटता।

निवडुणका  येता सारे हात जोडत फिरता

कधी बोलून गुंडाळता कधी देता थोडा दाम ।।

योजनांची गमं त सारी कागदावरच चालते।

भोळीभाबडी जनता फक्त फॉर्म भरून दमते।

सरते शेवटी लावता कसा तुम्ही चालनचा लगाम।।

सत्ता बदलली पार्टी बदली ,पण दलाली तशीच राहिली।

नेते बदलले कधी खांदे पण लाचारी तिच राहिली।

टाळूवरचे लोणी खाताना, यांना फुटेल कसा घाम।

जात वापरली रंग वापरला ,यांनी देव सुद्धा वापरले।

इतिहासातल्या उणिवानी,त्यांचे वंशज दोषी ठरले।

माजवून समाजात दुफळी, खुशाल करतात आराम ।

प्रत्येक वेळी नवीन युक्ती कशी नेहमीच करते काम ।

सुशिक्षितही म्हणतो लेका आपलं नव्हेच हे काम ।

म्हणूनच सुटलेत का हो सारेच कसे बेलगाम।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “मार्च…महिना परिक्षेचा…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ “मार्च…महिना परिक्षेचा” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

मार्च महिना हा सगळ्यांसाठीच धावपळीचा, दगदगीचा आणि आव्हानाचा सुद्धा. शिक्षणक्षेत्र आर्थिक क्षेत्र,आणि मुख्य म्हणजे गृहीणी ह्यांच्या साठी तर हा महिना खूप जास्त महत्वाचा.

कँलेंडरवर नजर टाकली तर हा महिना खूप सुट्ट्यांचा दिसतो मात्र खासियत अशी की पेंडींग कामे,टारगेट्स ह्यामुळे ह्या सुट्ट्या नुसत्या दिसायलाच कँलेंडरच्या बाँक्समध्ये विराजमान असतात. कामाच्या रामरगाड्यामुळे एक तर ह्या सुट्ट्या अर्जत नाहीत आणि चुकून मिळाल्यातरी महत्वाची कामे सतत नजरेसमोर येत असल्याने त्या सुट्ट्यांमध्ये घरी मन रमत नाही वा सुट्ट्यांचा मनमुराद आनंदही उपभोगता येत नाही. सुट्ट्या मिळाल्या तरी हे माहिती असतं साठवून ठेवलेली कामे आपल्यालाच करायची असल्याने ही सगळी कामे नजरेसमोर फेर धरून नाचतात आणि त्यामुळे जीवाची तगमग ही होतेच. गृहीणींच्या भाषेत बोलायचं तर नजरेसमोर असतो धुणी, भांडी ह्यांचा घासायला,धुवायला असणारा ढिगारा आणि नेमकं टाकीतील पाण्याचा साठा संपून गेल्यावर जणू “जल बीन मछली “सारखी तगमगती अस्वस्थता.

हा मार्च महिना विद्यार्थ्यांसाठी,शिक्षक प्राध्यापक मंडळींसाठी,  शिक्षणमंडळ आणि विद्यापीठ ह्यामध्ये काम करणा-यांसाठी खूप ताणाचा, कामांचा असतो.

हा महिना राजकारणी मंडळींसाठी पण खूप महत्त्वाचा असतो.कित्येक दिवस खूप अभ्यास करुन मेहनतीनं सत्तेवर असणाऱ्या पक्षाला खर्चाचा ताळमेळ बसवत अंदाजपत्रक सादर करावं लागतं. राज्याच्या ,देशाच्या संपूर्ण अर्थव्यवस्थेची घडी बसविणं किती कठीण कामं असतं नं.आपल्याला साधं आपल्या घरातील जमाखर्च आणि अंदाजपत्रकाचा ताळमेळ बसवितांना सगळे देव आठवतात. हे तर पूर्ण राज्याचे, देशाचे कामं आणि इतकही करुन कौतुक वाट्याला येत नाही ते नाहीच. विरोधी पक्ष कुठलाही असो तो पक्ष त्यातील फक्त त्रुटी,कमतरता तेवढ्या शोधीत राहणार. माझ्या बघण्यात अजून एकदाही असा प्रसंग आला नाही ज्यामध्ये विरोधी पक्ष हा सत्तेवर असणाऱ्या मंडळींचे कौतुक करतोयं. असो

जणू मार्च महिना हा सगळ्यांची परीक्षा घेण्यासाठीच तयार झालेला महिना असावा. विद्यार्थ्यांनी संपूर्ण वर्षभराच्या केलेल्या कष्टांचे, श्रमाचे मुल्यमापन ह्याच काळात होतं जणू. बँकर्स, सी.ए.,आँडीटर्स, कर भरणारी जनता ह्यांची तर अक्षरशः “निंद हराम” करणारा हा महिना. टारगेट्स पूर्ण करण्यासाठी धडपड करणाऱ्या साठीचा हा कालावधी.

मार्च महिना हा गृहीणींसाठी पण खूप धावपळीचा आणि दगदगीचा महिना असतो. ह्या महिन्यात धान्य विकत घेऊन, त्याला ऊन दाखवून मग त्यावर कीडनाशक कडूलिंबाचा पाला टाकून ते धान्य साठवणूक म्हणून कोठ्यांमध्ये ठेवण्याचे महत्त्वाचे काम गृहीणींचे असते. त्याचबरोबर वर्षभर बेगमी म्हणून साठा करण्याचे पदार्थ उदा.पापड,कुरडई, लोणची, शेवया,वेफर्स आणि असे अनेक पदार्थ करण्याचं गृहीणींच्या कामाची सुरवात मार्चपासूनच होते.

नुकतीच थंडी गायब होऊन उन्हाळ्याला सुरवात झालेली असते.त्यामुळे ह्या हवामाना मधील बदलांमुळे सगळ्यांना आपल्या तब्येतीची काळजी ही घ्यावीच लागते. तरीही व्हायरल इन्फेक्शन हे हात धुवून मागे लागण्या मुळे डाँक्टर्स आणि पेशंट ह्यांच्यासाठी सुद्धा गर्दीचा काळ.पण खरी परीक्षा ही तब्येतीने धडधाकट असणाऱ्या आपल्या घरच्या मंडळींची असते.

हे आर्थिक वर्ष, आपणा सर्वांना भरभराटीचे जावो ,आरोग्य व्यवस्थित राहो हीच ईशचरणी प्रार्थना.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ संस्कार – लेखिका : सुश्री श्वेता कुलकर्णी ☆ श्री मेघःशाम सोनवणे ☆

श्री मेघःशाम सोनवणे

?जीवनरंग ?

☆  संस्कार – लेखिका : सुश्री श्वेता कुलकर्णी (अलका) ☆ प्रस्तुती श्री मेघःशाम सोनवणे ☆ 

गेल्या वर्षीची गोष्ट…

बँक ऑफ महाराष्ट्र मध्ये अगदी तसंच महत्त्वाचं काम निघालं म्हणून अगदी टळटळीत उन्हातून दुपारी रविवार पेठ भागात गेले होते ….एरवी या गजबजलेल्या व्यापारी पेठेत जाणं नको वाटतं…

कोविडची भीती बरीच कमी झालेली. त्यामुळे नेहमीसारखंच वातावरण होतं. अरुंद रस्ता.. दुतर्फा लहानमोठी दुकानं.. टेम्पोमधून माल उतरवून घेण्याची घाई.. वाट काढत नागमोडी जाणाऱ्या दुचाकी आणि रिक्षा.. वाहनांना चुकवत चालणारे पादचारी.. कर्कश हॉर्न…

एरवी अशा गदारोळात चालताना इकडे तिकडे न बघता मी वाहनाचा धक्का लागणार नाही ना या काळजीने स्वतःला सांभाळत चालते…. पण त्या दिवशी त्या गर्दीत सुद्धा डावीकडे असलेल्या एका साड्यांच्या दुकानाकडे लक्ष गेलं…

लहानसं दुकान. शोकेसमध्ये पाच सहा साड्यांचा सुरेख display. दाराजवळ हिरवीकंच साडी परिधान केलेली मॉडेल. तो रंग दुरून सुद्धा मनात भरला. साडी खरेदीचा विचार त्या क्षणापर्यंत मनात आला सुद्धा नव्हता, पण आपसूकच पावलं दुकानाकडे वळली.

पुतळ्याचा सुबक चेहरा, ओठांवर छानसं स्मितहास्य कोरलेलं. डौलदार हातावर जरीचा पदर लहरत होता. त्या हिरव्यागार रंगाच्या, बारीक जरी बॉर्डर आणि नाजूक बुट्टे असलेल्या आकर्षक साडीमुळे पुतळ्याला सोज्वळ सौंदर्य प्राप्त झालेलं…!

साडी हातात धरून पोत पाहिला. सिल्क बरं वाटलं. लहान बॉर्डर तर माझी आवडती. किंमत सुद्धा परवडण्यासारखी. आणि झाडाची पालवी तरुण होताना जो हिरवा रंग धारण करते त्या रंगाची सुरेख हिरवीगार छटा. म्हटलं मंगळागौर येईल तेव्हा सुनेच्या हातात हीच साडी ठेवावी. परत अशी सुरेख साडी मिळेलच असं नाही. आणि दूर रहायला गेल्यामुळे लक्ष्मी रोडवर सारखं येणं सुद्धा आताशा होत नाही… अशाच विचारांमध्ये दुकानात शिरले.

दुकानदार तरुण मुलगा होता. 27/28 वर्षांचा असेल. “अगदी सेम अशीच साडी दाखवा…” पुतळ्याकडे निर्देश करून त्याला म्हटलं…

“Sorry मॅडम… हरएक पीस अलग है.. लेकिन और साडी तो देखो….”

मी थोडी नाराजीने दुकानात गेले. त्याच्या व्यापारी कौशल्यानुसार त्याने  ‘सकाळपासून एकही साडी विकली गेली नाही.. तुमच्या हातून भोवनी होऊ दे.. नवीनच स्टॉक आहे… discount पण मिळेल…’ अशी सर्व बडबड करत माझ्यापुढे साड्यांचा एक लहान ढीग टाकला. मला एकही साडी आवडली नाही. “नको” म्हणत मी दुकानातून बाहेर पडण्याची तयारी केली…

मघापर्यंत टळटळीत वाटणारी उन्हं अचानक खूप मंदावली होती. थोडा वाराही होता. अवेळी पावसाची शक्यता वाटत होती…

“आपको वही साडी पसंद आई है ना मॅडम? कल मै आपको वह साडी दे सकता हुं… कल आके लेके जाना प्लीज… क्षमा करे लेकिन आज नहीं दे सकते…”

दुसर्‍या दिवशी केवळ साडी साठी दूरवरून परत त्या भागात मी येणं शक्य नव्हतं. मुलगा नम्र होता म्हणून म्हटलं, “ठीक है, कोई बात नही, फिर कभी दुसरी एखाद साडी लेके जाऊन्गी।” म्हणत मी बाहेर पडले आणि पावसाचे टपोरे थेंब पडायला लागलेच. तो मुलगा धावतच बाहेर आला आणि सांभाळून त्याने पुतळा दुकानात नेला.

पावसात भिजत जाणं शक्य नव्हतं म्हणून मीही परत दुकानात दाराजवळ थांबले. आता परत थोडा वेळ त्याची बडबड ऐकावी लागणार म्हणून माझा चेहरा थोडा त्रासिक झाला…

“कल चाहिये तो कुरिअर कर सकते है.. वह चार्जेस आप देना.. आज भागीदार कामकी वजहसे बाहर गया है.. कल उसको कुरिअर के लिये बोलता हूॅं।”

“मॉडेलची साडी नको. तुम्ही किती दिवस ती बाहेर ठेवत असाल. धूळ बसत असणारच. तसाच दुसरा पीस असला तरच मला हवा होता…”

“क्या है ना मॅडम, बिझिनेस छोटा है.. नया भी है.. तो बहुत ज्यादा stock नही रखते। Model की साडी दुकान बंद होनेके बादही रोज चेंज करते है… ताकी साडी खराब ना हो….” आणि मग पुतळ्याकडे निर्देश करून म्हणाला, “इनका भी सन्मान रखते है.. इनमे जान नही है तो क्या… नारी है… किसीकी नजर बुरी होती है इसलिये दुकान बंद होनेके बादही चेंज करते है।”

त्या शब्दांनी एकदम मनात काहीतरी चमकलं….असेच किंवा या अर्थाचे शब्द मी फार पूर्वी याच संदर्भात ऐकले आहेत…. स्मृतींचे दरवाजे उघडले… सर्व लख्ख आठवलं….

मी तेव्हा कॉलेजमध्ये अगदी पहिल्या दुसर्‍या वर्षात होते. माझी मामेबहीण माणिक मुंबईहून आमच्याकडे आली होती. लग्नाच्या वयाची, सुरेख, पदवीधर मुलगी…. योगायोगाने त्याच वेळी माझ्या आई वडिलांच्या घनिष्ठ ओळखीच्या एका डॉक्टरांचा मुलगा सुद्धा रत्नागिरीत आला होता. आईला माणिकसाठी ते स्थळ फार योग्य वाटलं होतं. त्यामुळे तेव्हाच्या प्रथेप्रमाणे मुलगी दाखवण्याचा कार्यक्रम ठरला…

माणिक तयार झाली आणि आमचे डोळे विस्फारले! मुळात माणिकला अनुपम सौंदर्याची देणगी होतीच…आणि त्यात तिने नेसलेल्या सुरेख साडीमुळे ते सौंदर्य आणखी खुललं होतं… त्या वेळी मैसूर जॉर्जेट साड्यांची फार फॅशन होती. केशरी रंग, लहान बॉर्डर आणि अंगभर नाजूक सोनेरी बुट्टे… माणिकचा केतकी वर्ण त्या केशरी साडीमध्ये तेजस्वी वाटत होता…

नंतर माणिकने सांगितलं की पदवीधर झाल्याचं बक्षीस म्हणून वडिलांनी… म्हणजे माझ्या मामाने तिला साडी घेण्यासाठी पैसे दिले…. माणिक दुकानात गेली तर आतमध्ये मॉडेल च्या अंगावर ही सुरेख केशरी साडी होती. माणिकला तीच साडी पसंत पडली. दुकान मोठं होतं. त्यांनी ढीगभर साड्या दाखवल्या. पण तिला दुसरी कुठलीच साडी आवडेना.

दुकानातल्या लोकांनी तिला सांगितलं की ती साडी आज मिळू शकत नाही. त्यासाठी परत दुसर्‍या दिवशी यावं लागेल. मुंबईतल्या अंतराचा आणि लोकल ट्रेन, बस यांच्या गर्दीचा विचार करता ते शक्य नव्हतं… तरुण वय…. डोळ्यांना पडलेली साडीची भूल यामुळे तिथून तिचा पायही निघत नव्हता…

दुकानाचे मालक प्रौढ गृहस्थ होते… ते तिला म्हणाले, “बेटा, ही साडी बदलण्याचा एक रिवाज आम्ही सांभाळतो. रोज दुकान बंद केल्यावर या मूर्तीच्या चारही बाजूनी पडदे लावून मग आम्ही मूर्तीची साडी बदलतो. दुकानातला बाकी स्टाफ तेव्हा काम आवरत असतो. साडी बदलणारे लोकही ठराविक दोघे आहेत. इतर कोणाच्या नजरेसमोर हे काम केलं जात नाही. ही दगडी मूर्ती आहे. पण देह तर स्त्री चा आहे ना… तिला योग्य मान देणं… तिचं लज्जारक्षण करणं आमचं कर्तव्य आहे !”

माणिक प्रभावित झाली… लगेच म्हणाली की “मी उद्या परत येऊन ही साडी घेऊन जाईन…”

आम्हाला तेव्हा त्यांचे विचार ऐकून फार भारी वाटलं होतं….

ते दुकान मुंबईत होतं… हे पुण्यात… ते गृहस्थ या मुलाचे आजोबा.. पणजोबा असण्याची शक्यता पण कमीच… पण तरीही जवळपास तशाच प्रसंगात आज इतक्या वर्षांनी मी त्याच अर्थाचे शब्द या तरुण मुलाच्या तोंडून ऐकत होते…. कदाचित साड्या विकण्याचा बिझिनेस करताना समस्त स्त्री वर्गाबद्दल आदर वाटावा यासाठी सुद्धा असे संस्कार करत असतील… ते प्रत्येक पिढीत झिरपत येत असतील… असं मला वाटून गेलं!

इतक्यात त्याचा बाहेर गेलेला भागीदार परत आला. पाऊस कमी झाला होता म्हणून मी निघण्याची तयारी केली. त्या दोघांमध्ये काही बोलणं झालं.

भागीदार म्हणाला, “ऐसा एक अलग कलर का पीस है… वह दिखाया क्या?” त्याने कोणत्या कपाटात ती साडी आहे ते सांगितलं. दोघांनी मला आणखी दोन मिनिटं थांबून ती एक साडी बघण्याची कळकळीची विनंती केली. खरंच दुसर्‍या मिनिटाला तो मुलगा साडी घेऊन आला. तशीच सेम लहान बॉर्डर, तसेच नाजूक बुट्टे, तसाच पदर…. रंग मात्र जांभळा होता….

ही पण साडी चांगली होतीच…पण त्याहून चांगले होते ते त्या तरुण दुकानदाराचे विचार… त्याचे संस्कार.. त्याची स्त्री कडे पाहण्याची दृष्टी…

मी लगेच ती जांभळी साडी खरेदी केली… पैसे दिले.. आनंदाने दुकानातून बाहेर पडले… न ठरवता केलेली ही साडी खरेदी मला अविस्मरणीय वाटते!

एकीकडे रोज खून, बलात्कार, चारित्र्यहनन, कौटुंबिक हिंसा, याबद्दल च्या बातम्या वाचून निराशेने मनाचं शुष्क वाळवंट होत असताना हे असे तुरळक ओअसिस मनाला उभारी देतात!

लेखिका – सुश्री श्वेता कुळकर्णी (अलका)

संग्राहक – मेघःशाम सोनवणे

मो 9325927222

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ संवादु- अनुवादु– उमा आणि मी- भाग २ ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

?मनमंजुषेतून ?

☆ संवादु- अनुवादु– उमा आणि मी- भाग २ ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

(मागील भागात आपण पाहिले – अनेक पुरस्कार त्यांना मिळत गेले. आता इथून पुढे)

उमाताईंच्या विशेष आवडत्या कादंबर्‍यांमध्ये ‘पर्व’ चा आवर्जून उल्लेख करायला हवा. ‘पर्व’ ही भैरप्पांची कादंबरी. याच्या अनुवादाच्या संदर्भात उमाताईंनी आठवण लिहिलीय, ‘माराठीत व्यासपर्व, युगांत, मृत्युंजय यासारखी चांगली पुस्तके असताना महाभारतावरील कथेचा आणखी एक अनुवाद कशाला करायचा?’, असं त्यांना वाटत होतं, पण विरुपाक्ष त्यांना ही कादंबरी जसजशी वाचून दाखवू लागले, तसतसं त्यांचं मत बदलत गेलं आणि कृष्णावरचा भाग त्यांनी वाचून दाखवल्यावर, त्यांनी या कादंबरीचा अनुवाद करायचा असा निश्चयच केला आणि त्याचा त्यांनी अनुवाद केला. मराठीत तो चांगलाच गाजला. त्याच्या पाच-सहा आवृत्या निघाल्या. पुढे या कादंबरीला १९९९ साली स. ह. मोडक पुरस्कारही मिळाला. मला हे सगळं वाचताना गम्मत वाटली, ती अशासाठी की मलाही सुरूवातीला वाटलं होतं की महाभारतावर मराठीत इतकं लिहिलय आणि आपण वाचलय की त्यावर आता आणखी काय वाचायचं? पण प्रा. अ. रा. तोरो यांच्या आग्रहामुळे मी ती वाचली आणि मला ती इतकी आवडली की पुढे मी अनेक वाचनप्रेमींना ही कादंबरी वाचायला आवर्जून सांगत राहिले. ही कादंबरी वाचल्यावर मला प्रकर्षाने उमाताईंची ओळख करून घ्याविशी वाटली. काय होतं या कादंबरीचं वेगळेपण? या कादंबरीला समाजशास्त्राचा पाया होता. महाभारत काळात समाजातील रीती-रिवाज, प्रथा-परंपरा, विचार-संस्कार यात बदल होऊ लागले होते. या परिवर्तनाच्या काळातील समाजावर यातील कथानकाची मांडणी केली आहे. ‘मन्वंतर’ असा शब्द उमाताईंनी वापरला आहे. स्थीर झालेल्या समाजापेक्षा आशा परिवर्तन कालावर कथानक रचणे अवघड आहे, असे उमाताई म्हणतात. काळामुळे घटना-प्रसंगांवर चढलेली, चमत्कार, शाप-वारदानाची पुटे भैरप्पांनी यात काढून टाकली आहेत. उमाताईंची ही अतिशय आवडती कादंबरी आहे.

उमाताईंनी केवळ अनुवादाचंच काम केलं असं नाही. त्यांनी सभा-संमेलनातून, चर्चा-परिसंवादातून भाग घेतला. व्याख्याने दिली. ड्रॉइंग आणि पेंटिंग विषय घेऊन एम. ए. केलं. भारतीय मंदिर-शिल्पशास्त्रातील द्रविड शैलीची उत्क्रांती विकास आणि तिची कलात्मक वैशिष्ट्ये’ या विषयावर पीएच. डी. केली. त्या निमिताने भरपूर प्रवास केला. प्रवासाचा आणि मंदिराच्या शिल्पसौंदर्याचा आनंद घेतला. त्यांना फोटोग्राफीचाही छंद आहे. जीवनात जमेल तिथून जमेल तितका आनंद त्या घेत राहिल्या.

उमाताईंनी ’केतकर वाहिनी’ ही स्वतंत्र कादंबरी लिहिली. त्यांची मैत्रीण शकुंतला पुंडे यांच्या आईच्या जीवनावर आधारलेली ही कादंबरी. या कादंबरीवर आधारित पुढे आकाशवाणीसाठी ९ भागांची श्राव्य मालिका त्यांनी लिहिली. त्याही पूर्वी ‘वंशवृक्ष’वर आधारित १४ भागांची मालिका त्यांनी लिहिली होती. त्यानंतर ‘ई’ टी.व्ही. साठी कन्नडमधील ‘मूडलमने’ या मालिकेवर आधारित ‘सोनियाचा उंबरा’ ही ४०० भागांची मालिका लिहिली. या निमित्ताने त्यांनी माध्यमांतर करताना करावा लागणारा अनुवाद, त्यातील, तडजोडी, त्या प्रकारच्या अनुवादाची वैशिष्ट्ये या बाबतचे आपले अनुभव आणि चिंतन मांडलं आहे. हे सारे करताना त्यांना खूप परिश्रम करावे लागले असणार, पण आपल्या आवडीचे काम करताना होणार्‍या परिश्रमातूनही आनंद मिळतोच ना!

‘संवादु- अनुवादु’ हे शीर्षक त्यांनी का दिलं असावं बरं? मला प्रश्न पडला. या आत्मकथनातून त्यांनी अनुवादाबाबत वाचकांशी संवाद साधला आहे. असंही म्हणता येईल की कलाकृतीशी ( पुस्तकाशी आणि त्याच्या लेखकाशी) संवाद साधत त्यांनी अनुवाद केला आहे? त्यांना विचारलं, तर त्या म्हणाल्या, ‘मी इतका काही शीर्षकाचा विचार केला नाही. स्वत:शीच संवाद साधत मी अनुवाद केला, म्हणून ‘संवादु- अनुवादु’.

‘संवादु- अनुवादु’च्या निमित्ताने गतजीवनाचा आढावा घेताना त्या या बिंदूवर नक्कीच म्हणत असणार, ‘तृप्त मी… कृतार्थ मी.’ एका सुखी, समाधानी, यशस्वी व्यक्तीचं आयुष्य आपण जवळून बघतो आहोत, असंच वाटतं हे पुस्तक वाचताना. अडचणी, मनाला त्रास देणार्‍या घटना आयुष्यात घडल्या असतीलच, पण त्याचा बाऊ न करता त्या पुढे चालत राहिल्या. पुस्तकाच्या ब्लर्बमध्ये अंजली जोशी लिहितात, ‘या आत्मकथनात तक्रारीचा सूर नाही. ठुसठुसणार्‍या जखमा नाहीत. माझे तेच खरे, असा दुराग्रह नाही. तर शांत नितळ समजुतीने जीवनाला भिडण्याची ताकद त्याच्या पानापानात आहे.’ त्या मागे एकदा फोनवर म्हणाल्या होत्या, ‘ जे आयुष्य वाट्याला आलं, ते पंचामृताचा प्रसाद म्हणून आम्ही स्वीकारलं.’

‘संवादु- अनुवादु’ वाचताना मनात आलं, उमाताईंना फोनवर म्हणावं, ‘तुमची थोडीशी ऊर्जा पाठवून द्या ना माझ्याकडे आणि हो ते समाधानसुद्धा….’ या पुस्तकाच्या निमित्ताने मी उमाताईंना अधून मधून फोन करत होते. त्यातून मध्यंतरीच्या काळात प्रत्यक्ष भेटी न झाल्यामुळे दुरावत गेलेले मैत्रीचे बंध पुन्हा जुळत गेले आहेत. आता मोबाईलसारख्या आधुनिक माध्यमातून हे बंध पुन्हा दृढ होत राहतील. प्रत्यक्ष भेटी होतील, न होतील, पण मैत्री अतूट राहील. मग मीच मला म्हणते, ‘आमेन!’

 – समाप्त – 

©  उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170 ईमेल  – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ मुंगीची गोष्ट ☆ प्रस्तुती – सुश्री हेमा फाटक ☆ ☆

? इंद्रधनुष्य ?

☆ मुंगीची गोष्ट ☆ प्रस्तुती – सुश्री हेमा फाटक ☆ 

एका रविवारी सकाळी, एक श्रीमंत माणूस त्याच्या बाल्कनीत कॉफी घेऊन सूर्यप्रकाशाचा आनंद घेत होता, तेव्हा एका छोट्या मुंगीने त्याचे लक्ष वेधून घेतले.  मुंगी तिच्या आकारापेक्षा कितीतरी पट मोठे पान घेऊन बाल्कनीतून चालली  होती.

त्या माणसाने तासाभराहून अधिक काळ ते पाहिलं.  त्याने पाहिले की मुंगीला तिच्या प्रवासात अनेक अडथळ्यांचा सामना करावा लागला विराम घेतल. वळसा घेतला.

आणि मग ती आपल्या गंतव्याच्या दिशेने चालू लागली.

एका क्षणी या चिमुकल्या जीवाला अवघड जागा आडवी आली. फरशीला तडा गेला होता. मोठी भेग होती.ती थोडावेळ थांबली, विश्लेषण केले आणि मग मोठे पान त्या भेगेवर ठेवले, पानावरून चालली, पुढे जाऊन दुसऱ्या बाजूने पान उचलले आणि आपला प्रवास चालू ठेवला.

मुंगीच्या हुशारीने तो माणूस मोहित झाला.  त्या घटनेने माणूस घाबरून गेला आणि त्याला सृष्टीच्या चमत्काराने विचार करण्यास भाग पाडले.

त्याच्या डोळ्यांसमोर हा लहानसा प्राणी होता, जो आकाराने फार मोठा नसलेला, परंतु विश्लेषण, चिंतन, तर्क, शोध, शोध आणि मात करण्यासाठी मेंदूने सुसज्ज होता.

थोड्या वेळाने मनुष्याने पाहिले की प्राणी त्याच्या गंतव्य स्थानी पोहोचला आहे – जमिनीत एक लहान छिद्र होते, जे त्याच्या भूमीगत निवासस्थानाचे प्रवेशद्वार होते.

आणि याच टप्प्यावर मुंगीची कमतरता उघड झाली.

मुंगी पान लहान छिद्रात कसे वाहून नेईल? 

ते मोठे पान तिने काळजीपूर्वक गंतव्य स्थानावर आणले, पण हे आत नेणे तिला शक्य नाही! 

तो छोटा प्राणी, खूप कष्ट आणि मेहनत आणि उत्तम कौशल्याचा वापर करून, वाटेतल्या सर्व अडचणींवर मात करून, आणलेले मोठे पान मागे टाकून रिकाम्या हाताने गेली.

मुंगीने आपला आव्हानात्मक प्रवास सुरू करण्यापूर्वी शेवटचा विचार केला नव्हता आणि शेवटी मोठे पान हे तिच्यासाठी ओझ्याशिवाय दुसरे काही नव्हते.

त्या दिवशी त्या माणसाला खूप मोठा धडा मिळाला. हेच आपल्या आयुष्यातील सत्य आहे.

आपल्याला आपल्या कुटुंबाची चिंता आहे, आपल्याला आपल्या नोकरीची चिंता आहे, आपल्याला अधिक पैसे कसे कमवायचे याची चिंता आहे, आम्ही कोठे राहायचे, कोणते वाहन घ्यायचे, कोणते कपडे घालायचे, कोणते गॅझेट अपग्रेड करायचे, सगळ्याची चिंता आहे.

फक्त सोडून देण्याची चिंता नाही. 

आपल्या आयुष्याच्या प्रवासात आपल्याला हे कळत नाही की आपण हे फक्त ओझे वाहत आहोत.  आपण ते अत्यंत काळजीने वाहत आहोत. आपण ते आपल्यासोबत घेऊ शकत नाही.. ..

कथा पुढे चालू ठेवत आहे…तुम्हाला याचा आनंद मिळेल…

तो श्रीमंत माणूस जरा अधीर झाला.  अजून थोडा वेळ थांबला असता तर त्याने काहीतरी वेगळं पाहिलं असतं…

 मुंगी मोठे पान बाहेर सोडून छिद्राच्या आत नाहीशी झाली.

आणखी 20 मुंग्या घेऊन परतली. त्यांनी पानाचे छोटे तुकडे केले आणि ते सर्व आत नेले.

बोध:

  १.  हार न मानता केलेले प्रयत्न वाया जात नाहीत!

 २.  एक संघ म्हणून एकत्र, अशक्य काहीही नाही..

 ३.  कमावलेली वस्तू तुमच्या भावांसोबत शेअर करा

 ४.  (सर्वात महत्त्वाचे!) तुम्ही जेवढे वापरता त्यापेक्षा जास्त घेऊन गेलात तर तुमच्या नंतर इतरांनाही त्याचा आनंद मिळेल.  तर तुम्ही कोणासाठी प्रयत्न करत आहात हे ठरवा.

मुंगीसारख्या लहानशा प्राण्यापासूनही आपण किती शिकू शकतो.

संग्रहिका : सुश्री हेमा फाटक

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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