हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आओ संवाद करें ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – आओ संवाद करें ??

विवादों की चर्चा में 

युग जमते देखे,

आओ संवाद करें,

युगों को

पल में पिघलते देखें..!

मेरे तुम्हारे चुप रहने से 

बुढ़ाते रिश्ते देखे,

आओ संवाद करें,

रिश्तो में दौड़ते बच्चे देखें..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 200 ☆ आलेख – अनंत तक भाग देते रहिए शेष बच ही जायेगा … π — ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख – अनंत तक भाग देते रहिए शेष बच ही जायेगा …

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 200 ☆  

? आलेख – अनंत तक भाग देते रहिए शेष बच ही जायेगा … π – ?

विश्व पाई दिवस के अवसर पर, जर्सी साइंस म्यूजियम के रास्ते पर फुटपाथ में लगा यह π की वैल्यू वाला प्रतीक 14 मार्च को पूरी दुनिया विश्व पाई दिवस मनाती  है। पाई डे की खोज सबसे पहले विलियम जोंस ने की थी।

विश्व पाई दिवस हर साल 14 मार्च को गणितीय स्थिरांक पाई को पहचानने के लिए मनाया जाता है। पाई का अनुमानित मान 3.14 है। पाई डे 2023 की थीम इस बार  Mathematics for Everyone है, जिसका प्रस्ताव फिलीपींस के ट्रेस मार्टियर्स सिटी नेशनल हाई स्कूल से मार्को जर्को रोटायरो ने दिया था।

जब तारीख को महीने/दिन के प्रारूप (3/14) में लिखा जाता है ( अमेरिकन स्टाइल यही है) तो यह पाई मान के पहले तीन अंकों – 3.14 से मेल खाता है।

हर वर्ष 14 मार्च 1:59:26 बजे विश्व पाई दिवस मनाया जाता है। क्योंकि इस वक्त दिन और समय का मान 3.1415926 होता है। और इस तरह 14 मार्च को पाई का मान सात अंकों तक शुद्ध पाया जाता है। अर्थात 3.1415926.

 पाई एक ग्रीक लेटर है, जिसका प्रयोग मैथमेटिकल कॉन्स्टैंट के तौर पर होता है।

 पाई के मूल्य की गणना सबसे पहले गणितज्ञ, आर्कमिडीज ऑफ सिरैक्यूज ने की थी। इसे बाद में वैज्ञानिक समुदाय ने स्वीकार किया जब लियोनहार्ड यूलर ने 1737 में पाई के प्रतीक का इस्तेमाल किया। 14 मार्च का दिन इसलिए भी खास है, क्योंकि इस दिन ही महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन का जन्म हुआ था।

फिजिसिस्ट लैरी शॉ ने 1988 में इस दिन को मान्यता दी थी।  यूनाइटेड स्टेट्स हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स ने 14 मार्च को पाई दिवस के रूप में मनाना शुरू किया और इसी तरह यूनेस्को ने भी पाई दिवस को ‘अंतर्राष्ट्रीय गणित दिवस’ के रूप में मनाना शुरू किया।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ बाल उपन्यास ‘धरोहर’ – सुश्री सुकीर्ति भटनागर ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है सुश्री सुकीर्ति भटनागर जी  के बाल उपन्यास “धरोहर” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ बाल उपन्यास ‘धरोहर सुश्री सुकीर्ति भटनागर ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

उपन्यास- धरोहर 

उपन्यासकार- सुकीर्ति भटनागर 

प्रकाशक- साहित्यकार, धमाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर (राजस्थान) 302003 मोबाइल नंबर 93142 02010

पृष्ठ संख्या- 114 

मूल्य- ₹250

समीक्षक ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश‘, 

☆ समीक्षा- धरोहर के महत्व को रेखांकित करता उपन्यास ☆

उपन्यास का लेखन सबसे सरलतम विधा है। मगर उसके कथानक की बनावट और उपकथाओं का सृजन अपेक्षाकृत कठिन कार्य है। यदि इसका सृजन सरलता, सहजता व प्रवाह के साथ कर लिया जाए तो उपन्यास की रचना पूरी हो जाती है। तभी उपन्यास की गल्प रचना मुकम्मल और उत्कृष्ठ होती है।

उपन्यासकार को उपन्यास के कथानक में लिखने यानी विचार व्यक्त करने की संपूर्ण आजादी मिली होती है। वह अपने भावों, अपने विचारों और मनोरथ को अपनी मर्जी से उपन्यास की कथावस्तु में पिरो सकता है। उसका जो मन्तव्य हो उससे उपन्यास में डाल सकता है। इसी मन्तव्य से उपन्यास की सार्थकता सिद्ध होती है।

यदि बड़ों के लिए उपन्यास लिखा जाए तो उसमें संपूर्ण लेखकीय आजादी से कार्य किया जा सकता है। मगर यदि उपन्यास लेखन बालकों के लिए किया जाना है तो वह सबसे दुरुह यानी कठिन कार्य होता है। बच्चों के लिए लिखने में लेखक को बच्चा बनना पड़ता है। तब बच्चों के लिए लेखन किया जा सकता है।

बच्चों के लिखे लिए लिखे जाने वाले गल्फ के लिए उसकी कथा बहुत स्पष्ट होनी चाहिए। वह बच्चों को स्पष्ट रुप में समझ में आ जाए। उसमें कोई कहानी हो। वह उसे अपनी-सी लगे। तभी बच्चा उपन्यास पढ़ने को लालयित होता है।

बच्चों के उपन्यास का आरंभ रोचक कथावस्तु के साथ होना चाहिए। उसे पढ़ते ही बच्चे में उत्सुकता जागृत हो जाए। वह आरंभ पढ़ते ही पूरा उपन्यास पढ़ने को लालयित हो। उस भाग के आरंभ के साथ एक जिज्ञासा का आरंभ और अंत में समाधान हो जाए। दूसरे भाग में दूसरी जिज्ञासा का आरंभ हो जाए। यह सिलसिला हरेक भाग में चले, तभी उपन्यास सार्थक होता है।

उपन्यास की भाषा शैली सरस, सहज हो। उसमें रस की प्रधानता हो। वाक्य छोटे-छोटे हो। इस दृष्टि से प्रस्तुत उपन्यास धरोहर की समीक्षा करते हैं। जिसको लिखा है प्रसिद्ध उपन्यासकार सुकीर्ति भटनागर जी ने। उपन्यास को इस कसौटी पर करते हैं तब हम देखते हैं कि धरोहर उपन्यास की अपनी एक स्पष्ट कथावस्तु है। यह आरंभ से ही इसकी कथा में उत्सुकता जगाए रखती है।

उपन्यास का कथानक स्पष्ट है। एक गांव में कुछ अनिष्ट और अनैतिक रूप से घटित घटना होती है। जिसका समाधान धरोहर उपन्यास का बालपात्र अपने हिसाब व तरीके से करता है। इसी कथानक पर पूरे उपन्यास की कथावस्तु को बुना गया है।

उपन्यास के बाल पात्र अपनी समझ के अनुरूप समस्या का निरूपण करते हैं। उसी समस्या के द्वारा इसके सहायक पात्र उस समस्या का समाधान तक पहुँचते हैं। इस बीच अनेक उतार-चढ़ाव व समस्याएं आती हैं। उनका समाधान भी होता चला जाता हैं।

मसलन- उपन्यास की हरेक भाग में एक समस्या आती है। उसका समाधान अंत में हो जाता है। तत्पश्चात दूसरे भाग में दूसरी समस्या उत्पन्न होती है। उसका समाधान के साथ एक अन्य नई समस्या उत्पन्न हो जाती है।

इस तरह पूरा उपन्यास सरल, सहज व प्रवाहमई गति से जिज्ञासा जगाते हो आगे बढ़ता है।

उपन्यास की भाषा सरल व सहज है। कहीं-कहीं मुहावरेदार भाषा का प्रयोग किया गया है। जहां आवश्यक हुआ है वर्णन के साथ-साथ उपयुक्त संवाद का प्रयोग किया गया है।

कुल मिलाकर देश की धरोहर की अनमौलता और उसकी उपयुक्तता को सहेजने के रूप में लिखा गया उपन्यास पाठकीय दृष्टि से बेहतर बन पड़ा है। 114 पृष्ठ के उपन्यास का मूल्य ₹250 बालकों के हिसाब से ज्यादा है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

19-02-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 151 ☆ बाल कविता – सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 151 ☆

☆ बाल कविता – सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

राधाकृष्णन थे गुरू , अदभुत उन का ज्ञान।

पाँच सितंबर जन्मदिन, करे देश सम्मान।।

 

श्रेष्ठ विचारक, वक्ता , रखा दार्शनिक ज्ञान।

उत्कृष्ट लेखनी से बने , मानव एक महान।।

 

ईश्वर के प्रिय भक्त थे, बाँटा जग को प्यार।

सत्य बोलकर ही सदा, कभी न मानी हार।।

 

शिक्षक बनकर देश का, सदा बढ़ाया मान।

किया समर्पित स्वयं को, बाँटा सबको ज्ञान।।

 

प्रतिभा की सदमूर्ति थे, नहीं किया अभियान।

सदा पुण्य करते रहे, और बढ़ाई शान।।

 

लड़े सदा अज्ञान से, किया दूर अँधकार।

मिटा कुरीति ज्ञान से, किया सदा उद्धार।।

 

खुशी, प्रेम सत बाँटकर, करें सभी हम याद।

सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सदा रहे निर्विवाद।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आठवणीतलं घर ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

☆ आठवणीतलं घर ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

घर नाही, अंगण नाही,

 नाही मातीचा ओलावा !

तुळशी वृंदावन छाया नाही,

अंगणी नाही दिवा!

 

आठव येतो गावाकडचा ,

मनी आठवते, मातीची माया!

दारापुढला आंबा देई,

 माथ्यावरती दाट छाया!

 

आठवते मज अंगण अपुले,        

गप्पांचा तो कट्टा !

येई-जाई त्यास मिळे विसावा,          

करी परस्परांच्या थट्टा!

 

नातीगोती सर्वांची होती,

 साधे सुधेच जगणे !

पाहुणचार घरात होई ,

गात आनंदाचे गाणे!

 

येणारा जो असे पाहुणा,

पाहून खुशी होई !

दारा मधला माड देखणा,

 मनास भुलवून जाई !

 

घर होते घरासारखे,

 माणसे होती प्रेमळ!

आनंदाचे गाणे होते,

सदैव ठेवी मन निर्मळ!

………………….

………….

शहरामधल्या सिमेंटच्या ,

चौकोनी, देखण्या माड्या!

भुलवित नाहीत मम मनाला ,.                                

सुंदर मोठ्या गाड्या !

 

प्रत्येकाचे मन बंदिस्त असे,

 जणू सिमेंटच्या भिंतींचे !

भक्कम अन् अभेद्य असे ते,

  नाही पाझर पाण्याचे !

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नारी… ☆ सौ. नेहा लिंबकर ☆

सौ. नेहा लिंबकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ नारी… ☆ सौ. नेहा लिंबकर ☆

आधीची ती नारी होती मराठमोळी

नेसून नऊवारी आणि हाती भाकरी पोळी

 

शेती असो वा रानमाळी

उपसत होत्या घर जमीन काळी

थकायची  नाही कष्टाला कधीही काळीवेळी

 

वडीलधारी सर्वांच्या धाकात होत्या पोरीबाळी

हसत खेळत उचलत होत्या कष्टाचीच मोळी

 

शिक्षणाच्या आसेने झाल्या सावित्रीच्या लेकी बाळी

पुढारलेल्या म्हणवुन घेऊ लागल्या सर्वां डोळी

 

झेप घेतली गरुडाच्या पंखांनी निळ्या आभाळी

उत्तुंग यश ते मिळवले जळी स्थळी

 

नाही कुठला प्रांत नाही कुठली प्रवाळी

प्रत्येक क्षेत्रात पुढाकार अन विजयाची घौडदौड निराळी

 

हीच ती नारी पेलणारी नात्यांची नव्हाळी

मिळून सार्‍या जणी करूया साजरी ही प्रगतीची झळाळी

 

© सौ.  नेहा लिंबकर

पुणे 

मो – 9422305178

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #152 ☆ संत जनार्दन स्वामी…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 152 ☆ संत जनार्दन स्वामी…! ☆ श्री सुजित कदम

 जन्मा आले जनार्दन

देशपांडे घराण्यात

कृष्णातीरी औदुंबरी

दिला वेळ चिंतनात..! १

 

संत जनार्दन  स्वामी

कर्मयोगी उपासक

एकनाथ मानी गुरू

राजकार्यी प्रशासक…! २

 

यवनांची केली सेवा

देवगिरी गडावर

पद किल्ला अधिकारी

गिरी कंदरी वावर…! ३

 

धर्मग्रंथ पारायणे

एकांतात रमे मन

दत्तभक्ती ज्ञानबोध

धन्य गुरू जनार्दन. ४

 

संत साहित्य निर्मिती

लोक कल्याणाचा वसा

संत जनार्दन स्वामी

आशीर्वादी शब्द पसा….! ५

 

गुरू चरित्राचे आणि

ज्ञानेश्वरी पारायण

तीर्थक्षेत्री रममाण

संत क्षेष्ठ जनार्दन…! ६

 

जनार्दन स्वामी शिष्य

एकनाथ जनाबाई

दत्तात्रेय अनुग्रह

गुरू कृपा लवलाही…! ७

 

सुरू केली जनार्दने

दत्तोपासनेची शाखा

श्रीनृसिंह सरस्वती

नाथगुरु पाठीराखा…! ८

 

दत्त जाहला विठ्ठल

देव भावाचा भुकेला

निजरूप हरिभक्ती

दत्त कृष्ण एक केला…! ९

 

स्वानंदाचा दिला बोध

परमार्थ शिकविला

स्वयमेव गुरू कृपा

भक्तीभाव मेळविला…! १०

 

आदिनारायण अर्थी

दत्तात्रेय जनार्दन

गुरू परंपरा दैवी

पांडुरंगी संकर्षण…! ११

 

दत्त दर्शनाचा लाभ

बोधदान दिक्षा दिन

गुरू शिष्य दोघांचाही

नाथषष्ठी स्मृती दिन..! १२

 

पुण्यतिथी महोत्सव

हरिपाठ संकीर्तन

मठ आणि आश्रमात

सेवा भाव समर्पण…! १३

 

सुर्यकुंड दुर्गातीर्थ

रम्य भावगर्भ स्मृती

संत जनार्दन स्वामी

अध्यात्मिक फलश्रृती…! १४

 

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “कशाले काय म्हनू नये…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

श्री कौस्तुभ परांजपे

? विविधा ?

☆ “कशाले काय म्हनू नये…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

कशाले काय म्हनू नये…

अशाच काहीशा नावाची आणि अर्थ असणारी बहिणाबाई यांची एक कविता शाळेत होती…

बिना कपाशीनं ऊले

त्याले बोंड म्हनू नये…..

               हरिनाम हि ना बोले

               त्याले तोंड म्हनू नये……

नाही वाऱ्याने हालंल

त्याले पान म्हनू नये…

असे बरेच कशाला काय म्हणू नये हे खास अहिराणी भाषेत पण सहज समजेल या शब्दांत त्यांनी सांगितले आहे. हे सगळे दोष आहेत. माणूस म्हणून कसे रहावे हेच सांगण्याचा हेतू त्यात होता. यात त्यांनी माणूसच नाही, तर वनस्पती, आणि निसर्ग यांच्यातील अपप्रवृत्ती किंवा नकारात्मक गोष्टी सहज ओघावत्या शब्दात सांगितल्या.

पण आता काळ बदलला. जगण्याचे तंत्र (आम्ही आमचेच) बदलले. नवीन तंत्रज्ञानात आम्ही आमचे वागण्याचे ताळतंत्र काही प्रमाणात सोडले. कारण आता आला मोबाईलचा जमाना. आणि या मोबाईलच्या जमान्यात आम्ही माणूस म्हणून जगायचेच विसरलो. इतकेच नाही तर काही अपप्रवृत्तींचे दर्शन आम्ही राजरोसपणे दाखवायला, करायला लागलो. (अर्थात सगळेच नाही. पण संख्या कमी देखील नाही.) याचे वाईट वाटणारे आहेत तसेच समर्थक देखील आहेत. (तो खुपच ॲक्टिव्ह असतो, मोबाईल वर गाणं बघतच जेवतो, शाळेत जात नाही अजून, पण मोबाइल बरोब्बर हाताळतो इ…)

आता मोबाईल त्यातले फेसबुक, व्हॉटस्ॲप, गुगल, यू ट्यूब, इनस्टा. ट्विटर, गेम या बद्दलच तरुणाईचे ट्विट असते. असे आणि इतरही बरेच काही यातच आम्ही स्वतःला हरवले आहे. आम्ही या मोबाईलच्या अधीन झालो आहोत. आणि अप्रत्यक्ष पणे त्यांचे समर्थन देखील करतो.  आम्ही कामाव्यतिरिक्त बराचसा वेळ मोबाईल मध्येच घालवून वेळ घालवत असतो.

आज सहजपणे या मोबाईल बद्दल खालील प्रमाणे म्हणतील का?……. कारण सततचा त्याचा वापर. आणि तो वापरण्याची अधीरता.

        नाही केले अपडेट…..

        त्याला स्टेटस् म्हणू नये..

नाही बदलले चित्र…..

त्याला डी.पी. म्हणू नये.

         नाही आला मेसेज……

         त्याला गृप म्हणू नये.

नाही काढले फोटो…….

त्याला सोहळा म्हणू नये.

          ज्याने केले नाही फॉरवर्ड……

          त्याला ॲक्टिव्ह म्हणू नये.

जो जागेवरच थांबला…….

त्याला नेट म्हणू नये.

         जो वेळेवर संपला…..

          त्याला नेटपॅक म्हणू नये.

ज्याने नाही झाला संपर्क…….

त्याला रेंज म्हणू नये.

          ज्याने दाखविला नाही रस्ता…….

          त्याला मॅप म्हणू नये.

जी लवकर डिस्चार्ज झाली……

तिला बॅटरी म्हणू नये.

              ज्याचे दिले नाही उत्तर……..

               त्याला गुगल म्हणू नये.

जी भरते लवकर……

 त्याला मेमरी म्हणू नये.

                    ज्यात नाही नवे ॲप……

                    त्याला प्ले स्टोअर म्हणू नये. जो होतो सतत हॅंग…….

त्याला मोबाईल म्हणू नये.

 

शेवटी तर असे म्हणावे लागेल की……

 

        ज्यांच्याकडे नाही मोबाईल……..

        त्याला माणूस म्हणून नये.

जिथे नाही वाय फाय……..

त्याला घर म्हणू नये.

कारण आम्ही बराचवेळ काही कारणाने किंवा कारणाशिवाय मोबाईल सोबतच असतो.

सगळ्या नवीन गोष्टी वाईटच असतात असे नाही. पण चांगले काय आहे? हे आपणच समजून घेत ते आणि तेवढेच वापरले पाहिजे. नेमके, वेचक घेऊन  ठराविक काळात वापरला तर मोबाईल देखील चांगलाच आहे.

©  श्री कौस्तुभ परांजपे

मो 9579032601

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ लाइटर – कथा – भाग १ – लेखक – श्री देवा गावकर ☆ सुश्री पार्वती नागमोती ☆

? जीवनरंग ❤️

☆ लाइटर – कथा – भाग १ – लेखक –  श्री देवा गावकर ☆ सुश्री पार्वती नागमोती ☆

शांतीपूर गाव आपल्या नावाप्रमाणे शांततेत नांदत होते . पण एक दिवस असे काही घडले ज्यामुळे गावातील शांतता नाहीशी झाली . त्या गावात  एक तांत्रीक आला होता आणि तो सरपंचाच्या घरात  सापडला. तो लोकांना सांगत होता ” मी त्या घरात असलेल्या एका दुष्ट आत्म्याला पकडण्यासाठी आत गेलो होतो . ” पण लोकांना वाटले तो ढोंगी आहे आणि चोरी करण्यासाठी सरपंचाच्या घरी गेला असावा म्हणून गावातील लोकांनी त्याला मारहाण केली .  त्याने परत लोकांना विनंती केली ” मला त्या आत्म्याला कैद करण्यासाठी मदत करा, नाहीतर ती आत्मा गावातच भटकत राहणार आणि इतरांना त्रास देणार . “

लोकांनी तर अगोदरच त्याला ढोंगी ठरवला होता मग त्याच्या सांगण्यावर लोक कसे विश्वास ठेवणार होते? लोकांनी त्याचे ऐकले नाही आणि त्याला हाकलून लावला .

त्याच रात्री गावातील एक माणुस सिगरेट ओढत होता तेव्हा त्याच्या जवळ एक अनोळखी माणूस  आला आणि म्हणाला ” शंकरराव मला पण एक सिगरेट दे ना “

” कोण आपण ? आणि मला कसे काय ओळखता? मी तर तुम्हाला या आधी कधी पाहिलं पण नाही . ” शंकररावाने उलट प्रश्न केला .

“माझे नाव शामराव मी आता याच गावात राहणार . ” त्याने उत्तर दिले .

” पण तुम्ही मला कसे ओळखतात ? ” शंकररावाने परत प्रश्न केला .

“मी या गावातील सर्व लोकांना ओळखतो . गावात राहणार म्हटल्यावर सगळ्या गावकऱ्यांची ओळख असायलाच पाहिजे नाही का? ” शामराव शांतपणे म्हणाला .

“हो ते बरोबरच आहे म्हणा तुमचं पण राहणार कुठे तुम्ही ? “

“ते पिंपळाचे झाड दिसते ना तिथेच राहणार . ” असे म्हणत तो शंकररावाच्या हातातील सिगरेट घेऊन पिंपळाच्या झाडाकडे जाऊ लागला .

शंकरराव त्याला बघतच राहिला . बघता बघता तो त्या पिंपळाच्या झाडावर चढू लागला . शंकरराव त्याचे  हे वागणे बघून थोडा घाबरला पण त्याचे लक्ष अजूनही शामरावाच्या हालचालींवर खिळून होते . शंकरराव त्याला बघत होता तेवढ्यात मागून कोणीतरी त्याच्या खांद्यावर हात ठेवला . शंकररावाने  वळून पाहिले तर मागे शामराव हातात विडी घेऊन उभा होता .

शंकररावाचे लक्ष परत पिंपळाच्या झाडावर गेले तर तिथे कोणीच नव्हतं . शंकरराव आता मात्र खुपच घाबरला . तो थरथरत्या पावलांनी पळू लागला . त्याच्या मागे शामराव धावत होता . शामराव जोराने ओरडत होता . ” शंकरराव सिगरेट तर दिली आता लाइटर कोण देणार? ” .

शंकरराव एकदाचा पळत पळत आपल्या घरी पोहचला . त्याला अशा अवस्थेत पाहुन घरचेही चिंतीत झाले . त्याने घडलेला प्रकार सर्वाना सांगितला .

त्या रात्री त्याला झोपच लागत नव्हती . परत परत शामरावाचा चेहरा त्याच्या डोळ्यांपुढे येत होता . त्याची नजर खिडकीवर पडली तिथे त्याला कोणाची तरी सावली दिसत होती . त्याची खिडकी जवळ जाण्याची हिंमत होत नव्हती . शेवटी तो देवाचे नाव घेत घेत खिडकी जवळ गेला आणि खिडकी उघडली बाहेर शामराव हातात सिगरेट घेऊन उभा होता . शंकररावाला बघताच तो म्हणाला ” शंकरराव लाइटर द्या ना लाइटर ” . शंकरराव जागीच कोसळला .

दुसर्‍या दिवशी त्याने घडलेला सगळा प्रकार गावात सांगितला . तेव्हा गावातील आणखीन काही लोकांनी त्या रात्री त्यांच्या सोबत घडलेले अनुभव सांगितले .

तो सगळ्या लोकांकडे लाइटर मागत होता. गावात भीतीचे वातावरण निर्माण झाले होते . लोकांना तांत्रीकाला मारल्याचा पश्चाताप होऊ लागला . त्यांना आता खात्री पटली होती की तो तांत्रीक खरोखर सरपंचाच्या घरात आत्म्याला पकडण्यासाठी आला होता . लोकांना वाटत होते कदाचीत तो आत्मा शामरावाचा असावा आणि तांत्रीकाने सांगितल्याप्रमाणे आता त्याचा आत्मा गावात भटकत असून सर्वांना त्रास देत असावा.

लोकांनी त्या तांत्रीकाला शोधून परत गावात आणण्याचे ठरवले. लोकांनी त्या तांत्रीकाला शोधण्याची मोहिम सुरु केली . लोकांनी खुप शोधाशोध केली शेवटी तो एका शेजारच्या गावात त्यांना सापडला . सर्वात अगोदर लोकांनी त्याची क्षमा मागितली आणि गावात घडलेल्या सगळ्या घटना त्याला सांगितल्या आणि लोक त्याला  आपल्या गावात घेऊन गेले. त्यांनी तांत्रीकाला त्या आत्म्या बद्दल विचारले .

तांत्रीकाने एक लांब श्वास घेतला आणि सांगायला सुरवात केली ” शामराव आणि भीमराव हे दोघे भाऊ होते . त्यांचे वडिल एक तांत्रीक होते आणि आपली विद्या त्याने आपल्या दोघा मुलांना शिकवली होती. वडिलांच्या मृत्युनंतर भीमराव व्यसनाच्या आहारी गेला. तो आपल्या मित्रांसोबत सिगरेट आणि दारू पिण्यात वेळ वाया घालवायचा.

दुसरीकडे शामराव आपल्या तांत्रीक विद्येत भर घालत होता. तो गावोगावी फिरून भटकत असलेल्या आत्म्यांना एका लाइटर मधे बंद करायचा आणि एका  विशिष्ट ठिकाणी नेऊन त्यांना आपल्या मंत्राद्वारे मोक्ष प्राप्ती करण्यास मदत करायचा.  एक दिवस शामराव कुठेतरी बाहेर गेला होता म्हणून भीमरावाने पार्टी करण्यासाठी त्याच्या घरी मित्रांना बोलवले होते. मित्र आल्यावर भीमराव दारू आणायला बाहेर गेला होता. त्याचे मित्र सिगरेट पेटवण्यासाठी लाइटर शोधू लागले. लाइटर शोधता शोधता ते शामरावाच्या खोलीत गेले. तिथे त्यांना एक लाइटर मिळाला. पण खूप प्रयत्न करून सुद्धा तो लाइटर पेटत नव्हता. लाइटर पेटत नाही म्हणून रागाने त्यांनी तो जोरात जमिनीवर आपटला . लाइटरचे दोन तुकडे झाले तेवढ्यात तिथे भीमराम आला आणि जोराने ओरडला  ” हे काय केले तुम्ही, हा साधासुधा लाइटर नव्हता या लाइटर मध्ये एक दुष्ट आत्मा कैद होता. आता आपले काही खरे नाही. चला पळा इथून “

क्रमशः भाग १

लेखक – श्री देवा गावकर  

संग्राहिका –  सुश्री पार्वती नागमोती

मो. ९३७१८९८७५९

सांगली

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ फक्त चौकट काढा…अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆

सुश्री प्रभा हर्षे

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☆ फक्त चौकट काढा…अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे

“साहेब गाडीची डिलिव्हरी घ्यायला किती वाजता  येणार?”

“मॅडम येतील. त्यांचा नंबर फॉरवर्ड करतो. त्यांच्या वेळेबद्दल त्यांच्याशी बोलून घ्या.”

“पण साहेब गाडी मोठी आहे.”

“मग काय झालं? घेऊन येतील त्या. तुम्ही बोला त्यांच्याशी”

नवी कोरी गाडी घरी आणण्यासाठी विश्वासाने (बायकांच्या गाडी चालवण्याबद्दल अनेक पोस्ट , अनेक जोक्स  सोशल मीडियावर फिरत असतात) नवऱ्याने माझा नंबर डीलरला दिला …त्यादिवशीच खरं माझा महिला दिन साजरा झाला.

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इलेक्ट्रॉनिक वस्तू खरेदी करण्यासाठी दुकानात गेलेल्या दिरांनी सेल्समनला माझा नंबर लावून दिला आणि प्रॉडक्ट विषयी माहिती द्यायला सांगितले.

“या सगळ्या माहितीवरून तुच ठरव बाई कुठलं घ्यायचं ते आम्हाला त्यातलं काही कळत नाही.”

माझा त्या क्षेत्रातील शिक्षणाचा असाही सन्मान झाला…. त्याच वेळी खरं तर माझा महिला दिन साजरा झाला

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एका कार्यक्रमासाठी नातेवाईक घरी जमले होते. खूप प्रयत्न करूनही ऑफिसच्या कामामुळे घरी जायला उशीर झालाच. सचिंत मनाने घरी पोहोचले आणि पटकन आवरायला घेतलं.

बाहेरून सासूबाईंचा आवाज ऐकू आला

“मनु आईला हा एवढा चहा नेऊन दे. दमून आलीये ती. खूप काम असतं आताशा तिला ऑफिसमध्ये.”

सगळ्या नातेवाईकांसमोर जेव्हा एका स्त्रीने दुसऱ्या स्त्रीच्या कर्तुत्वाचा आदर केला… त्याच दिवशी माझा महिला दिन साजरा झाला.

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“काही अडचण आली ना तर तुझ्याशी बोललं की बरं वाटतं. आपोआप सोल्युशन्स मिळत जातात आणि सगळे प्रॉब्लेम चुटकीसरशी सुटतात.” जेव्हा  बहिणी, मित्र-मैत्रिणी अशी सुरुवात करून त्यांचा प्रॉब्लेम विश्वासाने सांगतात आणि माझ्यावर अवलंबून राहतात …त्याच दिवशी खरं तर माझा महिला दिन साजरा झाला

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लेकीच्या कॉलेजमधील माझ्या आयुष्यातील हिरो या विषयावरील भाषण स्पर्धेत  हिरो म्हणून तिने माझं नाव घेतलं आणि सगळ्या प्रेक्षकांनी टाळ्यांनी सभागृह दणाणून सोडलं…

 खरंच सांगते त्या दिवशी माझा महिला दिन साजरा झाला

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“तुम्ही नक्की करू शकता हे काम. काहीच अवघड नाही. Pl. Go ahead. We believe in your capabilities” पुरुषांच्या बरोबरीने कामाची जबाबदारीही तितक्याच आश्वस्तपणे बॉसने खांद्यावर टाकली, आणि सफलेतही भागीदारी दिली.. त्याच दिवशी माझा महिला दिन साजरा झाला.

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“मुली आहेत म्हणून काय झालं? माझ्या मुली माझा आधार आहेत.. अभिमान आहेत” असं म्हणत वडिलांनी पुढे प्रॉपर्टीबरोबरच खांदा आणि अग्नी देण्याचा अधिकारही आम्हाला बहाल केला. त्यांचं हे मानस ऐकलं… आणि खरं सांगते त्याच दिवशी माझा महिला दिन साजरा झाला.

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नेहमीप्रमाणे नवऱ्याने ऑफिसला जाताना जवळ घेऊन आज Love you न म्हणता ‘ आम्हाला तुझा अभिमान आहे ‘ असं म्हटलं आणि सकाळी सकाळीच खरं सांगते माझा महिला दिन साजरा झाला.

महिलादिन म्हणजे महिलांसाठी विविध कार्यक्रम… कुठेतरी सवलतीच्या दरात काहीतरी उपलब्ध करून देणे किंवा  वेगवेगळ्या  पुरस्कारांची लयलूट करणे नाही.   इतक्या क्षुल्लक गोष्टींतून कोणी स्त्रीच्या आयुष्यात आनंद आणू शकत नाही…

महिलांच्या सबलीकरणावर आतापर्यंत बऱ्याच महिलांनी तसेच त्यांच्या बरोबर काम करणाऱ्या पुरुष सहकार्यांनी सुद्धा  विविध स्तरांवर अवलोकन केले आहे.

डॉ. शुभांगी कुलकर्णी यांची एक अतिशय सुंदर कविता वाचनात आली होती. 

“ती स्त्री आरशाला विचारते–  

कसा आहेस?

आरसा म्हणतो ठीकाय..

फक्त ती चौकट तेवढी काढून टाक.. गुदमरायला होतंय.

तिने चौकट काढली आणि तेव्हापासून तिचा उत्फुल्ल चेहरा आरशात कधी मावलाच नाही…”

 

लेखक : अज्ञात

संग्राहिका –  सुश्री प्रभा हर्षे 

पुणे, भ्रमणध्वनी:-  9860006595

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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