सूचनाएँ/Information ☆ साहित्यिक गतिविधियाँ ☆ भोपाल से – सुश्री मनोरमा पंत ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्यिक गतिविधियाँ ☆ भोपाल से – सुश्री मनोरमा पंत 🌹

(विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

☆ डॉक्टर मनोज को रमन रिसर्च  फैलोशिप ☆

भोपाल के साइंटिस्ट डाॅ. मनोज कुमार गुप्ता को साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च काउंसिल की ओर से रमन रिसर्च फैलोशिप 2022-23के लिए सिलेक्ट किया गया ।यह फैलोशिप  इंजीनियरिंग साइंस के क्षेत्र  में दी गई  है ।

☆ भारतीय  कला और  एवं संस्कृति पर बुक लिखने में डाॅक्टर रंजन को लगे पाँच वर्ष ☆

2002 बैच के झारखंड कैडर के आइएएस डाॅ.रंजन ने तीन खंडों में कला संस्कृति के हर पक्ष को ध्यान  में रखकर पुस्तक  लिखी ।

“विज्ञान की गल्प  कथाएं लिखना चाहिए, ये  बच्चों का इमेजिनेशन बढ़ाती है  यह बात”टीनू का पुस्तकालय “पुस्तक  पर चर्चा करते हुए बाल कल्याण  एवं बाल साहित्य  शोध केन्द्र  में आदित्य अकादमी के निदेशक   विकास  दवे ने  कही ।मुख्य  अतिथि कुंकुम गुप्ता ने बच्चों को बाल कहानियाँ  पढ़ने पर जोर दिया ।सुमन ओबेराय  ने आज के मनोविज्ञान  के अनुसार  बाल साहित्य  लिखने के लिए  कहा ।इंदिरा त्रिवेदी ने कहा-बाल कहानियाँ सरल सहज और बच्चों की जिज्ञासा के अनुसार होनी चाहिए  ।

 लघुकथाकार  अपूर्व  सेन के नए लघुकथा संग्रह  ‘धुंध छँटते ही ‘ का लोकार्पण  वरिष्ठ  साहित्यकार  उर्मिला शिरीष  की अध्यक्षता में म.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के बैनर तले हुआ ।

☆ मनीष  बादल  के गजल संग्रह  का लोकार्पण ☆

मनीष  बादल  के गजल संग्रह  ‘दो मिसरों में’ का लोकार्पण  जनजातीय  संग्रहालय में लोकार्पण  हुआ ।

☆ सरोकार साहित्य संवाद की व्यंग गोष्ठी सम्पन्न ☆

भोपाल | सरोकार साहित्य संवाद की व्यंग्य गोष्ठी वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉ.हरि जोशी की अध्यक्षता एवम वरिष्ठ साहित्यकार श्री देवेंद्र जैन के मुख्य आतिथ्य एवम वरिष्ठ कवि प्रो0 चित्रभूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ एवम वरिष्ठ कवि कथाकार श्री बलराम गुमाश्ता के विशिष्ट आतिथ्य में सम्पन्न हुई |

कार्यक्रम के प्रारम्भ में सरोकार साहित्य संवाद की और से संस्था के संस्थापक अध्यक्ष व्यंग्यकार श्री कुमार सुरेश ने स्वागत उदबोधन किया इस अवसर पर उन्होंने पुस्तकें भेंटकर मंचस्थ अतिथियों का स्वागत किया |

साहित्यकार घनश्याम मैथिल “अमृत” के संचालन में व्यंग्य गोष्ठी आरम्भ हुई जिसमें सर्वप्रथम व्यंग्यकार श्री कुमार सुरेश ने ‘सरकारी बैठक ‘ एवं ‘आम आदमी को वॉशरूम का सपना ‘ व्यंग्यों का प्रभावी वाचन किया, व्यंग्यकार श्री विवेकरंजन श्रीवास्तव ने ‘किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन ‘ और ‘आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना ‘ सुनाकर उपस्थितजनों को भाव विभोर कर दिया |

अगले क्रम में व्यंग्यकार श्री अशोक व्यास ने समसामयिक व्यंग्य ‘होली के रंग बापू के संग ‘प्रस्तुत कर श्रोताओं को ताली बजाने पर विवश कर दिया ,इस व्यंग्य गोष्ठी में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ जवाहर कर्नावट के व्यंग्य ‘गरीब जो देखन चला ‘ को भी उपस्थितजनों का भरपूर आशीर्वाद मिला | इस गोष्ठी में वरिष्ठ कवियत्री कथाकार डॉ नीहारिका रश्मि के व्यंग्य ‘देशभक्ति ज़िंदाबाद ‘ को भी खूब पसंद किया गया |

श्री सुरेश पटवा ने उन्होंने ‘एक हिंदी सेवी की विदेश यात्रा ‘ व्यंग्य का पाठ किया | इसके पश्चात सुपरिचित व्यंग्यकार श्री विजी श्रीवास्तव ने ‘एक गधे को कुत्ते की मौत ‘ व्यंग्य का पाठ कर इस व्यंग्य गोष्ठी को यादगार बनाकर शिखर तक पहुंचा दिया |

इस आयोजन में डॉ हरि जोशी के आत्मकथा सङ्ग्रह ‘ तूफानों से घिरी ज़िन्दगी ” का लोकार्पण किया गया | इस अवसर पर आयोजन के मुख्य अतिथि श्री देवेंद्रकुमार जैन ने अपने उद्बोधन में व्यंग्य की बढ़ती स्वीकार्यता पर प्रकाश डाला और कार्यक्रम के अध्यक्ष वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉ हरि जोशी ने समकालीन व्यंग्य के समक्ष उपस्थित चुनोतियों की चर्चा की कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि कवि कथाकार श्री बलराम गुमाश्ता ने व्यंगकार को पक्ष अथवा विपक्ष में नहीं बल्कि प्रतिपक्ष की भूमिका निर्वहन की बात की ,इस आयोजन में वरिष्ठ साहित्यकार प्रो0चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध ने भी अपने महत्वपूर्ण विचार साझा किए |

☆ शिखर साहित्य संगम भोपाल द्वारा होली विषय पर काव्य गोष्ठी का आयोजन सम्पन्न ☆

शिखर साहित्य संगम भोपाल का आभासी पटल पर होली महोत्सव कार्यक्रम के अन्तर्गत होली विषय पर  काव्य गोष्ठी का आयोजन सम्पन्न हुआ।कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ.वंदना मिश्र जी साहित्यकार पूर्व प्रधानाचार्य  हमीदिया स्कूल भोपाल ने की।

मुख्य अतिथि  उषा सक्सेना जी भोपाल लेखिका साहित्यकार थी। विशेष अतिथि डॉ हरिदत्त गौतम ‘अमर’ जी,मोदी नगर गाजियाबाद (उ. प्र.)थे। सरस्वती वंदना का पाठ डॉ प्रो.मंजरी अरविंद गुरु,रायगढ़ (छ. ग.)किया । सभी साहित्यकारों का स्वागतम अभिनन्दन एवम संचालन शिखर पटल के अध्यक्ष कवि अशोक गौतम ने किया। अंत में  सभी का आभार व्यक्त  कवि चन्द्रभान सिंह चन्दर  जी ने किया।

आज की विशेष  होली काव्य गोष्ठी में जिन कवि कवयित्रियों ने काव्य के रंग बिखेरे उनमें मनोरमा पंत जी,भोपाल, रेखा कापसे,  कुमुद जी, बिहारी लाल सोनी अनुज कवयित्री अनीता शरद झा,आशा सिंह कपूर ,अंजली कुमार, पद्मा तिवारी, उषा सक्सेना जी,सुनीता मुकर्जी  जी, मधुलिका सक्सेना ,डॉ प्रो. मंजंरी,डॉ हरिदत्त गौतम ,रामलाल द्विवेदी ,चन्द्रभान सिंह चन्दर, डॉ वंदना मिश्र  डॉ औरिना अदा जी,रागिनी मित्तलडॉ प्रियंका भट्ट जी, पुष्पा गुप्ता ,तथाकविअशोक गौतम भोपाल नेकाव्य पाठ किया।

☆ अ. भा .कला मँदिर भोपाल द्वारा होली पर काव्य गोष्टी संपन्न ☆

अ. भा .कला मँदिर भोपाल द्वारा दिनाँक 11.  3. 2023 को ‘रंगोत्सव’ संस्था प्रमुख डाॅ. गौरी शंकर गौरीश  की अध्यक्षता में मनाया गया। समारोह  के मुख्य  अतिथि थे डाँ के जी सुरेश कुलपति माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता वि. वि,  विशिष्ट अतिथि श्री आलोक सँजर पूर्व साँसद म.प्र शासन ,और सारस्वत अतिथि थे डाँ सुरेन्द्र विहारी गोस्वामी पूर्व निर्देशक ग्रँथ अकादमी कार्यक्रम  का प्रारम्भ  अतुल शर्मा की सुदंर सगीतमयी सरस्वती वंदना से हुआ ।

सबसे पहले सँगीतमय फूलमार होली खेली गई। जिसे सरस्वती संगीत विद्यालय ने एक मनोहारी होली गीत  द्वारा जीवंत किया।फिर  बुँदेली होली, बृज की होली ,पारँपरिक होली एवं लोकगीतों  से पूरा सभागार  होली मय  हो गया ।कलाकार थेआशा श्रीवास्तव,सुधा दुबे,श्रीमती  रजनी वर्मा सुषमा   श्रीवास्तव ‘सजल’ राधारानी चौहान,और सभी के साथी ।राजेन्द्र  गट्टानी ,गोकुल सोनी,राकेश कुमार हैरत,    लोकगायक रामनरेश, तथावंदना खरे ने भी अपनी रचनाओं से सबको मंत्र मुग्ध  कर दिया ।

सभाध्यक्ष  गौरीशंकर  गौरीश  ने होली के महत्व को बताया ।मुख्य अतिथि श्रीके.जी .सुरेश ने अपने उद्बोधन  भाषण में कहा कि रंगोत्सव  जैसे कार्यक्रम  हमारी संस्कृति की पुष्टि करते हैं ।विशिष्ट  अतिथि आलोक संजर जी ने आज विद्वान  नहीं विद्यावान बनने की आवश्यकता है ।सारस्वत  अतिथि के रूप में गोस्वामी जी ने प्रमुख चार रंगों के माध्यम सप्रेम को परिभाषित  किया कि ईश्वर  के रंग में रंग जाना ही वास्तविक  प्रेम है ।

कार्यक्रम  का संचालन  हरिवल्लभ  जी शर्मा  एवं मधु शुक्ला ने किया तथा आभार प्रदर्शन मनोरमा पंत द्वारा किया गया ।

साभार – सुश्री मनोरमा पंत, भोपाल (मध्यप्रदेश) 

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अभंग कीर्ती… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ अभंग कीर्ती… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆ 

घर हलके हलके माझे

            फिरताना वारे फरते

पण उंबरठ्यावर पणती

         वा-यात वादळी जळते

 

अस्तित्व मनाला माझ्या

        माझेच अविरत छळते

वळणाच्या खडतर वाटा

        चढताना मन अवघडते

 

नेमक्या अनामिक जागी

         निरगाठ मनाला बसते

मग रित्या रित्या देहाचे

        जगणे ही खडतर बनते

 

ही ओढ जीवाला कसली

          कसले हे अनघड नाते

आयुष्य दळाया साठी

           नियतीचे फिरते जाते

 

पाण्यात उथळ असताना

                काठावर येता येते

पण खोल गोल पाण्यातच

          पडतात जीवाला गोते

 

झोकून दिल्यावर जगणे

           माझेपण प्रचिती देते

जगताना दुसऱ्या साठी

         जगण्याचे सार्थक होते

 

तेजोमय जगता येणे

              भाग्याचे लेणे ठरते

पण स्वार्थ उपजतो तेव्हा

           मरणांची कत्तल होते

 

हे कठीण काम जगण्याचे

          सर्वांच्या पुढती असते

माणुसकी जपतो तेव्हा

          मग वाळवंट ही फुलते

 

चिखलातच फुलती कमळे

           हे खरेच वास्तव आहे

पण अभंग कीर्ती साठी

         हौतात्म्यच पदरी पडते

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जागर स्त्रीशक्तीचा… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ जागर स्त्रीशक्तीचा… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

आठवांचा पिंगा बाई

माझिया तनामनात

तुझ्या अनंत रुपांची

सजे आरास मनात

 

माता तू मायासागर

लेक तुची गं हसरी

प्रेम सरिता पद्मिनी

भार्या होसी गं सुंदरी

 

कधी वज्रापरी तर

कधी कुसुम कोमला

अशी कर्तव्य तत्परा

झळाळती तू चपला

 

त्रिखंडात तुझी कीर्ती

घेसी गगन भरारी

पराक्रमी तेजयुता

देशासाठी लढणारी           

 

शूरवीर घडविसी

जपतेस गं संस्कृती

नवी पिढी संस्कारित

करतेस सरस्वती

 

अन्यायाची परिसीमा

सोसलीस एकेकाळी

हिमतीने चाललीस

काटेकुटे पायदळी

 

सारी क्षेत्रे पादाक्रांत

केली या नारीशक्तीने

शिक्षणाने ज्ञानवंत

जाहलीस गं  जिद्दीने

 

नित करुया आपण

जागर गं स्त्रीशक्तीचा

पूज्य भाव असो मनी

थोर स्त्रीत्व जपण्याचा

 

© वृंदा (चित्रा) करमरकर

सांगली

मो. 9405555728

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 121 ☆ अभंग… (मित्र…) ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 121 ? 

☆ अभंग… (मित्र…)

सुखात दुःखात, साथ देतो खरा

तोच मित्र बरा, ऐसे जाणा.!!

 

कठीण समयी, पाठ जो नं दावी

मैत्री ती प्रभावी, प्राचीवर.!!

 

अडणी क्रियेला, धावून जो येतो

तोच प्रभवतो, मित्र छान.!!

 

स्वार्थी नी कपटी, लोभी ज्याची वृत्ती

करावी निवृत्ती, संगतेची.!!

 

पुरण-पोळीचा, ठेचा भाकरीचा

प्रश्न भावनेचा, ज्याचा त्याचा.!!

 

चंदन सुगंधी, पर-उपकारी

ऐसा मित्र तरी, भाव द्यावा.!!

 

तयाचे ऐकावे, तयाचे जाणावे

तया सुखवावे, सदैव हो.!!

 

कवी राज म्हणे, दूध साखरेचा

तैसा मित्रत्वाचा, संग हवा.!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 60 – स्वामी विवेकानंदांचं राष्ट्र-ध्यान – लेखांक एक ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 60 – स्वामी विवेकानंदांचं राष्ट्र-ध्यान – लेखांक एक ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

गुरु रामकृष्ण परमहंस यांच्याकडून संन्यासाची दीक्षा घेतल्यानंतर,  “आपल्याला सार्‍या मानवजातीला आध्यात्मिक प्रेरणा द्यायची आहे, तेंव्हा आपला भर तत्वांचा, मूल्यांचा, आणि विचारांचा प्रसार करण्यावर हवा. संन्यास घेतलेल्यांनी किरकोळ कर्मकांडात गुंतू  नये”. असे मत नरेंद्रनाथांचे होते. या मठातलं जीवन, साधनेला वाहिलेलं होतं. अभ्यासाबरोबर ते सर्व गुरुबंधुना पण ते प्रोत्साहित करू लागले की, भारत देश बघावा लागेल, समजून घ्यावा लागेल. लक्षावधी माणसांच्या जीवनातील विभिन्न थरांमध्ये काय वेदना आहेत, त्यांच्या आकांक्षा पूर्ण न होण्याची कारणे काय आहेत ते शोधावे लागेल. हे ध्येय समोर ठेऊन ,भारतीय मनुष्याच्या कल्याणाचे व्रत घेऊन स्वामी विवेकानंद यांचे हिंदुस्थानात भ्रमण सुरू झाले.

परिव्राजक स्वामीजी सगळीकडे फिरून आता धारवाड, बंगलोर करत करत म्हैसूरला आले. म्हैसूर संस्थांचे दिवाण सर के. शेषाद्री अय्यर यांच्याकडे स्वामीजी राहिले होते. त्यांनी म्हैसूर संस्थानचे महाराज चामराजेंद्र वडियार यांचा परिचय करून दिल्यानंतर त्यांनी स्वामीजींना संस्थानचे खास अतिथि म्हणून राजवाड्यावर ठेऊन घेतले. एव्हढी सत्ता आणि वैभव असलेल्या या तरुण महाराजांना धर्म व तत्वज्ञान याविषयी आस्था होती. म्हैसूर हे भारतातील सर्वात मोठ्या संस्थांनांपैकी एक होते. इथे अनेक विषयांवर स्वामीजी बरोबर चर्चा आणि संवाद घडून येत.

महाराजांशी स्वामीजींचे चांगले निकटचे संबंध निर्माण झाले होते. त्यांनी एकदा स्वामीजींना विचारलं स्वामीजी मी आपल्यासाठी काय करावं ? त्यावर तासभर झालेल्या चर्चेत स्वामीजी म्हणाले, “भारताचा अध्यात्म विचार पाश्चात्य देशात पोहोचला पाहिजे आणि भारताने पाश्चात्यांकडून त्यांचे विज्ञान घेतले पाहिजे. आपल्या समजतील सर्वात खालच्या थरापर्यंत शिक्षण पोहोचले पाहिजे आणि धर्माची खरी तत्वे सामान्य माणसाला समजून सांगितली पाहिजेत. शिकागोला जाण्याचा विचार ही त्यांनी बोलून दाखवला होता, त्यांना स्वामीजींनी शिकागोहून पाठवलेल्या पत्रात म्हटले आहे “हे उदार महाराजा, मानवाचे जीवन फार अल्पकालीन आहे आणि या जगात हव्याशा वाटणार्‍या सुखाच्या गोष्टी केवळ क्षणभंगुर आहेत. पण जे इतरांसाठी जगतात तेच खर्‍या अर्थाने जगतात. भारतातील तुमच्यासारखा एखादा सत्ताधीश जर मनात आणेल, तर तो या देशाला आपल्या पायावर उभे करण्यासाठी महान कार्य करू शकेल. त्याचे नाव पुढच्या पिढ्यांत पोहोचेल आणि जनता अशा राजाबद्दल पूज्यभाव धरण करेल”. यावरून स्वामीजीं स्वत:साठी काहीही मागत नसत. इथून महाराजांचा निरोप घेऊन स्वामीजी केरळ प्रदेशात गेले.

त्रिचुर, कोडंगल्लूर,एर्नाकुलम, कोचीन इथे फिरले. केरळ, मलबार या भागातल्या जुनाट चालीरीती आणि ख्रिस्त धर्मी मिशनर्‍यांचा तिथे चाललेला धर्मप्रचार या गोष्टी स्वामीजींच्या लक्षात आल्या होत्या. त्यामुळे त्यांना वाटलं की हिंदू धर्माच्या दृष्टीने ही गोष्ट चांगली नाही. स्वामीजींना उत्तर भारतापेक्षा दक्षिण भारतात आलेले अनुभव वेगळे होते. त्यांच्या लक्षात आले की, दक्षिणेत पाद्री लोक खालच्या वर्गातील लाखो हिंदूंना ख्रिस्त धर्मात घेत आहेत. जवळ जवळ एक चतुर्थांश लोक ख्रिस्त धर्मात गेले आहेत.

कोचीनहून स्वामीजी त्रिवेंद्रमला आले. एर्नाकुलम पासून त्रिवेंद्रम सव्वा दोनशे किलोमीटर अंतरावर, बैलगाडी आणि पायी प्रवास करताना केरळचं निसर्ग वैभव त्यांना साथ करत होतं. आंबा, फणस, नारळ यांची घनदाट झाडी, लहान मोठ्या खाड्या, पक्षांचे मधुर आवाज असा रमणीय रस्ता स्वामीजी चालत होते.

कन्याकुमारी भारत वर्षाच्या दक्षिणेचे शेवटचे टोक. त्रिवेंद्रम हून नव्वद किलोमीटर. २४ डिसेंबरला त्रिवेंद्रमहून स्वामीजी निघाले आणि कन्याकुमारीला पोहोचले. संपूर्ण वंदेमातरम  या गीतातलं मातृभूमीचं वर्णन स्वामीजींनी ऐन तारुण्यात ऐकलं होतं. याच वर्णनाचा भारत देश स्वामीजींनी पूर्वेकडून पश्चिमेकडे आणि उत्तरेकडून दक्षिणेकडे हजारो किलोमीटर प्रवास करून पालथा घातला होता. डोळ्यात साठवून ठेवला होता.वर्तमानकालीन भारताचं विराट दर्शन त्यांना घडलं होतं. शतकानुशतके आपला समाज निद्रितवस्थेत आहे आणि तो आपला वारसा विसरला आहे,रूढी परंपरा यांचा दास झाला आहे असं भीषण चित्र त्यांना दिसत होतं. अशी ही स्वदेशाची आगळीवेगळी यात्रा  करायला त्यांना अडीच वर्ष लागली होती. कन्याकुमारीच्या आपल्या मातृभूमीच्या दक्षिण टोकावरच्या खळाळत्या लाटांच्या हिंदुमहासागराला ते भेटणार होते आणि या अथांग सागराला वंदन करून आपल्या विराट भ्रमणाची पूर्तता करणार होते. 

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ संगम… ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

सौ. दीपा नारायण पुजारी

 

? जीवनरंग ?

☆ संगम…  ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

“ग्रॅनी, ग्रॅनी”, अशा हाका ऐकू आल्या आणि वंदनाच्या गळ्यात दोन लाडिक हात पडले. गळामिठी घालत इरानं वंदनाच्या गालावर ओठ टेकले.

“इथं काय करतीस? कम कम मीट माय फ्रेंड्स.”, म्हणत इरानं तिला ओढतच हॉलमध्ये आणलं. हॉलमधल्या प्रशस्त सोफ्यावर तिच्या दोन फ्रेंड्स बसल्या होत्या. वंदनाच्या मते पसरल्या होत्या. त्यांचे आधुनिक कपडे त्यांना पसरू देत नव्हते. तरीही त्यातल्यात्यात त्या पसरल्या होत्या. काव्या आणि सौम्या अशा नावांनी स्वतःची ओळख त्यांनी सांगितली खरी. पण आवाजात माधुर्य नव्हतं ना वागण्यात मार्दव. दोघींनीही ‘हाय’ म्हणून हात हालवला. वंदना देखील ‘हाय’ असं म्हणत एका बाजूच्या खुर्चीवर टेकली. त्या मऊ आलिशान खुर्चीवर बसताना ती थोडी सुखावलीच. पाठ आणि मान छान टेकवता येत होती. खांद्यांना रग लागत नव्हती. शिवाय खुर्चीची उंची अशी होती की तिचे गुडघेही कुरकुरले नाहीत. शेजारीच बसलेल्या माधुरीला ती म्हणाली देखील,” हा तुमचा सोफा छान आहे हो.” “आई,अहो सोफा नाही बरं,काऊच म्हणायचं.”, त्यांच्याकडं हलकेच हसून बघत माधुरीनं सांगितलं. वंदनानं हसून मान हलवली.

वंदना मुंबईत राहणाऱ्या आपल्या लेकाच्या, मोहनच्या घरी आली होती. आल्यापासून ती बघत ‌होती.  वंदना तशी सुशिक्षित होती, समंजस होती. हिरानंदानी संकुलातला हा फ्लॅट आलिशान होता. कोल्हापूरातील तिचं घर काही तसं लहान नाही. पण ते तसं साधंसुधं आहे. बाहेरच्या खोलीत ठेवलेल्या खुर्च्या उठता बसता तिच्या गुडघ्यांसारख्याच कुरकुरतात. तिला दाखवायला नेलं तेव्हा तर सतरंजीवर मांडी घालून बसली होती ती. इरा अशी खाली बसेल का? ‘मॉम आय वोंट. माझा ड्रेस स्पाॉईल होईल ना.’ इरावर चुकुन कुठं तरी खाली बसायचा प्रसंग आला तर ती कशी बोलेल या कल्पनेनं तिला हसू आलं. ओठांवर आलेलं हसू दाबून ती माधुरीला म्हणाली, “अगं यांच्यासाठी काही खायला आणते.” “आई,” माधुरी म्हणाली, “तुम्ही आणलेला चिवडा लाडू देऊ यांना. चला, मी पण येते.”

दोघी किचनमधे आल्या. वंदनानं डबा काढेपर्यंत माधुरीनं प्लेट्स काढल्या. फराळाचे पदार्थ छान मांडले. ट्रेमधून ते बाहेर गेले. सेंट्रल टेबलवर विराजमान झाले. चिवचिवाट करत त्या दोघींनी आनंदानं त्यांचा स्वाद घेतला. मग काचेच्या ग्लासमधून आलेल्या विकतच्या बाटल्यांमधल्या रंगीत सरबताचा रसास्वाद घेऊन त्या गेल्या. जाताना एकमेकिंना शेकहॅंण्ड देऊन, गळामिठी घालायला त्या विसरल्या नाहीत. वंदनाच्या गळ्यात पडून तिलाही चिवडा खूप टेस्टी होता सांगायला विसरल्या नाहीत. अंधार पडू लागला होता. पण ‘हा s s य’ ‘ बा s s य’, ‘सी यू टुमारो s s ‘ करत बाळ्या पळाल्या. 

‘टेक केअर’, असं म्हणत माधुरीनं पसारा आवरायला घेतला. काही वेळानं वंदनाच्या लक्षात आलं की काव्या आणि सौम्याच्या आईचे मुली घरी पोचल्याचे मेसेजेस माधुरीला आले आहेत. पिढी बदलली, राहणीमानात बदल झाला, वागण्या बोलण्यात आधुनिकता आली तरी मनातली काळजी तीच आहे. वंदनाचे ओठ समाधानानं हसले.

रात्री जेवणं झाल्यावर ओटा-टेबल आवरताना वंदनाच्या शब्दकोशात भर पडली. किचन कॅबिनेट, बोऊल, स्पून, डस्टबीन, थ्रॅश. . .

दोन चार दिवसात तिचा शब्दकोश समृद्ध झाला. दोन चार दिवसात ती या जीवनपद्धतीला काहीशी सरावली. घरातील प्रत्येक सदस्याला स्वतंत्र खोली. अर्थात कपडेपट, कॉट, अभ्यासाचं टेबल, बाथरूम सगळंच स्वतंत्र. मोहनची दोन्ही मुलं आपापल्या खोल्यांमध्ये. मुलांना माधुरीनं तशी शिस्त चांगली लावली होती. सवयी चांगल्या लावल्या होत्या. पण एकूणच आधुनिकतेचं वारं वहात होतं.

शुक्रवारची सकाळ आली तसं विकेंड प्लॅनिंग सुरू झालं. शनिवार रविवार वेळ कसा घालवायचा याचा विचार. एक दिवस आऊटिंग!! घरातली चूल बंद. भटकंती, मूव्ही, ट्रेकिंग, रिसॉर्ट, वॉटर गेम्स् इ. इ. कधीतरी यायचं आणि उपदेश करत रहायचं. नको गं बाई. असा विचार करत वंदना या सगळ्यात सामिल झाली. जमेल तेवढ्यात सहभागी झाली. छोटा नऊ वर्षांचा नातू चिंटू तिच्या जास्त जवळ आला. दोस्तीच झाली त्याची आजी बरोबर.

ऑफिसच्या कामासाठी दिल्लीला गेलेला मोहन रविवारी रात्री परत आला. रात्री तो वंदनाच्या खोलीत आला. काहीतरी वेगळं सांगायचं असलं की आईच्या मांडीवर डोकं ठेवून सांगत असे. तो खोलीत आला तेव्हा चिंटू आजीच्या मांडीवर झोपला होता. वंदनानं ओठावर बोट ठेवून चिंटूला हळूच खाली ठेवलं.

 “अरे व्वा! साहेबांनी माझी उशी पळवली वाटतं.”असं म्हणत त्यानं आईच्या मांडीवर डोकं टेकलं आणि काही न बोलताच तो झोपी गेला. त्याच्या चेहऱ्यावर शांत, समाधानी भाव होते. गप्पा मारत मारत झोपायची त्याला सवय होती. काल आल्यापासून तो बघत होता. बऱ्याच गोष्टींमधला बदल त्याला जाणवला.

संध्याकाळी जेवताना इरा आणि चिंटू टेबलवर जेवायला बसले होते. गरम गरम भाकरी,पिठलं, लसूण चटणी, भात असा साधा बेत. पण आजी बरोबर गप्पा मारत चवीनं जेवण चालू होतं. महत्त्वाचं म्हणजे टी. व्ही. बंद होता. इरा तिच्या शाळेत शिकवलेल्या कवितेविषयी सांगत होती. आणि चिंटू लक्ष देऊन ऐकत होता. जेवल्यानंतर आजीच्या पदराला हात पुसत चिंटूची गोष्टीसाठी गडबड सुरू झाली. इरा आईला ओटा आणि टेबल आवरायला मदत करू लागली.

माधुरीनं त्याला सांगितलं की, “आई आल्यापासून सगळे एकत्र जेवतात. शिवाय आजीला चालत नाही तर तू आजीसाठी करशील तेच आम्हालाही दे असा आग्रह धरतात. काही तरी जादू आहे हं आईंच्या कडं.  आजीची आणि नातवंडांची गट्टी जमलीय अगदी.”  माधुरीचा सूर थोडा चेष्टेचा असला तरी ती खूष होती हे लक्षात येतंच होतं.

बघता बघता वंदनाला मोहनकडं येऊन पंधरा दिवस झाले. आज ती परत जाणार होती. महालक्ष्मीसाठी घरातून बाहेर पडण्याची वेळ होईपर्यंत दोन्ही नातवंडं आजी भोवती फिरत होती. त्यांनी बाबांच्या कडून दिवाळीला कोल्हापूरला जायचं कबूल करून घेतलं होतं. आजीकडून शिवाजीच्या गोष्टी ऐकायच्या होत्या. किल्ला करायचा होता. इराला मोठी रांगोळी काढायला शिकायचं होतं. इथून पुढं प्रत्येक दिवाळी कोल्हापूरला साजरी होणार होती आणि मे महिना मुंबईत, हो. . ‌ पण दरवर्षी निदान एक तरी किल्ला बघायला जायचंच. . अशा अनेक नवीन गोष्टी पक्क्या वदवून घेऊनच वंदनाला कोल्हापूरला परतायची परवानगी मिळाली होती. या पंधरा दिवसांत आधुनिक राहणीमान आणि जुन्या सवयींचा प्रयत्नपूर्वक मेळ घालण्यात वंदनाला थोडंसं यश मिळालं होतं. दोन पिढ्यांचा संगम झाला होता. नातवंडांच्या साखरगप्पा आठवत वंदनाचा प्रवास सुरू झाला.

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

इचलकरंजी

फोन नं : 9665669148 ईमेल : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ फ्यूज उडालेले बल्ब… लेखक – जोशी काका☆ प्रस्तुती – श्री सुहास सोहोनी ☆

श्री सुहास सोहोनी

? मनमंजुषेतून ?

☆ फ्यूज उडालेले बल्ब… लेखक – जोशी काका ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास सोहोनी ☆ 

सर्व फ्यूज उडालेले बल्ब एक सारखेच असतात !…… 

एक वरिष्ठ अधिकारी सेवानिवृत्त झाल्यावर महालासारखे सरकारी घर सोडून एका हाउसिंग सोसायटीत, त्यांच्या स्वत:च्या फ्लॅट मध्ये राहायला गेले. ते सेवा निवृत्त असले तरी, अजूनही स्वतःला एक मोठा अधिकारी समजत असतं आणि कधीही कोणाशी जास्त बोलत नसतं. ते दररोज संध्याकाळी सोसायटीच्या पार्क मध्ये फिरत असतांनासुद्धा, दुसऱ्यांची उपेक्षा करत आणि तिरस्कृत नजरेने पाहात असत.

एके दिवशी त्यांच्या शेजारी बसलेल्या एका ज्येष्ठ गृहस्थाने त्यांच्याशी संभाषण सुरू केले आणि हळूहळू या गप्पा-गोष्टी पुढेही चालू राहिल्या. आता ते दोघे रोज संध्याकाळी भेटत आणि खूप गप्पा मारत.  

प्रत्येक वेळी त्यांचे बोलणे बहुत करून एकतर्फी असे, कारण ते निवृत्त होऊन आलेले अधिकारी एक सारखे फक्त स्वतःबद्दलच बोलत असत. 

ते कधीही बोलायला लागले की म्हणायचे, “सेवानिवृत्त व्हायच्या आधी मी इतक्या पदावर कार्यरत होतो, की तुमच्यापैकी कोणीही त्या पदाची कल्पनासुद्धा करू शकणार नाही, केवळ नाइलाज आहे म्हणून मी येथे आलो आहे.” आणि ते गृहस्थ अशाच अनेक गप्पा करत असत आणि ते दुसरे वयस्कर गृहस्थ शांतपणे  त्यांचे सगळे बोलणे ऐकून घेत असत.

बरेच दिवसांनंतर एके दिवशी त्या सेवानिवृत्त अधिकाऱ्याने इतर ज्येष्ठ नागरिकांबद्दल जाणून घेण्याची उत्सुकता दाखविली, तेव्हा मग त्या गृहस्थाने इतर प्रत्येक व्यक्तीची माहिती देण्यास सुरुवात केली.

ते म्हणाले, “सेवानिवृत्त झाल्यावर, आपण सगळेच फ्यूज उडालेल्या बल्बसारखे असतो. याने काही फरक पडत नाही की त्या बल्बची वॅट क्षमता किती होती, फ्यूज व्हायच्या आधी त्याने किती प्रकाश अथवा उजेड दिला.”

पुढे ते म्हणाले, “मागील 5 वर्षांपासून मी ह्या सोसायटीत रहात आहे, परंतु आजपर्यंत कोणालाही हे सांगितले नाही की मी दोन वेळा सांसद म्हणून राहिलो होतो. तुमच्या उजवीकडे वर्माजी आहेत, जे भारतीय रेल्वेत महाप्रबन्धक पदावरून सेवानिवृत्त झाले आहेत. तिकडे सिंग साहेब आहेत, जे सेनेत मेजर जनरल होते.  तिकडे बाकावर पांढऱ्या शुभ्र पोशाखात बसलेले ते गृहस्थ मेहराजी आहेत, जे इस्रो (ISRO) च्या प्रमुख पदावरून सेवा निवृत्त झाले आहेत.

— आजपर्यंत त्यांनी ही गोष्ट कोणालाही सांगितली नाही, अगदी मलासुद्धा, पण मला  माहीत आहे—- 

“सगळे फ्यूज उडालेले बल्ब आता  एक समानच आहेत – त्यांची वॅट क्षमता काहीही असो  – 0, 10, 40, 60, 100 वॅट – आता त्याने काहीही फरक पडत नाही. आणि यामुळेसुद्धा काही फरक पडत नाही की फ्यूज  उडायच्या आधी तो कोणत्या प्रकारचा बल्ब होता – एलईडी, सीएफएल, हॅलोजन, फ्लोरोसेंट, किंवा सजावटीचा.

— आणि माझ्या मित्रा, हीच गोष्ट तुलासुद्धा लागू होते— 

ज्या दिवशी तुला ही गोष्ट समजेल, त्यादिवशी तुला या सोसायटीतसुद्धा शांती आणि समाधान लाभेल.

उगवता सूर्य आणि मावळता सूर्य दोन्ही अतिशय सुंदर आणि मनमोहक दिसतात.

परंतु, खरे पाहता उगवत्या सूर्याला जास्त महत्त्व दिले जाते. इतके की त्याची पूजा सुद्धा केली जाते. पण मावळत्या सूर्याला तितके जास्त महत्त्व दिले जात नाही. ही गोष्ट जितक्या लवकर  समजेल तितके चांगले आहे.”

आपलं वर्तमान पद, नाव आणि रुबाब हे स्थायी नसतात. 

या गोष्टींबद्दल जास्त जिव्हाळा व आसक्ती ठेवली असता, आपले जीवन अधिकच गुंतागुंतीचे होते कारण एके दिवशी आपण ह्या सर्व गोष्टींना मुकणार असतो. 

— लक्षात ठेवा की जेव्हा खेळ संपतो, तेव्हा राजा आणि प्यादे एकाच डब्यात बंदिस्त होतात. 

— आज, आपल्या जवळ जे काही आहे त्याचा आनंद घ्या आणि भविष्यात उत्तम जीवन जगा .

लेखक : जोशी काका

प्रस्तुती : सुहास सोहोनी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ स्टॅच्यू ऑफ इक्वालिटी… लेखक – श्री अजित दांडेकर ☆ प्रस्तुती – श्री सुनीत मुळे ☆

? इंद्रधनुष्य ?

☆ स्टॅच्यू ऑफ इक्वालिटी… लेखक – श्री अजित दांडेकर ☆ प्रस्तुती – श्री सुनीत मुळे 

पंतप्रधान श्री नरेंद्र मोदी यांनी गेल्या वर्षी हैदराबाद येथे  एका मंदिराचे उदघाटन केले आणि ही बातमी स्मृती पटलाच्या एका उंच जागेवर कुठेतरी जाऊन पडून राहिली होती … 

मागील एका शनिवारी हैदराबाद येथे अचानक जाण्याचा योग आला आणि वरील बातमीची आठवण झाली व लगेच गूगल काकांची मदत घेण्यात आली .. त्यांनी असे सांगितले की ‘ स्टॅच्यु ऑफ इक्वालिटी ‘ असे त्याचे नाव असून ते हैदराबाद पासून फक्त  ३७ कि मी अंतरावर आहे. 

स्टॅच्यु  ऑफ इक्वालिटी असे वाचल्यावर प्रथम वाटले की हे सर्व धर्म सद्भावना वगैरे पैकी ठिकाण असावे … पण मला चांगलीच उत्सुकता होती बघायची कारण श्री नरेंद्र मोदी यांनी त्याचे उदघाटन केले होते… 

तर कामात वेळ काढून मी रविवार दिनांक १२ फेब्रुवारी या दिवशी पुन्हा: एकदा गूगल काकांना विचारून येथे जायला निघालो . यावेळी मॅप वर अंतर दाखवले गेले ३७ किमी, आणि अंतर कापण्यास लागणार वेळ ३४ मिनिटे .. हे कसे शक्य आहे अशा  विचारात असतानाच लक्षात आले की मार्ग हा आऊटर रिंग एक्सप्रेस रोड येथून पोहोचतो पुढे …  आणि खरोखरीच हा एक्सप्रेस हायवे प्रत्येक बाजूने सहा लेनमध्ये 

विभागलेला असून त्यातील दोन लेन या अनुक्रमे ८० व १०० एव्हढ्या किमान वेगासाठी राखीव आहेत.  अशी मोकळीक मिळाल्यावर काय मग गाडी आपोआपच सुस्साट निघाली. आणि ठरलेल्या वेळात पोचलो देखील ..

मुख्य गेट समोरचे गणवेशातील सुरक्षा अधिकारी तत्परटेने पुढे आले आणि बाजूतील रस्त्याने मार्गक्रमण करण्यास सांगितले . मी थोडा साशंक झालो, कारण हा रस्ता मागील बाजूला जात असून गाडी लावून खूप अंतर चालले जाऊ शकले असते.. इतक्यात अजून एक चेक पोस्ट व अधिकारी समोर आला आणि सांगितले की पार्किंग चे ३० रु द्यावे लागून ते मी कुठल्या प्रकारे भरणार आहे अथवा फास्ट टॅग असल्यास मी त्यातून घेऊ शकतो असे तो म्हणाला. आता मला फास्ट टॅग फक्त रस्त्यावर चालतो एव्हढेच माहित होते तरी पण मी त्याला हो म्हटले… त्याने लगेचच एक छोटे गॅजेट काढून फास्ट टॅग ट्रॅन्झॅक्शन पूर्ण केले देखील. 

पुढे साधारण अर्धा किलोमीटरवर गाडीतळ असून एका दर्शिकेवर स्वागत करून येथे थांबण्यास सांगितले गेले. काही मिनिटातच दोन इलेक्ट्रिक व एक डिझेल बस या गाड्या हजर झाल्या आणि त्यांनी तत्पर मुख्य दरवाज्याकडे सोडले. येथे असे कळले की आत जाण्यासाठी तिकीट काढावे लागेल २०० रुपयांचे … 

तिकीट काढताच सांगण्यात आले की मोबाइल फोन हे जमा करावे लागतील व त्याची व्यवस्था लगेच करण्यात आली… 

पुढे अतिशय शिस्तबद्ध अशी रांग असून आत जाणाऱ्यांना हातावर टॅटू काढण्यात आला … फरक एवढाच की टॅटू हा ओम ह्या चिन्हाचा असून प्रत्येक व्यक्तीच्या हातावर ऐच्छिक स्वरूपात फुकट नोंदवला जातो. पुढे अश्याच प्रकारे कपाळावर पण गंध लावण्यात आले …. आणि येथूनच सुरु झाली १०८ मंदिरांची परिक्रमा . ही मंदिरे भगवान विष्णू यांचे  १०८  अवतार असून यापुढील प्रत्येक मंदिरामध्ये एक पुजारी आणि एक स्वयंसेवक / सेविका आपल्यासाठी त्या मंदिराचे महत्व आणि त्या अवतारासंबंधी मंत्र घोष आपल्याकडून म्हणून घेतात … प्रत्येक मंदिर हे विशिष्ठ आकारात असून त्या त्या अवतारासंबंधित बांधणी ह्याची विशेष काळजी घेण्यात आली आहे. उदाहरणार्थ वन अवतार दाखविताना मंदिर हे एका झाडातून कोरण्यात आले आहे असे वाटते. अतिशय अद्भुत अशी ही योजना वाटते … 

पुढे सर्व १०८ मंदिरांचे दर्शन संपल्यावर वेळ येते ती रामानुजाचार्य यांची भव्य प्रतिमा जवळून पाहण्याची … अनेक पायऱ्या चढून गेल्यावर एक मजला हा त्यांच्या सुवर्ण प्रतिमेसाठी  राखण्यात आलेला आहे… ही प्रतिमा जवळपास सहा फूट इतकी मोठी असून संपूर्ण सोन्याची आहे…  या पुतळ्यासाठी 120 किलो सोनं वापरण्यात आलं असून त्याची निर्मिती भद्रपीठम इथे झाली. रामानुजाचार्य 120 वर्षं जगले, त्यामुळे 120 किलो सोनं या पुतळ्यासाठी वापरण्यात आलं असे सांगितले जाते ….  अर्थातच येथे सुरक्षा कडक असून उगाचच जास्त वेळ थांबू दिले जात नाही.. पण दर्शन व्यवस्थित करू दिले गेले आणि प्रत्येकाच्या डोक्यावर चांदीचा मुकुट हा आशीर्वादाच्या स्वरूपात पुजारी ठेवतात …  

दर्शन झाल्यावर पुढील मजला हा भव्य पुतळ्यास्वरूपात आहे, याची उंची २१६ फूट असून हा सुवर्ण रंगात ल्यालेला आहे. येथूनच आजूबाजूला सुंदर परिसर दृश्य होतो … अतिशय सुंदर रस्ते, आजूबाजूला उभारू पाहिलेल्या अनेक मजली इमारती, हवा थंड ठेवणारी झाडे असा हा परिसर आहे… 

खाली उतरल्यावर लगेचच एग्झिट गेट असून मोबाइल फोन परत मिळण्याचे ठिकाण होते.. हाताळण्याची अतिशय शिस्तबद्ध पद्धत आणि वागणूकही विनयशील असे हे सर्व कर्मचारी निमूटपणे आपले काम करीत होते. 

योगायोग असा होता की रविवारचा तो दिवस ब्रम्होत्सव सुरु होता आणि एक मोठा यज्ञ श्री चिन्न जियरस्वामी ह्यांच्या हस्ते सुरु होता …. मंत्र घोषांनी भारावलेला तो परिसर एका वेगळ्या सृष्टीत घेऊन गेला … 

विविध वनस्पतींच्या त्या समिधा, शुद्ध तुपातील अर्घ्य, मंत्रांचा जयघोष एखाद्या पौराणिक कथेप्रमाणे वाटत होते …   स्वतः स्वामीजी अनेक मंत्र घोष करीत असून माईकवर त्या संबंधी विवरण हे स्थानिक भाषा आणि इंग्रजीमधेही सांगत होते… 

येथे हे नक्की सांगावे लागेल की श्री रामानुजाचार्य हे आद्य संत होते, ज्यांनी सर्व जाती समावेशक मंदिर प्रवेशाची द्वारे उघडली होती, आणि ती ही तब्बल एक हजार वर्षांपूर्वी … 

पुढे बाहेर  आल्यावर अतिशय निगुतीने तेथील स्वयंसेवक पुढे आला आणि म्हणाला की त्वरित प्रसाद-लाभ घ्यावा कारण तो संपण्याच्या मार्गावर आहे… मग काय पाय लगेच तिथे वळले, कारण या सर्व उलाढालीत भूक लागलेली कळलीच नव्हती, दुपारचे चार वाजूनही प्रसाद अजूनही दिला जात होता  … 

पोटभर भात, भाजी, रसम, ताक आणि लोणचे ह्याच्यावर  चांगलाच ताव मारून तृप्त मनाने बाहेर पडलो ते पार्किंगला जाईपर्यंत …. पुनः इलेक्ट्रिक गाडीत बसण्यासाठी … 

लेखक : श्री अजित दांडेकर

पुणे

संग्राहक : श्री सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 52 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 52 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

९७.

मी जेव्हा तुझ्याबरोबर खेळत होतो,

तेव्हा तू कोण आहेस ते मी विचारलं नाही.

लज्जा आणि भीतीचा लवलेश माझ्या मनात नव्हता.

माझं जीवन चैतन्यमय होतं.

 

माझ्या मित्रासारखा तू मला सकाळी

लवकर उठवायचास,

गवताच्या पात्यां-पात्यांतून पळताना

माझ्यापुढं असायचास.

 

त्या वेळी तू जी गीतं गाण्यास,

त्यांचा अर्थ मी समजून घेतला नाही.

मी माझ्या आवाजात गात राहिलो.

त्या गाण्याच्या तालावर माझे ऱ्हदय नाचायचं.

 

खेळायची वेळ आता संपलीय.

आता माझ्यावर ही काय वेळ एकदम आलीय?

 

तुझ्या पायाशी सर्व नजरा वळल्या आणि

शांत तारकांतून सारं जग

आश्चर्यचकित होऊन पाहात आहे.

 

९८.

माझ्या पराभवाच्या पुष्पमाला व विजयचिन्हांनी

मी तुझा सन्मान करीन.

अपराजित होऊन निसटणं माझ्या कुवतीत नव्हतं.

 

माझा गर्व नष्ट होईल.

असह्य दु:खात माझं जीवन संपेल,

पोकळ बासरीप्रमाणं माझ्या ऱ्हदयातून सुस्काऱ्यांचे स्वर निघतील,

दगडातून अश्रू वाहतील याची मला खात्री होती.

 

कमळाच्या सहस्र पाकळ्या कायमपणे मिटून राहणार नाहीत.

मधाच्या गुप्त जागा खुल्या होतील, हे मला ठाऊक होतं.

 

निळ्या आकाशातून एक डोळा माझ्याकडे

टक लावून पाहिल आणि शांततेत मला बोलवेल.

माझं असं काहीच असणार नाही, काहीच नाही.

केवळ मृत्यूच तुझ्या पायी मला मिळेल.

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #183 ☆ व्यंग्य – जवानी की दीवानगी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  व्यंग्य ‘जवानी की दीवानगी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 183 ☆

☆ व्यंग्य ☆ जवानी की दीवानगी

धर्म के अनुसार हमारी ज़िन्दगी में चार आश्रम बताए गये हैं। ब्रम्हचर्य से शुरू कीजिए और सन्यास से होते हुए शालीनता से ज़िन्दगी से बाहर हो जाइए। समझदार लोग इस क्रम को स्वीकार करते हैं, लेकिन कुछ लोग ज़िन्दगी में ‘रेवर्स गियर’ लगाने में लगे रहते हैं। कोशिश करते हैं कि उम्र का सिलसिला जवानी से आगे न बढ़े। इसी चक्कर में अपनी रंगाई-पुताई करते रहते हैं, जैसे कि रंगाई-पुताई से पुरानी इमारत फिर नयी हो जाएगी। उम्र किसी बरजोर घोड़ी की तरह भागती जाती है और वे रस्सी पकड़े घिसटते जाते हैं।

बाबा रामदेव अपने च्यवनप्राश के प्रचार में बताते हैं कि महर्षि च्यवन इस औषधि का सेवन करके बूढ़े से जवान हो गये थे। बाबा यह नहीं बताते कि उनका च्यवनप्राश खाकर कितने बूढ़े जवान हुए। उन्हें बूढ़े से जवान हो जाने वाले लोगों का फोटो चस्पाँ करना चाहिए और फोटो के नीचे ‘च्यवनप्राश के सेवन से पहले’ और ‘च्यवनप्राश के सेवन के बाद’ लिखना चाहिए। अनेक कंपनियाँ दीर्घकाल से च्यवनप्राश बनाती रही हैं, लेकिन अभी तक ऐसी जानकारी नहीं मिली कि कोई बूढ़ा अपनी टेकने की लाठी छोड़कर छलाँगें भरने लगा हो।हमारे देश में जवानी की ज़बरदस्त ललक रही है। सयाने महाकवि केशवदास अपने श्वेत केशों को इसलिए कोसने लगे थे कि उनकी पोतियों की उम्र की  ‘चंद्रवदन मृगलोचनी’ कन्याएं उन्हें ‘बाबा’ कहकर पुकारने लगी थीं। अब श्वेतकेशी व्यक्ति को कन्याएं ‘बाबा’ न कहें तो क्या कहें? उस वक्त अगर कोई ‘हेयर डाई’ उपलब्ध होता तो शायद महाकवि यह छीछालेदर कराने वाला दोहा लिखने से बच जाते। ज़ाहिर है कि वे अपने को रीतिकाल के प्रवाह में बहने से नहीं बचा पाये।
पुराणों में राजा ययाति की कथा मिलती है जिन्होंने अपने पुत्र से उसकी जवानी माँग ली थी। ययाति दलितों के गुरु शुक्राचार्य के शाप से असमय ही वृद्ध हो गये थे। बार-बार उनकी मृत्यु की घड़ी आती थी और बार-बार वे यम से अनुनय- विनय करके घड़ी को टाल देते थे। अंततः यम ने उनके सामने शर्त रखी कि आगे वे तभी जीवित रह सकते हैं जब वे अपने किसी पुत्र से उसकी जवानी माँग लें। उनके पाँच पुत्रों में से सबसे छोटा पुरु ही उन्हें अपनी जवानी देने को राज़ी हुआ और राजा पुत्र की जवानी पाकर भोग-विलास में डूब गये। अंततः उन्हें पश्चाताप हुआ और उन्होंने पुरु को उसका यौवन लौटा कर वैराग्य धारण कर लिया।

ऐसे ही पिता के आज्ञाकारी भीष्म पितामह और हम्मीर हो गये हैं। भीष्म के पिता राजा शांतनु सत्यवती पर अनुरक्त हो गये थे और उससे विवाह करना चाहते थे, किंतु सत्यवती के पिता ने यह शर्त रखी कि सत्यवती की संतान ही राज्य की उत्तराधिकारी हो। परिणामतः पितृभक्त भीष्म ने आजीवन अविवाहित रहने का प्रण ले लिया। प्रसन्न होकर पिता ने उन्हें इच्छा-मृत्यु का वरदान दिया। हम्मीर के बारे में कथा है कि उन्होंने अपने लिए आये विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा कर उस कन्या की शादी अपने पिता से करवा दी क्योंकि उनके पिता ने परिहास में प्रस्ताव लाने वाले से कह दिया था कि उनके (पिता के) लिए भला विवाह प्रस्ताव कौन लाएगा?

ऐसे ही एक पितृभक्त राजा मोरध्वज के पुत्र ताम्रध्वज थे जिन्होंने पिता के आदेश पर अपने को आरे से चिरवा दिया था। व्यंग के पितृपुरुष हरिशंकर परसाई ऐसी पितृभक्ति के पक्षधर नहीं थे। अपनी रचना ‘कंधे श्रवण कुमार के’ में उन्होंने मोरध्वज की कथा के विषय में लिखा, ‘कथा के इस अन्त ने कितनी पीढ़ियों को आरे से चिरवा दिया होगा।’
जवानी को पकडे रहने की इसी  ख्वाहिश में ब्यूटी पार्लर, कॉस्मेटिक सर्जरी, एंटी एजिंग क्रीम का धंधा दिन-दूना रात-चौगुना बढ़ रहा है। ‘शो बिज़नेस’ में बुढ़ापे का बड़ा ख़ौफ़ होता है क्योंकि बुढ़ापा धंधे को चौपट करने वाला होता है। एक फिल्म अभिनेत्री के बारे में पढ़ा था कि उन्होंने अपने चेहरे पर बुढ़ापे के चिन्हों को रोकने के लिए 29 बार सर्जरी करवायी, लेकिन फिर भी वे बुढ़ापे को प्रकट होने से रोक नहीं पायीं।

जवानी को बरकरार रखने की कोशिश में लगे लोगों को यह समझ में नहीं आता कि दुनिया में यदि बुढ़ापे और मृत्यु की तरफ बढ़ती यात्रा रुक जाएगी तो दुनिया की हालत क्या हो जाएगी। अंग्रेज़ कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग समझदार थे। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता में लिखा, ‘मेरे साथ बूढ़े हो। जीवन का सर्वश्रेष्ठ अभी होने को है, जीवन का वह अंतिम चरण जिसके लिए प्रथम चरण निर्मित हुआ।’ अमेरिकन कवयित्री एमिली डिकिंसन ने लिखा, ‘उम्र बीतने के साथ हम पुराने नहीं होते, बल्कि नये होते चले जाते हैं।’

परसाई जी अपनी रचना ‘पहला सफेद बाल’ में देश की नयी पीढ़ी को संबोधित करते हुए ययाति के संदर्भ में लिखते हैं, ‘हमें तुमसे कुछ नहीं चाहिए। ययाति जैसे स्वार्थी हम नहीं हैं जो पुत्र की जवानी लेकर युवा हो गया था। बाल के साथ उसने मुँह भी काला कर लिया।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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