(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित सॉनेट “~ शारदा वंदना~”।)
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 179☆ शिवोऽहम्*…(4)
आदिगुरु शंकराचार्य महाराज के आत्मषटकम् को निर्वाणषटकम् क्यों कहा गया, इसकी प्रतीति चौथे श्लोक में होती है। यह श्लोक कहता है,
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञः।
अहम् भोजनं नैव भोज्यम् न भोक्ता
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।।
मैं न पुण्य से बँधा हूँ और न ही पाप से। मैं सुख और दुख से भी विलग हूँ, इन सबसे मुक्त हूँ। अर्थ स्पष्ट है कि आत्मस्वरूप सद्कर्म या दुष्कर्म नहीं करता। इनसे उत्पन्न होनेवाले कर्मफल से भी कोई सम्बंध नहीं रखता।
मंत्रोच्चारण, तीर्थाटन, ज्ञानार्जन, यजन कर्म सभी को सामान्यतः आत्मस्वरूप का अधिष्ठान माना गया है। षटकम् की अगली पंक्ति सीमाबद्ध को असीम करती है। यह असीम, सीमित शब्दों में कुछ यूँ अभिव्यक्त होता है, ‘मैं न मंत्र हूँ, न तीर्थ, न ही ज्ञान या यज्ञ।’ भावार्थ है कि आत्मस्वरूप का प्रवास कर्म और कर्मानुभूति से आगे हो चुका है।
मंत्र, तीर्थ, ज्ञान, यज्ञ, पाप, पुण्य, सुख, दुखादि कर्मों पर चिंतन करें तो पाएँगे कि वैदिक दर्शन हर कर्म के नाना प्रकारों का वर्णन करता है। तथापि तत्सम्बंधी विस्तार में जाना इस लघु आलेख में संभव नहीं।
आगे आदिगुरु का कथन विस्तार पाता है, ‘मैं न भोजन हूँ, न भोग का आनंद, न ही भोक्ता।’ अर्थात साधन, साध्य और सिद्धि से ऊँचे उठ जाना। विचार के पार, उर्ध्वाधार। कुछ न होना पर सब कुछ होना का साक्षात्कार है यह। एक अर्थ में देखें तो यही निर्वाण है, यही शून्य है।
वस्तुत: शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी। शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाना होगा।… अपने शून्य का रसपान करें। शून्य में शून्य उँड़ेलें, शून्य से शून्य उलीचें। तत्पश्चात आकलन करें कि शून्य पाया या शून्य खोया?
शून्य अवगाहित करती सृष्टि,
शून्य उकेरने की टिटिहरी कृति,
शून्य के सम्मुख हाँफती सीमाएँ
अगाध शून्य की अशेष गाथाएँ,
साधो…!
अथाह की कुछ थाह मिली
या फिर शून्य ही हाथ लगा?
साधक एक बार शून्यावस्था में पहुँच जाए तो स्वत: कह उठता है, ‘मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ, शिवोऽहम्..!’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(साहित्य की अपनी दुनिया है जिसका अपना ही जादू है । देश भर में अब कितने ही लिटरेरी फेस्टिवल आयोजित किये जाने लगे हैं । यह बहुत ही स्वागत् योग्य है । हर सप्ताह आपको इन गतिविधियों की जानकारी देने की कोशिश ही है – साहित्य की दुनिया)
☆ विनोद कुमार शुक्ल को अंतर्राष्ट्रीय सम्मान ☆
प्रसिद्ध कवि, लेखक, उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल को अंतर्राष्ट्रीय सम्मान व्लादिमीर नाबाकोव से सम्मानित किया गया । यह अमेरिका के आस्कर अवाॅर्ड जैसा है और आजीवन लेखन सम्मान है जिसमें पचास हजार डालर यानी भारतीय करेंसी में 41 लाख रुपये दिये गये । यह गीतांजलि श्री को पिछले साल मिले बुकर सम्मान के बाद दूसरा ऐसा सम्मान है जो भारतीय मूल के किसी लेखक को मिला है । इनसे पहले अपने समय में अज्ञेय व निर्मल वर्मा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित रहे । सम्मान पर बोलते हुए विनोद कुमार शुक्ल ने कहा कि मैंने सम्मान के लिये कभी नहीं लिखा । छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा कि यह हिंदी की बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है । विनोद कुमार शुक्ल को हार्दिक बधाई । इन्हीं विनोद कुमार शुक्ल ने एक हिंदी प्रकाशक द्वारा अपनी राॅयल्टी न दिये जाने का वीडियो जारी किया था ।
लघुकथा रत्न पर कथा पाठ : कथा व लघुकथा में पिछले पचास सालों से सक्रिय व हरियाणा लेखक मंच के अध्यक्ष कमलेश भारतीय को इंडियानेट बुक्स की ओर से लघुकथा रत्न सम्मान प्रदान करने व दिल्ली की संस्था नट सम्राट की ओर से क्रिटिक अवाॅर्ड देने की घोषणा हुई है । इसी संदर्भ में हिसार के सर्वोदय भवन में कमलेश भारतीय को लघुकथा पाठ के लिये आमंत्रित किया गया । इसमें कार्यक्रम के अध्यक्ष वरिष्ठ अधिवक्ता पी के संधीर ने कहा कि लघुकथा देखन में छोटी मगर प्रभाव में बहुत बड़ी है । कमलेश भारतीय की लघुकथाओं की सराहना न केवल संधीर बल्कि दूरदर्शन के पूर्व समाचार निदेशक अजीत सिंह व आकाशवाणी के पूर्व निदेशक विनोद मेहता ने की । इस गोष्ठी में नगर के अनेक साहित्य प्रेमी मौजूद रहे ।
हरिगंधा का महिला विशेषांक :हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंधा का मार्च अंक महिला विशेषांक के रूप में आया है जो काफी प्रभावशाली रचनायें लिये हुए है । इसमें हरियाणा की रचनाकारों को यथायोग्य स्थान दिया गया है । गुलजार की कविता और अरुण कमल की ओर से अनुवादित कवितायें कवर पर हैं । मैत्रेयी पुष्पा व वर्षा खनगवाल के साक्षात्कार भी शानदार हैं । संपादक डाॅ चंद्र त्रिखा और अतिथि संपादिका कमल कपूर बधाई के पात्र हैं । बस । एक ही शहर के एकसाथ अनेक रचनाकारों की रचनायें होना थोड़ा खटकता है ।
हिसार में रंग नाट्योत्सव : हिसार में पिछले नौ वर्षों से रंग आंगन नाट्योत्सव का आयोजन हो रहा है और इतने वर्षों में देश के काम से कम तीन हजार रंगकर्मी इसमें अपने नाटक मंचित करने आ चुके हैं । इस बार बारह मार्च को प्रसिद्ध अभिनेता राजेंद्र गुप्ता व अभिनेत्री हिमानी शिवपुरी,जीना इसी का नाम है नाटक मंचित करेंगे । यह दो पात्रों का ही नाटक है और जीवन की सांध्य बेला की समस्याओं को इसमें बड़े ही अच्छे ढंग से उठाया गया है । इसके अतिरिक्त सोलह नाटक मंचित किये जायेंगे ।
साभार – श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी
(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी द्वारा साहित्य की दुनिया के कुछ समाचार एवं गतिविधियां आप सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का सामयिक एवं सकारात्मक प्रयास। विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ अंतरराष्ट्रीय महिला दिना निमित्त – “दुसरी बाजू…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆
आठ मार्च,महिलादिन. आजकाल बरेच ठिकाणी महिलादिन वेगवेगळ्या कार्यक्रमांद्वारे साजरे केले जातात.खरंतरं महिलादिनी सरसकट महिलांची अपेक्षा असते की हार,बुके सत्कार समारंभा ऐवजी तिला आधी एक स्वतंत्र विचार, स्वतंत्र भावना,स्वतंत्र आवड आणि स्वतंत्र मत असलेली व्यक्ती म्हणून आधी समजून घेतल्या जावं, तिच्या कष्टांची दखल घेतल्या जावी.
आपण सगळ्याजणी तशा नशीबवान. आपण अशा घरात जन्म घेतला जेथे कदाचित महिलादिन मोठ्या प्रमाणात साजरा केला जात नव्हता पण संपूर्ण वर्षभरच जणू महिलादिन असल्यासारखी मोकळी हवा,मोकळा श्वास, मुलगी म्हणून कुठलिही दुय्यम दर्जाची वागणूक आपल्याला कधीच मिळाली नाही त्यामुळे माहेरी महिलादिन हा काही वेगळा साजरा करावा असे प्रकर्षाने कधीच वाटले नाही.
पुढे लग्न झालं. ति.आईंनी एका महिलेचं दुसऱ्या महिलेशी कसं सख्य असू शकतं हे आम्ही एकाच छताखाली तीस वर्षे म्हणजे मी त्यांच्याजवळ राहून शिकायला मिळालं,त्यामुळे वेगळा महिला दिन साजरा करायचा विचार खरतर मनात आलाच नाही.
“अहो”नी संसाराच्या वाटचालीत तो सुरळीत आणि व्यवस्थित चालविण्याचा कासरा मोठ्या विश्वासाने हाती निश्चींतपणे सोपविला. अर्थातच आपले स्वतः चे बाबा सोडून , मग अहोंपासून नंतरची पिढी “मेन वील बी मेन “असल्यासारखी तोंडाने कौतुक कधीच करणार नाही पण नजरेतील विश्वास कधीकधी त्याहीपेक्षा जास्त सांगून जातो. त्यामुळे ही नजरेतील पसंतीची पावती हाच माझा महिलादिन.
पुढे लेक मात्र नवीन पिढीप्रमाणे महिलादिन स्पेशल म्हणून फेसबुक वर पोस्ट टाकू लागला,पिझ्झा पार्टी घडवू लागला.आणि असं करतांना आईमुलातं मित्रमैत्रीणीचा मोकळेपणा कधी आणि कसा येतं गेला तेच कळलं नाही.पण जेव्हा व्यंकटेश अगदी लहानातल्या लहान गोष्टीपासून ते महत्वाच्या मोठ्या गोष्टींपर्यंत सगळ्यात आधी.,बेझिझक मला सांगू लागला तोच माझा महिलादिन ठरला.
पुढे नोकरीच्या ठिकाणी जेव्हा सहकारी वर्ग आपल्यावर कामाची जबाबदारी सोपवून ते काम निटनेटकं होऊनच पुर्णत्वाला मी नेणारच ही खात्री, विश्वास बाळगून निश्चींत होऊ लागला नं तोच माझा महिलादिन ठरला.
तसेच मित्रमैत्रीणी, जवळील लोकं, माझा रोजचा वाचक वर्ग हा माझ्यातील लेखणीला, माझ्या भावनांना, विचारांना, माझ्या सवयींना हा माझा पेक्षाही जास्त ओळखू लागला आणि माझ्यावर भरभरून प्रेम करु लागला तोच माझा महिलादिन ठरला.
असो बरेच वेळा सत्कारसमारंभ, बुके,फुलं आणि गिफ्ट ह्यांच्यापेक्षाही ही भावनांनी जोडलेली नाती बाजी मारुन जातात नं तेव्हाच खरा महिलादिन धुमधडाक्यात साजरा झाल्याचा फील येतो हे मात्र खरं.
☆ एका कर्जाची परतफेड – भाग 2 – सुश्री मालती जोशी ☆ (भावानुवाद) – सौ. उज्ज्वला केळकर☆
(मागील भागात आपण पहिले – या अनोख्या जिद्दीची गोष्ट मॅडमच्याही कानावर गेली. त्यांनी शांतपणे सगळं ऐकून घेतलं आणि मग मला म्हणाल्या, `जया तिच्या अबोध मनात सगळ्यांसठी काही ना काही करण्याची इच्छा घर करून राहिलीय. तिचं मन मोडू नको. . तिला सांग, की तिने तिच्या वर्गातील मुलींना अभ्यासात मदत करावी.’ आता इथून पुढे )
ही व्यवस्था सगळ्यांनाच आवडली. रामकुँवर जशी वॉर्डाचीच झाली. दिवसभर हिंदी, इंग्रजी, इतिहासाची प्रश्नोत्तरे वाचून दाखवायची. कुणी सांगितलं, तर सायन्समधला भागही पुन्हा वाचून दाखवायची. खरं तर तो काही तिचा विषय नव्हता. कधी कुणासाठी डेस्कमधली वही शोधून आणायची. कधी कुणासाठी लायब्ररीच्या पुस्तकातील काही भाग लिहून काढायची. याशिवाय जरा करमणूक म्हणून मासिकांचं वगैरे वाचन व्हायचं. औषध देणे, मोसंब्याचा रस काढून देणे, ताप बघणे, कपाळाला बाम लावणे याही गोष्टी साईड बिझनेसप्रमाणे चालू असायच्या.
परीक्षा सुरू होईपर्यंत सगळ्या बिछान्यातून उठल्या होत्या. तरीही आजारी असताना जो अभ्यास झाला होता, त्याचा खूपच आधार वाटत होता. जेव्हा त्या मुक्तकंठाने रामकुँवरला धन्यवाद देत, तेव्हा तिचा चेहरा आनंदाने फुलून यायचा.
२२ मार्चला परीक्षा संपल्या. मुली हॉस्टेल सोडून जाण्याच्या दोन दिवस आधी अश्रू आणि विषदात बुडून गेले. दर वर्षी मला या करुण प्रसंगातून जावं लागतं. मुलीची सासरी पाठवणी करण्याचं दृश्य डोळ्यापुढे येतं. पण चुकूनही मनात अशी इच्छा होत नाही की या नापास होऊन पुन्हा अभ्यासाठी इथे याव्या.
रामकुँवरने जाण्याची कोणतीच घाई दाखवली नाही. विचारलं, `दीदी मी तीन-चार तारखेला गेले तर चालेल?’
`माझी काय अडकाठी असणार? पण बोअर होशील. तुझ्याबरोबरीच्या सगळ्या निघून जातील.’
`जाऊदेत. मला हे जीवन पुन्हा कधी जगायला मिळणार, म्हणून जास्तीत जास्त इथे राहू इच्छिते’.
माझं मन भरून आलं. माझी सम्मती घेऊन तिने ४ एप्रीलला भावाला नेण्यासाठी पत्र लिहीलं. मग माझ्याकडे येऊन म्हणाली, `दीदी बाकीच्या मुलींच्या परीक्षा अजून व्हायच्या आहेत. मी त्यांच्या कामात थोडी मदत करू?’
`काय विचार करून मी तिला हो म्हंटलं कुणास ठाऊक? मग एक आश्चर्य माझ्यापुढे आलं. तीन पावलात पृथ्वी व्यापणार्या वामनाची कथा अनेक वेळा ऐकली होती. पण दोन हातात सगळं हॉस्टेल व्यापणारं आश्चर्य माझ्या डोळ्यांनी पाहू लागले.
प्रथम तिने हॉस्टेलचे सारे नियम लक्षात घेऊन आशाकडून भोजन कक्षाची, मीनाकडून प्रार्थना कक्षाची, सुलभाकडून घंटा देण्याची…. अशी सारी कामे आपल्या हातात घेतली. सकाळी पाच वाजता उठायची आणि रात्री साडे दहा वाजता घंटा देऊन झोपायची. लहान मुलींच्या वेण्या घालायची. बिछाने स्वच्छ करायची. नंतर टेबल, ड्रॉवर वगैरे ब्रासोने पॉलीश करायची. मग त्यांना हिशोब समजावत माझ्या खुर्चीच्या कव्हरवर भरतकाम करायची.
`अग, जरा आराम कर!’ मी म्हणायची. `घरी जाऊन आरामच तर करायचा आहे.’
खुर्चीचंकव्हर तयार झालं. खुर्ची झाडून पुसून तिने नवीन कव्हर घातलं. टेबलक्लॉथदेखील नवीन घातला.
मॅडम खूप दिवशांनी त्या दिवशी राउंडलाआल्या. बहुतेक कुठे तरी एक्झॅमिनर म्हणून गेल्या असाव्यात. माझ्या खोलीपुढून जाताना थबकल्या.
`जया काय आहे? तुझी खोली एकदम चमकतेय!’
`जी. हे सगळं रामकुँवरचं कर्तृत्व आहे. तिला भीती वाटली, की मी तिला विसरून जाईन, म्हणून माझ्या कपाटापासून दरवाजापर्यंत तिने सारी खोली आपल्या रंगात रंगवली. आता सकाळ संध्याकाळ तिची आठवण केल्याशिवाय इलाज नाही!’ मी म्हंटलं.
`व्हेरी गुड’ मॅडमनी तिच्या भरतकामाची प्रशंसा करत म्हंटलं. `पण दीदीवर मेहेरबानी आणि आमच्यासाठी काहीच नाही! खरं सांग, माझ्यापेक्षा यांचाच आरडा-ओरडा तुला जास्त ऐकून घ्यावा लागलाय नं?’ मॅडम हसत हसत म्हणाल्या.
रामकुँवर जशी संकोचाने धसून गेली होती. मग हळूच म्हणाली, `आपल्याला… आपल्याला काही देण्याचा विचार तर मी करूच शकत नाही!’
श्रद्धेने ओतप्रोत भरलेलं हे वाक्य ऐकून मॅडमनी तिला जवळ घेतलं आणि मिठी मारली. रुबाबदार गौरवर्णीय व्यक्तिमत्वापुढे तिचं बुटकं, सावळंसं शरीर मोठं गमतीदार वाटत होतं.
मॅडम दाटलेल्या गळ्याने म्हणाल्या. `आम्ही रामकुँवरला यासाठी लक्षात ठेवू, की तिने आम्हाला काहीच दिले नाही.’ आणि त्यांनी तिच्या माथ्यावर आपले ओठ टेकले.
मॅडमना इतकं भावविव्हळ झालेलं मी यापूर्वी कधीच पाहिलं नव्हतं.
– समाप्त –
मूळ लेखिका – सुश्री मालती जोशी
मराठी अनुवाद – सौ उज्ज्वला केळकर
संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.- 9403310170ईमेल – [email protected]
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ पन्नासावे मॅरेथॉन मेडल… भाग 2 ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे ☆
(धावायचे आणि आपल्याला लक्ष असलेले अंतर धाऊन पुरे करून अंतिम रेषा गाठणे हेच खरे असते. … आता पुढे)
त्याचदिवशी आमच्या गिरगावातल्या ठाकूरद्वार नाक्यावरचे इराणी हॉटेल ” सनशाईन ” चा शेवटचा दिवस होता. त्यानंतर ते हॉटेल कायमचे बंद होणार होते. आमच्या लहानपणीच्या कडक ब्रून मस्का पाव आणि मावा सामोसाच्या आठवणी त्या हॉटेलशी निगडित होत्या त्यामुळे माझ्या मित्रांबरोबर मॅरेथॉन मेडल मिळाल्याचे सेलिब्रेशन हे ठाकूरद्वारच्या सनशाइन इराण्याकडेच झाले.
४८ व्या मेडल साठी १० डिसेंबर २०२२ अभिजित भोसले, निखिल पोवार आणि मी असे आम्ही तिघे जण गोव्याला गेलो. ज्या ठिकाणी मी माझे पहिले मॅरेथॉन मेडल कमविले होते तेथे मधली कोरोनाची २ वर्षे सोडली तर दरवर्षी मी धावायला जात आलो आहे. अभिजित आणि निखिल पोवार ह्यांनी १० कि मी मध्ये भाग घेतला होता तर. मी २१ कि मी मॅरेथॉन धावलो. गोव्याचा धावण्याचा मार्ग हा चढ उताराचा असल्याने आणि तेथील हवेतली आद्रता जास्त असल्याने, तेथे धावताना चांगली वेळ देणं खूप कठीण असते तरीही मी ती मॅरेथॉन २ तास ५२ मिनिटात धाऊन पुरी करून माझे ४८ वे मॅरेथॉन मेडल मिळविले.
आता पुढची मॅरेथॉन १५ जानेवारी २०२३ ला होती ती, आपल्या भारतातली १ नंबरची मॅरेथॉन म्हणजेच टाटा मुंबई मॅरेथॉन. त्या मॅरेथॉनसाठी धावायला खूप जण उत्सुक असतात पण सगळ्यांनाच धावायला मिळतेच असे नसते. त्याचे रजिस्ट्रेशन खूप आधी करायला लागते. ह्या नावाजलेल्या मॅरेथॉनसाठी ह्यावर्षी जवळ जवळ ५५००० जणांनी भाग घेतला होता. ह्या मॅरेथॉन मार्गात एक केम्प्स कॉर्नरचा ब्रिज काय तो चढ लागतो बाकी सरळ रस्ता, समुद्र किनारा, वांद्रे सी लिंक आणि हवेतील गारठा ह्यामुळे ह्या मॅरेथॉनला धावायला खूप मजा येते. धावण्याच्या मार्गात आम्हा रनर्सना चिअर अप करायला दुतर्फा खूप माणसे उभी असतात त्यामुळे धावायला जोर ही येतो. ह्यावर्षी वातावरणात अती थंडावा असल्याने आम्हां सगळ्या रनर्सना ह्या मॅरेथॉनचा चांगल्या तऱ्हेने आनंद घेता आला त्यामुळे हे माझे २१ कि मी धाऊन ४९ वे मॅरेथॉन मेडल मी २ तास ३२ मिनटात मिळविले. तेथेच गिरगांव चौपाटीच्या आयडियल हॉटेल मध्ये नेहमी प्रमाणेच माझ्या काही गिरगावातल्या मित्रांबरोबर सेलिब्रेशन करून माझ्या ५० व्या मॅरेथॉन मेडल साठी सगळ्या मित्रांच्या शुभेच्छा घेतल्या.
आता वेध लागले ते माझ्या ५० व्या मॅरेथॉनचे. १२ फेब्रुवारी २०२३ ला हिरानंदानी ठाणे हाल्फ मॅरेथॉन होती. माझे होम पीच. ह्यावेळेला गेल्या महिन्यांत माझ्याबरोबर गोव्याला धावलेला माझा मित्र निखिल पोवार हा ही धावणार होता. गोव्याला त्याची पहिलीच मॅरेथॉन तो दहा कि मी धावला होता पण हिरानंदानी मॅरेथॉनसाठी त्यांनी माझ्या आग्रहात्सव २१ कि. मी.मध्ये सहभाग घेतला होता. ही मॅरेथॉन हिरानंदानी इस्टेट पासून चालू होऊन ब्रह्माण्ड वरून हायवे क्रॉस करून खेवरा सर्कल, उपवन ते थेट येऊर डोंगरच्या पायथ्याशी जाऊन परत फिरते. तसे बघायला गेलो तर ह्या मॅरेथॉनचा मार्ग चढणीचा असल्याने मॅरेथॉनची चांगली वेळ नोंदवणे कठीण असते. पहाटे ५.३० ला मिलिंद सोमण ह्याने मॅरेथॉनला फ्लॅग दाखवून धावायला सुरवात झाली. निखिल आणि मी बरोबरीने धावत होतो. दोघेही एकमेकांना साथ देत होतो. काही वेळेला मी पुढे गेलो तर निखिल मागून त्याचा वेग वाढवून माझ्या बरोबर धावत होता. आम्ही दोघेही १६ कि मी पर्यंत पुरते दमलो होतो. निखिल तरुण वयाचा तिशीतला जरी असला तरी त्याच्याकडे धावण्याचा अनुभव कमी होता तर माझ्याकडे धावण्याचा दांडगा अनुभव जरी असला तरी वाढीव वयाचा अडसर होत होता. शेवटचे दोन किमी खूप थकायला झाले होते तरीही ही माझी ५० वी मॅरेथॉन मी २ तास २९ मिनिटांत पूर्ण केली आणि माझे ५० वे मेडल माझ्या गळ्यात पडले. मॅरेथॉन स्पर्धेमध्ये पहिला आला तरच जिंकला असे नसते तर स्वतःचा चांगला परफॉर्मन्स देणे म्हणजे जिंकल्यासारखेच असते आणि तो मी माझ्या ५० व्या मॅरेथॉनला दिला होता.
हे ५० वे मेडल म्हणजे माझ्या आत्तापर्यंतच्या आयुष्यातली मोठी कमाई आहे. माझी ही सगळी ५० मेडल म्हणजे माझ्या तिजोरीतली नाही तर भिंतीवर प्रदर्शित केलेली माझी अनमोल संपत्ती आहे, जिची कधीही, कोणीही किंमत करू शकत नाही तसेच ती कोणीही माझ्यापासून चोरून किंवा हिरावून घेऊ शकत नाही. मॅरेथॉनचा ५० मेडलचा एक टप्पा मी पार केला होता. दुसऱ्या दिवशी म्हणजेच १३ फेब्रुवारील मला ६२ वर्षे पूर्ण होणार होती त्याच्या एक दिवस आधी देवानेच मला मोठे बक्षीस मिळवून दिले होते, अर्थात ह्या मध्ये माझे नातेवाईक, मित्र, मैत्रिणी आणि रेषा चा हातभार खूप आहे. तुमचे माझ्यावरचे प्रेम आणि तुम्ही मला देत असलेले प्रोत्साहन, ह्यामुळेच मला धावायला अजून ऊर्जा मिळते.
… असेच माझ्यावरचे प्रेम तुमचे द्विगुणित होऊ दे आणि माझ्या धावण्यासाठी तुम्ही देत असलेले प्रोत्साहन मला मिळत राहिले तर पुढच्या पाच वर्षात माझे १०० वे मॅरेथॉन मेडल नक्की माझ्या गळ्यात असेल ह्याची मला खात्री आहे.
☆ “शेक्सपिअरचं स्ट्रॅटफोर्ड” ☆ श्री मोहन निमोणकर ☆
प्रत्येक गोष्टीला वेळ यावी लागते हेच खरं ! २०१४ ते २०१९ या पाच वर्षात आमची चार वेळा इंग्लंड भेट झाली; पण शेक्सपिअरच्या गावाला भेट द्यायचा योग आला तो २०१९ सालीच ! प्रत्येक भेटीत माझ्या मुलाला, आशिषला स्ट्रॅटफोर्ड अपऑन ॲव्हॉनला नेण्याविषयी सांगायचो; पण काही ना काही कारणानं जमत नव्हतं. मात्र, या वर्षी त्या दोघांनी तिथं जाण्याचा चंगच बांधला आणि योग आणलाच.
ॲव्हॉन नावाच्या नदीवरील स्ट्रॅटफोर्ड हे शेक्सपिअरचं जन्मगाव…साउथ वार्विक शायरमधील हे गाव. इथं ज्या इमारतीत शेक्सपिअरचा जन्म झाला त्या वाड्यावजा इमारतीत ‘शेक्सपिअर जन्मस्थान ट्रस्ट’ नं उत्तमरित्या त्यांच्या जन्माच्या वेळच्या गोष्टी जतन करून ठेवल्या आहेत. मुळात इंग्रज हा परंपरावादी, त्यामुळेच त्यांनी या जगप्रसिध्द नट, लेखक आणि थिएटर मॅनेजरची १६/१७ व्या शतकातली, त्यानं आणि त्याच्या कुटुंबानं अनुभवलेली जीवनविषयक माहिती जतन करून, प्रदर्शनाव्दारे त्याची आजच्या पिढीला ओळख करून दिली आहे. या संग्रहालयाने शेक्सपिअर आणि त्यांच्या कुटुंबानं अनुभवलेल्या प्रसंगावंर टाकलेल्या प्रकाशामुळे, हा एक मोठा माणूस आणि लेखक, म्हणून आपणास जास्त समजू शकतो.
शेक्सपिअरच्या वयाच्या ३७ व्या वर्षी, म्हणजे १६०१ मध्ये ही जन्मस्थानची जागा त्याला वडिलांकडून मिळाली. मुळात शेक्सपिसरला राहायला भरपूर जागा असल्यानं त्यानं वडिलांकडून मिळालेल्या जागेतून काही पैसे कमवावेत असा विचार केला आणि त्यानं ती जागा एलिझाबेथ फोर्ट नावाच्या बाईला हॉटेलसाठी भाड्यानं दिली. एलिझाबेथ यांच्या मृत्यूनंतर १८४६ मध्ये इमारत विक्रीला काढली गेली. तेव्हा ‘शेक्सपिअर जन्मस्थळ ट्रस्ट’ नं ती विकत घेऊन हे संग्रहालय उभं केलं. आजही त्या जन्मस्थळाची देखभाल ते करत आहेत. हे संग्रहालय उभं करण्यात आणि असे राष्ट्रीय स्मारकामध्ये अंतर्भूत करण्यासाठी जी चळवळ उभारली गेली, त्यात डिकन्सचा सहभाग महत्त्वाचा होता. त्यानं १८३८ मध्ये या जन्मस्थळास भेट दिली होती आणि त्यापासूनच त्याला स्फूर्ती मिळाली. शेक्सपिअरच्या जन्माच्या खोलीत एका खिडकीच्या काचेवर प्रेक्षक आपली आठवण म्हणून नावं लिहून ठेवत. त्यात प्रसिध्द स्कॉटिश लेखक वॉल्टर स्कोंट, तत्त्ववेत्ता थॉमसर कार्लाईल, चार्ल्स डिकन्स, शेक्सपिअरच्या काळातील दोन महान नट एलन टेटी आणि हेन्नी आयर्विंग यांचा समावेश आहे. या संग्रहालयातील वस्तूंवर म्हणजे कपडे, बिछाने आणि इतर दैनंदिन गरजेच्या वस्तूंवरून शेक्सपिअरची माहिती मिळते.
शेक्सपिअर ३७ नाटके, १५४ सुनीते (sonnets), ५ पदविधारी काव्यं (titled) लिहू शकला आणि आपल्यासाठी अक्षरशः लाखो शब्दांमधून विचारांचा अमूर्त ठेवा ठेवून गेला. त्याची नाटकं शाळा, विद्यापीठे, नाट्यगृहे, बागा आणि तुरुंगातही सादर केली जातात. शेक्सपिअरचा हा अमूल्य साहित्यिक ठेवा जतन करण्याचं कार्य ट्रस्टनं केलं असलं, तरी इंग्लंडमधील एका दैनिकात आलेली बातमी वाचून मन विषण्ण होतं. ती बातमी म्हणते, की ‘ विद्यार्थ्यांसाठी शेक्सपिअर खूप कठीण आहे! ‘डिजिटल टेक्नॉलॉजी ॲडॉब’ ने २००० साली केलेल्या एका सर्वेक्षणानुसार, २९ टक्के विद्यार्थ्यांना असं वाटतं, की शेक्सपिअरची नाटकं आधुनिक तंत्रात बसवली, तर ती चटकन समजतील. शेक्सपिअर चांगला समजायचा असेल, तर व्हिडिओ आणि ॲनिमेशनचा उपयोग करायला हवा असेही काहीजण म्हणतात.’ असो. मी मात्र माझं १९७० सालापासूनचं स्वप्नं पूर्ण झाल्यानं आनंदात होतो.