English Literature – Poetry ☆ ‘मतलबी’… श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Selfish…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem ~ मतलबी ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि – मतलबी  ??

शहर के शहर,

लिख देगा मेरे नाम;

जानता हूँ…..,

मतलबी है,

संभाले रखेगा गाँव तमाम;

जानता हूँ….!

© संजय भारद्वाज 

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

? ~ Selfish ~ ??

Cities after cities,

He will write in my name;

I know that…..,

Selfish he is,

Will keep all the villages with him;

I know that..!

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #158 ☆एक पूर्णिका – “यकीं वादों  पर हम खूब करने लगे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी एक पूर्णिका – “यकीं वादों  पर हम खूब करने लगे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 158 ☆

एक पूर्णिका – “यकीं वादों  पर हम खूब करने लगे…” ☆ श्री संतोष नेमा ☆

याद आपकी आती रही रात भर

दिल मेरा गुदगुदाती रही रात भर

सपनों में  तेरे इस कदर खो  गए

चाँदनी  मुस्कराती  रही  रात भर

इश्क  में  तेरे बदनाम हम हो गए

दूरियां  हमें  डरातीं  रहीं  रात भर

यकीं वादों  पर हम खूब करने लगे

आँख मेरी डबडबाती रही रात भर

हवा भी अब  प्रेम  गीत  गाने लगी

छूकर  हमें  लुभाती  रही  रात भर

खुद की बेबसी पर चुप हम हो गये

दुनिया  हमें  हँसाती  रही  रात भर

उनके कदमों की आहट जब भी सुनी

नींद “संतोष” न आती रही रात भर

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दोहे – “कन्या भ्रूण हत्या-एक अभिशाप” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ दोहे – “कन्या भ्रूण हत्या-एक अभिशाप” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

भ्रूण हत्या अब नहीं,बंद करो यह पाप। 

वक़्त दे रहा है हमें,तीखा-सा अभिशाप।। 

 

कन्या का है जन्म शुभ,सोचो-समझो आज। 

क्यों सोता है नींद में,दानव बना समाज।। 

 

कन्याएँ मिटती रहीं,तो सब कुछ हो नाश। 

जागे अब तो सभ्यता,लेकर चिंतन,काश।।

 

भ्रूण हत्या मूर्खता,बहुत बड़ा अविवेक। 

अब जागे इंसानियत,ले विचार सत्,नेक।।

 

नारी यूँ घटती रही,तो बिगड़े अनुपात। 

तब आना तय,साँच यह,गहन तिमिर की रात।। 

 

पुत्र और बेटी सदा, होते एक समान।। 

किस मूरख ने कह दिया,बेटा ही कुल-शान।। 

 

कन्याएँ जब जन्म लें, पढ़कर हो उत्थान। 

दोनों कुल की शान बन,पूर्ण करे अरमान।। 

 

कन्या को यूं मारना,हैवानों का काम।। 

होगी भाई इस तरह,असमय काली शाम।। 

 

अब सँभलो,जागो अभी,गाओ मंगलगीत। 

तभी उजाले को सभी,लेंगे हँसकर जीत।। 

 

यही कह रहा आज तो,’शरद’ कँटीली बात। 

जागो वरना,आ रही,बहुत भयावह रात।। 

 

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार – जयपुर से ☆ प्रस्तुति – डॉ निशा अग्रवाल ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार – जयपुर से  – डॉ निशा अग्रवाल🌹

🌹 अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस एवं होली के अवसर पर ऑनलाइन काव्य गोष्ठी आयोजित 🌹

अखिल भारतीय काव्य मंच मुंबई संस्था के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस एवं होली के पुनीत अवसर पर एक ऑनलाइन काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया।

कार्यक्रम में अध्यक्ष की भूमिका में वरिष्ठ लेखिका मोटिवेशनल स्पीकर मुंबई निवासी डॉ मंजू मंगल प्रभात लोढ़ा जी शामिल हुई। मुख्य अतिथि की भूमिका में वरिष्ठ कवयित्री रेखा ड्रोलिया जी कोलकाता से, विशिष्ट अतिथि की भूमिका में जयपुर से डॉ निशा अग्रवाल जी, उत्तराखंड से पूनम डबराल जी, मुंबई से खुशी झा,बलिया से युवा कवयित्री शिवांगी सिंह कृष्णा बावरी, अलीगढ़ से डॉ संगीता राज जी शामिल हुई। कार्यक्रम का संचालन श्रेष्ठ एवं लोकप्रिय संचालिका गाजियाबाद की पूनम माहेश्वरी जी ने किया। कार्यक्रम का आगाज खुशी झा की मां सरस्वती की वंदना से हुआ।

तत्पश्चात पूनम डबराल ने एक शानदार होली गीत की प्रस्तुति दी जिसे सभी ने सराहा।खुशी झा ने लाजवाब मुक्तक सुनाया। शिवांगी कृष्णा वावरी ने अपनी बेहतरीन प्रस्तुति दी। डॉ निशा अग्रवाल ने लाजवाब प्रस्तुति दी।उनकी रचनाओं ने सभी को प्रभावित किया। पूनम माहेश्वरी ने शानदार प्रस्तुति से सभी को प्रभावित किया। रेखा ड्रोलिया ने लाजवाब प्रस्तुति से सभी को प्रभावित किया और महिला की महत्ता को बताते हुए अपनी बात रखी। डॉ संगीता राज ने अद्भुत होली गीत सुनाया और महिला दिवस पर अपने विचार साझा किया। अंत में डॉ मंजू मंगल प्रभात लोढ़ा ने नारी के सभी रिश्तों को एक कविता के द्वारा बताते हुए अपनी शानदार कविता सुनाई और अपना अध्यक्षीय उद्बोधन भी दिया। डॉ मंजू मंगल प्रभात लोढ़ा ने अखिल भारतीय काव्य मंच को साधुवाद भी दिया। पटल के संस्थापक प्रो अंजनी द्विवेदी अनमोल ने सभी आमंत्रित सम्मानित साहित्यकारों को इस कार्यक्रम में जुड़ने के लिए धन्यवाद दिया।कार्यक्रम के संयोजक विकास मिश्र सागर ने सभी आमंत्रित अतिथियों श्रोताओं दर्शकों और पटल के पदाधिकारियों मुकेश पाण्डेय, निर्भय झा निर्वाण, ममता बारोट सभी को धन्यवाद दिया। कार्यक्रम में शुभ्रा पालीवाल जी,सोहन लाल शर्मा प्रेम पूरे कार्यक्रम में जुड़े रहे। एक हजार से अधिक कमेंट्स से श्रोताओं और दर्शकों ने इस कार्यक्रम में अपनी सहभागिता प्रदान की।

साभार –  डॉ निशा अग्रवाल

जयपुर ,राजस्थान  

 ☆ (ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)  ☆ एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री  ☆ 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #165 ☆ अंतरराष्ट्रीय महिला दिना निमित्त – आधार ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 165 – विजय साहित्य ?

☆ आधार ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

(अंतरराष्ट्रीय महिला दिना निमित्त कवितेचा यथोचित सन्मान)

मी एक स्त्री

माझं अस्तित्व

नाही कुणाची परंपरागत मालकी.

मी आहे बाई माणूस

आहे माझ्यातही

कर्तृत्व गाजवणारे शौर्य..!

 

मला  जगायचे आहे

मानानं,स्वाभिमानांन

जाज्वल्य आणि अस्मितेनं..!

राखायचे आहे घरदार..

जागतिक महामारी संकटात

बाळगायची आहे

सावधानी वारंवार ..!

 

मला सावरायचं आहे

माझं कुटुंब..पती.. मुलं

सासू सासरे..

आप्तेष्ट गोतावळा

आणि द्यायचा आहे आकार

माझ्या वर्तमानाला..!

निरामय आरोग्यात

रहायचे आहे मला

सेवा आणि भुतदयेनं

जबाबदारी आणि

कर्तव्य परायणतेनं

जिंकायचं आहे..

माझ्यातलं बाईपण मला…!

 

मला आहे जगायचे

एका एका श्वासासाठी..

वासंनांध नजरेला

द्यायची आहे मूठमाती..

त्यांच्याच आयाबहिणी

सुरक्षित रहाव्या म्हणून

शिकवायचाय धडा..

स्त्री ला अबला समजणाऱ्या

कर्तृत्वहीन भेकड पुरुषांना..!

 

मला द्यायची आहे सोडचिठ्ठी

रिती,रिवाज आणि

हुंडाबळी सारख्या भूतकाळाला.

द्यायची आहे दिशा

माझ्या उज्ज्वल भविष्याला..

 

दाखवायाची आहे

माझ्या त्या कलागुणांची

तेजोमय कलाप्रभा..

करायचे आहे साकार

माझ्याच ध्येयांकित वर्तमानाला..

आणायचाय खेचून

आत्मनिर्भर भारत..

माझ्यातलं बाईपण जपणारा…

 

मला  जगायचे आहे..

माझ्या मनाचं तारूण्य

आणि भावभावनांचं सौंदर्य

अबाधित राखण्यासाठी

मला रहायचं नाही निराधार

बनायचं आहे आधार…

बाईपण हरवलेल्या अन्

स्त्रीत्वं हिरावून घेतलेल्या

अनेकानेक माय भगिनींचा…!

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ज्येष्ठांशी कसे वर्तणे…… ☆ सुश्री मेधा सिधये ☆

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ज्येष्ठांशी कसे वर्तणे…… ☆ सुश्री मेधा सिधये ☆

श्री समर्थ रामदास स्वामींची क्षमा मागून ज्येष्ठांशी कैसे वर्तणें।

ज्येष्ठांशी कैसे चालणें तें युवकें जाणोनि घेणे। नीटपणे।।

ज्येष्ठ असती बालकासम। मनें निर्मळे निष्पाप।

जग वाटे शुद्ध नगर। शिवसुंदराचे माहेरघर।।

देह असती थकलेले। मन मृदुमवाळ फुलपांकळे।

जाणौनि असावे पुत्रपौत्रे। ढका लावो नये कठोर वाचे।।

ज्येष्ठांसंगे चालावे मंदगती। फरफट करू नये कधी।

पाऊले असती श्रमलेली। जीवनवाट तुडवोनी।।

आहार द्यावा सात्विक। ताजा, गरम, सुग्रास।

चित्त त्यांचे व्हावे प्रसन्न। भोजनथाळी देखोनिया।।

दवापाणी वेळे द्यावे। खर्चवेंच जिव्हे न काढावे।

प्रेम माया सुखवी जीव। याचे स्मरण राखावे।।

ज्येष्ठ मने अति कांतर। जिवाची होय थरथर।

मंद ज्योत वार्‍यासवें। जेवीं थरथरे।।

आपुल्या संसारचिंता। ज्येष्ठां सांगो नये वृथा।

प्रेमभरले अश्राप जीव। असती असहाय, अगतिक।।

देह थकले, मन थकले। कार्यशक्ती उणावली।

जगणे केवळ साक्षीभूत। कसली आस न उरली।।

ज्येष्ठां द्यावा उत्साह, आनंद।उरल्या दिनीं समाधान।।

हे वागणें तुम्हां पुण्यप्रद। इयें जीवनीं।।

नसता ‘ अर्थ’ ज्येष्ठांपासीं। रचो नये अपमानाच्या राशी।

उभे आयुष्य आहे समोरी। तुमच्या, पैका मिळवावया।।

जें जें साधलें तें तें त्यांनी केले। जीव वोवाळिला तुमच्यासाठी।

स्मरण तयाचे राखावे ह्रदयीं। तारुण्याचा मद न करावा।।

अहंकार,क्रोध मोठेच रिपू। त्यांना बाळगू नये जवळी कदापीहि।

एक उणा शब्द करी रक्तबंबाळ मन। संध्यावेळीं तयां जराही न साहवे।।

ज्येष्ठही होते कष्टाळू, कर्तृत्ववान। संसारनौकेचे कप्तान।

म्हणौनि सेवाभाव, कृतज्ञता। सदैव चित्ती राखणें।।

ज्येष्ठांचे आशीष ईश्वरी प्रसाद। त्यास डावलू नये वांकुड्या वर्तनें।।

चूकभुलीं व्हावे सानुलें लेकरूं। लाजो नये कधी क्षमायाचने।।

ज्येष्ठांसंगे तुमचे वर्तन। खरी समजशक्तीची पारख।

शिक्षणाचा अर्क । तोचि होय।।

© सुश्री मेधा सिधये

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “गंगूताई हनगल…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ “गंगूताई हनगल…”  ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

(पाच मार्च- जन्म दिनानिमित्त)

श्रीमंती म्हणजे नेमकं कायं ह्या प्रश्नाचं उत्तर वेगवेगळ्या व्यक्ती वेगवेगळ्या त-हेने देऊ शकतील.मला विचारलं तर मी म्हणेन आपल्याकडे वेगवेगळ्या क्षेत्रात अव्वल स्थानी असलेल्या व्यक्ती म्हणजे आपली श्रीमंती.आणि म्हणूनच आपला भारत देश हा मला वाटतं ह्या अर्थाने एक खूप जास्त श्रीमंत राष्ट्र असावं. 

ह्या अनुभवी,जेष्ठ मंडळींबद्दल तर आपल्या प्रत्येकाच्या मनात नितांत आदर हा असतोच. म्हातारं वयानं असणं आणि म्हातारपणं येणं ह्या दोन निरनिराळ्या संकल्पना आहेत हे ह्या निमीत्ताने मला नव्यानेच उमगलं.म्हातारपण येण्यात खरतरं वयाचा संबंध नसून त्या मनोवृत्तीचाच खरा संबंध असतो हे अगदी मनोमन पटलं.कित्येक वयानं वयस्कं झालेल्या लोकांमधील तरुणाईला सुद्धा लाजवेल अशी कामाची आवड,चपळता,हौस, सकात्मकता, एनर्जी बघायला मिळते तर कित्येक तरुण व्यक्तींमध्येही कित्येकदा कमालीची विरक्ती,आळस,कामाची नावड,नकारात्मकता, औदासिन्य बघायला मिळतं.अशावेळी खरचं कळतच नाही म्हातारपणं हे कोणत्या मापदंडाने मोजावं.ही म्हातारपणातील तरुणाई आणि तरुणाईतील म्हातारपणं बघितले की चटकनं ती चवनप्राश वाली जाहिरात आठवते, “सोला साल के बुढ्ढे ओर सौ सालके जवान”वाली जाहिरात.

5 मार्च.आज अशाच एका अगदी कापसासारख्या म्हाता-या होऊन गेलेल्या पण शेवटच्या श्वासापर्यंत तरुणाई टिकवून ठेवणा-या व्यक्तीची जयंती. ही व्यक्ती संगीत क्षेत्रातील असून हे क्षेत्र प्रिय असणाऱ्या व्यक्तींसाठी तर ह्या दैवतच.ह्या व्यक्ती म्हणजे हिंदूस्थानी शास्त्रीय संगीतातील किराणा घराण्याच्या ख्यातनाम गायिका गंगूताई हनगळ.

ह्यांचा जन्म 5 मार्च 1913 ला धारवाड येथे झाला. संगीताचे प्राथमिक धडे ह्यांनी दहाव्या वर्षी स्वतःच्या आईकडून घेण्यास सुरवात केली आणि वयाच्या अकराव्या वर्षी 1924 साली बेळगावात झालेल्या काँग्रेस अधिवेशनात त्यांनी महात्मा गांधी,नेहरुजी, मौलाना अब्दुल कलाम आझाद, सरोजिनीदेवी नायडू ह्यांच्या उपस्थितीत स्वागतगीत गाऊन वाहवा मिळविली. काही काळ त्या कथ्थक नृत्य शिकल्या.मग 1938 पासून सवाई गंधर्व म्हणजेच रामचंद्र कुंदगोळकरांकडे किराणा घराण्याची गायकी पंधरा वर्षे साधना करून प्राप्त केली. त्यांना भिमसेनजी जोशी ह्यांचीही संगत लाभली.

सोळाव्या वर्षी त्यांचा विवाह हुबळी येथील वकील व्यावसायिक गुरुराज कौलगी ह्यांच्याशी झाला. कौलगींना संगीताची जात्याचं खूप आवड असल्याने ग़गूताईंची संगीतसाधना ही शेवटपर्यंत टिकली,जोपासल्या गेली. त्यांचे संगीतसाधनेतील कारकीर्द आणि लोकप्रियतेचे टप्पे बघितले की खरचं अचंबीत व्हायला होतं. त्यांच्या जाहीर कार्यक्रमांची सुरवात 1931मध्ये

त्यांची एच.एम.व्ही.कडून गाण्याची पहिली तबकडी 1932 मध्ये तर आकाशवाणी वर पहिला कार्यक्रम 1933 मध्ये झाला.

कुठल्याही व्यक्तीला एखाद्या गोष्टीचा ध्यास असला तर ती गोष्ट प्राप्त करण्यासाठी ती व्यक्ती कितीही आणि कोणतेही अडथळे पार करु शकते.फक्त इयत्ता पाचवीपर्यंत शिक्षण घेऊन सुद्धा गंगूताई आपल्या संगीतसाधनेच्या जोरावर धारवाड विद्यापीठाच्या मानद संगीत प्राध्यापक झाल्यात.त्यांनी परदेशात अनेक ठिकाणी कार्यक्रम केलेत.संगीताच्या कार्यक्रमांमुळे त्या अमेरिका, इंग्लंड, कँनडा, नेपाळ,नेदरलँड, पाकिस्तान, जर्मनी, फ्रान्स व बांगलादेश इ.ठिकाणी जाहीर कार्यक्रम करण्यासाठी गेल्या.

भारतसरकारने त्यांना पद्मभूषण व पद्मविभूषण ह्या सर्वोच्च नागरी पुरस्कारांनी गौरविले.त्यांना पन्नास पेक्षाही जास्त मानाचे पुरस्कार मिळालेत.त्यांनी शास्त्रीय संगीताच्या प्रसारासाठी शाळा,महाविद्यालयातून सुमारे 200 जाहीर कार्यक्रम केलेत.त्यांना गानरत्न, गानसरस्वती,रागरागेश्वरी ह्या सारख्या उपाध्या मिळाल्यात.हुबळीमधील त्यांचे “गंगालहरी” नावाचे घर सरकारने राष्ट्रीय स्मारक म्हणून घोषित केले.हुबळीला सुमारे पाच एकर जागेत अद्ययावत संगीत गुरुकुल उभारण्यात आले.

सगळ्यात आश्चर्याची गोष्ट म्हणजे गंगूताईंनी त्यांचा तब्बल दीड तास चाललेला शेवटचा जाहीर गाण्याचा कार्यक्रम वयाच्या अवघ्या 89 व्या वर्षी दणदणीत पार पाडला. वयाच्या 96 व्या वर्षी वाढदिवसाच्या दिवशी त्यांनी शेवटचे गायन केले.त्या दिवशी त्या दहा मिनीटे सलग गायल्या.खरचं आहे नं हा तरुणाईला लाजवणारा उत्साह, मेहनत, साधना अशा ह्या थोर,अख्ख आयुष्य संगीतसाधनेला वाहून घेणाऱ्या गंगूताई हनगळांनी 21 जुलै 2009 रोजी अखेरचा श्वास घेतला.खरचं अशा थोर विभुती बघितल्या की नतमस्तक व्हायला होतं हे नक्की.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ एका कर्जाची परतफेड – भाग १– सुश्री मालती जोशी ☆ (भावानुवाद) – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

? जीवनरंग ?

☆ एका कर्जाची परतफेड – भाग १– सुश्री मालती जोशी ☆ (भावानुवाद) – सौ. उज्ज्वला केळकर 

डिसेंबरची एक थंड संध्याकाळ. हॉस्टेलमध्ये सात ते नऊ अभ्यासाची वेळ होती. वातावरणात एक सुखद शांती होती. दिवसभरच्या धबडग्यानंतर मी आरामखुर्चीत विसावले होते. पायांवर पातळशी वुलन शाल होती आणि हातात हर्मिनाब्लॅकचं`गोल्डन मून ऑफ आफ्रिका’ हे पुस्तक.

एवढ्यात वाटलं,  दरवाजात काही तरी खुस-फुस चालू आहे. पुस्तकांवरून नजर न हलवता मी म्हंटलं `येस कम इन..’

रोहिणी आणि सुजाता घाबरत घाबरत आत आल्या.

`हं! बोला!’

दोघी एकमेकींच्या तोंडाकडे पाहू लागल्या. `अग, ब! म्हणजे सकाळी मनीऑर्डर आली, ते तर नव्हेत?’

होय! तेच. मनीऑर्डर घेऊन तिने ते पैसे लगेचच डेस्कमध्ये ठेवले होते. शाळेची बस चुकेल म्हणून.

`वेडीच आहे, माझ्याजवळ द्यायचे ना! तिला म्हणावं,  नीट बघ. एखाद्या पुस्तकात ठेवले असतील.’

`संध्याकाळपासून आत्तापर्यंत सगळी पुस्तके,  सगळ्या वह्या तिने पुन्हा पुन्हा बघितल्या. बिछाना,  पेटी काही सोडलं नाही.’ सुजाता म्हणाली.

`ठीक आहे. जा तू! तिला माझ्याकडे पाठव.’ मी वैतागून म्हंटलं. इतका चांगला प्रसंग चालू होता पुस्तकात. यांनी सगळी मजाच घालवून टाकली.

दोघी जणी दरवाजापर्यंत गेल्या. रोहिणी जराशी थबकली आणिम्हणाली,     

`आम्ही तिच्या रूममध्ये राहणार्‍या मुलींवर तर संशय येणार नाही ना?’ तिचा चेहरा मोठा करुण झाला होता. स्वाभाविकच होतं. बड्या बापाची बेटी होती ती.

`ते बघू या नंतर. तुम्ही तिला इकडे पाठवा.’

त्या दोघी गेल्या. आता मी रामकुँवरची वाट पाहत होते. सकाळी मनीऑर्डर घेताना तिचा सावळा चेहरा कसा प्रफुल्लित झाला होता,  ते मी विसरले नव्हते. पुढच्या आठवड्यातच हायर सेकंडरी परीक्षेचा फॉर्म भरायचा होता. फॉर्म फीची रक्कम ४८रुपये तिचा शिपाई असलेला भाऊ एकदम पाठवू शकेल, यावर तिचा विश्वासच नव्हता. मॅडम म्हणाल्या होत्या, की फॉर्म फीची व्यवस्था होईल. नंतर हप्त्या-हप्त्याने पैसे परत देता येतील.

मला खरोखर तिचे पैसे घेणार्‍या, या नीच मनोवृत्तीच्या व्यक्तीचा भयंकर राग आला. अनुसूचित जातीतील मुलांना मिळणार्‍या  शिष्यवृत्तीच्या आधारे ती आमच्या शाळेत शिकत होती. घराकडून दर महा येणार्‍या १०-१५ रुपयांमध्ये ती तेल,  साबण, वह्या, पुस्तकांचा खर्च मोठ्या कुशलतेने भागवत असे आणि महत्वाचं म्हणजे तिच्या कपाळावर कधी आठी म्हणून नसे.

हे नुकसान मात्र खूप मोठं होतं. त्यामुळे तिच्या धैर्याचा बांध तुटून गेला होता.

१०-१५ मिनिटे झाली असतील. रामकुँवर दरवाजाशी उभी होती. साधी साडी. डोकं, हात पदराने झाकलेले. एखाद्या गाठोड्यासारखीच दिसत होती.

`तू स्वेटर नाही घातलास?’

`स्वेटर मी शाळेत जाताना घालते. रात्रंदिवस घातला, तर मळतो ना!’  तिने दबलेल्या आवाजात म्हंटलं.

हे उत्तरही नेहमीचच. पण कर्तव्य म्हणून मला कधी कधी टोकावं लागे. जास्त जोरात विचारलं असतं,  तर म्हणाली असती,  इथे चादर पांघरूनही काम भागतं, किंवा मग आमच्या गावाकडे इतकी थंडी असते,  की त्यापुढे ही काहीच नाही. तिचं एक तत्व होतं. इथे कसं का दिसेना,  शाळेतनीट-नेटकं,  व्यवस्थित दिसलं पाहीजे.

`हे रुपये हरवल्याचं काय चक्कर आहे?’  मी मूळ विषयाकडे येत विचारलं.

अश्रूंचा महापूर पुन्हा उसळला. माझ्या सांत्वनेच्या शब्दानंतर तिने पुन्हा तीच हकिकत सांगितली. मी तिच्या निष्काळजीपणाबद्दल हळुवारपणे एक उपदेशाचा डोस तिला पाजला, पण तरीही समस्या आपल्या जागी तशीच होती. प्रश्न केवळ हरवलेल्या पैशांचाच नव्हता. पैशाची पुन्हा व्यवस्था व्हायला हवी होती. मी म्हंटलं, ’ फॉर्म भरायला अजून एक आठवडा आहे. तुझ्या भावाला पत्र लिहीलंस तर पोचेल नं?’     

तिने आपल्या मोठ्या मोठ्या डोळ्यांनी माझ्याकडे पाहीलं. `आपण इथेही शोध घेऊच या!’  तिला आश्वस्त करत मी म्हंटलं. `पण तुझ्या भावाला वेळेवारी माहीत होणं गरजेचं आहे.’

`दीदी’,  तिने थोडं थांबून म्हंटलं,  `मी परीक्षा पुढल्या वर्षी देईन, पण घरून पुन्हा पैसे मागवण्याचा विचारही करू शकत नाही.’  आणि तीपुन्हा स्फुंदून स्फुंदून रडू लागली. ही समस्या तिच्यासाठी खरोखरच मोठी असणार, अन्यथा घराच्या बाबी ती कधी जिभेवर आणत नसे. सहनशीलता हे तिचं मोठं वैशिष्ट्य होतं. त्यामुळेच ती आपल्या मैत्रिणींमध्ये प्रिय झाली होती.

या वसतीगृहात दोन जागा आदीवासी आणि अनुसूचित जाती-जमातीच्या मुलींसाठी आरक्षित होत्या. माझ्यासाठी या मुली म्हणजे डोकेदुखीच होती. बिचार्‍या एकदम वेगळ्या वातावरणतून,  वेगळ्या संस्करातून इथे आलेल्या असायच्या. या नव्या वातावरणात काहीशा विक्षिप्तासारख्या वागायच्या. कुणी आपला वेगळा ग्रूप बनवत. कुणी अ‍ॅडजेस्ट होऊ न शकल्याने भांडखोर बनत.

रामकुँवर या सगळ्यांपेक्षा वेगळी होती. ती सहावीत असताना आमच्याकडे आली. तिने लवकरच हे नवं वातावरण आपलसं केलं. तिची भाषा बदलली. रहाणी नीट-नेटकी झाली पण तिने आपली वेशभूषा बदलली नाही. आपल्या बरोबरीच्या मुलींशी कधी ईर्षाही केली नाही. आपल्या आनंदी स्वभावामुळे ती सगळ्यांची लवकरच लाडकी बनली.

   तिला खोलीत परत पाठवून मीपुन्हा या समस्येबद्दल विचार करू लागले. सगळ्यात आधी विचार आला,  तो म्हणजे खोल्या-खोल्यात जाऊन झडती घेण्याचा. परंतु तो विचार लगेचच सोडून दिला,  कारण नोटांचे नंबर काही टिपून ठेवलेले नव्हते. मग त्याच त्या,  असं कसं ओळखणार? या शिवाय झडती घेण्याचे काही दुष्परिणाम होऊ शकतात. मागच्या वर्षी राधिका त्रिवेदीचा वुलनचा बेबी सेट सापडत नव्हता. आठ दिवसानंतर शहरातून रोज शाळेत येणार्‍या तिच्या एका मैत्रिणीने तो परत केला. राधिकेने स्वत:च तो तिला दिला होता आणि ती विसरून गेली होती.

पण या गोष्टीबाबत आम्हाला अनेक पालकांच्या नाराजीच्या पत्रांशी सामना करावा लागला होता. रामकुँवरच्या खोलीत एक कलेक्टरची मुलगी होती,  तर दोघी जणी एका सुप्रसिद्ध वकिलाच्या बहिणी होत्या. त्यांच्याबाबतीत ही फारशी चिंतेची बाब नव्हती,  पण तिच्या जातीच्याच विद्यार्थिनी हे शत्रुत्व गावा-घरापर्यंत न्यायच्या.

१० -१५ रुपयांची गोष्ट असती, तर मीपण दिले असते,  पण ५०रुपये खूप मोठी रक्कम होती. माझा पगार सगळा माझा नव्हता. घरात अनेक डोळ्यांच्या जोड्या त्याची प्रतिक्षा करत.

   दुसर्‍या दिवशी मी सगळ्या नोकरांची फौज जमा करून विचारणा केली. पण सगळ्यांनी डोळ्यातून पाणी काढून आणि शपथा घेऊन अशी नाटकं  केली,  की मीच घाबरून गेले. मग मीस्वैपाकघरात सगळ्या एकत्र जमल्यावर रागावून एक भाषण दिलं. मग म्हंटलं, की चुकून किंवा चेष्टा करायची म्हणून,  किंवा दुष्ट बुद्धिने का होईना,  पण जर कुणी पैसे घेतले असतील, तर दोन दिवसातमाझ्या टेबलाव रआणून ठेवावे. याबद्दल कुणालाही काहीही कळणार नाही. माझ्यावर विश्वास नसेल,  तर गुपचुप माझ्या टेबलावर ठेवून जा. मी त्यातच समाधान मानीन. दोन दिवस मोठ्या आशेत आणि उत्कंठेत सरले. मी खोलीच्या बाहेर बाहेरच जास्त वेळ राहिले, म्हणजे चोराला पैसे ठेवण्याची संधी मिळेल. पण निराशाच पदरी पडली.

तिसर्‍या दिवशी मी प्रिन्सिपॉल मॅडमकडे गेले. त्यांचा बंगला हॉस्टेलच्या परिसरातच होता. जेव्हा माझ्यापुढे काही समस्या निर्माण होते,  तेव्हा मी त्यांच्याकडेच जाते. इतक्या मोठ्या चोरीची गोष्ट तशीही लपून राहणं शक्यच नव्हतं.

त्यांनी शांतपणे सगळं ऐकून घेतलं. मग रामकुँवरला बोलावून विचारलं की तिचं कुणाशी भांडण तर झालं नाही? किंवा कुणाला तिच्यबद्दल ईर्षा तर वाटत नाही?  पैसे ठेवताना खोलीत कोण कोण होतं,  आठवतय का?

तिने सगळ्या प्रश्नांची उत्तरे नकारात्मक दिली.  

ईर्षेबद्दल विचारलं असता ती थोडीशी हसून म्हणाली,  ‘माझ्याशी कोण ईर्षा करणार? आणि कशासाठी्?’

   ती गेल्यानंतर मॅडम म्हणाल्या, `ही चोरी आहे. विशुद्ध चोरी. पैसे परत नाही मिळणार. लिहून ठेव. आता प्रश्न असा , की पुढे काय करायला हवं?’

क्रमश: १

मूळ लेखिका – सुश्री मालती जोशी  

मराठी अनुवाद – सौ उज्ज्वला केळकर मो. ९४०३३१०१७०

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170ईमेल  – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “पोशाख” हा जणू कवच—कुंडले… ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ “पोशाख” हा जणू कवच—कुंडले… ☆ सौ राधिका भांडारकर 

माणसाचे नाव आणि माणसाचा पोशाख ही त्या व्यक्तीची पहिली ओळख असते.  केवळ पोशाखावरूनच त्याची जात, भाषा, प्रांत राष्ट्रीयत्व तसेच जीवन पद्धतीचाही अंदाज बांधता येतो.

 भारतामध्ये विविध पोशाख  परिधान केले जातात. पुरुषांचे वेगळे, स्त्रियांचे वेगळे. सदरा लेंगा किंवा धोतर आणि नऊवारी साडी म्हटलं की लगेच पारंपारिक महाराष्ट्रीयन स्त्री— पुरुष नजरेसमोर येतात. सलवार-खमीस, घागरा—ओढणी,  उलट्या पद्धतीची गुजराती साडी, दाक्षिणात्य पद्धतीचे विशिष्ट पोशाख, काठीयावाडी, राजस्थानी कितीतरी प्रकार!  अनेक रंगी, कलाकुसरींचे.   वेगवेगळ्या प्रकारचे पोशाख.पोशाख हा नुसता कपड्यांपुरताच मर्यादित नसतो, तर त्या त्या पोशाखावर साजेसे असे अलंकारही त्यानिमित्ताने घातले जातात.  आणि त्यामुळे अंगावर घातलेल्या कपड्यांची शोभा, लज्जत ही वाढते.  अशा परिपूर्ण पोशाखातील व्यक्ती ही आकर्षक, प्रसन्न भासते.  नीटनेटक्या पोशाखातल्या व्यक्तीचा सामाजिक प्रभाव हा लक्षवेधी असतो. 

कुणी कुठला पोशाख घालावा याबद्दलही आपले अगदी पूर्वापार संकेत आहेत. नेत्यांचा वेश, समाजसेवकांचे कपडे, कलाकारांचे कपडे, संगीतकाराचा पोशाख, कचेरीत काम करणाऱ्या कर्मचाऱ्यांचे वेश, क्वचित  कधीतरी ड्रेस कोड,(शर्ट,पँट,टाय किंवा पारंपारिक पोशाख),शेतकरी,गुराखी,  सणासमारंभाचे पोशाख, शाळेत जाणाऱ्या मुलांचे गणवेष हे सारे ढोबळ मनाने ठरलेलेच असतात.  आणि सर्वसाधारणपणे याच प्रकारची वेशभूषा सामाजिक स्तरावर ज्याच्या त्याच्या कुवतीप्रमाणे, परिधान केली जाते. 

पोशाख आणि वय याचाही संबंध आहेच.कुमारवय, तरुण, वृद्ध अशी विभागणी पोशाखाच्या बाबतीतही होतेच. आणि व्हायलाही हवी.  जे कपडे तरुणपणी शोभतात ते म्हातारपणी अशोभनीय वाटू शकतात.  सहजच आपण बोलतोच की “असे कपडे वापरताना जरा वयाचा तरी विचार करायचा ना? 

काहीजण मात्र बिनधास्त, बेलाशक पणे भडक, चित्रविचित्र कपडे घालण्यास मागेपुढे पहात नाहीत. वयाचा विचार करत नाहीत.  पण कधी कधी या लोकांना अशाच वेशात बघण्याची, बघणाऱ्यांना ही सवय होऊन जाते.

खरोखरच विशिष्ट पोशाखावरून माणसाची एक विशिष्ट प्रतिमाही निर्माण होत  असते. जागतिकीकरणामुळे मात्र आता “ड्रेसेस” या विषयात प्रचंड उलथापालथ झालेली आहे.        

पाश्चिमात्य कपड्यांचा दिमाख, सुटसुटीतपणाच्या नावाखाली सर्रास दिसू लागला आहे.  बदलत्या काळा नुसार, जीवनपद्धतीनुसार पोशाखातला बदलही तसा स्वीकृतच आहे.  पण त्यात केवळ अनुकरण नको.  जो वेश आपण घालू, तो तितकाच सहजपणे आपल्याला निभवताही  आला पाहिजे याचेही भान ठेवायला हवे. 

स्त्रियांमध्ये   पारंपारिक नऊवारी साडी हा आता कधीतरी हौसेने, खास प्रसंगी नेसण्याचाच प्रकार उरला आहे.  फार कशाला?.. साडीची जागा सलवार-कमीसने अगदी सहजपणे बळकावली आहे. टाॅप आणि जीन्स वरचढ झालेत.

आजकाल विनोदी ,हसवणुकीचे कार्यक्रम म्हटले की पुरुषांनी स्त्रियांच्या वेशातच पेश होणे. हे विडंबनही नकोसेच वाटते.विकृत,अतिरंजीत ,अश्लील वाटते.

पोशाखातले विविध बदल आता समाजाच्या अंगवळणी पडूच लागलेत.  त्याविषयी हरकत घेण्याचे ही काही कारण संभवत नाही.  पण गैर एका गोष्टीचं वाटतं— ज्यात केवळ परदेशी अनुकरण आहे, ते म्हणजे उद्युक्त करणारे, लांडेबांडे, तोकडे, शरीर प्रदर्शन करणारे अपुरे पोशाख!  कितीही डोळे झाक करायची म्हटली तरीही यामुळे आपल्या संस्कृतीतले काहीतरी घसरत चालल्यासारखे वाटते या पोशाखांमुळे.  “शेवटी ज्याची त्याची निवड”,” ज्याची त्याची मर्जी” किंवा “उगीच काकू बाईचा शिक्का नको बसायला”  म्हणून हट्टाने केलेला उपद्व्याप असेही असेल.  दृष्टीचा ही दोष असेल. ज्या पोशाखात, आपण एखाद्या युरोपियन स्त्रीला बघू शकतो तर भारतीय नारीला का नाही?   असा प्रश्न येऊच शकतो. कशासाठी या संस्कृतीच्या भिंती?—-

 —— पण तसं नाही. या नुसत्याच संस्कृतीच्या भिंती नाहीत, तर ती सभ्यतेची कवच कुंडले ही आहेत. 

नेहमीच दूरचे डोंगर साजरे दिसतात का?

मी अमेरिकेत असताना तिथली एक तरुणी मला म्हणाली होती,

” आंटी ! मला तुझ्यासारखी साडी नेसायला शिकवशील का? मला तुझा हा ड्रेस (साडी) फार आवडतो.  तू यात किती सुंदर दिसतेस !”

 —- नेमकं मला हेच म्हणायचे आहे. कपडे घाला कोणतेही ! पण समोरच्या व्यक्तीने अगदी सहज, मनापासून म्हटलं पाहिजे,

——–” तू किती सुंदर दिसतेस!”

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २२ – ऋचा १ ते ४ ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २२ – ऋचा १ ते ४ ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री☆

ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २२ (अनेक देवता सूक्त)

ऋषी – मेधातिथि कण्व : देवता – १ ते ४ अश्विनीकुमार; ५ ते ८ सवितृ;

९ ते १० अग्नि; ११ – देवी; १२ – इंद्राणी; १३, १४ द्यावापृथिवी;

१६ ते २१ विष्णु; : छंद – गायत्री

ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील बावीसाव्या  सूक्तात मेधातिथि कण्व या ऋषींनी अनेक देवतांना आवाहन केलेले आहे. त्यामुळे हे अनेक देवता सूक्त म्हणून ज्ञात आहे. यातील पहिल्या चार ऋचा अश्विनीकुमारांचे, पाच ते आठ या ऋचा सवितृ देवतेचे, नऊ आणि दहा ऋचा अग्नीचे आवाहन करतात. अकरावी ऋचा देवीचे, बारावी ऋचा इंद्राणीचे तर तेरा आणि चौदा या ऋचा द्यावापृथिवीचे आवाहन करतात. कण्व ऋषींनी या सूक्तातील सोळा ते एकवीस या ऋचा विष्णू देवतेच्या आवाहनासाठी रचलेल्या आहेत. 

या सदरामध्ये आपण विविध देवतांना केलेल्या आवाहनानुसार  गीत ऋग्वेद पाहूयात. आज मी आपल्यासाठी अश्विनीकुमारांना उद्देशून रचलेल्या पहिल्या चार ऋचा आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे. 

मराठी भावानुवाद 

प्रा॒त॒र्युजा॒ वि बो॑धया॒श्विना॒वेह ग॑च्छताम् अ॒स्य सोम॑स्य पी॒तये॑

प्रातःकाळी शकट जोडुनी सिद्ध होत अश्विन

जागृत करि निद्रेतुनिया त्यांच्या जवळी जाउन

झणी घेउनी यावे त्यांना अमुच्या यज्ञाला

आम्हा हो ते प्राप्त कराया अर्पण सोमरसाला ||१||

या सु॒रथा॑ र॒थीत॑मो॒भा दे॒वा दि॑वि॒स्पृशा॑ अ॒श्विना॒ ता ह॑वामहे

महारथी ते चंडप्रतापी अजिंक्य असती रणी

दिव्य रथावर आरुढ होती सहजी रणांगणी

द्युलोकाप्रत जाऊन भिडती कुमार ते अश्विनी

उभय देवतांनो झणी यावे हो अमुच्या या यज्ञी ||२||

या वां॒ कशा॒ मधु॑म॒त्यश्वि॑ना सू॒नृता॑वती तया॑ य॒ज्ञं मि॑मिक्षतम्

ऐकुनिया रव अश्विनांच्या शकट प्रतोदाचा

सोमरसाला सिद्ध करूनी तुमच्या स्वागताला

आशा जागृत होइल सत्य तत्वांचा लाभ 

तुम्हा कृपेने वाहुदेत सुखसमृद्धीचे ओघ ||३||

न॒हि वा॒मस्ति॑ दूर॒के यत्रा॒ रथे॑न॒ गच्छ॑थः अश्वि॑ना सो॒मिनो॑ गृ॒हम्

आरूढ होउनि रथावरती तुम्ही अश्विन देवा

त्वरित धावता ज्या भक्ताने केला तुमचा धावा 

भक्ताचा त्या निवास आहे जवळी सन्निध

ज्याने तुमच्यासाठी केले सोमरसाला सिद्ध ||४||

(या ऋचांचा व्हिडीओ  गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक येथे देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे. )

https://youtu.be/vYklP6fMug0

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Preview YouTube video Rugved Mandal 1 Sukta 22 Rucha 1 to 4

Rugved Mandal 1 Sukta 22 Rucha 1 to 4

© डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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